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-४१. १५. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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इंदणरिंदचंदसूराउलु
समवसरणु जिणरायहु राउलु। बहुपालिद्धय अट्ठ महाधय । पसुकोट्ठइ दक्खा लिय हय गय । धम्मचक्कु अग्गइ अवइण्ण पंगेणु सुरणररमणिहिं छण्णउं । पुण्णमणोरह जे ते णं रह मउलियकर थिय संमुह णव गह । जसु तवेण कंपइ भूमंडलु
अवसे तासु होइ भामंडलु । | छत्तई दुरियायव विणिवारई चमरई भवसीणतणतारई। जासु मोक्खं सोक्खु जि जायउं फलु सो असोउ किं वण्णमि चलँदलु । अवरु वि अरुहहु उत्तमसत्तहु आसणु सासणु तिजगपहुवहु । आयासहु णिवडइ कुसुमावलि सरु भीयउ भासइ ण सरावलि । रंजउ अलि तइ सिंथ ण मेरी णिच्छ उ सामिय आण तुहारी। दुंदुहि खणु यजंति ण थक्क लोउ धम्मु णिसुणहुं णं कोक्कइ । दिव्वें घोसें भुवणु वि सुज्झइ अप्पउं पर परलोर वि बुज्झइ । धत्ता-सिरिवजणाहु णिवु"धुरि करिवि सीलविमलजलवाहह ।।
तिहिं सहियउ सउ संतासयहं संजायउ गणणाहहं ॥१५॥
इन्द्र, नरेन्द्र, चन्द्र और सूर्यसे परिपूर्ण समवसरण जिनराजका राजकुल था। आठ महाध्वज थे और छोटे-छोटे ध्वज अनेक थे। पशुओंके कोठोंमें अश्व और गज दिखाई देते थे। आगे धर्मचक्र अवतीर्ण हुआ। प्रांगण सुरों और नरोंकी रमणियोंसे भर गया। जो-जो पूर्णरथ थे, वे किसी भी प्रकार, अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख नवग्रहके समान स्थित थे। जिसके तपसे भूमण्डल कांप उठता है; उनके लिए अवश्य भामण्डल प्राप्त होगा। दुरितोंके आतपका निवारण करनेवाले छत्र, संसारकी थकानको दूर करनेवाले चामर होंगे। जिन्हें मोक्ष और सुखका फल प्राप्त है, उनका चंचल पत्तोंवाले अशोकके रूप में क्या वर्णन करूं। और भी उत्तम सत्त्ववाले श्री अरहन्तके आसन और त्रिजगको प्रभुताके शासनका क्या वर्णन करूं? आकाशसे पुष्पोंकी अंजलि गिरती है, कामदेव डरता है, उनपर अपना तीरावलि नहीं छोड़ता। भ्रमर रोता है कि वह मेरी प्रत्यंचा नहीं है । हे स्वामी, यह निश्चय ही तुम्हारी आज्ञा है, दुन्दुभि बजते हुए थकती नहीं, लोगोंको धर्म सुनने के लिए मानो वह पुकार रही है, दिव्यघोषसे भुवन शुद्ध होता है और स्वपर तथा परलोकको समझने लगता है।
पत्ता-श्री वज्रनाथ ( वज्रनाभि ) को प्रमुख गणधर बनाकर, शीलरूपी विमल जलको वहन करनेवाले और शान्तचित्त एक सौ तीन गणधर हुए ॥१५॥
१५. १. A P रावलु । २. K प्रंगणु । ३. P सुरवररमणिहिं । ४. A ते णयरहं । ५. A P दुरियावयं ।
६. A भवरीणत्तणु; P भवझोणत्तणु । ७. A P मोक्ख सोक्खु । ८. A P वरदलु । ९. A कुसुमाउलि । १०. A P रुंजइ । ११. A घरिवि धुरि ।
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