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भूमिका
पुष्पदन्तके महापुराणकी पहली जिल्दमें, कुल एक सौ दो सन्धियोंमें-से सैंतीस सन्धियां हैं, जो १९३७ में, ग्रन्थमालाके न्यासधारियोंके सदय संरक्षणमें, माणिकचन्द ग्रन्थमाला बम्बईके ३७वें क्रमांकके रूप में प्रकाशित हुई थीं। अब मैं दूसरी जिल्द, जिसमें अगली तैतालीस सन्धियां हैं उसी ग्रन्थमालाके ग्रन्थ क्रमांक इकतालीसवेंके रूपमें प्रकाशित कर रहा है, वह भी, उक्त न्यासधारियों और बम्बई विश्वविद्यालयके संरक्षणमें । मैं सोचता हूँ कि अबसे एक साल के भीतर महापुराणको तीसरी और अन्तिम जिल्द प्रकाशित कर दी जाये।
यह मेरा सुखद कर्तव्य है कि मैं उन सबके बारे में सोचें कि जिन्होंने इस दूसरी जिल्दके प्रकाशनमें मेरी सहायता की। सबसे पहले मैं माणिकचन्द दिगम्बर ग्रन्थमालाके कार्यकारी न्यासधारी श्री ठाकुरदास भगवानदास जबेरीको धन्यवाद देना चाहँगा कि जिन्होंने ग्रन्थमालाकी धनराशि कम होते हए भी, इसके प्रकाशनमें आर्थिक सहायता दी। ग्रन्थमालाके मन्त्री, पण्डित नाथूराम प्रेमी और हीरालाल जैन, प्रोफेसर किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावतीके प्रति मैं अपनी विशेष हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है, पहली जिल्दके प्रकाशनके समय 'माला'की धनराशि लगभग समाप्त हो चुकी थी, और डर था कि शायद मुझे तीसरी जिल्दका, जो अधूरी है, काम छोड़ना पड़ेगा, परन्तु इन विद्वानोंने धन प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया, कि जो इसके प्रकाशनमें लगता। विशेषरूपसे मैं प्रोफेसर हीरालाल जैनको धन्यवाद देता है कि जिन्होंने मेरे उपयोगके लिए उत्तरपुराणकी पाण्डुलिपि (जिसे आलोचनात्मक सामग्रीमें 'ए' प्रति कहा गया है । ) और मास्टर मोतीलाल संघवी जैनके सन्मति पुस्तकालयसे, प्रभाचन्द्र के टिप्पण उपलब्ध कराये, उन्होंने कृपाकर तबतकके लिए मेरे अधिकारमें उसे दे दिया कि जबतक मैं मिलानके लिए उनका उपयोग करना चाहूँ। मैं मास्टर मोतीलालको धन्यवाद देता है उनकी इस उदारताके लिए। श्री आर. जी. मराठे, एम. ए. ने जो मेरे भूतपूर्व शिष्य और इस समय विलिंगडन कॉलेज सांगलीमें अर्द्धमागधीके प्रोफेसर हैं, इस जिल्दके मिलानकार्यमें मेरी मदद की। उन्होंने जो सहायता की, उसके लिए वे धन्यवादके पात्र हैं। न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस बम्बईके श्री देसाई और उनके प्रफरीडरोंके, इच्छासे काम करनेवाले स्टाफको मैं नहीं भूल सकता, कि जो इसकी शानदार साज-सज्जा और इसके निर्दोष प्रकाशनके लिए उत्तरदायो हैं । मुझे इस बातका उल्लेख विशेष रूपसे करना है कि इस जिल्दके अन्तमें जो ग़लतियोंकी सूची है वह उनकी उपेक्षाका परिणाम नहीं है, बल्कि वह उनका मेरी दृष्टिसे ओझल हो जानेका परिणाम है।
अन्तमें सम्पादक और प्रकाशक, विश्वविद्यालय बम्बईके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं, जिसने प्रतीक रूपमें ६५७) रु. मूलभूत सहायता की।
नार्वस वाडिय कॉलेज अगस्त: १६४०
-पी. एल. वैद्य
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