Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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संयम और साधना के प्रतीक पूज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल'
लेखक - श्री जयन्तीलाल जैन (आलीराजपुर)
जयवंता जिन शासन में उच्च कोटि की आत्माएँ हुई हैं जिन्होने स्वत्यागबल से आत्मोत्थान तो किया ही है इसी के साथ आत्म उत्कर्ष की इस परम्परा को अक्षय रुप भी दिया है। जैन समाज को सदैव पूज्य मुनि भगवंतो ने ज्ञान रुपी गंगाजल से समाज को प्रगति की ओर अभिमुख किया है। मेरी कल्पना में अगर यह श्रमण परंपरा नहीं होती तो महावीर का यह धर्म जीवंत नही रह सकता था। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ महावीर के परिनिर्वाण के बाद इस त्याग प्रधान परम्परा को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अनेक बलिदानो की गौरव गाथा आजभी हमें गौरवान्वित करती है।
श्री सुधर्मास्वामी से चली इस परम्परा का इतिहास अनोखा है। अनेक युग प्रधान पुरुष हुए हैं। जिन्होंने ज्ञानबल और यौगिक आत्म शक्तिओं से समय-समय पर श्रमण धर्म परम्परा को पुनीत किया है। इस श्रृंखला का विराम कभी नहीं होता है। क्योंकि कालचक्र का स्वभाव सदा से उत्थान और पतन की भूमिका अदा करता आया है।
बीसवी शताब्धी के महान् युग प्रवर्तक परम योगीन्द्राचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सौधर्मबृहत् तपोगच्छीय परम्परा में एक देदीप्यमान युगपुरुष हुए हैं जिन्होंने स्वआत्म प्रकाश से श्रमण धर्म के शिथिलाचार रुपी अध: पतन को दूर किया है। साथ ही श्री श्रमण भगवन्त महावीर की शुद्ध परम्परा में श्रमण संघीय आचार मर्यादा का शुद्ध रुप से प्रतिपादन किया। क्रांति का यह शंखनाद युगो युगों तक आचार मर्यादा के प्रति योगदान देता रहेगा।
इस पुनीत परम्परा मे २०१२ आषाढ़ शुक्ला ११ को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में प.पू. व्याख्यान वाचस्पति श्रीमद्विजयतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों द्वारा श्री अमोलकचन्द ने दीक्षा ग्रहण की वं मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी के नाम से घोषित हुए।
पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जन्म आलीराजपुर नगर में श्रेष्ठीवर्य श्री रतिचन्दजी पोरवाल की धर्मपत्नि श्रीमती धनीबाई की रत्नकुक्षी से वि.सं. १९९३ चैत्र शुक्ला ११ को हुआ था। १७ वर्ष की अल्पायु में ही वैराग्य भावनाओं से इतने रंग गये थे कि संसार त्याग ही एक मात्र विकल्प था।
व्याख्यान वाचस्पति गुरुदेव श्री के पावन सानिध्यता में रहकर ज्ञान उपासना में एकाकार हो गये। ५ वर्षों तक गुरुसानिध्यता में रहकर बौद्धिक प्रतिभा से संस्कृत, व्याकरण और जैन दर्शन का गहरा अध्ययन किया। पूज्य गुरुवर के महाप्रयाण के पश्चात् अनेक चातुर्मास समवयस्क गुरु भ्राताओं के साथ किये। जब वे गीतार्थ बन गये तो स्वतंत्र रुप से विचरण कर प्रथम चातुर्मास भी आलीराजपुर में किया। अपनी ओजस्वी वाणी से ज्ञान गंगा के प्रवाह से अतृप्त श्रावकों को ज्ञानामृत से तृप्त किया।
वि.सं. २०३० ज्येष्ठ कृष्णा ६ को मुनिश्री लेखेन्द्रविजय म. को शिष्यरुप दीक्षा प्रदान की। इसी क्रम में २०३४ में मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी को दीक्षित किया।
पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व का रहा है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में अनेक उल्लेखनीय चातुर्मास एवं धार्मिक आयोजनों में संघ प्रयाण, प्रतिष्ठा, जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव, धर्म प्रचार श्री यतीन्द्रसूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर की स्थापना आदि ऐसे अनेक
मानवता के विकास से हो देवत्व, साधुत्व, आचार्यत्व, सिद्धत्व का सृजन-विकास हो सकता है।
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