Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
View full book text
________________
अनेकान्ताउप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्ताउर्पितान्नयात्॥ प्रमाण और नय हैं साधन जिसके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरुप है, क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त स्वरुप एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरुप सिद्ध
जैन दर्शन के अनुसार एकान्त भी दो प्रकार का होता है और अनेकान्त भी दो प्रकार का यथा सम्यक एकान्त और मिथ्या एकान्त, सम्यक अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है तथा सापेक्ष नयों का समूह अर्थात श्रुतप्रमाण सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्ष नयों का समूह अर्थात प्रमाणाभास मिथ्या अनेकान्त है। कहा भी है:
जं वत्थु अणेयन्तं, एयंतं तं पि हो दि सविपेक्खं।
सुयणा ण णएहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥ जो वस्त अनेकान्त रुप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रुप भी है। श्रतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्त रुप है और नयों की अपेक्षा एकान्त रुप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का रुप नहीं देखा जा सकता है।
अनेकान्त मे अनेकान्त की सिद्धि करते हए अकलंकदेव लिखते है :
"यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव की तरह, तत्समुदाय रुप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। अत: यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जावे तो फिर अविनाभावी इतर धर्मो का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।"
सम्यगेकान्त नय है और सम्यगेनकान्त प्रमाण। अनेकान्तवाद सर्वनयात्मक है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बन जाता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्यावाद रुपी सूत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय शृत प्रमाण कहे जाते है।
परमागम के बीज स्वरुप अनेकान्त में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकान्तों) को विलास है, उसमें एकान्तों के विरोध को समाप्त करने की सार्थय है, क्योंकि विरोध वस्तु में नहीं, अज्ञान में है। जैसे- एक हाथी को अनेक जन्मान्ध व्यक्ति छूकर जानने का यत्न करें और जिसके अनेक हाथ में हाथी का पेर आ जाय वह हाथी को खम्भे के समान, पेट पर हाथ फेरने वाला दीवाल के समान, कान पकडने वाला सूप के समान, और सूंडपकडनेवाला केले के स्तम्भ के समान कहे तो वह सम्पूर्ण हाथी के बारे में सही नहीं होगा। क्योंकि देखा है अंश और कहा गया सर्वांस को।
यदि अंश देखकर अंश का ही कथन करें तो गलत नहीं होगा। जैसे-यदि यह कहा जाय कि हाथी का पैर खम्भे के समान है, कान सूप के समान हैं, पेट दीवाल के समान है तो कोई असत्य नहीं, क्योंकि यह कथन सापेक्ष है और सापेक्ष नय सत्य होते हैं, अकेला पैर हाथी नहीं है, अकेला पेट भी हाथी नहीं है, इसी प्रकार कोई भी अकेला अंग अंगी को व्यक्त नहीं कर सकता है। "स्यात्" पद के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ जो कथन किया जा रहा है, वह अंश के सम्बन्ध में है, पूर्ण वस्तु के सम्बन्ध में नहीं। हाथी और हाथी के अंगों के
इच्छा को, आशा को अवसान जब हो जाता है जीवन निस्तेज, और निराश और निराश और निष्प्राण हो जाता है।
२२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org