Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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के लिये निवारण जिसकी पुनरावृत्ति नहीं हो सके यही मुक्ति, अपवर्ग या पुरुषार्थ है।
वेदान्त कहता है- "अहं ब्रहतास्मि" इससे जीव और ब्रह्म का मिथ्या भेद हट जाता है तब बन्धन कटकर मोक्ष का साक्षात अनुभव होता है। इसके सिद्धान्त में विशेषता यह है कि मोक्ष के बाद भी शरीर रह सकता है क्योंकि यह प्रारब्ध कर्मों का फल है परन्तु मुकात्मा पुनः कभी अपने को वह शरीर नहीं समझता। संसार के मिथ्या प्रपंच में वह फिर ठगा नहीं जाता। शंकरका परवर्ती वेदान्त साहित्य में 'जीवन मुक्ति के नाम से विख्यात है भारतीय दर्शन की समानता में यह भी है कि तत्त्वज्ञान के अभाव में बन्धन और दुःख होता है। आत्माका तत्व ज्ञान हो जाने पर मुक्ति या सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिये निदिध्यासन और आत्म संयम की आवश्यकता बतलाई है।
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अब हम जैन दर्शन की मान्यता की और ध्यान देते है। इन का कहना है कि जीव और पुद्गल के संजोग को बन्धन कहते है और इनका वियोग होता हि मोक्ष है। पुद्गल का वियोग तब ही होता है जब नये पुद्गल का आस्रव बन्द हो और जो जीव में पहले से ही प्रवीष्ट है वह जीर्ण हो जाय। पहले को संवर और दूसरे को निर्जर कहा है जीव में पुद्गल का आस्रव जीव के अन्तर्निहित कषायों के कारण होता है। इन कषायों का कारण अज्ञान है। अज्ञान का नाश, ज्ञान की प्राप्ति से हो सकता है। इसके लिये सम्यग्ज्ञान या तत्त्वज्ञान का अधिक महत्व है। जो पूर्णज्ञान तीर्थंकरो या अन्यमुक्त महात्माओं के उपदेश के मनन से होता है। इनके उपदेश इसलिये लाभदायक होते है कि वे स्वयं मोक्ष पाकर उपदेश देते है। त्रिरत्न का महत्व समझना आवश्यक है तत्वार्थोधिगम सूत्रमें ही उमास्वामी ने कहा है "सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्राणी मोक्ष मार्ग; ।" जैन दर्शन में यह विशेषता है कि सम्यग्ज्ञान का होना है। परन्तु तीर्थंकरों के उपदेश का आंख मूंद कर मान है- जैन दर्शन युक्ति हीन नहीं वरं युक्तिप्रधान है। उनका कहना है कि न मेरा महावीर के प्रति कोई पक्ष पात है और न कपिल या अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष में युक्ति संगत वचन को मानता हूं। नये कर्मों को रोकने व पुराने कर्मों को नष्ट करने के लिये जैन में पंचमहाव्रत के पालन का विधान है। सतर्कता (संयम ) का अवलम्बन, मनवचन तथा कर्म में गुप्ति या संयम का अभ्यास, दसप्रकार के (क्षमा, मार्दक, आर्जष, सत्य, शौच, सयंम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्राह्मचर्य) धर्मोका आचरण जीव और संसार के यथार्थ तत्व के सम्बन्ध में भावना रखनी चाहिये। जीव और संसार के यथार्थ तत्व के सम्बन्ध में भावना रखनी चाहिये। भूख प्यास शीत उष्ण के कष्ट या उद्वेग को सहना समता, निर्मलता, निर्लोभिता और सचारित्रता प्राप्त करनी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि का पालन से नये कर्म से मुक्त होना है। जीव और पुद्गल का संयोग छूट जाता है।
अर्थ - यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा लेना नहीं है। मणिभद्र कहते
निष्कर्ष के रूप में त्रिरत्न व पंच महाव्रत और जो सनातन धर्म व हिन्दु दर्शन में धर्म के निम्न लक्षण है
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सत्यं दानं तथा शौचं सन्तोषो ही क्षमारजयम् ।
ज्ञानं शमो दया ध्यानं, मेषां धर्म सनातनः ॥
विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है।
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