Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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लेकर मन्दिरों में जाती थी।५ दासों की नियुक्ति कभी-कभी अंगरक्षकों के रूप में भी होती थी तथा सेवा शुश्रूषा करने के लिए दासियों की नियुक्ति अंगपरिचारिका के रुप में होती थी। इस प्रकार की दासी को आभ्यान्तर दासी कहा जाता था। ये अपने मालकिन के चिन्तित होने पर उसका कारण खोजती, तत्पश्चात् स्वामी से उसका निवेदन कर निराकरण हेतु प्रार्थना करती थी।६ दास-दासियाँ कभी-कभी सन्देशवाहक अथवा दूत के रुप में भी प्रयुक्त किये जाते थे और अपने स्वामी के गोपनीय कार्यों का सम्पादन करते थे। अत: इन्हें प्रेष्य कहा जाता था।२७ दास-दासियों के विशिष्ट कार्य- कतिपय दासियाँ राजकन्याओं के साथ स्वयंवर में भी जाती थीं। उनमें कुछ दासियाँ लिखने का कार्य करती थीं२८ तथा कुदेख दर्पण लेकर उपस्थित जनसमूह के प्रतिबिम्ब को दिखलाकर तत्सम्बन्धित गुण-दोष का बरवान करती थी। इसके अतिरिक्त उस काल में रूप एवं सौन्दर्य सम्पन्न दासियों (तरुणी दासी) की उपस्थिति स्वामी पुत्रों के अति निकट रहती थी। दासों का जीवन- यद्यपि भगवान् महावीर के अहिंसा महाव्रत के समर्थक एवं बहुसंख्यक सहृदय दासपति, दासों को अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ नियुक्त कर उनका सम्यक् पालन-पोषण कर उदारता का प्रदर्शन करते थे तथा उन्हें 'देवानुप्रिय' जैसे शब्दों से सम्बोधित करते थे। उपासकदशांगसूत्र में अहिंसाव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत दासों को बांधने, जान से मारने, बहुत अधिक बोझ लादने तथा अत्यधिक श्रम लेने जैसे अनाचारों को भी सम्मिलित किया गया है।३० लेकिन कभी-कभी दासों द्वारा विवेकहीन कर्मों का निष्पादन करने पर स्वामी द्वारा इन्हें प्रताड़ित किया जाता था।३१ कतिपय क्रूर दासपतियों द्वारा दासों को अकारण ही प्रताडित किया जाता था तथा उनको सामर्थ्य से परे कार्यों में लगाकर पीडा पहुचाई जाती थी।३२ जनसामान्य अपनी आवश्यकतानुसार परिवार में दासों की नियुक्ति करते थे तथा उनके भरण-पोषण का ध्यान भी रखते थे। इस सबके बाव-जूद दासों की गणना भोग्य वस्तुओं३ में करके उनकी स्वतंत्रता को बाधित कर दिया जाता था। जैनागमों के काल में दास-दासियों का क्रय-विक्रय, उपहार एवं पारिश्रमिक के रूप में दिया जाना तथा उन्हें प्रताडित करना एवं जीवनपर्यन्त पराधीनता अदि तथ्य उनकी शोचनीय सामाजार्थिक स्थिति की ओर बरबस ध्यान आकृष्ट कराते है। दासपन से मुक्ति- जैन ग्रन्थों में कुछ ऐसे भी सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जहाँ दासों द्वारा दिये गये शुभसन्देश से खुश होकर दासपति उन्हें दासवृत्ति से मुक्ति प्रदान कर देते थे। ऐसी स्थिति में दास-दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गंधो, मालाओं और आभूषणों से सत्कार-सम्मान करके इस तरह की आजीविका की व्यवस्था कर दी जाती थी कि जो उनके पुत्र-पौत्रादि तक चलती रहे|३४ दासों को मुक्त करते समय उनका मस्तकधोत३५ (मस्तक धोना) करना दासता से मुक्ति का प्राथमिक एवं महत्त्व पूर्ण लक्षण माना जाता था। इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति जो दुर्भिक्ष अथवा अन्य अवसर पर महाजनों से ऋण लेता था तथा समय पर ऋण न देने पर दासत्व स्वीकार करता था। ऐसी स्थिति में उस ऋणी व्यक्ति द्वारा साहूकार का कर्ज चुकता कर देने पर दासपन से मुक्ति सम्भव थी।३६ सामान्यतया दासों को जीवनपर्यन्त स्वतन्त्र होने का आधिकार एवं अवसर बहुत कम था। सामान्यत: दासपति अपने यहाँ नियुक्त दासों का पालन-पोषण पारिवारिक सदस्य की तरह करते थे। २५. अन्तकृतदशासूत्र ३/२-६, ज्ञाताधर्मकथा १/१/४९, २६. ज्ञाताधर्मकथा, १/२/४३, २७. वही, १/१६/१२२, २८. वही, १/१/१४७-४८ तथा देखिए बुद्धकालीन समाज और धर्म, पृ. ३१-३२, २९. उपासकदशासूत्र, अ. १, सू. ४५, ३०. ज्ञाताधर्मकथासूत्र १/१८/८, ३१. आवश्यकचूर्णि पृ. ३३२, देखिए, जे.सी. जैन, पृ. १६१, ३२. अन्तकृतदशासूत्र, ३/२-६, ३३. वही, ८/१५, ३४. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/१/८९, ३५. व्यवहारभाष्य ४/२, २०६-७, ३६. देखिए, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. १५८-५९
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मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है।
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