Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ මරපටයට JABO00000BUDAI कोकण कशरी, रखेन्द्रशवरावजय Aloor एज्य मुनिराजश्री आनन् -: दिशा निर्देश :परम पूज्य मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी -: प्रधान संपादिका :साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी -: संपादिका:साध्वी श्री तरुणप्रभाश्रीजी Oiodore OOONOLORO DOHOFORO QUOHORO.60 HOIPuyo Jalnachallod Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oया 2.00 GIMIRION ISUNNAP 226R ANTRATTA नमो मरिहता नमो सिध्दाएं. नमो मायरियाग नमो उवज्झायाण नमोलाए सव्वसाहरा एसो पंच नमुक्कारी सब पाबपाएगासएगा मगलाएगच सब्बास पठम हबईमगलम. For Private & Personal use only www.jaincbrary.crg Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ለለለለው ልብለለለለ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः 5 श्री शंखेवर पार्षनाथाय नमः कलिकाल कल्पतरु प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि गुरुभ्यो नम: श्री लक्ष्मण गुरुदेवाय नम: "कोंकण केशरी" प.पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. PAGES 2269 அசுவென : दिशा निर्देश : प.पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. : प्रधान संपादिका : श्रमणीवर्या साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म.सा. संपादिका :साध्वी श्री तरुणप्रभाश्रीजी VUVW : प्रकाशक : श्री यतीन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन मंदिर ट्रस्ट AAWY आलीराजपुर (म.प्र.) ATION WAVE KARAN VAAVAVAVIN - भौतिक विद्या, भौतिक, ज्ञान-विज्ञान, भौतिक लिप्सा, यह महान राक्षसी माया है, यह अपने निर्माताओं को नष्ट करती ही १ है, अपने भक्तों को अपने उपासकों को भी चिरंतन दुःख प्रदान करती हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAI शुभाशिर्वाद प. पूज्य गच्छाधिपति वर्तमान् आचार्य देवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. प. पूज्य "कोंकण केशरी" मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी 'शार्दूल' म.सा. अमिहान्दा ग्रन्थ -:दिशा निर्देशक :पूज्य मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी 'मार्तण्ड' म.सा. -: प्रधान संपादिका :- संपादक मण्डल प्रबन्ध संपादक साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी म.सा. साध्वी तरुणप्रभा श्री चन्दनमल बी. मुथा पुखराज एस. जैन रमेश निर्मल UILE प्रकाशक श्री यतीन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन मंदिर आलीराजपूर (झाबुआ) म.प्र. मद्रक: जयंत प्रिन्टरी, ३५२/५४, मुरलीधर मंदीर कम्पाउन्ड, गिरगांव रोड, बम्बई - ४०० ००२. फोन : २५२९८२, २९९१९३. वीर निर्वाण सं. राजेन्द्र सं. विक्रम सं. २५१७ २०४७ वीर SANDERS (१) कांति बिल्डर्स २८/२ निलु मेन्शन एस.वी. रोड, ज्वाहर नगर गोरेगाँव - वेस्ट, बम्बई-६२. -: प्राप्ति स्थान : (२) श्री यतीन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन मंदिर श्री जयन्तीलालजी रतिचन्दजी जैन महात्मा गांधी मार्ग आलीराजपुर (म.प्र.) ALO (३) मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ (४) शाह एस. भरतकुमार गुरु लक्ष्मण धाम, न्यु झुंझाराराव मार्केट, स्टे. रोड, मु.पो. भागली (जालोर) राज. पो. कल्याण (ठाणा) महा. (५) श्री पार्थपद्मावती शक्ति पीठ पो. शंखेश्वर तीर्थ (महेसाणा) गुज. AnA SOLDIE COUNTRY २ मानव-पकार के नाम पर यदि विनाशक सामग्री का सृजन हो तो उस समाग्री एवं उसके उत्पादों को नष्ट किये बिना मानव कभी भी सुखपूर्वक सो नही सकता। Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने अपनी तप पुत: साधना, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक् आराधना, ध्यान और योग के पावन सोपान से 2268 करुणा सेवा ममता आदि मानवीय आदर्शों के अंगीकरण द्वारा इस विश्व के आत्मोत्थान के लिए जीवन के बहुमूल्य क्षण एवं मन के अणु अणु को ज्ञानोदय, धर्मोत्थान एवं जन जागरण के लिए समर्पित किया है। जो भारत के अधिकांश क्षेत्रों में पाद विहार कर सामाजिक शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दिशा में उत्थान हेतु उत्तरोत्तर गतिशील हैं। जो सदैव लौकिक लौकेषणा, मान-सम्मान एवं प्रशंसा से, निर्लिप्त रहे हैं। कर्म ही जिनकी पूजा है, सेवा ही जिनकी सुवास है, धर्म ही जिनका आचरण है और चारित्र एवं दर्शन ही जिनके वस्त्र हैं। ऐसे साहित्यकार, सर्जनहार एवं रचयिता "कोंकण केशरी" परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी को अन्तरंग भावों से अभिनन्दन । जिनकी पावन सानिध्यता, अप्रतिम वात्सल्य एवं स्नेह की छत्र छाया में, मैं धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की ओर, रत्नत्रयी का आराधक बनकर अग्रसित हो रहा हूँ। मुझे बाल्यकाल से ही आपका सतत् सानिध्य एवं मार्गदर्शन मिलता रहा है। ऐसे धर्म पुरुष के पावन चरणों में उनके ही कृतित्व को समर्पित करते हुए मैं आत्मतोष अनुभव कर रहा हुँ । मुनि लोकेन्द्रविजय " मार्तण्ड" *xwwwwim 福 जहाँ वितण्डावाद है, पूर्वाग्रह है, विद्वेष है और जहाँ मात्र मोह हो मोह है वहाँ धर्म के प्रति चाहे जितनी ललक दिखाई ३ पडे किंतु विशुद्ध धर्मज्ञान नही होता। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ እልልልልል እልልልልልልል संपादकीय परिवर्तन सृष्टि का सहज नियम है। यह नियम अटल, अचल, अप्रतिम और अपूर्व है। अपूर्व और अप्रतिम इस अर्थ में कि सृष्टि का हर परिवर्तन चिरनवीन होता है जो हमने देखा-समझा। वह हमारा जीवन्त अनुभव है। वह भी चिर नवीन होता है। "कागज की लिखी नही आखिन देखी बात।" वास्तव में हमारा प्रत्येक मौलिक अनुभव भी सृष्टि के सहज नियम के समान अपूर्व और अप्रतिम होता है। अनुभव और परिवर्तन दोनो इस घरातल पर एक समान है। अनुभव और परिवर्तन की अपूर्वता से उसकें अद्वितिय गुणधर्म से स्थिति मनोनुकूल बनती है। और मनोनुकूल स्थिरता से सुखशांति मिलती है। चंचल मनोवृति मानव सुखद आनन्दमयी स्थिति को व्यक्तिगत कारणों से स्वार्थवश दुखद और त्रासद वातावरण में परिवर्तित कर देता है। निहित स्वार्थ व्यक्ति परिस्थिति जन्य घटनाओं के माध्यम से समाज और राष्ट्र में अस्थिरता का वातावरण निर्मित कर जन समाज को दुख और संताप के गहरे समुद्र में हुबो देने की चेष्ठा करते है। अस्थिर मन:स्थिति में मनुष्य प्रायः घटनाओ और परिस्थितियों का दास बनता चला जाता है। बन्धनहीन जन्मा जीव परिस्थितियों के बन्धन में बंध कर अपनी इयता खो बैठता है। उसका अपनापन, उसका स्वाभिमान, उसकी आत्मनिर्भरता-इस सबकी हानि होती है। बंधनो में जकड़ी मानवता करुण स्वर में दया पुकार करती है। उसकी गुहार सुनकर पवित्र आत्माओं का बारंबार आविर्भाव होता है। उनका पावन जन्म यो तो घटना मात्र है। परन्तु सृष्टी के सहज नियम का परिपालन भी है। समाज, राष्ट्र और मानवता को दुष्प्रवृतियों के घातक प्रहार से बचाने के लिए पवित्र आत्माओं का आगमन सदा शुभ सुचक और सुखदायक होता है। इस आविर्भाव परम्परा में श्री आदिनाथ भगवान की परम्परा सर्वत्र अवाणी रही है। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महाश्रमण भगवान श्री आदिनाथजी की परम्परा अति प्राचिन है। वैदिक काल ने जब आँखे भी नहीं खोली थी। राम, कृष्ण, गौतम, महावीर आदि पावन सद्धर्मोद्धारक युग पुरुष आत्माओ के आविर्भाव से पूर्व भगवान श्री आदिनाथ जी की परम्परा का अस्तित्व था। प्रवृति के बन्धन से मुक्त कर मानव को निवृत मार्ग पर अग्रसर करनेवाली यह परम्परा अक्षय है, अक्षुण्ण है। सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में क्या.... कलियुग में भी इस परम्परा की अक्षरता - अक्षुण्णता बनी रही है और बनी रहेगी। वर्तमान युग में यह परम्परा भारत में भले ही अपने विकसित विराट रूप में. ओझल सी लगती है। परन्तु पंथ विशेष में वह आज भी विद्यमान है। आज भी भारतीय मानवमन प्रवृति मार्ग छोड कर निवृति के मार्ग पर असर होता है। तो वह ऐसे ही संस्कार जन्य पूत पावन आत्मावतरण से, इनके उपदेश वचनामृत से। anOS W VAJAVIN स्वत: के अन्तःकरण को शुद्ध-स्वच्छ कर बर, द्रोह क्रोधादि शत्रुओं पर जय करना, सत्य मार्ग की साधना में डूबे रहना ही साधुत्व है। मंदिर, मठ, उपाश्रय, संस्था में यह सौरभ नही। Jain Education Interational . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 NO RIGGS! निवृति परम्परा प्रवृति परम्परा का विरोधि ही है। प्रवृत्ति व्यक्ति को उन सब मार्गों पर चलने को प्रेरित करती है, जिससे मनुष्य अन्यान्य कर्म बन्ध में बन्धता चला जाता है। किन्तु निवृति व्यक्ति को कर्म बंध से मुक्त करने वाले मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करती है निवृति परम्परा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथजी के समय से प्रारंभ होकर अबाध गति से प्रवाहित है। यह परम्परा (निवृति परम्परा प्रकारान्तर से जैन परम्परा) व्यक्ति को सांसारिक एवं भौतिक सुख सुविधाओं को त्याग कर, पंच महाव्रतधारी, त्यागी, श्रमण बनने हेतु प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से व्यक्ति भौतिक सुख सुविधाओं के प्रलोभनों से मुक्त होकर, 'स्व' एवं 'पर' कल्याण की कामना से अपना जीवन जिन धर्म को समर्पित कर देता है। वह "जैन श्रमण" बनता है। उसका जीवन त्यागमय तपः पूत दिनचर्या से पवित्र होता है। जैन श्रमण परम्परा को अग्रसर करना उसे अक्षुण्ण बनाये रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है। सात्विक सत्य शोधक जैन श्रमण परम्परा में जैन मुनि भगवन्त को मिलते सम्मान और आदर को देख उत्सवधर्मी व्यक्ति उत्साहित होकर, तपः पूत श्रमण धर्म को अपना तो लेता है, स्वीकार तो कर लेता है। परन्तु उसका सम्यनिर्वाह पूत पावन दृष्टि से, हंस दृष्टि से, कर पाना अत्यन्त कठिन होता है जब किन्ही कारणों से उसके पालन में विसंगतिया पैदा होती है तब पावन परंपरा अपमानित होती है। आदर सम्मान के स्थान पर विरक्ति सी उत्पन्न होती है। परन्तु यह स्थिति वदा-कदा ही पैदा होती है। ऐसी स्थिति में तर्क-वितर्क होते है, वाद विवाद होते है। अन्ततः फिर तत्वबोध होता है और मुनिधर्म पालन की परंपरा आगे और अग्रसर होती है। सौधर्म बृहत् तपागच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा में युग प्रवर्तक परम योगीन्द्राचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. हुए है जिन्होंने एक ऐसे समय में क्रांति का शंखनाद किया है जब श्रमण धर्म की मर्यादाओं से विमुख होकर बाह्य प्रवृतियों में लिप्त हो गये ऐसें तात्कालिन शिथिलाचार को दूर कर सुविशुध्द आचार मर्यादाओं के प्रति दिकूदर्शन करवाया क्रांति का शंखनाद ऐसे समय में हुआ, जब श्रमण धर्म की मर्यादाएं शिथिलाचारियों के तिलांजली दे दी थी भारत की श्रद्धालु जनता को अंधविश्वास में लेकर अपने तथाकथित मनोरथ पूर्ण कर रहे थे। ऐसे विषम समय में पूज्य दादा गुरुदेवने जावरा की पावन भूमि पर क्रियोध्दार करके शुद्ध श्रमण धर्म का पुनः प्रतिपादन किया। इसी अक्षुण्ण परंपरा में अनेक विरल विभूतियाँ हुई है। जिन्होंने दर्शन ज्ञान और चारित्र की विशुद्ध आराधना व तप पुतः साधना से भारतीय जनता को सम्यक् पथ का राही बनाया एवं जैन समाज को वीतराग प्रभु का आदर्श देकर विकसित किया। समय की गति के साथ ही इस यशस्वी परंपरा की श्रृंखला 阿 LEBOIS ON श्री जिनेश्वर प्रभु की सौम्य प्रतिमा के दर्शन से मन की सारी विफलता, समग्र चिंता विलीन हो जाती है वीतराग प्रभु ५ के दर्शन से अंतर में होता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ६ मैं चर्चा चक्रवर्ती श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., साहित्य भूषण श्रीमद्विजय भुपेन्द्रसुरीश्वरजी म.सा. हुए है। इसी परम्परा को सब से अधिक योगदान चतुर्थ पट्टधर श्री व्याख्यान वाचस्पति श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का रहा है जिन्होंने इस समाज की नींव को मजबुत किया है। साथ ही उन्होने अन्तेवासी शिष्यों को विद्वान बनाकर इस परंपरा को जीवित रखा है। । आपके शिष्यरत्न पंचम पट्टधर कविहृदय श्रीमद्विजय वियाचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने इस समाज के चहुंमुखी विकास में योगदान दिया है। समाज को उन्नत व प्रगति के पथ पर गतिमान किया है। पूज्य आचार्यदेव श्री के महाप्रयाण होते ही श्रमण संघ और समाज विकट स्थिति में आ गया था परन्तु संवत् २०४० माघ शुक्ला ९ को तात्कालिन पूज्य श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. को श्रमण संघीय आचार मर्यादा के निर्णय को सर्व मान्य कर गच्छाधिपति के रूप में पूज्य आचार्यदेव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को गुरु पाट गादी नगर आहोर में आचार्यपद प्रदान किया। आज वे अपनी तप पुत: साधना के आलोक से अज्ञान अंधकार को नष्ट कर सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं। यशस्वी आचार्य परम्परा के साथ ही पूजनीय श्रमण भगवन्तों का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है। प. पूज्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अंतिम शिष्यरत्न आगम दिवाकर संस्कृत साहित्यरत्न पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी म.सी. "शीतल" विलक्षण प्रतिभा के धनी एवं यशस्वी श्रमण सूर्य के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। उन्होने त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम दक्षिण भारत की धर्म यात्रा अपने दो योग्य शिष्यों-मुनिश्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी म एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म. को साथ लेकर वि.सं. २०३५ से २०३९ तक चार वर्षो में उन्होने दक्षिण भारत में अनेक शहर, नगर और गावों में अपने गुरुगच्छ की कीर्ति पताका लहराई। दीक्षा पर्याय के ३० वर्षों तक वे इस समाज की निरन्तर निष्काम सेवा प्रदान करते रहे है। त्रिस्तुतिक श्रमण परम्परा में उनकी जिनशासन सेवा एक कीर्तिमान है। यह भी एक गौरव पूर्ण कीर्तिमान है कि आज उनकी पुण्य स्मृति में राजस्थान के जालोर जिलान्तर्गत भागली प्याऊ पर भी मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन महातीर्थ गुरुलक्ष्मण धाम एवं महान् अतिशयवंत तीर्थ श्री शंखेश्वर में श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ, गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र के नाम से स्थापित किये गये है जो इस परम्परा में गुरु स्मृति के रूप में प्रथम एवं सराहनीय कदम है। पूज्य शीतलजी म.सा. के सद्प्रयत्नों से अपने सुविनीत शिष्य द्वय को ज्ञान-ध्यान और साधना द्वारा सर्वांगीण विकसित किया है। वि.सं. २०४१ से अस्खलित रूप से, तेजस्वी कार्य शक्ति से समाज में अन्वरत धर्म की प्रभावना कर रहे है। उनकी यह देन चिरकाल तक चिरस्मरणिय रहेगी। प. पूज्य परमश्रध्देय पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. ने इस समाज 福 MOR सत्य सदैव सत्य ही रहता हैं। कर्म के आवरण से सत्य धुंधला जाता है किंतु जैसे ही आवरण दूर होता है सत्य सूर्य से अधिक तेजोदीत हो उठता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 लाल के दशकवेडा तीर्थ की पावन भूल PWINNN SRO को दो विद्वान शिष्य दिये है। मुनिश्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी और मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी जो बाल्यकाल से ही गुरुगच्छ की सेवा के लिए समर्पित है। मोहनखेडा तीर्थ की पावन भूमि पर वि.सं. २०४५ को चातुर्मास काल के दौरान कोंकण क्षेत्र से इन्दापुर श्री संघने, गुरु जयन्ती हेतु भाव भरी प्रार्थना दोनों मुनिवरों को की। पूज्य आचार्य देवेश ने क्षेत्र स्पर्शना से विशेष जिन-शासन प्रभावना की संभावना को देखते हुए आज्ञा प्रदान की। त्रिस्तुतिक संघ में मुनियों की कोंकण क्षेत्र में यह प्रथम धर्म यात्रा थी। दो वर्षों तक निरन्तर विचरण करते हुए मुनिवरों ने कोंकण क्षेत्र में अद्भुत धर्म जागृति की एवं नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व महान है। आप विद्वान है किन्तु अभिमान रहित सरल प्रकृति के है। आप ओजस्वी वक्ता है। किन्तु शब्दों के आडम्बर वाले नहीं है, बल्कि सारयुक्त प्रभावशाली वक्ता है। आप लेखक, वक्ता, प्रवचनकार, शास्त्रज्ञ, साधनाशील व्यक्तित्व के धनी है। और इसके साथ ही अपने गुरुजनों के प्रति अत्यन्त विनयी, छोटो के प्रति वात्सल्य पूर्ण हृदय एवं दीन दुखियों के प्रति गहरी करुणा है। धर्म प्रचार की दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं को प्रोत्साहित किया है। जैन समाज को समन्वय का संदेश देकर संगठन के सूत्र को सुदृढ़ किया। एवं धार्मिक वात्सल्य भावना से श्री पार्श्वपद्मावती साधर्मिक फाउन्डेशन की स्थापना की है। आपके संपर्क में आने वाले प्रत्येक भाई बहन आपके बहुआयामी एवं बहुमुखी प्रतिभा से सहज ही प्रभावित हो जाते हैं। आपके आत्मीय सहज गुणों का ही यह अभिनन्दन वान्थ है। विगत दो वर्षों से समस्त कोंकण क्षेत्र में धर्मउद्योत किया है। मोहने, नेरल, मोहोपाडा, कामाठीपुरा, बोरीवली, कर्जत आदि नगरों में जिन बिम्ब एवं गुरु बिम्बों की ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के कार्यक्रम करवाये। कोंकण के विभिन्न गावों में जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव, श्री पार्श्वपद्मावती महापूजनों के विराट आयोजनों से परमात्म भक्ति का अलख जगाया। कल्याण एवं गोरेगाँव में ऐतिहासिक उल्लेखनीय चातुर्मास किये। आप श्री के चरण ने जिस क्षेत्र को पावन किया वह क्षेत्र धर्म के रंग में रंग गया। आपके अभूतपूर्व कर्तृत्व से महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र एवं कोंकण क्षेत्र श्रध्दान्वित हो गया। आपकी इस अनोखी एवं अविस्मरणिय जिनशासन प्रभावना के प्रति श्रदा भक्ति और कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए समस्त कोंकण प्रदेश के अनेकानेक श्री संघो ने मिलकर प्रान्तीय स्तर पर प्रात: स्मणिय दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. के गुरु पर्वोत्सव पर वि.सं. २०४७ पोष शुक्ला ७ सोमवार २४ दिसम्बर RAMAN १९९० के पावनीय दिवस पर महाराष्ट्र प्रदेश के कल्याण के निकट मोहने नगर में विशाल जन मेदनी की उपस्थिति में 'कोंकण केशरी' पद से विभुषित किया POORN IA WOM COURTAVANA ७ ममता यदि ज्ञान पूर्ण हो तो वह सांसारिकों के लिये उत्तम है। परन्तु जो ममता ज्ञान के प्रकाश से दूर हो वह ममता मनुष्य को अनेक बार दूरातिदूर फेंक देती है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ልልልልልስ AAAAAA POTATN गया। त्रिस्तुतिक समाज किसी भी मुनि को प्रान्तीय स्तर पर इतना भव्य आयोजन कर ६१ श्री संघो के द्वारा सामुहिक रुप से पदवी प्रदान करना भी प्रथम ऐतिहासीक ___घटना है। यह भी एक उल्लेखनीय प्रसंग है कि कोंकण क्षेत्र के इतिहास में भी प्रथम बार किसी मुनि द्वारा श्रृंखलाबद्ध आयोजन हुए है। यह अभिनन्दन वान्थ युगों युगों तक आपके व्यक्तित्व कर्तृत्व एवं बहुमुखी विलक्षण प्रतिमा का अभिनन्दन करता रहेगा। अभिनन्दन वान्थ तीन खण्ड़ों में विभक्त है। प्रथम खण्ड़ आशिर्वचन-वंदना एवं शुभ कामनाओं का है। द्वितीय खण्ड में कोंकण प्रदेश का सचित्र धर्म यात्रा वृत्तांत है और तृतीय खण्ड में जैन दर्शन एवं साहित्य से सम्बन्धित विद्वानों की रचनाएँ है। जैन दर्शन के विभिन्न पहलुओं पर आधुनिक संदर्भ में महत्व पूर्ण रचनाओं का समावेश है जो अभिनन्दन वान्थ की गरिमा को स्थायी रुप प्रदान करता है। अभिनन्दन वान्थ के संपादन कार्य की महत्तर जवाबदारी मुझे दी गयी है। परन्तु यह कार्य मेरी सामर्थ्य से बाहर था। किन्तु पूज्य मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म. की सम्प्रेरणा, मार्गदर्शन पथ प्रदर्शित करती रही। मेरी अन्तेवासिनी शिष्या साध्वी श्री तरुणप्रभा श्रीजी इस ग्रन्थ के लिए अथक प्रयत्नशील रही है। कवि-लेखक-सम्पादक भाई श्री चन्दनमल चाँद ने विद्वानो से रचनाएं मंगाने से लेकर संपादन तक में सहयोग प्रदान किया। धर्मयात्रा वृत्तांत में श्री पुखराजजी एस: जैन कल्याण, रमेश निर्मल, स्वबचन्द मालवी ने भी सहयोग दिया है। सब से अधिक सहयोग श्री चन्दनमलजी बी. मुथा मोहने (कल्याण) वालों का भी रहा जिन्होंने इस वान्थ में संयोजक के रुप में कार्य किया है जो स्मरणिय रहेगा। मैं उन सभी दान दाताओं को भी धन्यवाद दूंगी जिन्होंने वन्दना के रुप में श्रब्दा सुमन अर्पित किये हैं। अंत में उन पूज्य आचार्यो, संतों, विद्वानों, लेखकों और कविओं की आभारी हूँ जिनकी रचनाओं का इस वान्थ में समावेश हुआ है। यह भगिरथ कार्य गुरु कृपा, विद्वानों के सहयोग और अन्तर प्रेरणा से अभिनन्दन वान्थ का संपादन कर पायी हैं। यह अभिनन्दन आप तक पहुँचाते आत्मीय प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ। साध्वी पुष्पा श्री UVA चारित्र ८ व्यक्ति जब कल्पना और आशा का गुलाम बनता है तब अपने आसपास का, समाज और परिवार का भी विचार नही करता, उसे तो अपने आप के हिताहित व कल्याण का भी ख्याल नही करता। www.jainelibrary.olo Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THLOEAL प्रकाशकीय निवेदन byYASO. कोंकण केशरी पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी "शार्दूल" के अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता और गौरव का अनुभव होता है। कोंकण केशरीजी ने देश के विभिन्न राज्यों में और विशेष रुप से महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में धर्म प्रभावना का महान कार्य कर एक इतिहास का नवसर्जन किया है। आपने अपने व्यक्तित्व, साधना, ज्ञान एवं वाणी से कोंकण क्षेत्र में धर्म की जैसी धर्म जागृति की है उसके लिए उन्हें कोंकण केशरी के अलंकार से अलंकृत कर श्री संघो ने अपनी विनम कृतज्ञता व्यक्त की है। श्री यतीन्द्रसूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर ट्रस्ट एक रजिस्टर्ड संस्था है जिसकी स्थापना स्व. पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी महाराज की प्रेरणा से सन १९७८ ई. में हुई। मुख्य कार्यालय अलीराजपुर और बड़ोदा में है। इस साहित्य प्रकाशन दृस्ट ब्दारा गत बारह वर्षो में लगभग चालीस पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। यह अभिनंदन ग्रंथ विशिष्ट प्रकाशन है। हमारा परम सौभाग्य है कि कोंकण केशरी पूज्य मुनिवर श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी "शार्दूल' के अभिनंदन ग्रंथ का सौभाग्य इस ट्रस्ट को प्राप्त हो रहा है। अभिनंदन ग्रंथ के सम्प्रेरक पूज्य मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी की प्रेरणा से श्रमणीरत्ना परम विदुषी साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी ने इसका सम्पादन किया है। सौधर्म बृहत्पागच्छीय त्रिस्तुतीक संघ मे संभवत: अपने प्रकार का यह विशिष्ट अभिनंदन ग्रंथ है और पूज्या साध्वीश्री व्दारा सम्पादन का भी एक नया अभिक्रम है। नये-नये विक्रम स्थापित कर पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी जैन धर्म एवं त्रिस्तुतिक संघ की अधिकाधिक धर्म प्रभावना करते रहें। जयंत प्रिन्टरी - बम्बई प्रेस के मालिक श्री छोटूभाई एवं कार्यकर्ताओं के प्रति हम आभार ज्ञापन करते हैं जिनके सहयोग से ग्रंथ का मुद्रण, प्रकाशन सुन्दर रुप में शीघ्र हो सका। इन्हीं शुभ भावनाओं और वंदना सहित Dheo VUON राजेश सी. जैन जयंतीलालजी रतीचंदजी जैन नाथुलाल जैन ट्रस्टीगण श्री यतीन्द्र सूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर ट्रस्ट अलीराजपुर (म.प्र.) immm जगत में जिस प्रकार बालक निर्दोष होता है, वैसे संत-साई भी निर्मल होते हैं। यदि बालक और संत पवित्र नही है ९ तो वे बालक और साधु नही हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAANA LYAVAYAVAYS श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री राजेन्द्रसूरि गुरुभ्यो नमो नमः बालब्रह्मचारी, जिन शासन प्रभावक, प्रवचनकार पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी 'शार्दूल' म.सा. को "कोंकण केशरी" पद प्रदान समारोह में सादर समर्पित अभिनन्दन पत्र बालब्रह्मचारी:- आपश्री का जन्म चैत्र कृष्ण १३ वि. संवत् २०१४ को रतलाम (म.प्र.) में हुआ और पू. गुरुदेव श्री मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी 'शीतल' के कर कमलों से १६ वर्ष की किशोरावस्था में ही वि. सं. २०३० ज्येष्ठ कृष्णा को श्री लक्ष्मणी तीर्थ में (म.प्र.) मुनि दीक्षा ग्रहण कर विविध भाषाओं, शास्त्रों एवं धर्मों का गहन अध्ययन किया। जिनशासन प्रभावक:- सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय परम्परा के उज्जवल नक्षत्र के रूप में आपभी ने जिनशासन की धर्मध्वजा भारत के अनेक राज्यों में फहरा कर महान प्रभावना की है। अपने एवं पू. गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. के साथ दक्षिण भारत में एवं पश्चात् स्वतंत्र रूप से राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात राज्यों में अनेकविध आयोजनों, पूजनों, प्रतिष्ठाओं आदि मे जैन धर्म की महान प्रभावना कर एक अनूठा कीर्तिमान स्थापित किया है। प्रखर विव्दान एवं ओजस्वी वक्ता:- आपभी की प्रखर विद्धता एवं ओजस्वी प्रवचन शैली के अदभुत सामन्जस्य से हजारों की जन मेदिनी मंत्र मुग्ध हो उठती है। प्रतिष्ठाओं, पूजनों, भक्ति महोत्सवों, गुरु जयन्ती के भव्य आयोजनों में आपने अपनी विव्दता, वक्तृत्वकला, ओजस्वी वाणी की छटा सर्वत्र प्रसारित की है। कळणामूर्ति :- आपका भव्य आकर्षक व्यक्तित्व एवं करुणाभा हृदय समाज के भाई-बहनों के कण्ठो से भर उठता है, इसलिए आपने "श्री पार्श्वपद्मावती माधर्मिक फाउण्डेशन" की स्थापना की है। जिसके द्वारा निम्न मध्यम वर्गीय समाज के भाई बहनों की शिक्षा, चिकित्सा एवं स्वावलम्बन के लिए सहयोग दिया जाता है "श्री मरूधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम" "श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र जैसी संस्थाओं की स्थापना कर जो महान् कार्य, आपकी कीर्ति कथा का साक्षात् प्रमाण ORDS है। कोंकण केशरी गत दो वर्षों से कोंकण प्रदेश में धर्म यात्राओं, विविध आयोजनों, अनुष्ठानो एवं विराद कार्यक्रमों द्वारा आपने जो उल्लेखनीय शासन प्रभावना की है, उसको लक्ष्य में रखकर आपके महान कार्यों के अनुमोदनार्थ हम आपको 'कोंकण केशरी पद से विभुषित करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। प्रात: स्मर्णिय पूज्य गुरुदेव श्रीमदविजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की जयन्ती के शुभावसर पर हम सबकी मंगल कामनाओं एवं शुभ कामनाओं के साथ 'कोंकण केशरी पद को स्वीकार कर हमें कृतार्थ करें। शासन देव की कृपा से आपके द्वारा गच्छ, संघ एवं जिन शासन की महान् प्रभावना होती रहे। एवं आए सुख-शाता पूर्वक संयम दीर्घायुष्य प्राप्त करे। मोहने (कल्याण) महाराष्ट्र इन्ही मगलमयी भावनाओं एवं पौष शुक्ला ७ वि.सं. २०४७ 'गुरु जयन्ती अभिवन्दना सहित हम है आपके मदाल दिनांक २४ दिसम्बर १९९० श्री राजस्थान जैन श्वे.म. श्री संघ मोहने (कल्याण) के पदाधिकारी एवं मदस्यगण CV TWIAN JAVAO MINAM ECTED WAVANAVANA १० संपूर्ण सुख में रहने वाला मानव जब दु:ख के दावानल के बीच फंस जाता है तब वह दुःख का मुकाबला कर नही सकता। कारण यह है कि उसकी पूर्ण शक्ति सुख और वैभव में ही समाप्त हो गई होती है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क KRISIS विषय समर्पण संपादकिय प्रकाशकिय अभिनन्दन पत्र आशिर्वाद शुभकामनाएँ अनुक्रमणिका अनुभव गम्य अनुभती मेरे दिक्षा दाता गुरुवर्य AM] रंगीन तस्वीरे लेखक ज्ञान आत्मा का गुण भी स्वरूप भी आत्मवाद के विविध पहलू मुनि लोकेन्द्र विजय साध्वी पुष्पाश्रीजी राजेश, जयंतीलाल, नाथुलाल जैन ट्रस्टीगण राजस्थान जैन श्वे. मू. श्री संघ, मोहने कल्याण द्वितीय खंड विरल विभूति लेखीका साध्वी तरुणप्रभाश्रीजी गीत संयम और साधना के प्रतिक पुज्य गुरुदेव श्री श्री जयंतिलाल जैन अलिराजपुर 'शितलजी' अभिनन्दन विरल व्यक्तित्व के धनी इतिहास सत्य का उद्गाता है कर्जत में जैन समाज में एकता एवं मोहने (कल्याण) में प्रतिष्ठा महोत्सव नेरल नगर में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव श्री पार्श्वपद्मावती माता का अपूर्व प्रभाव खोपोली में जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव कल्याण चातुर्मास स्थल मोहना नगर में गुरुसप्तमी ३ जनवरी १९९० कोंकण में धर्म प्रभावना कर्जत में अस्पताल का उद्घाटन कामाठपुरा में मंदिर की भव्य प्रतिष्ठोत्सव राजस्थान कि धन्यधरा पर जैन समाज में प्रथम शक्तिपीठ मानव सेवा एक उपक्रम प्रथम खंड वन्दनावली (म.प्र.) मुनि लोकेन्द्र विजय मुनि लोकेन्द्र विजय पुखराज एस. जैन कल्याण धनराजजी जैन चन्दनमल बी. मुथा वस्तिमल जी. शाहजवाली (राज.) लेखीका साध्वी रत्नरेखा लेखीका साध्वी कल्पदर्शिता तृतीय खंड उपाध्याय अमर मुनि महाप्रज्ञ पृष्ठ ३ ४-८ oni ९ १० १५-५६ recesses ९९ १२९-१८४ 椰 Tirporte मन की पंखडियां जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नही हो सकते। ११ . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAMAR विषयमा लेखक पृष्ठ २०४ MOTORONO. २१२ २२२ २२९ २३४ २४१ २४९ २५३ २६१ २६६ २६९ जैन दर्शन में समतावादी समाज रचना के डॉ. निजाम उदीन प्रेरक तत्व भगवान महावीर की निती उपाचार्य-श्री देवेन्द्रमुनि म.सा. अनेकान्त और स्याद्वाद डॉ हकुमचन्द भारिल अहिंसा-वर्तमान युग में माणकचंद कटारिया उत्तराध्ययन गीता और धम्मपद: एक तुलना उदयचंद शास्त्री जैन साधना का रहस्य जमनालाल जैन जैन शास्त्र और मंत्र विद्या राममुर्ति त्रिपाठी जैन दर्शन में तत्व विवेचना रमेश मुनि शास्त्री भगवान महावीर के सिद्धांतो कि आज के युग रीना जारोली में उपयोगिता ब्रह्मचर्य एक दृष्टि महेन्द्र सागर प्रचाडिया एम.ए.पी.एच.डी. व्याधि मुक्ति शक्ति प्राप्ति का - मुनि धर्मचंदजी पियुष उपाय-स्वादविजय अपरिग्रह नीरज जैन जैन आहार प्रक्रिया और आधुनिक विज्ञान डॉ सज्जनकुमार क्षमा और विश्व शांती श्री सुन्दरलालजी मल्हारा निवृतिवाद आधुनिक संदर्भ में डॉ जया पाठक एक तुलनात्मक अध्ययन - भारतीय दर्शन एवं मुरलीधर श्रीमाली जैन दर्शन जैन दर्शन में कर्म मीमांसा राजीव प्रचंडिया-एडवोकेट संगीत का मानव जीवन पर मनोवैज्ञानिक मदन वर्मा प्रभाव क्षमा स्वरूप और साधना दर्शन रेखाश्री जैन द्रष्टि में धर्म का स्वरूप प्रो. सागरमल जैन नारी जागरण के प्रेरक भगवान श्री महावीर एवं श्री चन्दनमल चाँद वर्तमान नारी समाज ध्यान साधना पद्धति श्री रतन मुनि जैन आगम साहित्य में वर्णित दास प्रथा डॉ. इन्द्रेश्चन्द सिंह जैन धर्म में ध्यान मनोहरलाल मणिलाल पुराणी अपरिग्रह एक विवेचन । डॉ. कमल पुंजाणी कर्म सिद्धांत कुसुमबेन मांडवगणे ब्रह्मचर्य भंवरसिंह पवार जैन धर्म में नारी का स्थान गोपालसिंह पवार भक्तामर स्तोत्र श्रीचंद सुराणा जैन समाज की एकता समस्या एवं समाधान श्री प्रकाश कावडियां जैन ज्योतिष श्रीमति करूणा शाह जिनालंकार एक प्राचीन स्तोत्रकाव्य प्रा. श्याम जोशी महावीर का धर्म वितराग और हमारा दृष्टिराग अगरचंद नाहरा २७३ २८२ २८८ २९२ २९४ ३०१ ३०९ ३१३ ३१७ ३२४ ३२८ ३४२ ३४५ ३४७ ३४९ ३५१ ३५३ ३५५ ३५७ ३६१ ३६४ ३६६ १२ मनुष्य ही नही, पशु जाति-वानर-सेना के सम्मुख भी उस की वैज्ञानिक शक्ति, उसके भयानक अस्त्र और उसकी पाशविक-दानविक शक्ति भी लनिक कार्य नही साध सकी। , Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व पूज्य प्रात: स्मर्णिय परमयोगीन्द्राचार्य अभिधान राजेन्द्र कोष प्रणेता श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्रव्य सहयोगी : संघवी शा. कांतिलालजी विजयराजजी सियाणा भिवंडी (महाराष्ट्र) की ओर से दर्शनार्थ Savjaineliborg Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति युग पुरुष श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. शा. जीवराजजी धनराजजी एण्ड कम्पनी ४६, पाक मुड़िया स्ट्रीट, मेमन चाल, बम्बई-३ की ओर से दर्शनार्थ JaEANaina POHerespersonalesed wwwijainehirveneorg Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ raa प. पूज्य प्रशान्त मूर्ति, कवि हृदय, सुविहित, सरल स्वभावी चारित्ररत्न श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. FOR भूति निवासी शा. भोमराजजी गुणेशमलजी की पुण्य स्मृति में शा. वरदीचन्दजी भँवरलालजी, संतोषकुमार, सुमतिकुमार बेटा पोता भोमराजजी टिपटुर (कर्नाटक) की ओर से दर्शनार्थ Riwalerap ww.jauvefforg Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. तपोनिधि, शांतमूर्ति गच्छाधिपति शासन सम्राट वर्तमान आचार्य देवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. 000 000 804 1000 वारलाई निवासी श्री अगरचन्दजी हीराचन्दजी जैन रमेशकुमार फूलचन्दजी एण्ड कम्पनी २८ ताराचन्द हाऊस, मोटा मंदिर लेन, पहला माला, तीसरा भोईवाडा, भुलेश्वर, बम्बई - २. की ओर से दर्शनार्थ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य रत्न, आगम दिवाकर श्रमण सूर्य प. पू. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म. सा. ધવલૉ8 ) છે પણ पोसालिया निवासी शा. चन्दनमलजी भगाजी कांदीवली (वेस्ट) Jal canon temel al MaralasaLUSeaml. weinelibrarie Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARAT प्रबुद्ध नव चेतना के उन्नायक, जिनशासन प्रभावक मृदुभाषी शांतस्वभावी प्रवचन प्रभावक "कोंकण केशरी" परम पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. सा. शा. सुमेरमलजी तेजराजजी चौधरी जालोर (राज.) V Jan du leternic LEVEAPerNDALUNG M ineline Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्सल्य महोदधि ज्योतिष रत्न, मधुर व्याख्यानी पूज्य मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म. सा. शा. खीमराजजी भूरमलजी शिवगंज (राज.) हस्ते शा. धनराजजी खीमराजजी मझगाँव, बम्बई - १० T EENSaiDeshematlanA ivals erste l www.NICILy.val Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणी रत्ना मृदुभाषिणी परम विदुषी प. पू. गुरुणिजी श्री पुष्पाश्रीजी म. सा. साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म. सा. एवं उनका श्रमणी मण्डल निलेशकुमार हंसमुखलालजी, विद्यावती हंसमुखलालजी लोअर परेल, बम्बई. eKEducationterno Formate disonale Only Minelli Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 आशीर्वाद पाODNA शुभ कामनाएं वन्दनावली OME प्रथम खण्ड MODNA AVAIVAS भगवान श्रीकृष्ण महाबलवान थे, महान् कर्मयोगी थे, उन्होने सूर्य को झांका था, उन्होंने रात लम्बी कर दी थी। किंतु १३ काल की गति एक क्षण भी नही रोक सके। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य शांतमूर्ति, गच्छाधिपति वर्तमान आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का "कोंकण केशरी' पद समारोह पर शुभाशिर्वाद - शुभसंदेश श्री राजेन्द्र विहार दादावाड़ी पालीताणा ता. १८/१२/eo मुझे यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई है कि राजस्थान ने. जैन श्री संघ मोहने व्दारा समस्त कोंकण प्रदेश की भावना का स्वागत करते हुए मुनि श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी को 'कॉकण केशरी" पद से विभूषित किया जा रहा है। मुनिश्री ने विगत दो वर्षों से अनेक उल्लेखनीय धर्म आयोजन किये हैं। विशेष तौर पर कोंकण की धर्मपरायण जनता सबसे अधिक लाभान्वित हुई है। क्षेत्रीय भावना को देखते हए "कॉकण केशरी' पद प्रदान समारोह कोंकण क्षेत्र की गरिमा को महिमा मंडित करती है। आज इस शुभ संदेश के माध्यम से कोंकण की जनता को धन्यवाद दंगा कि उन्होंने दोनों मुनिवरों के माध्यम से जो विविध आयोजन करवा कर धर्मोद्योत किया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है। मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी को गौरवमय पद पर पदारुढ़ करते हुए आत्म प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। मेरा आशिर्वाद है कि समस्त कोंकण प्रदेश में इस प्रकार का धर्मोद्योत करते रहें। समस्त जैन संघ को धर्मलाभ। - विजय हेमेन्द्रसूरी 2008 चंद्र और सूर्य पर छाये हुए बादलों का घेरा तो अल्पक्षणों का है। बादलों का घेरा हटते ही सूर्य और चन्द्र स्वच्छ व निर्मल से घोतित होने लगते हैं किंतु वासना-कामना बुढापे के 'काया' पर छाये बादल कभी भी दूर होना संभव नही। MATIO संपूर्ण सुख में सहनेवाला मानव जब दु:ख के दावानल के बीच फंस जाता है तब वह दुःख का मुकाबला कर नहीं सकता। कारण १५ यह है कि उसकी पूर्ण शक्ति सुख और वैभव में ही समाप्त हो गई होती है। . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAALANOR शुभकामना दिनांक १६/9/9ee9 ज्ञानमूर्ति श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी का अभिनन्दन ग्रंथ छप रहा है। यह जानकर प्रसन्नता हुई। भारतीय संस्कृति अध्यात्मिक संस्कृति है। भारत के संतपुरुष और ऋषिमुनियों की तपस्या और अनुभूति की देन है। और उन्हीं की साधना से यह आज भी जीवित है। इसलिये संतपरुष हमारे लिये अभिनन्दनीय है। अभिवंदनीय है। संतों का अभिनंदन करनेवाला देश ही उन्नति के शिखर पर आरोहण कर सकता है। सर संत का अभिनंदन करेगा देशा तो और क्या रहेगा शेष॥ आप सदा सर्वदा स्वस्थ एवं परम प्रसन्न रहे चिरकाल तक साहित्य सेवा, जिन शासन की सेवा करते हुए जिन शासन में चार चांद लगाते रहें तथा अध्यात्मिक संस्कृति के सजाग प्रहरी बनकर स्वपर कल्याण करते रहें यही शुभकामना साध्वी धर्मशीला जैन स्थानक, बोरीवली वेस्ट बम्बई-६६. मंगल भावना जिनका व्यक्तित्व स्नेहिल। जिनका हृदय वात्सल्यता से भरपूर, जिनकी वाणी में ओज एवं मधुरता का समावेश है। उन मुनिवर्य के अभिनंदन ग्रंथ हेतु मेरी शतश: शुभकामनाएं-मंगल भावनाएं चन्दनमल चांद (सम्पादक) जैन जगत DAW १६ ध्यान की मस्ती जगत के सर्वश्रेष्ठ सुख से, सौदर्य से और मजा मौज से विशिष्ठ व अलौकिक होती है। इस मस्ती में रमे हऐ मन को अन्य मस्ती कदपि नही रुचती। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10000 GOODOOK शुभकामनाएं दिनांक ११ जनवरी १९९१ बम्बई- २. कोंकण केशरी मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी के दर्शनों का सुअवसर मिला उनकी तेजस्विता, कार्यपध्दति एवं जैन धर्म प्रचार प्रसार की तीव्र भावना देखकर मन को प्रसन्नता हुई। कोंकण प्रदेश में आपने दो वर्षों तक सधन धर्म प्रचार किया। ओजस्वी वक्ता, प्रभावशाली व्यक्तित्त्व के धनी मुनिवर्य के लिये अभिनन्दन ग्रंथ में मेरी भावनाएं प्रेषित है। शासन देव आपको संयम युक्त धर्म की अधिक से जैन एकता एवं समन्वय की दिशा में अच्छा होगा। शुभकामनाओं सहित सेवा में प्रबंधक मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी अभिनन्दन ग्रंथ समिति, बम्बई दीर्घ आयुष्य प्रदान करें ताकि जैन अधिक प्रभावना हो । मुनिश्री अपनी शाक्ती लगायें तो बहुत जैन संचयलाल डागा, अध्यक्ष भारत जैन महामण्डल दिनांक 99 जनवरी १९१ प्रिय महोदय जय जिनेन्द्र यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई की त्रिस्तुतिक संघके पूज्य कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी का अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। संतों-मुनियों का वंदन - अभिनन्दन भारतीय संस्कृति रही है। मुनिराजश्री ने कोंकण क्षेत्र में धर्म जागृति का जो कार्य किया है। उसके लिए उनका अभिनन्दन होना ही चाहिये। मैं मुनिश्री के संयममय दीर्घायुष्य की कामना करते हुए उनके द्वारा जैन धर्म की अधिक से अधिक प्रभावना हो यही शुभकामना व्यक्त करतां हूं। पुखराज एस. लुंकड, अध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस 福 COLORED WYDOTS BOT प्रजा सदैव सुयोग्य सक्षक की प्रशंसक रही है जिस रक्षक में रक्षक जैसा गुण नही रहता तो उसे प्रजा अंतः करण से १७ स्वीकारती भी नही है। और जिसे प्रजा न स्वीकार वह रक्षक भी नही रह सकता। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GMAAAA000, शुभ-कामनाएँ ODDOOOODOOT (UTTUIAN श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी से वर्तमानयुग तक श्रमण परंपरा का प्राणिमात्र पर अत्यन्त उपकार रहा है। लब्धीधारी गणधरों, आचार्यों एवं महान त्यागी श्रमण भगवंतों ने जन-जन के कल्याण के कार्य भी अपनी साधना के साथ किये। सृष्टि के इस क्रम में अनेक युग बदले, परिस्थितियां और परिवेश भी बदले हैं। परन्त श्रमण भगवंत महावीर की त्याग प्रधान परम्परा धर्म प्रचार में सदा अपमत रही है। आज भी हमारे उपकारीगणवों की धर्मयात्रा अविराम रत्नत्रयी की आराधना करते हए चल रही है। सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय श्रमण की परंपरा में अनेक ऊज्जवल नक्षत्र के रुप में अनेक मुनि भगवंत हए है। इसी श्रृंखला में पूज्य मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी 'शार्दूल', पूज्य मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी 'मार्तण्ड' भी आज समग्र जैन समाज के दैदिप्यमान रत्न है। जिन्होंने मोहने नगर से ही कोंकण धर्म क्षेत्र की यात्रा प्रारंभ की थी। हमारे नगर में समस्त जैन संघ को एकता की शक्ति में बन्द कर २०४१ माघ शुक्ला १२ शुक्रवार 9७ फरवरी ८e को ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के कार्यक्रम करवाये। यह प्रतिष्ठा इस क्षेत्र की एक यशस्वी प्रतिष्ठा रही है। प्रातः स्मर्णिय गुरुदेव राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.की गुरु जयन्ती का प्रतिवर्ष मेले के रुप में आपकी ही प्रेरणा और आशिर्वाद से हो रहा है। यह हमारा अहोभाग्य है कि प्रबुन्द नवचेतना के उन्नायक पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को "कोंकण केशरी" पद से विभुषित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हमारी इस भावना को समस्त कोंकण प्रदेश ने स्वीकार कर महर्ष स्वागत किया। जो समस्त कोंकण प्रदेश के लिए गौरव पूर्ण प्रसंग था। हमारे श्री संघ पर पूज्य प्रवर के अनंत-अनंत उपकार है। उनके उपकार हमारे श्री संघ के लिए चिरकाल तक स्मरणिय रहेंगे। "कोंकण केशरी" पद प्रदान के उपलक्ष्य में प्रकाशित अभिनन्दन ग्रन्थ वास्तव में अभिनंदनीय कदम है। _"कोंकण केशरी" पूज्य प्रवर निरन्तर जिनशासन प्रभावनाएँ, सामाजिक व रचनात्मक कार्य करते रहें। इसी मंगल कामना के साथ। श्री राजस्थान जैन संघ मोहने (कल्याण) महा. पण KAUTTAVAN १८ आशा रुपी बदली जब बिन बसरे ही गुजर जाती है तब मनुष्य की मन रुपी धरती पर इच्छा रुपी फसल नही वरन् निराशा रुपी रेगीस्तान छा जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ कामनाएँ यह जानकर अति प्रसन्नता हो रही है कि आगामी २४ दिसम्बर ९० को मेघावी पुरुष पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को "कोंकण केशरी' पद से विभुषित किया जा रहा है। यह जैन समाज के लिए गर्व की बात है। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जिन-शासन को समर्पित कर, जैन समाज को नई दिशा दी है। आपकी यह जिन शासन प्रभावना सराहनीय तो है ही, साथ ही चिरकाल तक स्मर्णिय रहेगा। वीतराग प्रभु से यही आन्तरिक अभ्यर्थना है कि आप निरन्तर अक्षुण्ण रुप से नन्दादीप की भाँति समाज को नई रोशनी, नई दिशा प्रदान करें। राजस्थान जैन संघ जी. आर. भण्डारी, अजमेर DEOCOCCCOCKR aroo TA विलक्षण प्रतिभा के धनी प. पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. एवं पूज्य लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने जब से महाराष्ट्र की भूमि को पावन बनाया है, तभी से कोंकण की धरती पर अनेकविध धार्मिक आयोजन हो रहे हैं। आपकी निश्रा में हमारे जैन संगीत मण्डलने अनेक श्री पार्श्वपद्मावती महापूजनों में गीत संगीत कार्यक्रम पेश किये है। हमारा यह एक अनुठा अनुभव रहा है कि पूज्य श्री जब इस महापूजन में बैठ जाते हैं फिर वे इस महापूजन में खो जाते हैं। और अंतिम पूर्णाहुति तक वे एक ही आसन धारण किये रहते हैं। सैकड़ों गुरु भक्त मंत्र लय की बब्दता में एकाकार हो जाते हैं। यह भी एक सत्य घटना है कि जब मां का भक्तिभाव प्रबल हो जाता है, तब मां एक पवन के रूप में साक्षात् पधार गयी हो ऐसा प्रतीत होता है। यह हमने एक नहीं, अनेक महापूजनों में अनुभव किया है। मोहना कल्याण में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. को "कोंकण केशरी' पद से विभुषित कर समस्त कोंकण प्रदेश की जनता आज कृतज्ञता का अनुभव कर रही है। "कोंकण केशरी' पद प्रदान के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन भी एक अभिनंदनिय कदम है। अभिनन्दन ग्रन्थ युगों युगों तक धर्म यात्रा की जीवंतता एवं जैन दर्शन पर आधारित है। विविध लेख भी नविन आदर्श को प्रस्तुत करेंगे। अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन पर हमारी ओर से हार्दिक शुभ कामनाएँ जैन युवक संगीत मंडल लोनावला (पूर्ण) महा. नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण हैं। चाहे जितना लुचा या कुटिल मानव धर्मात्मा बनने का ढोंग करें फिर १९ Jain Education Intemational भी उसके अंतर का प्रतिबिम्ब उसकी आँख में झलकता ही रहता हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAACOM प. पूज्य सरल स्वभावी, शासन प्रभावक मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को इस महाराष्ट्र प्रदेश में "कॉकण केशरी" पद से विभुषित किया जा रहा है उसके लिए हमें अपार खुशी है। पद को ग्रहण करने के बाद समाज में दहेज प्रथा कुरितियाँ आदि जो फैली हुई है उन्हे दूर कर मध्यम वर्गीय लोगों को समाज में उचित स्थान दिलावे। दिन प्रतिदिन धार्मिक आयोजन शासन की ज्योति को सदा प्रज्ज्वलित सखें। इन्ही शुभ कामनाओं के साथ हमारी ओर से बधाई-रुप पुष्प स्वीकार करें। जुगराज जैन जालोर (राज.) विशेष समाचार जानकर खुशी हुई कि पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेरवरविजयजी म.सा. को गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर " कॉकण केशरी' पद से अलंकृत किया जा रहा है। आप श्री ने महाराष्ट्र यात्रा दौरान जो गुरु गच्छ की महिमा फैलायी है वह अवर्णनीय है। वर्तमान् गच्छाधिपति पूज्य आचार्य देवेश श्रीमद्विजव हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साम्राज्य में धर्म प्रभावना एवं गुरु गच्छ की जाहोजलाली में चहुंमुखी विकास कर उन्नति के पथ पर अवासर हो इसी आत्मीय अपेक्षा के साथ। शांतिलालजी बवतावरमलजी मुथा आहोर (राज.) हमें यह जानकर अपार हर्ष हुआ कि पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को " कोंकण केशरी' पद से विभुषित किया जा रहा है। पूज्य श्री का यह सम्मान वास्तव में अभिनंदनीय DEO पूज्य मुनिदव ने विगत दो वर्षों से समवा महाराष्ट्र प्रदेश में विविध आयोजनों की पत्रिकाएँ धर्मप्रभावना का साक्षात प्रतिबिम्ब है। पूज्य श्री बहुत ही कम समय में अनेक उल्लेखनीय कार्य सम्पन्न कर सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया है। राजस्थान में जालोर के निकट सर्वप्रथम गुरु स्मृति में श्री मयर शंवेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ गुरु लक्ष्मणघाम एवं अतिशव महिमावन्त तीर्थ श्री शंश्वेश्वर में श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र की स्थापना कर गुरु श्रदा का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है। प्रतिभा सम्पन्न मुनिद्वय सुविशुद्ध चारित्र की आRथना करते हुए प्रगति के पथ पर अग्रसर होते हुए, समाज की उन्नति में इसी प्रकार योगदान देकर तेजस्वी कार्य शक्ति से गुरु गच्छ की महिमा को गौरवान्वित करें। यही अन्तर की अभिलाषा। मुथा येवश्चन्द हिम्मतमलजी आहोर (राज.) Www २० संसार में जो कोई मानव ज्ञान-दृष्टि से देखे कर्तव्य के मार्ग पर, अचेतन स्थिति और अपने स्वार्थ की चिंता करके दौडता रहता है, वह थक हो जाता है, थक कर गिर जाता है और गिरकर समाप्त भी हो जाता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160M MAAAAI जैन जगत के इतिहास में अनेक उज्जवल नक्षत्र के रुप में ऋषि, मुनि और युग प्रभावक संत पुरुष हुए हैं जिन्होंने समय समय पर धर्म क्रांती का शंखनाद कर धर्मोद्योत किया है। आज के इस भौतिकवाद में भी जल कमलवत् जीवनयापन कर संत पुरुष स्वआत्म उत्कर्ष के साथ ही समाज विकास में योगदान प्रदान कर रहे हैं। "कॉकण केशरी" पूज्य प्रवर मुनिराज श्री लेवेन्द्रविजयजी का जीवन COM भी सूर्य की भाँति है। जो अज्ञान अंधकार को ज्ञान रुपी प्रकाश के माध्यम से प्रकाशित कर रहे हैं। वे एक कर्म युदा पुरुष है जो निरन्तर तेजस्वी कार्य शक्ति से प्रगतिशील है। कर्म ही जिनकी पूजा है। सेवा ही जिनकी सुवास है, निष्काम भाव ही जिनका लक्ष्य है। ऐसे पूज्य मुनिप्रवर के आत्मिय गुण सदा अभिनन्दनीय है। ऐसे पूज्य गुरुवर्य का अभिनन्दन वन्य समर्पण समारोह करने का आदेश १० मार्च १९९१ चैत्र वदि ९ को भायंदर पूर्व में प्राप्त हो रहा है। यह हमारी प्रबल पुण्याई का प्रतीक है। सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय में सर्व प्रथम अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है श्रमण सूर्य परम पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. की सप्तमं पुण्य तिथि एवं अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण समारोह हमारे लिए मणि कांचन का योग बन गया है। अभिनन्दन वन्थ प्रकाशन पर हमारी अनंत अनंत शुभ कामनाएँ। यह वान्थ जन जन को धर्म क्रांति की ओर प्रेरित करें। इसी मंगल भावनाओं के साथ। श्री वर्धमान राजेन्द्रसूरी जैन चेरीटेबल ट्रस्ट भायंदर (पूर्व) भीमराज जैन, अध्यक्ष Ve पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को "कोंकण केशरी' पद प्रदान समारोह पर हमारी ओर से हार्दिक अभिवंदना। भभूतमल आर. जैन टिपटुर (कर्नाटक) MVW DAMAMI VIDIANS साधु, साधक या सज्जन व्यक्ति वैर भास नही रखना चाहिए, इस संस्कृति का वही आदर्श है। फिर भी मानव जब ईर्ष्या २१ Jain Education Intemationalऔर वैर विरोध के घर में प्रवेश करता है तब उसका हृदय संस्कृति के प्रकाश को छू भी नहीं सकता। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAAY यह बहुत ही आनन्द का विषय है कि पूज्य मुनिप्रवर को २४ डिसेम्बर को " कोंकण केशरी" पद से विभुषित किया गया है। "कॉकण केशरी" पद प्रदान के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन भी सराहनीय कार्य है। अभिनन्दन ग्रन्थ में धर्म यात्रा वृतांत के साथ ही जैन दर्शन पर, विविध विषयापर विभिन्न दृष्टिकोणों पर जो लेखादि होंगे वेत निश्चित ही अभिनन्दन वान्थ की महिमा को चिर स्थायीत्व रुप देगा। इसी मंगल कामना के साथ शा. छगनलालजी मोटाजी A COO यह हर्ष का विषय है कि प्रातः स्मर्णिय कलिकाल कल्पतरु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की गुरुजयन्ती के शुभ प्रसंग पर पूज्य मुनिराज पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को २४ डिसेम्बर को "कोंकण केशरी' पद से अलंकृत किया जा रहा है। यह संपूर्ण समाज के लिए गौरव का सोपान है। आपकी योजना बहुत ही प्रशंसनीय है। समारोह की पूर्ण सफलता के लिए मेरी शुभ कामनाएँ भेज रहा हूँ। भवदीय सुखराज बी. नाहर बम्बई AND आज ही पत्र के द्वारा ज्ञात हुआ कि पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखरविजय म.सा. के अभिनन्दन वान्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। मुनिराज श्री का व्यक्तित्व और कृतित्व आज समवा समाज भलि भांति जानता है। उन्होंने अल्पकाल में जो जिन शासन की सेवाएँ, प्रभावनाएँ की है वह अपने आपमें एक मिसाल DEO मैं अपनी ओर से अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामनाएँ रुपी पुष्प अर्पित करता हूँ। रमेश एस. शाह बेचराजी अभिनन्दन वान्थ का प्रकाशन निश्चय ही प्रेरणा स्तोत्र के रुप में समाज का मार्ग दर्शन कर धर्म के मर्म को जानने में योगदान प्रदान करेगा। वान्थ की सफलता व ख्याति हेतु शुभकामना। भंवर सिंह पंवार राजगढ (धार) म.प्र. MARATHI २२ वर-भाव के जंगल में भटकने वाले को कहीं भी शांति नहीं मिलती, फिर भी वह समझ नहीं पाता। क्योंकि इनके ज्ञान की ओट में इर्ष्या की दीवाले तनी होती हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAAAAA A AAAMAA वे अभिनन्दनीय है गृह और व्यापार का त्याग करके जो अपने आपको महावीर के मार्ग में प्रयोगों के पथ पर अग्रसर कर लेते है, अहिंसा की प्रतिष्ठा में एकनिष्ठ होकर जो स्वयं अपना जीवन अहिंसक-जीवन जीवन-पदति की मिसाल बना लेते है। परिवाह लिप्सा के लिए जग जिसके फेर में पड़ा है, ऐसे असत्य को त्याग कर जो, आत्म - साक्षातकार के सत्य की शोध में निकल पड़ते सत् का विधात और असत् का उद्भावन जिनके आचरण से दूर हो गया है। मानवता का शील और सज्जनता - भरा सौजन्य जिनके जीवन को सूरभित कर गया है और पुरुषार्थ को पंगु करनेवाली परिवाह लिप्सा से जिन्होंने अपने आपको ऊपर उठा लिया है। ऐसे साधक सहज अभिनन्दनीय हैं। पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखर विजयजी मध्यप्रदेश की माटी के एक ऐसे ही सुरभित पुष्प हैं। उनके अभिनन्दन के क्षणों में, मैं उनके यश, दीर्घायु और सुख-शाता की कामना करता हूँ। नीरज जैन "कोंकण केशरी' पद प्रदान समारोह में मेरी हार्दिक शुभ कामनाएँ दाड़मचन्द बोरा, रतलाम "कोंकण केशरी' पद प्रदान समारोह पर हार्दिक बधाई पनराजजी जैन शा. नेनमल पद्माजी बिजापुर (कर्नाटक) प. पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. के "अभिनन्दन गन्थ" प्रकाशन के शुभावसर पर हमारा हार्दिक बधाई संदेश। प्रकाश कावेडिया LY eHAND IFUEENABINATHERE CATION महापुरुषों की प्रसादी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। घर की बेहाली २३ दूर ही कर जीवन की विडम्बना भी शांत हो जाती है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ አለስልልልል 'बधाई-सन्देश परम पूज्य मृदुभाषी, प्रवचनकार मुनिराज श्री लेवेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. को "कोंकण केशरी" पद से विभुषित किये जाने के शुभ अवसर पर संस्था की ओर से शुभ कामना मालुम होवें। जैन समाज की एकता एवं जैन धर्म की पताका को अपनी धर्म यात्राओं के माध्यम से जन - जन तक पहुँचाये। इन्ही शुभ कामनाओं के साथ दीर्घायु एवं यशस्वी होवें। यही शुभ कामना। मानव सेवा मंदिर चिकित्सालय राजगढ़ (धार) मु. प्र. ADONI HA प.पू. शासन प्रभावक मुनिराज श्री लेवेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. के "कोंकण केशरी' पद समारोह के शुभावसर पर हमारी ओर से हार्दिक बधाई शा. प्रतापचन्द पुखराज बीजापुर (तारव्दारा) "कोंकण केशरी' पद समारोह पर हमारी हार्दिक शुभेच्छा। शा. हंसाजी प्रतापचन्द बिजापुर (तारव्दारा) "कोंकण केशरी" पद समारोह के बारे में जानकर आत्मिक प्रसन्नता हर्ड। अशोक कुमार रागर मनोहरमल चोरडिया झाबुआ (म.प्र.) "कोंकण केशरी' पद समारोह पर हार्दिक शुभ बधाई छगनराज कनीराजजी आहोर (जालोर) राज. २४ परंतु जब मानव शुभ कार्य के उदयकाल में मदमस्त बना, बेभान, अचेत होता है, पद-सत्ता-वैभव रुपी अभिमान के झुले में झूलता रहता है तब उसे कल्पना या विचार भी नहीं आता कि यह मंगल समय ही भयंकर विपत्ति का जनक बनेगा। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAL400MMAAAAMA शुभकामना pa सद्गुरुवर का महत्त्व भारतवर्ष में आज से नहीं, सुदूर अतीत काल से रहा है। हजारों चिंतको ने गुरुदेव के महत्व पर । हजारों पृष्ठ लिखे है। बिना सद्गुरुदेव के ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। गुरु देव ही जीवन नौका के नाविक हैं। वे संसार समुद्र के काम, क्रोध, मोह आदि भयंकर आक्रों में से हमें सकुशल पार पहुँचाते है। सद्गुरुवर हमारे आध्यात्मिक जीवन मंदिर के झगमगाते दिपक है। उनकी कृपा दृष्टि से ही हमें ज्ञान-प्रकाश होता है जिसको लेकर जीवन की विघट घाटिओं को हम सकुशल पार कर सकते है। परम श्रद्धेय, अध्यात्म योगी, मृदुभाषी पूज्य मुनिराज "कॉकण केशरी" श्री लेवेन्द्रविजयजी म.सा. सच्चे सदगुरुवर है। आपकी पवित्र प्रेरणा से ही जन-जन के अन्तर मानस में धर्म का संचार हुआ है। आपकी प्रेरणा से ही समाज में स्थान-स्थान पर संघ के उत्कर्ष कार्य हुए है। आपके प्रभाव से हम सभी चमत्कृत है। आपका मनोबल इतना मजबुत है कि जो कार्य हाथ में लेते है उन कार्य को पूर्ण करके ही रहते हैं। चाहे कितनी ही विपत्तियाँ आ जाये पर घबराने का नाम नहीं। आपके अद्भुत चमत्कारों एवं प्रभाव का हजारो जिव्हांओं से हम वर्णन नहीं कर सकते है। "आकाश करु कागज, वनराज करूं लेखन समुद्र कळं स्याही, तो भी गुरु गुण लिखे न जाय ॥" "कोंकण केशरी' पद समारोह का जो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है तो इस पुण्य प्रसंग पर हमारी ओर से हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। और मंगल कामना करते है कि आपका शुभ आशिर्वाद हमें मिलता रहे। भवरलाल मिश्रीमल सेवडीवाला भारतनगर-बम्बई YO • सुख हो, समृद्धि हो, सत्ता हो और स्वाधीनता भी हो, ये चारों वस्तु हो किंतु उत्तम संस्कार रुपी अमृत न हो तो उक्त सभी वस्तु निर्जीव पत्थर के समान होती। AULIANNN कसौटी पर कसे जाने का भाग्य कुंदन को ही मिलता है, कथिल को नही। अग्नि परीक्षा पापियों या अल्प (तुच्छ) आत्मा २५ की होती ही नहीं हैं, पुण्यशाली महात्माओं की ही होती हैं। tion International Ja Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुमकामना मेरा हृदय हर्ष की उत्ताल तरंगो से तरंगित हो रहा है कि मेरे संसार पक्ष के सहोदर भाता "कोंकण केशरी" पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. के पद समारोह पर अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है। वास्तव में अभिनन्दन-वन्दन उन्हीं महान आत्माओं का होता है जिनका जीवन सदाचरण में ढला हो। मैं समय-समय पर पूज्य भाता गुरुदेव के दर्शन का लाभ लेता हैं आपके चरणों में कोई भी दुःखी एवं चिन्तापास्त व्यक्ति आते हैं वे परमसन्तुष्ट होकर हंसते हुए जाते है। यह उनकी महान साधना एवं करुणा पूरित हृदय का प्रभाव प.पू. छोटे धाता मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी भी अपनी साधना में अडिग है। आप श्री दारा दिये गये वासक्षेप एवं पद्मावती मंत्र से अभिमंत्रित दोरा जिसमें इतनी ताकत है, शक्ति है कि कैंसर जैसे रोग भी जड़मूल से समाप्त हो गये हैं, जो व्यक्ति ऑपरेशन के लिए तैयार हो गया था उसके भी वासक्षेप व्दारा बिना ऑपरेशन अच्छा हो गया। ऐसे अनेक कार्य दोनों भाता मुनिराजों ने कर के जन कल्याण किया ज्ञानी महर्षियों ने कहा है, जिस घर में संत का जन्म हुआ हो, उस घर की कई पीढ़ियो का उन्दार हो जाता है। पूज्य श्री के प्रति शुभ -भावना, दीर्घ आयु की मंगल कामना करते हए चरण कमलों में शत् शत् वन्दन करता है। जीवनलाल मोतीलालजी गुगलिया रतलाम (म.प्र.) दि. २३/१२/eo YA • संसार त्याग की भावना को स्थगित करने का मतलब यही है कि अब तक सत्य का दर्शन नही हुआ और विलम्ब से यदि कोई और नया आवरण आ चिपका तो आत्मासाधन का मार्ग अंधकार में डूब जाता है इस का तात्पर्य यह हैं कि मंगल कार्य में विलंब नही होना चाहिए। AIIANS AVAVAVANYON २६ जिसके प्राण मृदुता, करुणा और वात्सल्य से भरे होते हैं, वे चाहे जिसके दु:ख को अपना दुःख मान लेते हैं। भक्त, संत, महात्मा और समत्वशील आत्मायें इससे ही करुणा सागर कहलाती है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना आत्मिक प्रसन्नता के साथ लिख रहा हूँ की आज का दिन स्वर्णिम प्रकाश फैलाता हुआ उदित हुआ है कि आज आप पूज्य श्री को "कोंकण केशरी' पद से विभुषित किया जा रहा है। यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई है। जिनेश्वर प्रभु से पार्थना करते हैं कि आप शुभकार्य कर धर्म रुपी सुगन्ध चारों दिशाओं में फैलाते रहें। और अज्ञान रूप अंधकार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को ज्ञान रुप प्रकाश की किरण से प्रकाशित करते रहे। यही हमारी मंगल कामना है। "कोंकण केशरी' पद समारोह का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है उसके लिए शत् शत् अभिनन्दन रमनभाई के. सोलंकी पूना (महा.) । HOUEUTICTOR - GANA मुझे यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि परम श्रदेय पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री लेवेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. के "कोंकण केशरी' पदालंकृत के उपलक्ष्य में अभिनन्दन वान्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। समय जैन समाज भलि भाँति आप श्री के बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित है। आपने सदैव राजस्थान, मध्यप्रदेश और दक्षिण भारत में जो जिनशासन की सेवा की है। वह अमिट है। ग्रन्थ प्रकाशन पर मेरी हार्दिक शुभ कामना। रायचन्द मनोहरमलजी मेहता भीनमाल (राज.) SGDSAN •विवाह के बाद का आदर्श मात्र असंयम की मर्यादा नही है। इस का शुभ और मंगलदायी फल तो उत्तम संतत्ती द्वारा मानव रुपी बेल को सजीव रखना। RROEN Pw VI Jan Education Intemational संसार में ददि कोई किसी के साथ अन्याय करता है, तब वह इतना अंधा हो जाता है कि अपने आपको अन्यायी होते २७ हुए भी कदापि अन्यायी नहीं मानता। For Payale & Persona. Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना "सृष्टि का नियम है कि पतझड के बाद सुन्दर अनुपम बसन्त की बहार आती है। और काली रात्री के बाद ही जगमगाता सूर्य दिव्यालोक बिखेरता है। संसार में जब जब धरती पर अनीति, अधर्म अमानुषता का जोर बढ़ता है, तब-तब नीति धर्म एवं मानवता के संरक्षक महापुरुषों का आर्विभाव होता है। LOVARYAYA महापुरुष खिलते हुए पुष्प की तरह होते है, जो स्वयं तो महकते ही हैं, लेकिन संसार को भी अपनी मधुर महक से आनन्द विभोर कर देते है। महापुरुष की इस पवित्र गणना में एक नाम शीर्ष स्थान चमकता है प.पू. रत्नत्रय आराधक, वात्सल्य वारिधी 'कोंकण केशरी' पूज्य श्री लेखन्द्र विजयजी म.सा. आपकी वात्सल्यमयी और करुणाद्रवित आँखों से प्राणी मात्र के लिए निर्मल स्नेह की धारा अहर्निश झरती रहती है। आपकी ओजस्वी वाणी में शांति और प्रेम का शंखनाद गुंजता रहता है मैने कई बार देखा है कि पनघट के कुएँ की तरह लोग उन्हें सदा धेरै रहते हैं। आप जंगल में पहुँचते हैं, वहाँ पर भी भक्तों की भीड़ मधुमखियों के छत्ते की तरह जमा हो जाती है। भीड में रहते हुए भी आप अपनी दैनिक साधना में अडिग बने रहते हैं। आपके जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि आप शांत और विनोदी स्वभाव के है इसी कारण आने वाला हर व्यक्ति आकर्षित हुए बिना नहीं रहता। वाणी की मधुरता के कारण ही अजैन को भी आपने धार्मिक प्रवचनों से धर्म की और मोड लिया है। इसी वाणी का ही सुमधुर फल अभिनन्दन वान्थ जो प्रकाशित हो रहा है जो समाज के उत्थान के लिए एक विशिष्ट उपलब्धि है। यह विशिष्ट बन्य जन जन के लिए प्रेरणादायी बने इसी मंगल कामना के साथ सद्गुरुवर के चरणों में शत् शत् आभिनन्दन श्री मोहनलालजी शंकरलालजी बागरा (राज.) गोरेगाँव (वेस्ट) बम्बई-६२. पद्मावती VIYAN २८ रावण ने सीता का अपहरण किया तब वस्तुत: उसने भयानक अपराध पिया था किंतु वह इतना अंधा हो गया था कि उसने अपने इस दुष्कृत्या की अन्याय रुप में कल्पना नही की थी। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ለስለስ ልዕልልልልልልል मंगल कामनाएँ यह संसार परिवर्तन शील है। अनादिकाल से पदार्थों का स्वरुप बदलता रहता है। वही व्यक्ति बुद्धिमान है, जो संसार की बदलती हुई स्थिति में अपने आपको बदले और ऐसा बदले कि फिर बार-बार बदलने की जरुरत नहीं पड़े। ऐसी महान साधना महान आत्माएँ ही कर सकती है। WOOD समय समय पर इस घराधाम पर पुण्यात्माओं का अवतरण होता हैं, वे Uणण्ण अपनी साधना एवं निर्मल शुब्द तप रुपी जीवन से जगत् के अंधकार में भटकते हुए प्राणियों को सुमार्ग बताते हैं। AVAVAVAVAVA HDaee DBN उन्हीं खला में हमारे परम श्रदेय प.पू. 'कोंकण केशरी' पूज्य मुनिराज श्री लेखन्द्र शेखर विजयजी म.सा. का नाम अति गौरव के साथ लिया जाता है। जिन्होंने पुरे कोंकण प्रदेश में धर्म की लहर फैला दी है। आपकी सद् प्रेरणा से अनेक धार्मिक आयोजन, पूजन, प्रतिष्ठाएँ, समाज को एकता के सुत्र में बांधना, साहित्य सेवा, गरीबों के प्रति करुणा आदि अनेक शुभ कार्य हुए है और हो रहे है। आपकी वाणी में इतनी मधुरता है कि आप जहाँ भी जाते हैं वहाँ एक मेला सा लग जाता है तथा आपकी साधना का इतना प्रभाव है कि असंभव कार्य भी क्षण मात्र में संभव बन जाता है। वर्षावास में जिन लोगों ने कभी एकासणाभी न किया है उन लोगों ने हँसते-हँसते मासक्षमण कर लिये। ये सभी आपकी अमृतमय वाणी का ही प्रभाव है। CONOMIC AVO ऐसे युग प्रधान पुरुष के अभिनन्दन व्रन्थ प्रकाशन पर हमारी और से हार्दिक बधाई है। शुभ कामनाएँ है। शा. फूटरमल सेनाजी इन्दापुर, तलाशेत (महा.) शा. दलीचन्द मियाचन्दजी इन्दापुर, तलाशेत (महा.) VAVNYAN मानव जीवन भूलों का माया जाल है किंतु जो सञ्जन है, साधु हैं, वे भूल करने के बाद पश्चाताप के जल से पखार कर (धोकर) २९ अपने संपूर्ण जीवन को भूलों के माया-जाल से दूर रख पवित्र एवं निर्मल बनाये रखने का प्रयल सदैव करते रहते हैं। location International Jain Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ-कामना ORN SE 54950 संत विश्वचेतना को विकसित करने वाले देवदूत है, अज्ञान अंधकार के गहन अंधकार में भटकते हुए व्यक्तिओं के लिए प्रकाशस्तम्भ है। अशांति साम्प्रदायिक भाव, वैमनस्यता के बादलों को नष्ट करने वाले दाक्षिणात्य पवन है। उन्ही संत परम्परा के देदीप्यमान सितारे है प. पू. "कोंकण केशरी' मुनिराज श्री लेवेन्द्र शेखरविजयजी म.सा. है जिनकी आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान की उष्कृष्ट साधना है। पूज्य गुरुदेव एक जैन समाज की विशिष्ट विभुति है। आपके जीवन का प्रत्येक कोना हीरे की तरह चमकदार है। आपने कोंकण प्रदेश के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म ज्योति का पुंज फैलाया है। वह सदा के लिए प्रकाशित होता ही रहेगा। हमारे लिए यह गौरव की बात है की हम गुरुदेव श्री लेखन्द्रशेखरविजयजी म.सा. का विराट्काय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है यह उनके सदगुणों का अभिनन्दन है। आप अपने कृतृत्व से महान बन दिक-दिशा में यश प्राप्त किया है ऐसे परम श्रदेय पूज्य गुरुवर के चरणों में शत् - शत् वंदन कर, श्रब्दा सुमन अर्पित करते है। जैन जगत् के है श्रमणरत्न चरणों में अर्पित श्रद्धा सुमन वक्ता, लेखक लेखेन्द्र मुनि के शत्, सहस्त्र वंदन अभिनन्दन उमरावचन्दजी गुन्देचा गोरेगाँव-वेस्ट बम्बई शुभ कामना - "कॉकण केशरी" प.पू. मुनिराज श्री लेवेन्द्र विजयजी म.सा. के पद प्रदान समारोह पर जो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। वह प्रशंसनीय है। यह वान्थ अनेकानेक आत्माओं के लिए जीवन में उपयोगी होगा। इसी मंगल कामनाओं के साथ शत् शत् अभिनन्दन सह वंदना। भी बाबूलालजी जैन झिणवाला राजगढ (धार) म.प्र. ३० कर्म का फल तो प्रत्येक आत्मा को भोगना ही पड़ता हैं। मानव तो क्या, देवाधिदेव तीर्थंकर भगवन्त, देवता गण, तिर्थंच आदि कोई प्राणी ऐसा नही जिसे कर्म ने प्रभावित न किया हो। www.jainelibrary.oli Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ग्रन्थ द्वितीय खण्ड "कोकण केशरी" पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी व्दारा जिनशासन प्रभावनाएँ एवं उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का दिक्दर्शन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एक विरल विभूति लेखिका - साध्वी तरूणप्रभाश्री इस विराट विश्व में निरंतर रंग पलटते रहते हैं। जिसमें मानव का जीवन एक पानी के बुलबुले के समान है - "पानी ऐसा बुदबुदा, इस मानस की जात, देखत ही छप जायेंगे, ज्यों तारा परभात। इस धरती पर अवतरित होना और मृत्यु का ग्रास बन जाना नित्य सा खेल है। उसमें उसी का जन्म ग्रहण करना सार्थक है जिसके द्वारा अपनी एवं प्राणी मात्र की भलाई कर सके। अपने वंश का गौरव बढा सके। अपने कुल का नाम ऊंचा उठा सके। नहीं तो इस परिवर्तित संसार में निरन्तर हजारों लाखों पैदा होते हैं और मृत्यु के ग्रास बन जाते है। उनकी ओर कौन लक्ष्य देता है? परन्तु जो प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाला, परोपकार करने वाला, दुसरों के दु:ख को स्वयं का दु:ख समझने वाला है!, उसका नाम मर जाने पर भी इस संसार के चित्रपट पर विराजमान रहता है। उसके यश रुपी शरी तो बुढापा आता है। न मृत्यु ग्रास कर सकती है। वे अपनी कीर्ति के द्वारा अमर हो जाते हैं। ऐसे अमर कीर्ति सतपुरुषों का नाम सभी लोग बड़ी श्रद्धा के साथ लेते हैं। ऐसे ही विरले सज्जनों में श्री परमपूज्य श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. भी एक हैं। जिन्होंने अपनी काव्य साधना साहित्य चिंतन एवं तपश्चर्या द्वारा अपने जीवन को एक अनमोल हीरे के समान बना दिया। जैसे हीरा समस्त पहलुओं से प्रकाश फैलाता है। उसी प्रकार आपकी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक पवित्रतासे, ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र की रश्मियां प्रकाशित हो रही हैं। आपने अपने साहित्य द्वारा जैन समाज में जाग्रति व क्रांति का एवं सामाजिक सुधार का उद्घोष किया। जो समाज विभाजित था उसे एकता के सूत्र में बांधा। आपने लगभग ६१ ग्रन्थों की रचना की। उसमें सबसे बड़ा ग्रन्थ है "श्री अभिधान राजेन्द्र कोष। जो लगभग सात भागों में विस्तृत है। इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर ९२०० पृष्ठ हैं। इस ग्रन्थ में आपने समस्त विषयों का रहस्य उद्घाटित कर दिया है। इस प्रकार कोई भी विषय ऐसा नहीं है जो इस ग्रन्थ से अलग है। आपके इस अमर ग्रन्थ की भारतीय विद्वानों ने ही नहीं अपितु जर्मन, जापानी, अमेरिकन, फ्रान्सीसी आदि कई विदेशी विद्वानों ने भी मुक्त कंठसे प्रशंसा की है। परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जीवन व्यापक एवं विराट था। उनका परिचय शब्द श्रृंखला की कड़ियों में आबाद्ध करना सूर्य को दीपक दिखाना है। उनका आध्यात्मिक विश्व रंगीन गुण रुपी पुष्पों से सुरभीत था। भौतिक जगत में पदार्थों की मनोरम विचित्रता पायी जाती है वैसे ही सत्यदृष्टा पूज्य गुरुवर के जीवन में दिव्य एवं भव्य भावों की प्रचुरता उपलब्ध होती है। आपके त्याग की गरिमा सम्मानित अपराजित एवं साहस से आज भी चमत्कृत है। क्षत्रीय का सच्चा शृंगार, शौर्य, साहस और त्याग ही है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके जीवन में कई ऐसे चमत्कार हुए हैं। जिसकी गणना हम क्रोड़ों जिव्हाओं से भी नहीं कर सकते है। आपके त्याग और साध्वाचार के कठिन नियमों का पालन देखकर बडे-बडे क्रुर, हिंसक भयानक पशु भी अपनी क्रुर वृत्ति को छोड़कर नत-मस्तक हो जाते थे। एक बार पूज्य गुरुदेव ने जालोर के पहाड़ (स्वर्णगिरि तीर्थ) में अपनी साधना करने की ठानी। इस पहाड़ में एक शेर रहता था। भक्तों ने बड़ा आग्रह किया परन्तु गुरुदेव ने एक न मानी। रात को जहाँ पूज्य गुरुदेव ध्यानावस्था में थे। नवकार मंत्र का जाप कर रहे थे। वहाँ शेर चुपचाप बाहर बैठकर सुन रहा था। जब दूर से यह हाल लोगों ने देखा तो बड़े घबराये। कुछ समय पश्चात् जैसे ही गुरुदेव का जाप बन्द हुआ कि शेर चुपचाप उठकर चला गया। यह था पूज्य गुरुदेव का चमत्कार। परम पूज्य गुरुदेव की दिव्यता और भव्यता अनौखी क्षमता के तारों से सुबंधित मधुर-स्वर लहरियों से आज भी झनझना रही है। आपकी करूण्य कणिका के सौरभ की अनुभूति नवागन्तुक व्यक्ति को प्रथम दर्शन मात्र से ही हो जाती है। पूज्य गुरुदेव का जीवन-चरित्र भक्तों के लिए अमृत है। समाज के लीए संजीवन है और विश्व की भटकती जनता के लिए जगमगाता प्रकाश पूंज है। इस प्रकार पूज्य गुरुवर की अनेक विशेषताएँ है। उनकी ओजस्विता और तेजस्विता अपने एवं समस्त मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हुई। मैं उन महान् विरल विभुति को, जो पोष शुक्ला सप्तमी को मोहनखेडा स्थल पर स्वर्गवासी हुए है अत: भावरूपी पुष्पो को समर्पित करते हुए हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करती हुं। ऐसे युग प्रवर्तक, युग पुरुष, युगवीर गुरुदेव के चरणों में श्रद्धायुक्त नमन करती हैं। • इच्छित कार्य सिद्ध न होने पर अथवा मनोकामना पूर्ण न होने पर या स्वयं के प्रयत्न असफल हो जाने पर ज्ञानी जन भाग्य को दोष न देकर अपनी कार्य प्रणाली की गल्तियों, भूलों पर ध्यान देकर संशोधन करते हैं। किंतु अज्ञानी व्यक्ति अपनी निष्फलता का दोष भाग्य या दूसरे सिर मढते हैं। जैसे हारा हआ जुआरी अपनी भूल या गलती पर ध्यान देकर सामने वाले को दोष देता है। ६० जहाँ विवेकयुक्त ज्ञान हो, सम्यग्ज्ञान हो, वहाँ अभिमान, दंभ, हिंसा, वैर, ईर्ष्या-द्वेष, ममत्व होगा ही नहीं। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम और साधना के प्रतीक पूज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल' लेखक - श्री जयन्तीलाल जैन (आलीराजपुर) जयवंता जिन शासन में उच्च कोटि की आत्माएँ हुई हैं जिन्होने स्वत्यागबल से आत्मोत्थान तो किया ही है इसी के साथ आत्म उत्कर्ष की इस परम्परा को अक्षय रुप भी दिया है। जैन समाज को सदैव पूज्य मुनि भगवंतो ने ज्ञान रुपी गंगाजल से समाज को प्रगति की ओर अभिमुख किया है। मेरी कल्पना में अगर यह श्रमण परंपरा नहीं होती तो महावीर का यह धर्म जीवंत नही रह सकता था। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ महावीर के परिनिर्वाण के बाद इस त्याग प्रधान परम्परा को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अनेक बलिदानो की गौरव गाथा आजभी हमें गौरवान्वित करती है। श्री सुधर्मास्वामी से चली इस परम्परा का इतिहास अनोखा है। अनेक युग प्रधान पुरुष हुए हैं। जिन्होंने ज्ञानबल और यौगिक आत्म शक्तिओं से समय-समय पर श्रमण धर्म परम्परा को पुनीत किया है। इस श्रृंखला का विराम कभी नहीं होता है। क्योंकि कालचक्र का स्वभाव सदा से उत्थान और पतन की भूमिका अदा करता आया है। बीसवी शताब्धी के महान् युग प्रवर्तक परम योगीन्द्राचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सौधर्मबृहत् तपोगच्छीय परम्परा में एक देदीप्यमान युगपुरुष हुए हैं जिन्होंने स्वआत्म प्रकाश से श्रमण धर्म के शिथिलाचार रुपी अध: पतन को दूर किया है। साथ ही श्री श्रमण भगवन्त महावीर की शुद्ध परम्परा में श्रमण संघीय आचार मर्यादा का शुद्ध रुप से प्रतिपादन किया। क्रांति का यह शंखनाद युगो युगों तक आचार मर्यादा के प्रति योगदान देता रहेगा। इस पुनीत परम्परा मे २०१२ आषाढ़ शुक्ला ११ को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में प.पू. व्याख्यान वाचस्पति श्रीमद्विजयतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों द्वारा श्री अमोलकचन्द ने दीक्षा ग्रहण की वं मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी के नाम से घोषित हुए। पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जन्म आलीराजपुर नगर में श्रेष्ठीवर्य श्री रतिचन्दजी पोरवाल की धर्मपत्नि श्रीमती धनीबाई की रत्नकुक्षी से वि.सं. १९९३ चैत्र शुक्ला ११ को हुआ था। १७ वर्ष की अल्पायु में ही वैराग्य भावनाओं से इतने रंग गये थे कि संसार त्याग ही एक मात्र विकल्प था। व्याख्यान वाचस्पति गुरुदेव श्री के पावन सानिध्यता में रहकर ज्ञान उपासना में एकाकार हो गये। ५ वर्षों तक गुरुसानिध्यता में रहकर बौद्धिक प्रतिभा से संस्कृत, व्याकरण और जैन दर्शन का गहरा अध्ययन किया। पूज्य गुरुवर के महाप्रयाण के पश्चात् अनेक चातुर्मास समवयस्क गुरु भ्राताओं के साथ किये। जब वे गीतार्थ बन गये तो स्वतंत्र रुप से विचरण कर प्रथम चातुर्मास भी आलीराजपुर में किया। अपनी ओजस्वी वाणी से ज्ञान गंगा के प्रवाह से अतृप्त श्रावकों को ज्ञानामृत से तृप्त किया। वि.सं. २०३० ज्येष्ठ कृष्णा ६ को मुनिश्री लेखेन्द्रविजय म. को शिष्यरुप दीक्षा प्रदान की। इसी क्रम में २०३४ में मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी को दीक्षित किया। पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व का रहा है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में अनेक उल्लेखनीय चातुर्मास एवं धार्मिक आयोजनों में संघ प्रयाण, प्रतिष्ठा, जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव, धर्म प्रचार श्री यतीन्द्रसूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर की स्थापना आदि ऐसे अनेक मानवता के विकास से हो देवत्व, साधुत्व, आचार्यत्व, सिद्धत्व का सृजन-विकास हो सकता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रचनात्मक कार्य किये हैं। विक्रम सं. २०३५ में श्री मोहनखेड़ा की पानव भूमि से दक्षिण की ओर प्रयाण किया। यह भी एक उल्लेखनीय प्रसंग है कि सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय त्रिस्तुति आम्नाय के वे ही एक मात्र साधु पुरुष थे जिन्होंने दक्षिण की ओर अपने दोनों शिष्य मुनि श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी को साथ लेकर विहार किया। जैन जगत् के इतिहास के उल्लेखनीय पृष्ठों में भद्रबाह स्वामी ने दक्षिण भारत में धर्मप्रचार किया। परन्तु इस परम्परा में आपही ने दक्षिण प्रान्त में पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के नाम का शंखनाद किया। समय की गति के साथ अब इसी परम्परा के मुनिगण एवं साध्वीगण विचरण कर रहे हैं। समग्र दक्षिण भारत की यात्रा कर सर्वत्र विविध अनुष्ठानों एवं बिजापुर, मैसुर, चित्रदुर्ग, बम्बई आदि नगरों में अनेक उल्लेखनीय चातुर्मास से अभूतपूर्व जिनशासन प्रभावनाएँ की है। जो त्रिस्तुतिक जैन समाज में एक अमिट है। साधना की दृष्टि से उनका जीवन अक्षरों में बद्ध नहीं कर सकते हैं। इस परम्परा में सर्व प्रथम मां भगवती पद्मावती देवी के चौविस (२४) भुजा के रुप में २०२६ में पालीताणा के चातुर्मास दौरान साक्षात् दर्शन किये। अनेक आत्माओं के जनकल्याण में स्व अर्जित आत्म शक्ति का प्रयोग किया है। उनके द्वारा अभिमंत्रित वासक्षेप की महिमा तत्कालिन समय में उसके अचिन्त्य प्रभाव को अनेक लोगों ने अनुभव किया है। साधना की अप्रतिम शक्ति से उनकी तेजस्विता अपूर्व थी। वाणी का ओज, संयम की पवित्रता, निर्भिकव्यक्तित्त्व एवं स्वतंत्र विचारो की प्रतिपादन शैली भी अनोखी थी। वि.सं. २०४० को पालीताणा में चातुर्मास किया। आसोज सुदि ८ को पूज्य प्रवर को अपनी महाप्रयाण की निकटता का ज्ञान हो गया। लेकिन उनके हृदय में एक बात की अत्यधिक आत्मप्रसन्नता थी कि उन्हें जाने का गम नहीं था। क्यों कि उनके दोनो शिष्य सर्वांगीण रुप से विकसित हो गये थे। पालीताणा का अंतिम चातुर्मास कर मरुधर भूमि की ओर क्षेत्र स्पर्शना की २०४० में तत्कालिन समय में श्रमण संघ के निर्णय की घोषणा कर पूज्य आचार्य देव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी जी म.सा. को गच्छाधिपति के पद से विभुषित किया गया। विलक्षण प्रतिभा के धनी, कर्म योद्धा धर्म पुरुष पूज्य प्रवरने सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय की परम्परा में श्रमण संघ की महत्ता को स्थाई कीर्तिमान देने हेतु अनेक वैचारिक संघर्ष किये। अंतत: उन्होने इसमें सफलता का एहसास किया है। ३० वर्षों तक अनवरत समाज की सेवा करते करते २०४० में चैत्रवदि ९ रविवार २५ मार्च १९८४ को यह परमहंस श्री पार्श्वनाथ प्रभु का स्मरण करता हुआ महाप्रयाण कर गया, अतीत के इतिहास में पूज्य प्रवर एक अध्याय के रुप मे जुड गये । महाप्रयाण के पूर्व पूज्य मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी म. ने अपने शिष्यरत्न मुनिश्री लोकेन्द्र विजयजी को सान्त्वना देते हुए कहा था - " मेरे महाप्रयाण के बाद तुम लोक किसी प्रकार से चिंतित मत होना। अब तक मेरे दो हाथ थे, आज से मेरे सहस्त्र हाथ होगे। तुम्हें जब भी उलझन हो, कष्ट हो, या कोई समस्या हो तो मुझे याद कर लेना। मै सदासर्वदा तुम्हारे निकट हैं, और निकट रहूँगा।" सचमुच मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी म. की छत्रछाया, हर उलझन, हर समस्या में शीतलता, शांति और समाधान प्रदान करती है। यह अनुभव गम्य प्रमाण है। उनका स्मरण सचमुच सुखद एवं प्रेरक है। आपकी पावन स्मृति में आपके दोनों शिष्य रत्न मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म. ने श्री "मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन महातीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम" तथा "श्री पार्श्वपद्मावती शक्तिपीठ गुरुलक्ष्मण ध्यान केन्द्र' जैसी संस्थाओं का निर्माण कर उनकी कीर्ति को चहुं दिशा में प्रसारित किया है। अपने युग के सूर्य स्व. पूज्य श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतलम.सा. की पावन आत्मा को भाव भरा प्रणाम। क्षत्रीय का सचा श्रृंगार, शौर्य, साहस और त्याग ही है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंदन - गीत मुनिश्री लोकेन्द्रविजय ऋषिराज! तुम्हारे चरणों में शत वंदन करते हम। तेरा अभिनंदन करते हम। ॥ ध्रुव ॥ गुगलिया कुल में जन्मे, कमला-सुत नयन सितारे। श्री मोतीलाल के कुल-दीपक, तुम जगती के उजियारे। बाल ब्रह्मचारी मुनिवर को, वंदन करते हम॥ १ ॥ गुरु लक्ष्मण की कीर्ति बढ़ाकर, शिष्य का फर्ज निभाया। धर्म ध्वजा फहराकर जग में, " कोंकण केशरी' पद पाया। धर्म-दीप बनकर मुनिवर तुम, भगा रहे अध तम॥ २ ॥ सरस्वती के वरद् पुत्र! तुम त्यागी तन-मन-धन से। स्वागत करें तुम्हारा मुनिवर, भावों के अर्चन से। करुणा के सागर है मुनिवर! जल की बूंद हैं हम।। ३ ॥ तीर्थों के संस्थापक मुनिवर, युग-युग अलख जगाओ। जैन धर्म के जयकारों को, चहुँदिशि में प्रसराओ। भाव पुष्प " लोकेन्द्र विजय" के अर्पित हैं हर दम॥ ४ ॥ तेरा अभिनंदन करते हम तुम्हें शत वंदन करते हम।। मानव महान हो तो भी, अज्ञान की गुलामी से, सत्य का निरीक्षण नहीं कर पाता। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरल व्यक्तित्व के धनी "कोंकण केशरी" मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी - मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी सृष्टि का शाश्वत नियम है कि वह अनादिकाल से समय - समय पर महान विभूतियों को धराधाम पर अवतरित करती रहती है। इस चौबीसी में श्रमण भगवान महावीर के धर्म तीर्थ में अनके पूज्य आचार्य एवं श्रमण - श्रमणियां हुए और होते रहेंगे। स्वयं की आत्म -साधना के साथ जन-हिताय की मंगल भावना से जन-जन को नई दिशा प्रदान करने वाले अनके श्रमण भगवंत हुए है। यह भी शाश्वत सत्य है कि जन्म से कोई व्यक्ति महान नहीं होता बल्कि अपने कतृत्व से ही व्यक्ति महान बनता है। आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा बनने का जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। भारत की शष्य श्यामला मालव भूमि के रतलाम शहर में विक्रम संवत् २०१३ में श्री मोतीलालजी चुनीलालजी गुगलिया श्री धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी की रत्न-कुक्षी से चैत्र कृष्णा तेरस को एक बालक का जन्म हुआ - माता-पिता ने नाम रखा "अनोखी'। अनोखी के सारे काम अनोखे ही होते थे। छठ्ठी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद स्कूल छोड़कर प्रकृति के अध्ययन में लग गये। समय सहज गति से व्यतीत होता रहा और बालक अनोखी १६ वर्ष का युवक हो गया। एक दिन चैत्र शुक्ला पुर्णिमा को अनोखी श्री शंत्रुजय तीर्थ के नाम से नामांकित श्री करमदी तीर्थ की यात्रा पर गये। तीर्थ दर्शन से लौटते समय अचानक एक प्रभावशाली पूज्य संत के दर्शन हुए और युवक अनोखी ने श्रद्धा से उनके चरण-स्पर्श किये। भव्य आकर्षक व्यक्तित्व, स्मित वदन, वात्सल्यपूर्ण नैत्र अनोखी को आकर्षित कर रहे थे। वे उस महान व्यक्तित्व के आदेश से उनके साथ हो गये। यह महान व्यक्तित्व था पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी महाराज का। आपने अनोखी के हृदय की भावनाओं को जान लिया और पिताश्री मोतीलालजी एवं मातुश्री कमलादेवी से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर अनोखी के साथ रतलाम से प्रस्थान कर गये। वि.सं. २०२९ में पूज्य मुनिश्री लक्ष्मण विजयजी का चातुर्मास कुशलगढ़ हुआ। वैरागी अनोखी के लिए यह चातुर्मास ज्ञान, साधना के साथ-साथ अन्य अनुभवों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बना। चातुर्मास के पश्चात मालव-प्रांत के अनेक नगरों में विचरण करते हुए पूज्य प्रवर आलीराजपुर पधारे। अनोखी छाया की तरह उनके साथ था। और वैराग्य भावना दृढ़ बन जाने से उसने दीक्षा शीघ्र प्रदान करने की भावना व्यक्त की। वैराग्य भावों की उत्कृष्ठता देखते हुए वि.सं. २०३० जेष्ठ कृष्णा - २, दिनांक १९-५-७३ को श्री डूंगरमलजी गेंदालालजी तथा श्री जयंतीलालजी रतिचंदजी पोरवाल की ओर से भव्य पंचालिका महोत्सव प्रारम्भ हुआ। वि.सं. २०३० जेष्ठ कृष्णा ६, बुधवार दि. २३ मई ७३ को हजारों की जनमेदिनी के बीच विजय मुहूर्त में पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल' के कर-कमलों से दीक्षित होकर अनोखी मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजय बन गये। जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हो गया। मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने प्रथम चातुर्मास गुरु सेवा में रहते हुए लक्ष्मणी तीर्थ में किया। गुरुदेव के पावन सान्निध्य में आध्यात्मिक एवं आत्मिक दृष्टि की - - ६४ मैले मन के एक-दो नही अनेकानेक स्वरुप होते है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना से यह चातुर्मास उपयोगी रहा। गुरुदेव के साथ ही वि.सं. २०३१ का चातुर्मास नागदा एवं सं. २०३२ का चातुर्मास महीदपुर में किया। हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं के साथ धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन चलता रहा। महीदपुर का चातुर्मास सम्पन्न कर श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पहुंचे और वहां से गुरुदेव के साथ मुनिश्री ने वि.सं. २०३३ का चातुर्मास राजस्थान के भीनमाल शहर में किया। भीनमाल का यशस्वी चातुर्मास सम्पन्न कर तत्कालीन त्रिस्तुति संघ के आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हुए। वहाँ आचार्यश्री की आज्ञानुसार बृहद योगोध्वन विधि प्रारम्भ की। मुनिश्री के साथ अन्य नौ श्रमण - श्रमणिया भी उस समय योग कर रहे थे। पावन तीर्थ की स्थली श्री भांडवपुर में वि. सं. २०३३ माध शुक्ला तृतीया को पूज्य आचार्यश्री के कर-कमलों द्वारा आपकी बृहद् दीक्षा सम्पन्न हुई। पूज्य आचार्यश्री की आज्ञा से मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल" के साथ मरुधर प्रदेश में आपने विचरण किया। मरुधर प्रदेश के मुंणाणी नगर में आप पधारे। छोटा नगर होते हुए भी श्री संघ की भावना महान थी। उन्हें जब जानकारी मिली कि मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी के लघुभ्राता श्री कवीन्द्र कुमार दीक्षार्थी के रुप में साथ हैं तो जुणांणी श्री संघ के आग्रह पर वहां वि.सं. २०३४ जेष्ठ कृष्णा ६ रविवार दिनांक ८ मई. ७७ को कवीन्द्र कुमार की दीक्षा सम्पन्न हुई और इन पक्तियों का लेखक मुनिश्री लोकेन्द्र विजय के नाम से जाना जाने लगा। मुनिश्री लेखेन्द्र विजय जी की दीक्षा के चार वर्षों के बाद उनके लघुभ्राता भी जेष्ठ कृष्णा ६ को ही दीक्षित हुए। दीक्षा के बाद मैं अपने बड़े भाई मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी एवं पूज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी के साथ विचरण करने लगा। वि.सं. २०३४ का चातुर्मास राजस्थान के आकोली नगर में किया। चातुर्मास सम्पन्नता के बाद सियाणा नगर से भुरजी-भलाजी का मकसर वदि पंचमी को संघ प्रयाण कराया। पूज्य आचार्यश्री के आदेशानुसार मोहनखेड़ा पहुंचे जहां वि.सं. २०३४ को भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ। वि.सं. २०३५ का चातुर्मास थांदला में किया। इसी चातुर्मास में मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी के मन में आत्म साधना के साथ समाज विकास के लिए रचनात्मक कार्य की भावना जगी। समग्र मध्य प्रदेश का दो दिवसीय युवक सम्मेलन बुलाया गया। दहेज प्रथा, मृत्युभोज आदि कुप्रथाओं एवं रुढ़ियों के उन्मूलन की इसमें प्रेरणा दी गई। बालक-बालिकाओं के ज्ञान शिबिरो का आयोजन किया गया। "ज्ञान-प्रकाश' एवं "ज्ञान मंदिर" नामक दो प्रश्नोत्तरी पुस्तकें लिखीं। थांदला चातुर्मास सामाजिक गतिविधियों की दृष्टि से एवं युवा जागरण की दृष्टि से ऐतिहासिक रहा। नि:शुल्क सम्यक्ज्ञान का साहित्य प्रकाशित करने के लिए वि.सं. २०३५ पोष कृष्ण पंचमी को पूज्य मुनिप्रवर श्री शीतलजी की शुभ निश्रा में " श्री यतीन्द्रसूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर" की आलीराजपुर में स्थापना की गई। पूज्य गुरुदेव श्री शीतलजी के साथ मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी की भावना हुई कि दक्षिण भारत में विहार किया जाए और आचार्यश्री से आज्ञा प्राप्त कर दक्षिण प्रयाण का शुभ संकल्प किया। पूज्य आचार्यश्री की आज्ञा से वि.सं. २०३५ माघ शुक्ला ६ को कड़ोद में श्री नमीनाथ जिन मंदिर एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरु मंदिर की प्रतिष्ठा धूमधाम से करवाई। प्रतिष्ठा कार्यक्रम का संचालन मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने किया। दक्षिण प्रयाण के लिए तीर्थ भूमि श्री मोहनखेड़ा से वि. सं. २०३५ माध शुक्ला चतुर्दशी अनन्त पाप के बोझ से जिसका ज्ञान विलुप्त हो जाता है वे कभी भी समझदारी पा नहीं सकते। ६५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रात: विहार किया। मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र को पार करते हुए खानदेश के धुलिया, मालेगांव व आदि नगरों से होते हुए महाराष्ट्र के पूना शहर में त्रिस्तुतिक संघ के मुनियों ने वि. सं. २०३६ चैत्र शुक्ला पंचमी को मंगल प्रवेश किया। पूना में अनेक कार्यक्रम पूजा महोत्सव आदि सम्पन्न हुए। यहां मुनिश्री ने समाज को सुगठित किया और एक सौ पचास घरोंकी सूचि तैयार हो गई। महावीर जयन्तीका आयोजन पूरे जैन समाज के साथ मिलकर मुनिश्री ने मनाया। पूना से कराड पधारे। यहां श्री घेवरचंदजी हिम्मतमलजी तथा श्री चम्पालालजी हिम्मतमलजी द्वारा नव-निर्मित श्री महावीर स्वामी जिन मंदिर एवं गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम ऐतिहासिक रहा। वि.सं. २०३६ जेष्ठ शुक्ला चतुर्दशी को प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। दक्षिण की ओर आगे बढ़ते हुए प्रथम चातुर्मास कर्नाटक के बीजापुर शहर में हुआ। यहां श्री लेखेन्द्र विजयजी के तर्क एवं वैज्ञानिक आधार पर दिये गये प्रवचनों की धूम रही। चातुर्मास में दीवालियों की छुट्टियों के समय बालकों और युवकों के लिए शिबिर आयोजित किये। जैन संगीत पार्टी, चंदनबाला परिषद आपकी प्रेरणा से गठित हुई। जैन संगीत पार्टी आज कर्नाटक और महाराष्ट्र में अपने कार्यक्रमों के लिए सुप्रसिद्ध है। दावणगिरी नगरी में पूज्य दादा गुरुदेव की हीरक जयंती भव्य समारोह के रुप में मनाई। कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर में वि.सं. २०३७ की चैत्री नवपद शाश्वती आराधना करवाई। बैंगलोर से मद्रास की ओर विहार किया। वि.सं. २०३७ जेष्ठ शुक्ला द्वितीया को मद्रास पदार्पण हुआ। पंचाहनिका महोत्सव हुआ तथा मद्रास के बीस दिनों में श्री लेखेन्द्र विजयजी ने अपने प्रवचनों से धर्मप्रेमियों को मोहित कर दिया। मद्रास से विहार कर अषाढ़ शुक्ला तृतीया को चातुर्मास हेतु मैसूर पधारे। यहां गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल' की दीक्षा रजत जयंती का महोत्सव भव्य रुप में सम्पन्न हुआ। मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने गुरु चरणो में " मोहरों का मूल्य" उपन्यास अर्पित किया। आपकी यह सर्व प्रथम रचना है। चातुर्मास में नमस्कार महामंत्र की आराधना और अन्य आयोजन आदि तथा ज्ञान शिबिर मुनिश्री के निर्देशन में हुए। चातुर्मास के बाद श्रवणवेलगोला पधारे और भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी से मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी की लम्बी वार्ताएँ हुई। आगामी चातुर्मास चित्रदुर्ग में सफलता पूर्वक करने के बाद पुन: बैंगलोर पदार्पण हुआ। बैंगलोर से बम्बई के मार्ग में पूना में नव-पद की आराधना के दौरान वि.सं. २०३९ का चातुर्मास बम्बई में करने का निर्णय लिया। इसके बीच पूना-लस्कर पधारे और वहां मुनिश्री लेखेन्द्रविजयजी ने लस्कर जैन समाज को एकता के सूत्र में बांधने का उल्लेखनीय कार्य किया। मुनिश्री मुलत: साहित्कार हैं अत: जब भी समय मिलता है अपनी लेखनी से कुछ न कुछ सरस्वती के भंडार में अभिवृद्धि करते हैं। साहित्यकारों, विद्वानो आदि का सम्मान और सहयोग करना उनकी विशेषता है। आपने महाराष्ट्र के भिवंडी शहर से १३ जून, १९८२ को "दीक्षा" नामक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। वि.सं. २०३८ का बम्बई चातुर्मास उल्लेखनीय सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के पश्चात पालीताणा पधारे, वहां वर्तमान गणाधीश आचार्यश्री हेमेन्द्रविजयजी की पावन निश्रा में श्री राजेन्द्र विहार दादावाडी में श्री आदिनाथ जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा कार्यक्रमों में भाग लिया। वि. सं. २०४० का चातुर्मास भी गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल" का पालीताणा में हुआ। इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि इस पवित्र भूमि में मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी को विशेष मानसिक चिंता - फिक्र एक प्रकार की ठंडी आग है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना कराई जाय । पूज्यश्री लक्ष्मण विजयजी ने वि.सं. २०२६ में इसी तीर्थ में आराधना के दौरान चौबीस भुजायुक्त भगवती श्री पद्मावती देवी का साक्षात्कार किया था। अपने प्रिय शिष्य को योग्य समझकर उनमें आन्तरिक शक्ति जागृत करने का गुरुदेव का चिंतन था । चातुर्मास काल में २१ दिन की महान शक्तिसाधना गुरुदेव श्री शीतलजी ने मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी से करवाई। संकल्प के धनी मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने गुरु लक्ष्मण विजयजी की कृपा से कठिन साधना सफलता पूर्वक सम्पन्न की। इस साधना को पूर्ण हुए पन्द्रह दिन भी नहीं हुए थे कि गुरुदेव ने दूसरी साधना का आदेश देते हुए कहा कि इस साधना को कर लेने के बाद तुम अन्तर और बाहर दोनों दृष्टि से सक्षम बन सकोगे और मेरे नहीं रहने पर भी तुम्हें कोई चिंता नहीं होगी। मुनिश्री भगवती पद्मावती की साधना में लीन बने और मां भगवती ने गुरुकृपा से दर्शन भी दिये। उसी दिन से उच्च कोटि के साधकों की श्रृंखला में आपका नाम भी जुड़ गया। पालीताणा से विहार कर राजस्थान के आहोर नगर पधारे। पूज्य मुनिराजश्री हेमेन्द्र विजय जी के आचार्य पद समारोह में भाग लेकर गुरुदेव श्री शीतल जी जवाई बांध पधारे जहां उनका सफल ऑपरेशन हुआ । पूज्य गुरुदेव को आयुष्य की पूर्णाहुति का भान होने लगा और उन्होंने संकेत भी दिये। जवाई बांध से विहार कर जालोर पधारे, जहां हॉर्नियां का ऑपरेशन हुआ जो असफल रहा। जालोर में वि.सं. २०४० चैत्र वदि ९ को रात्रि के ८ बजकर २५ मिनट पर उन्होंने यह पार्थिव शरीर त्याग दिया। अंतिम क्षणों में कई महत्वपूर्ण आदेश दिये। आंतरिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति दी और विदा होते-होते कह गये "मैं जा रहा हूं, पर याद रखना अब तक मेरे दो हाथ थे लेकिन सहस्त्र हाथ हो जायेंगे। जब भी तुम्हें आवश्यकता लगे मुझे याद रखना। मै तुम्हारे लिए मौजूद रहूंगा । "हम दोनो के लिए उनका यही आशीर्वाद सम्बल है। गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल" के महाप्रयाण के पश्चात पूज्यश्री लेखेन्द्रविजयजी पर अनेक दायित्व आ गये। गुरुदेव के अप्रत्यक्ष आशीर्वाद और अपने मनोबल से उन्होंने मरुधर प्रदेश में धर्म - यात्रा का अभियान शुरु किया । पू. आचार्यश्री लब्धिचन्द्र सूरीजी एवं योगनिष्ठ श्री कमल विजयजी महा. की निश्रा में वि.सं. २०४१ वैशाख शुक्ला पंचमी को कोरा नगर में होने वाले प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए। इस अवसर पर पूज्य गच्छाधिपति आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी की आज्ञा से साध्वीश्री महेन्द्रश्रीजी अन्तेवासिनी गुणवन्ती बहन को मुनिराजश्री ने दीक्षा प्रदान की। बाकरा रोड में ज्योत्सनाबहन की दीक्षा साध्वीश्री महेन्द्रश्री की अंतेवासिनी के रुप में आपके हुई। स्व. पूज्य गुरुदेव की अंतिम इच्छा के अनुरूप जालोर के निकट "भागली प्याऊ नामक स्थान पर दस बीघा जमीन में वि. सं. २०४१ आषाढ़ कृष्णा १० दिनांक २४ जून १९८४ ई. को मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने "श्री मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम " तीर्थ की स्थापना की। इस वर्ष का चातुर्मास भीनमाल के निकट जुंजाणी गांव में हुआ । ३० घरों की वस्ती में पर्युषण में ९० अट्ठाईयां हुई। यह चातुर्मास अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक रहा । मगसर सुदि ३ को श्री लक्ष्मण धाम का भूमिपूजन कर कार्य प्रारम्भ हो गया। गुरुदेव की प्रथम पुण्यतिथि श्री गुरु लक्ष्मण धाम में भव्यरुप में मनाई गई। यहां से पाथेड़ी नगर पधारे। यहां ३०० वर्ष प्राचीन श्री गोडी पार्श्वनाथ प्रभु के पगलिये गांव के बाहर स्वतंत्र रूप से निर्मित मंदिर में विराजमान थे। जहां अशुद्धियां होने लगी। पिछले ७० वर्षो से अनेक आचार्यो, अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। For Private Personal Use Only ६७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों ने पगलिया जी को गांव में लाने के लिए श्री संघ को प्रेरित किया लेकिन आपसी विवादो के कारण वह संभव नहीं हुआ। पूज्य मुनिश्री ने उसको संभव कर दिखाया और वि.सं. २०४२ वैशाख शुक्ला तृतीया को पगलिया जी की छत्री बनाकर गांव में विराजमान किया गया। वहां से मुनिश्री बोरटा पधारे और फिर आहोर में प्रवेश किया। जहां साध्वीश्री चन्द्रप्रभाश्रीजीने ८१ उपवास किये जिसकी अनुमोदना का महोत्सव मुनिश्री की निश्रा में भव्य रुप में सम्पन्न हुआ। आहोर से प्रस्थान कर श्री बामणवाड़जी तीर्थ, नांदिया तीर्थ की यात्रा करते हुए वि.सं. २०४२ का चातुर्मास दासपा नगर में किया। वहां से चातुर्मास के बाद पोसाणा पधारे एवं गुरुदेव की रितीय पुण्यतिथि गुरु लक्ष्मणधान में मनाई जिसमें आचार्य श्री लब्धिचन्द्र सूरीश्वरजी एवं श्री कमल विजयजी महाराज भी पधारे। वि. सं. २०४३ का चातुर्मास बागरा में करने के बाद भीनमाल श्री मूलचंदजी बाफना द्वारा निर्मित प्रवचन हॉल का उद्घाटन किया। यहां से आप आचार्यश्री की आज्ञा लेकर शंखेश्वर तीर्थ पधारे। वहां आपने संकल्प किया कि मैं यहाँ तभी आऊंगा जब आपके नाम से आपकी भूमि पर कुछ निर्माण कार्य करुंगा। यहीं आपने श्री पार्श्वपद्मावती के १०८ महापूजन कराने का संकल्प भी किया। यहां से आप भिलड़ियाजी, मांढेरा, गांम्भू पार्श्वनाथ, महेसाणा आदि की यात्रा करते हुए बामणवाडा पधारे। आप पूज्य आचार्यश्री के साथ भीनमाल पधारे जहा माध शुक्ला तेरस से चैत्र कृष्ण तेरस तक उपधान तप का कार्यक्रम श्री धेवरचंद बाबूलाल नाहर की ओर से शानदार ढंग से सम्पन्न कराया। आचार्यश्री के साथ "गुरु लक्ष्मण धाम" की ओर आपने विहार किया। वि.सं. २०४४ की नौ-पद ओली का कार्यक्रम बागरा वाले श्री सौभागमलजी ताराजी की ओर से हुआ। पूज्य आचार्यश्री ने मोहनखेड़ा चातुर्मास के लिए विहार किया और उनके साथ विहार में गोगुंदा घाट में मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी को दुर्घटना में चोट आई किन्तु गुरुकृपा से संभल गये। वि.सं. २०४४ वैसाख शुक्ला ६ को शंखेश्वर तीर्थ में प्रतिष्ठा का भव्य कार्यक्रम आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरीवरजी के करकमलों से हुआ जिसकी अधिकांश जिम्मेवारी मुनिश्री ने लेकर सफलता पूर्वक निभाई। जेष्ठ शुक्ल दसमी को पादरु में गुरुदेव की मूर्ति की प्रतिष्ठा सम्पन्न की। मोहन खेडा तिर्थ मे चातुर्मास सम्पन्न कर निभाड क्षेत्र का विचरण करते हुए पूज्य गुरुदेव स्व. लक्ष्मण विजयजी की जन्मभूमि में पधारे। मालव क्षेत्र की धर्म यात्रा में जगह-जगह विशेष प्रवचन, आयोजन आदि हुए। आपकी कर्मठता, नम्रता, लगनशीलता और विद्वता से आचार्यश्री सदा प्रसन्न रहते थे। पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजय जी का व्यक्तित्व और कतृत्व इतना महान है कि उसे शब्दों में लिपिबद्ध करना कठिन है। आपने गुरु सेवा, ज्ञानाभ्यास, व्यक्तिगत साधना आदिके साथ समाज उत्थान के लिए विभिन्न आयाम प्रस्तुत किये। युवावर्ग में धार्मिक जागरण के लिए सम्मेलन, ज्ञान शिबिर आदि लगाये। धर्म यात्रा के दौरान अपने प्रवचनों से जन-जन में भारतीय संस्कृति का संदेश पहुंचाया। सम्प्रदायवाद की संकुचित विचारधाराओं का उन्मूलन करते हुए भगवान महावीर का संदेश एवं सिद्धान्त फैलाया। परम् श्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री "शीतल" जी की स्मृति में श्री मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ एवं श्री शंखेश्वर में श्री पार्श्वपदमावती शक्ति पीठ की ६८ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना गुरु की यश: कीर्ति को शाश्वत रुप दिया। सदा प्रसन्नचित्त, हँसमुख चहेरा एवं तेजोदीप मुखमंडळ की आभा जन-जन को आकर्षित करती है। कोंकण क्षेत्र के अधिकांश नगरों में विचरण कर आपने अभिनव कीर्तिमान स्थापित किया। इस यात्रा के दौरान महान कीर्ति श्री शंखेश्वर में श्री पार्श्वपदमावती शक्तिपीठ गुरु लक्ष्मण ध्यानकेन्द्र की स्थापना के लिए आपने घोषणा की और शक्ति पीठ का स्वप्न साकार हो गया। आपने शंखेश्वर की पावन धरा पर संकल्प लिया था कि हम श्री पार्श्व पदमावती महापूजनो का १०८ का आयोजन करेंगे। जिसका अंतिम पूजन श्री शंखेश्वर में होगा। संकल्प के धनी पूज्यश्री ने अल्प समय में ही ६२ महापूजनों को शानदार एवं भव्य रुप में सम्पन्न किया। आप स्वयं उपासक हैं, सिद्ध वचन की गरिमा से युक्त हैं और नयनों से साधना की ज्योति प्रकाशित होती है। पूज्य श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी का सबसे छोटा भाई होने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ है। पुण्य संयोग से आठ वर्ष की उम्र से ही गृह त्यागकर आपकी पवित्र सेवा का सौभाग्य मिला है। उनके हर कार्य में सहभागी बनकर समाज सेवा करने का मेरा संकल्प है। मेरे जीवन विकास में आपका महान योगदान है और मुझे निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए प्रयत्नशील हैं। अपना अहोभाग्य समझता हूं कि ईस लेख के द्वारा मुझे विस्तार से आंतरिक भावनाएं व्यक्त करने का अवसर मिला। पूज्य मुनिश्री ऐसे युवा धर्मपुरुष हैं जो अपनी समग्र तेजस्विता और कार्य द्वारा धर्म एवं समाज को चेतनता प्रदान कर रहे हैं। धर्म पुरुषों की पावन श्रृंखला में पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी भी जड गये हैं जिनकी यशोगाथाएं इतिहास सदा गाता रहेगा। भावभरा अभिनंदन एवं वंदना। • पल-पल जो जागृत रहे, वह साधू। निद्रा में भी जो जागृत हो वह साधु जब संसार के अनेक प्राणी सुख-दु:ख की अनन्त कल्पनाओं के बीच थक कर सो गये होते है तब साधू-जन सभी प्रकार के सुख दुःख की विभूति लगा कर आत्म-सचेत दशा में विचरण करता रहता है। इनकी निद्रा शरीर की थकावट उतरने हेतु नही, मात्र कायस्वभाव होती है। सज्ञान के बिना मुक्ति नहीं। सद्ज्ञान के बिना अनन्त सुख की भी उपलब्धि नहीं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास सत्य का उद्गाता है! वस्तुत: जैन श्रमण परम्परा की दृष्टि से १७ वी, १८ वीं और १९ वीं शताब्दियों को • एक ऐसा संक्रमण काल माना जाता है। जब मुनि धर्म पालन में विसंगतियां पैदा हई, तर्कवितर्क हुए, वाद-विवाद हुए, किन्तु साथ ही तत्वबोध भी हुआ इसी संक्रमण काल में संवत् १८८३ में भरतपुर (राजस्थान) में एक परम पवित्र जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ। उसे इस भौतिक संसार ने उसके बाल्यकाल में रत्नराज के नाम से जाना पहचाना। "पूत के पाँव पालने में" कहावत के अनुसार बालक रत्नराज की धार्मिक भावनाए, उनकी सत्प्रवृतियां प्रारंभ से ही उजागर होने लगी। रत्नराज ने शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक नियमों का निर्वाह करते हुए अपने बंधु श्री मणिलालजी के साथ देश विदेश में खुब धन अर्जित किया। किन्तु स्वर्जित धन भी रत्नराज के विरक्त मन को न बांध सका। धनोपार्जित सुख सुविधाएं उनके धार्मिक मन को जीत न सकी। उनका मन और भी ज्यादा विरक्त होता चला गया। जब मन में "अगम का दीप बिन बांती, बिन तेल' की भाँति प्रज्वलित हो जाता है, तो विरक्ति का पथ आलोकित होता है। मन रुपी पात्र शिव सुख रुपी स्नेह से (जीव मात्र के कल्याण की भावना से) भर जाता है। रत्नराज ने उस आलोक में अपने गंतव्य की झलक पा लीं। उन्होने अपने जीवन का परम लक्ष्य निश्चित कर लिया। २० वर्ष की युवावस्था में संवत् १९०३ में रत्नराज ने अपने सुपथ दर्शक, धर्ममार्ग प्रेरक, गुरुदेव की पावनीय निश्रा में श्रमण धर्म अंगीकार किया। अध्ययन, मनन, चिन्तन अध्यवसाय से मन धीरे-धीरे धर्म के रंग में रंगता चला गया। जैसे जैसे धर्म का मर्म आत्मस्थ होता गया, वैसे वैसे श्रमण जीवन का वास्तविक रुप उनके समक्ष प्रगट हुआ। उन्होने समझ लिया, यति जीवन के नाम पर जो "बनाया" और "चलाया" जा रहा था। वह वस्तुत: श्रमण धर्म नहीं था। इसलिये उन्होने नया संकल्प किया श्रमण धर्म की पुन: वास्तविक स्थापना हेतु उन्होने यति धर्म का क्रियोद्वार कर शुध्द समकित "श्रमण धर्म" को नये युग में प्रविष्ठ किया। यति धर्म के शिथिलाचारी आचरण को समाप्त कर नवीन "श्रमणत्व" (पंच महाव्रत) की पुन: स्थापना करने के साथ वे "श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी" के नाम से जगविख्यात हुए। इन्ही के पदचिन्हित सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा में इन्ही के परम विनित सुशिष्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के विद्वान शिष्यरत्न एवं तत्कालीन आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचंद्र सूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती श्रमण सूर्य आगमदिवाकर मुनि प्रवर की लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' म. सा. ने धर्मक्रांति को समग्र दक्षिण-प्रदेश में फैलाने हेतु त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत २०३५ दिनांक १० फरवरी १९७९ को परम पू. दादा गुरुदेव का अदृश्य आशिर्वाद प्राप्त कर पू. आचार्य देव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी की शुभाज्ञा प्राप्त कर अपने दोनों प्रिय शिष्यों- मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ७० दुष्ट-दुर्जन व्यक्ति मरते समय भी, अंतिम क्षण तक अपनी दुष्टता नहीं छोडते. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शार्दुल' एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी 'मार्तण्ड' के साथ दक्षिण प्रदेश की तरफ विहार किया और लगभग ३ वर्ष तक पूरे दक्षिण प्रदेश का भ्रमण कर गुरु गच्छ की शोभा में अभिवृद्धि कर धर्मध्वजा फहराई। अपनी अमृतमयी वाणी से जनजागरण में नव संचार किया। दक्षिण प्रदेश से वापस आकर अपना अन्तिम चातुर्मास श्री पालीताणा तीर्थ में सम्पन्न किया । पश्चात् चैत्र वद ९ संवत २०४० को रात्रि में प.पू. मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' म. सा. अपने शिष्य द्वय को शुभाशिर्वाद प्रदान कर इहलोक से महाप्रयाण कर गये । इनके महाप्रयाण के पश्चात उस परम्परा के उद्वाहक उनके दोनो शिष्योंने धार्मिक नवोन्मेष को अधिकाधिक प्रचारित और प्रसारित करने के उद्देश से श्री मोहन खेडा तीर्थ में संवत् २०४५ का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न करके पू. आचार्य देवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को अपना मंतव्य बताया कि हम दोनो मुनि गुरुगच्छ और धर्मप्रचार हेतु महाराष्ट्र जाना चाहते है, और समग्र महाराष्ट्र प्रदेश में धर्म चेतना का संदेश देकर जिन शासन व गुरु परम्परा की सेवा करेंगे। यह मात्र मनोइच्छा थी। यह सत्प्रेरित मनोकामना श्रध्दा पुरित भक्ति से की गई मनोवांछा यथा समय पूर्ण हुई। आचार्य श्री ने शुभ कार्य को ध्यान में रखकर अपनी आज्ञा सहर्ष प्रदान की और पूर्ण सफलता की मंगल कामना की। मुनि द्वय को महाराष्ट्र प्रदेश से निवेदन पर निवेदन प्राप्त हुए । निवेदनो में निहित विशेष आग्रह यह था कि महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश में "गुरु सप्तमी" का पर्वोत्सव मुनि द्वय की शुभनिश्रा में इन्दापुर में सम्पन्न हो। इन्दापुर ( तलाशेत ) के श्री संघ का प्रस्ताव उन्हे मान्य हुआ। सन् १९८८ के चातुर्मास में श्री मोहनखेडा तीर्थ में आसोज सुद ५ को फत्तापुरा निवासी शा दलीचन्दजी भियाचन्दजी एवं शा फूटरमल सेनाजो इन्दापुर ( तालशेत ) श्री संघ सहित उपस्थित होकर पूज्य आचार्य देवेश की पावन निश्रा में पुनः उस आग्रह को दुहराया कि आप श्री के आज्ञानुवर्ति तथा पू. मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी 'शितल' म.सा. के सुशिष्यरत्न मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी 'शार्दूल' तथा मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी 'मार्तण्ड' म.सा. को कोंकण क्षेत्र ( महाराष्ट्र प्रदेश) में मंगल विहार करने की इन्दापुर श्री संघ की विनंती मान्य कर आदेश प्रदान करें। पुज्य आचार्य देवेशने तनिक सोच विचार के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में उदारता पूर्वक मुनिद्वय को इन्दापुर में गुरु सप्तमी मनाने की आज्ञा प्रदान कर दी। आचार्य श्री का आदेश प्राप्त कर मुनिद्वय ने इन्दापुर श्री संघ की विनंती स्वीकार की इन्दापुर श्री संघ का चिर संचित स्वप्न साकार हुआ। मुनिद्वय की शुभ निश्रा में गुरु सप्तमी का कार्यक्रम सम्पन्न होगा इस विचार से इन्दापुर श्री संघ गद्गद् हो गया। इसी समय श्री मोहनखेडा तीर्थ में साध्वी श्री मगनश्रीजी की सुशिष्या साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी लातों के अधिकारी कभी भी बातों से नहीं मानते। For Private Personal Use Only ७१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि उपस्थित थी। उनके समक्ष भी इन्दापुर श्री संघ ने महाराष्ट्र प्रदेश में पधारने की विनम्र विनंती की। उन्होने भी आचार्य श्री का आदेश प्राप्त कर महाराष्ट्र प्रदेश में आना स्वीकार किया। इन्दापुर श्री संघ की यह भावना भी पूरी हुई! इसे सहज संयोग ही कहा जायेगा, कि ठीक १० वर्ष पूर्व इसी मोहनखेडा तीर्थ से माघ शुक्ला १४ संवत् २०३५ दि. १० फरवरी सन १९७९ को प.पू. मुनि प्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल" म.सा.ने अपने दोनो शिष्यरत्नों सहित दक्षिण भारत की ओर मंगल विहार कर समग्र दक्षिण भारत की यात्रा की थी। आज ठीक १० वर्ष बाद फिर इसी मोहन खेडा तीर्थ पावन धरा से पुन: दक्षिण भारत में सुप्त धर्म भावना को जगाने धर्म भावना को तीव्र करने और जिनशासन देव की प्रभावना के लिये मुनिद्वय, मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी तथा मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने संवत् २०४५ मगसर वद २ शुक्रवार दिनांक २५ नवम्बर १९८८ को पूज्य दादा गुरुदेव का पावन आशिर्वाद प्राप्त कर प्रात: ८ बजे मंगल प्रयाण किया। और इनके साथ ही प्रयाण किया साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी, साध्वीश्री हेमप्रभाश्रीजी, साध्वीश्री तरुणप्रभाश्रीजी, साध्वीश्री रत्नरेखाश्रीजी, साध्वीजीश्री दर्शनरेखाश्रीजी, साध्वीश्री अनुभवदृष्टाश्रीजी आदि ठाणा ने। यह धर्मयात्रा प्रदीर्घ थी। श्री मोहनखेडा तीर्थ को प्रणाम कर मालवा की शस्य श्यामला भूमि, शांत निर्मल वात्सल्य से परिपूर्ण नर्मदा के आंचल को छोडकर मुनिद्रय रींगनोद, टांडा बाग कुक्षी, अंजड सेंधवा आदि मध्यप्रदेश के गांवो नगरों में जिन शासन की प्रभावना करते हुए अपनी मंजिल की ओर निरंतर अबाध गति से विचरण करते हुए महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश किया। पुखराज एस. जैन कल्याण .लोग सदैव शांति और चैन से जीने की इच्छा वाले होते हैं। सुख शांति का प्रशस्त मार्ग बताने वालों को जनता सदैव सिर-मुकुट के समान समझती है और उनका अनुसरण करती हैं। ७२ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ दिसम्बर सन् १९८८ की प्रभात वेला! मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने महाराष्ट्र की सीमा में मंगल प्रवेश किया। उस समय सुबह-सुबह का वातावरण अत्यन्त सुरम्य था। मुनिद्वय द्रुतगति से विहार करते हुए धुलिया मालेगांव होते हुए नासिक पहुँचे। नासिक का बडा कटु अनुभव रहा। यहाँ गच्छवाद बहुत मजबुत है। गच्छीय मुनि भगवन्तो के अलावा अन्य गच्छ के मुनि भगवन्त यदि यहाँ आते है तो उनके लिये ठहरने, गोचरी पानी आदि की समस्या बनी रहती है, यहाँ तक कि जैन श्रावक भी जानते हुए भी अनजान बने रहते है। इसलिये गच्छीय मुनि भगवन्तों को इस बारे में सोचकर उचित कदम उठाना चाहिये। हो सकता है, भविष्य में अन्य स्थानों पर उनके साथ भी यही व्यवहार हो जाये। पुज्य मुनिराज श्री महाराष्ट्र प्रदेश के फैले सह्याद्रि के विषम मार्गों से विहार करते हुए वासिंद पहुँचे यहाँ कल्याण श्री संघ एवं मोहना श्री संघ के श्रावक दर्शनार्थ आये। और आगे के कार्यक्रम के बारे में विस्तृत चर्चा की। मगसर सुदी पुर्णिमा की शुभ सुबह वेला में कल्याणनगर प्रवेश हेतू महाजन वाडी पहुँचे। महाजन वाडी में परम्परानुसार मुनिद्वय का सामैया कल्याण श्री संघ की तरफ से गाजे बाजे के साथ हुआ। कल्याण नगर के विभिन्न मार्गों से होकर अन्य जिन मंदिर के दर्शन वन्दन के पश्चात् स्टेशन रोड स्थित प्रताप हाल में पधारें। प्रताप हाल में मंगलाचरण के पश्चात मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने ओजपूर्ण वाणी में जिन सुत्रो के आधार पर अमृतमय प्रवचन दिये। प्रवचन श्रवण कर श्रोता गण मंत्रमुग्ध हो गये। मुनि भगवन्तों के कल्याण पधारने का यह पहला अवसर था। स्वामीभक्ति और प्रभावना का लाभ शा जुहारमलजी छोगमलजी ने लिया। यहाँ पर स्थिरता के पश्चात मुनिद्वय ने २७ दिसम्बर १९८८ को प्रात: ७ बजे अपने गंतव्य की ओर विहार प्रारंभ किया और ठीक साढे नौ बजे मोहना गाँव में प्रवेश किया जिन शासनदेव और मुनि भगवन्तों की जय जयकार से गगन मंडल गुंजायमान हो उठा। मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी के दीप्त मुखमंडल पर संतोष की आभा जगमगा रही थी। एक संतोष था, इसलिये कि अपनी समय सीमा में गंतव्य स्थान इन्दापुर (तलाशेत) पहँचना। और सर्वाधिक संतोष इसलिये भी था कि मोहना नगर के श्रावकों में संकीर्णता न होकर सौहार्द्र का भाव था। एक उत्साह था। आनन्द व हर्षोल्लास का वातावरण था। कोंकण क्षेत्र में विहार करने का मुनिद्वय का एक हेतु था, एक उद्देश्य था, कि समाज में व्याप्त भेदभाव व संकीर्णता को दूर कर समानता और सौहार्द्र का वातावरण निर्माण करना ताकि भविष्य में सुखमय और आनन्ददायक वातावरण में मुनि भगवन्तों का विचरण हो। मोहना नगरमें इस दृष्टि से मात्र प्रोत्साहन की आवश्यकता थी। उपयुक्त भूमिका तैयार थी। मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने मोहना के जनसमुदाय को उद्बोधित किया। उन्होने सकल समाज को जिन शासन के उत्तरोतर विकास, समृद्धि और उन्नति के लिये संप्रेरित किया। नूतन इसवी वर्ष सन १९८९. १ जनवरी की प्रभात वेला में मोहना नगरजनों को एक विचित्र अनुभव हुआ। भुवन भास्कर की कोमल किरणों को धरती पर उतरते देखकर नगरजनों को ऐसा आभास हुआ मानो प्रभादेवी वास्तविक ज्ञानी, सिद्ध पुरुष और साधु-संत तो सब कुछ का त्याग कर कल्याण मार्ग पर ही विचरण करते रहते हैं। ७३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहानी सुनहरी किरणोवाले रथ में बैठकर अवतरित हुई हो। मुनि भगवंतो की शुभ निश्रा में श्री अजितनाथ जिन मंदिर एवं दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की मूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम निश्चित हुआ। कार्यक्रम की पूर्ण सफलता के लिये यूवको की अलग अलग समितियाँ बनाई गई। इस प्रतिष्ठा कार्यक्रम से सभी प्रसन्न थे। निर्मल भावनाओं के प्रवाह में बहता हुआ जनसमुह कितना श्रद्धावन्त था कितना आत्मविभोर था। रात्रि में साढे नौ बजे सकल श्री संघ मुनिद्वय के सानिध्य में एकत्रित हुआ। पहले यह भावना थी कि सभी लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार चढावे बोलेंगे। परन्तु जब मुनिभगवन्तों के आदेश पर जाजम बीछाई गई तो लोग जैसे सबकुछ भूल गये और बढचढ कर अधिक से अधिक चढावें बोल कर स्वपार्जित लक्ष्मी का उपयोग करने की होड़ सी लग गई। प्रतिष्ठा का ऐसा अवसर जीवन में यदा कदा ही आता है। इसलिये लोग अगर अपनी सीमा को छोड़कर अधिकाधिक चढावे बोले तो इसमें आश्चर्य ही क्या। सभी प्रकार के चढावे उदारता पूर्वक सोल्लास पूर्ण वातावरण में बोले गये। पूज्य, मुनिद्वय उग्र विहार कर कर्जत पहुँचे. कर्जत में पूर्व में मुनिद्रय के पधारने का कार्यक्रम तय हो चुका था। सो कर्जत के श्रावक गण सुबह सवेरे जल्दीही स्वागतोत्सुक दिखाई दिये। मुनिराज श्री के सामैये और स्वागत की पूर्ण तैयारी थी। जयघोष के साथ पारम्परिक रीतिरिवाज के अनुसार सामैया हुआ और नगर भ्रमण कर जिन मंदिर दर्शन वंदन कर उपाश्रय में पधारकर उपस्थित जन समुदाय को मंगलाचरण सुनाया। कर्जत का जिनमंदिर वर्षों से वाद विवाद का विषय बना हआ था। और इसी कारण मंदिर का निर्माण कार्य अधुरा पड़ा था। सभी की यह हार्दिक भावना थी, कि मुनिराजदय हस्तक्षेप करके इस विवाद को प्रेममय वातावरण में सुलझा दे। इस विचार से प्रेरित होकर सभी लोग रात्रि में उपाश्रय में मुनिद्वय के सम्मुख उपस्थित हुए और अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की। दोनो मुनि भगवन्तो ने गंभीरता पूर्वक इस समस्याकों सुना, समझा और इस समस्या के निराकरण करने का पूर्ण आश्वासन दिया। ४ जनवरी १९८९ को सुबह कर्जत से विहार कर मुनिराज श्री खापोली फांटा पहुँचे। खापोली फांटा के श्री संघ ने भावभीना स्वागत किया। ८ जनवरी ८९ पौष सुद १ का मनभावन सुप्रभात, सुबह-सुबह का मनोरम वातावरण, पक्षियों का कर्णप्रिय कलरव, प्राकृतिक छटा का सुन्दर नजारा और शांत सडक पर चल रहे थे, प्रसन्न मुद्रा में मुनि राजद्वय। दोनो के चेहरो पर मंद मंद मुस्कान, अपने गंतव्य स्थल पर पूर्व निर्धारित समय पर पहुँचने की प्रसन्नतासे ओतप्रोत थी। इन्दापुर के श्री संघ को भी इसी दिन की प्रतीक्षा बहुत दिनों से थी। इन्दापुर का श्री संघ आज अत्यन्त ही प्रसन्न था। वे उन क्षणों की तीव्रगति से प्रतिक्षा कर रहे थे, जिस क्षण दुर शांत सडक पर मुनिद्वय के आने की संभावना थी सभी की दृष्टि उसी ओर लगी थी। सभी के अन्तरतम में एक अजीब सी खुशी व्याप्त थी। और वो...सामने देखो, दो सफेद बिन्द से दिख रहे है, जो अन्य रंगबिरंगे बिन्दुओ में स्पष्ट नजर आ रहे है। अचानक एक शोर उठा, "आ गये पधार गये" और साथ ही गुंज उठा "जिन शासन देव की जय"- "गुरुदेव की जय"- मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी की जय। भाग दौड मच गई, वाद्य यंत्र, मधुर ध्वनि अलापने लगे। ७४ संसार के छोटे-बडे प्रत्येक व्यक्ति आशा और कल्पना के जाल में फांस कर भव भ्रमण करते रहते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो जो सफेद बिन्दु नजर आ रहे थे। अब साफ स्पष्ट हो गये, कि मुनि भगवंतो का पदार्पण हो रहा है। अत्यधिक हर्षोल्लास के वातावरण में मुनिद्वय का सामैया हुआ। स्वागत हुआ और गाजे बाजे के साथ नगर प्रवेश हुआ। आज के इस अनोखे वातावरण का मजा बम्बई-गोवा हाइवे मार्ग से गुजरती बसो से मुसाफिर झाँक झाँक कर ले रहे थे। सभी के हृदय पटल पर आश्चर्य मिश्रीत हर्ष था। जय जय कार के नारों से वातावरण मुखर हो उठा। सामैये के पश्चात श्री दलीचन्दजी मियाचन्दजी परिवार की तरफ से गहुँली की गई और महिलाओं ने मंगल गीत गाये। स्वागत सत्कार के पश्चात मुनिराजश्री सकल श्री संघ के साथ मंदिर गये और मंदिर में प्रभु दर्शन वन्दन के पश्चात उपाश्रय में पधारकर उपस्थित जनसमुदाय को मंगलाचरण सुनाया और संक्षिप्त उद्बोधन दिया। बम्बई गोवा हाइवे पर बसा हुआ इन्दापुर (तलाशेत) महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के रायगड जिले का सुरम्य स्थान है। यहाँ बस स्थानक के समीप सामने ही जैन मंदिर है। प.पू. गच्छाधिपती आचार्य देवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.ने श्रमण सूर्य आगम दिवाकर पू. मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल' म.सा. के दोनो शिष्य रत्न मनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी "शार्दल" एवं मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी 'मार्तण्ड' म.सा.को इन्दापुर में दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की पावन जयन्ति मनाने हेतु अत्यन्त अनुग्रह और हर्ष से आज्ञा प्रदानकर इन्दापुर के श्री संघ की चिर संचित अभिलाषा पूर्ण की थी। न जाने किस किस के पुरुषार्थ और सुकर्मो से चिरसंचित अभिलाषा फलवती हुई। पूज्य मुनि भगवंतो की निश्रा में गुरु जयन्ति का कार्यक्रम सम्पन्न करने की इच्छा को साकार रुप मिला। ___गुरु जयन्ति महोत्सव का कार्यक्रम का शुभारंभ ८ जनवरी १९८९ को हुआ। नवान्हिका महोत्सव का आयोजन हुआ दोनो समय नवकारसी की व्यवस्था रखी गई और ९ दिन तक पूजन पढाई गई। १४ जनवरी १९८९ को गुरु सप्तमी के पावन दिन पर नवकारसी और पूजन का लाभ फतापुरा (राज.) निवासी शा श्री दलीचन्दजी मियाचन्दजी कावेडिया को प्राप्त हुआ। जिस अवसर की चिर प्रतिक्षा थी वह अभिलाषा आज पूर्ण हुई। प्रात: ९ बजे के पूर्व ही बाहर गांव से आत्मीयजन और अतिथियों का आवागमन शुरु हो गया। दो विशाल सभा मंडप बनाये गये व यात्रियों के ठहरने की उचित व्यवस्था की गई। इस जयंति पर्व में सम्मिलीत होने के लिये करीब ५ हजार श्रध्दालू बाहर गाँवोसे पधारे थे। दोपहर लगभग २ बजे भव्य शानदार रथयात्रा का आयोजन किया गया। इन्द्रध्वजा और बैंड बाजे के साथ भव्य जुलुस के रुप में यह रथयात्रा पू. मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और पू. मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी की शुभ निश्रा व मार्गदर्शन में नगर मुख्य मार्ग से गुजर कर वापीस विशाल मंडप में आ गई। इस रथयात्रा में दादा गुरुदेव का भव्य छायाचित्र साथ लेकर जीप पर सवार थे, आज के इस पावन पर्व के आयोजक शा दलीचन्द मियाचंदजी कावेडिया परिवार! श्रावक श्राविकाओं मान्य अतिथियों, कारो, रीक्शा, घोडो से सुसज्जित विविध कतारो से आकीर्ण अपूर्व अंलकृत हाइवे प्रफुल्लित हो उठा। अपने निर्माण काल से आज तक ऐसा भव्य और पवित्र दृश्य उस घरा पर कभी उपस्थित नहीं हुआ था। कितना अपूर्व व अनोखा नजारा था वह। मस्ती और आनन्द से झुमते हुए भक्तगण की जिन शासन देव और दादा मन के दुर्भाव रुप अनि की एक छोटी सी चिनगारी से काया और आत्मा दग्ध हो जाती है, मन भभक कर जल उठता है। ७५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव की जय जय कार से आकाश ध्वनित प्रतिध्वनित हो उठा। कर्जत के बालिका मंडल और युवा मंडल ने दांडिया नृत्य करते हुए अति आनंदित वातावरण को और अधिक आनंदित कर दिया। रथयात्रा लगभग साढे चार बजे भव्य पंडाल पर आकर पूर्ण हई। पूज्य मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने सभा को संबोधित करते हुए दादा गुरुदेव प.पू. आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.के जीवन का सार वैशिष्ठय अत्यन्त सारगर्भित शब्दावली में समझाया। मुनिराजश्री ने बताया कि महाराष्ट्र प्रदेश में और वह भी कोंकण प्रदेश में यह पहला अवसर है, कि गुरु सप्तमी का कार्यक्रम इतने विशाल और भव्य पैमाने पर आयोजित किया गया है। इसी सभा में मुनिराज श्री ने सहर्ष तीन घोषणांए की: वह यह की १) श्री शंखेश्वर तीर्थ में श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ गुरुलक्ष्मण ध्यान केन्द्र की स्थापना की जायेगी। २) इस वर्ष का चातुर्मास कराने की आज्ञा श्री प्रतापचंद नवलाजी परिवार को प्रताप हाल कल्याण में कराने की प्रदान की जाती है। ३) आगामी वर्ष की गुरु सप्तमी का पावन पर्व मोहना नगर (कल्याण) में मनाई जायेगी। इसका लाभ पुखराजजी भगवानजी परिवार आहोर (राज.) वाले ले रहे है। करतल ध्वनियों की गडगडाहट में मुनिराजश्रीने अपना प्रवचन पूर्ण किया। मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी ने अपनी भावुक और हृदयस्पर्शी शैली में दादा गुरुदेव के संस्मरण सुनाए। उन्होने गुरुदेव की याद ताजा कर दी। श्रोताओ ने अपनी भावनांजलीयां अर्पित करते हुए गुरुदेव को नमन किया। सभा के समापन के समय शा. फुटरमल सेनाजी की ओर से पूज्य मुनिराजद्रय को कामली समर्पित की गई। अनेक विविध कार्यक्रमों के साथ सभा सानन्द सम्पन्न हुई। भगवान भुवन भास्कर का रथ अस्ताचल की ओर तीव्रगति से दौड रहा था। सभा समाप्ति के पश्चात इसी विशाल पंडाल में स्वामीवात्सल्य का आयोजन रखा गया था। महत्वपुर्ण बात तो यह है कि इन्दापुर इतना छोटासा गांव होते हुए भी प्रबन्ध कर्ताओने इतनी सुन्दर व्यवस्था की थी, कि किसी भी व्यक्ति को कोई तकलीफ नहीं हुई। वास्तव में प्रबन्धकर्ता धन्यवाद के पात्र है। कार्यक्रम को सानन्द निर्विघ्न समाप्त कर मुनिद्वय ने इन्दापुर (तलाशेत) से मंगल विहार किया। इन्दापुर के श्री संघने मुनिद्रय को भावभीनी विदाई दी। महाराष्ट्र और दक्षिण की मुनिद्वय की इस यात्रा का श्रेय निश्चित ही शा दलिचन्द मियाचन्दजी एवं शा फूटरमल सेनाजी को दिया जा सकता है। क्योंकी इन महानुभावों के आत्मीय प्रेम पूर्ण निवेदन और आग्रह से प्रभावित होकर ही दोनो मुनिराज श्री ने यह यात्रा स्वीकार की थी। १६ जनवरी १९८९ को प्रात: मुनिद्रय इन्दापुर से विदा हुए। गाँव के बाहर तक विदा देने आये श्री संघ के श्रावक श्राविकाओं को मुनिराज श्री ने मंगलाचरण सुनाया। मांगलिक सुनते-सुनते श्रोतागण बरबस ही द्रवित हो उठे। मुनिद्रय आगे विहार कर गये। ७६ मानसिक चिंता-फिक्र एक प्रकार की ठंडी आग है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्जत में जैन समाज में एकता एवं मोहने/कल्याण में प्रतिष्ठा महोत्सव कर्जत में वापसी इन्दापुर से मंगल विहार कर रोहा, नागोठाणा, पेण, मोहोपाडा आदि स्थानों से विचरण करते हुए मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजीने २२ जनवरी १९८९ को प्रात: साढे नौ बजे पुन: कर्जत नगर में मंगल प्रवेश किया। इस समय मुनिराजश्री के हृदय पटल पर एक विचार मंथन हो रहा था कि कर्जत के मंदिर के वादविवाद को किस प्रकार दुर किया जाये। रात १० बजे मुनिराज द्रय की शुभनिश्रा में समाज की एक विशेष बैठक का आयोजन किया गया। समस्या के समाधान हेतू विवाद तो होना ही था। बैठक की प्रारंभिक चर्चा शुरु की गई। चर्चा धीरे धीरे वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप में बदल गई। स्थिति की गंभीरता को देखकर मुनिराजश्री ने हस्तक्षेप किया और मध्यस्थतापूर्वक विवादित वातावरण को गुरु कृपा से सुलझाया। उभय पक्षो की परिस्थिति को ध्यान में रखकर उचित निर्णय सुनाया। इस निर्णय को सुनकर सभी विस्मय से भर गये। इस समस्या का समाधान कितने ही आचार्यों मुनि भगवन्तोने सुलझाने की कोशीश की थी किन्तु वह सुलझने के बजाय उलझती ही चली गई। जो वादविवाद वर्षो तक किसी से नहीं सुलझा। मात्र कुछ ही देर में मुनिराजश्री ने सुलझा दिया। मन की गांठे खुल गई। सबके मुख मंडल आनन्द और प्रसन्नता से खिल उठे। समस्या का समाधान पाकर सभी एक दूसरे से गले मिले और जिनशासन देव व गुरुदेव की जय जयकार करने लगे। तप: पूत मुनिराजश्री की महानता का प्रत्यक्ष प्रमाण सबको मिल गया। खुशी खुशी बैठक समाप्त हो गई। दूसरे दिन "समस्या का समाधान" कर्जत के समस्त जैन समाज में चर्चा का विषय बन गया। पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी के इस चमत्कार से प्रभावित होकर श्री संघ ने मुनिराजश्री को निवेदन किया कि मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल' महाराज सा. की पंचम पूण्य स्मृतिदिन कर्जत में ही सम्पन्न की जावे। दोनों मुनिगणने योग्य समय परिस्थिति देख कर उनकी उत्साह पूर्ण आकांक्षा को पूर्ण करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। और कार्यकर्ताओं को पूर्ण रुप रेखा बताकर वहाँ से विहार कर दिया। २४ जनवरी १९८९ को मुनिद्रय कर्जत से विहार कर नेरल गांव पहुँचे। यहाँ इनका भावभीना स्वागत हुआ। यहाँ पर भी मुनिद्वय ने जिन मंदिर की प्रतिष्ठा का जटील वातावरण सुलझाया। यहाँ के श्रीसंघ में सौहार्द्र वातावरण निर्मित हुआ और यहाँ के श्री संघ ने इन्ही दोनो मुनिवरों की निश्रा में प्रतिष्ठा कराने का निश्चित किया। यह है, दोनो मुनिवरों के अदभुत कार्यक्षमता का अनुपम उदाहरण। जीवन की आडी तीरछी रेखाएँ व्यक्ति को न जाने कब किस मोड पर खडा कर देंगी कोई नहीं जानता। कलियुग में भी ऐसे अवतारी पुरुष जन्म लेते है। जिनसे अग-जग चमत्कृतं हो उठता है। जिस गति से मुनिद्वय सफलता के सोपान पार करते जा रहे है। उससे यही लगता है कि आनेवाले समय में पूरा कोंकण प्रदेश उनके गुणों से अवश्य ही प्रभावित होगा। और जिनशासन की पताका अपूर्व उचाँइयो की ओर अग्रसर होगी। कर्जत और नेरल की समस्या के उचित समाधान इसी ओर संकेत करते है। २७ जनवरी १९८९ का दिन मोहना नगर के लिये नई रोशनी लेकर आया। मोहना का मानव जब माया के मोह जाल में उलझ जाता है तब वह अपने अस्तित्व को भी भल जाता है। ७७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीम का लगाकर देख रहा था जिस रास्ते संघ आज अत्यन्त प्रसन्न था। बहत सबेरे से ही आबाल यवा वद्ध और महिलाये नये नये परिधानो में सुसज्जित होकर उस रास्ते की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे जिस रास्ते से मुनिराज द्वय आनेवाले थे। सबके मन में अनोखा उत्साह था। मुनिराज श्री के दर्शन की ललक सभी में थी। पू. मुनिराजश्री का नगरागमन १० बजे हुआ। मुनिराज श्री को आते देखकर सभी दौड पडे और उधर बैंडवालोने मधुर धुन छेड दी, महिलाओं ने मंगल गीत गाना शुरु कर दिया। बच्चे किलकारी मार मारकर आगे पीछे भाग दौडकर रहे थे। नगर के बाहर सामैया सह स्वागत हुआ और इसी समय युवा वर्ग ने उच्च स्वरों में नारा लगाया:- "लेखेन्द्र लोकेन्द्र आये है, नई रोशनी लाये है।" मुनिराज द्वय एवं साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी ठाणा ६ को मंगल कलश से बधाया एवं गहुंली की गई। और साथ ही मोहना नगर का वातावरण धर्ममय और मोहक हो उठा। चतुर्विध श्री संघ के रुप में नगर प्रवेश कर भ्रमण कर जिन प्रतिमाओं के दर्शन वंदन कर कच्छी गुजराती उपाश्रय में मुनिद्वय विराजित हुए। प्रारंभिक मंगला चरण के पश्चात संक्षिप्त उद्बोधन हुआ। त्रि में मुनिराज द्वय की शुभ सानिध्यता में, मार्गदर्शन में प्रतिष्ठा के कार्यक्रम को सुचारु और सुव्यवस्थित रुप से संचालित करने हेतू विभिन्न समितियां गठित की गई। किसी भी आगन्तुक अतिथि को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो, कोई तकलीफ न हो इसके लिये जैन मित्र मण्डल का गठन किया गया। श्री संघ के सदस्य समय-समय पर मुनिराज द्वय का दिशानिर्देश प्राप्त कर प्रतिष्ठा के कार्य को गति देते रहे। १० फरवरी १९८९ को मोहना नगर (कल्याण) में श्री अजितनाथस्वामी आदि जिन बिंब एवं प्रभु श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की गुरु मुर्ति प्रतिष्ठा का यह कार्यक्रम शुरु हुआ। नुतन जिन मंदिर आहोर (राज.) के निवासी शाह श्री पुखराजजी भगवानजी परिवारवालोंने बनवाकर मोहना जैन श्री संघ को सादर समर्पित किया। दो खण्ड के जिन मंदिर में उपर जिन बिम्ब की स्थापना एवं नीचे के खण्डमें गुरुमूर्ति की स्थापना होगी। ११ फरवरी १९८९ को रात्रि में कर्जत बालिका मंडलने नयनाभिराम संगीत कथा रुपक, डांडीया व दीपक नृत्य प्रस्तुत किया जिसकी उपस्थित दर्शको ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की। अत: बालिकाओं को उत्साहवर्धक पुरस्कार प्रदान किये गये। १३ फरवरी १९८९ को स्थानिय गुजराती कच्छी बालिका मंडलने अपने कार्यक्रम का प्रारंभ स्वागत गीत से किया। बालिकाओने महासती चन्दनबालाका नाटक प्रस्तुत कर उपस्थित दर्शको का मन मोह लिया। १४ फरवरी १९८९ को विशेष कार्यक्रम में आमंत्रित संगीतकार ने अपनी मधुरतम कर्णप्रिय स्वरो में वाद्ययंत्रो की सहायता से संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। बाद में श्री अरिहन्त जैन युवक मंडल, कल्याण ने अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इस कार्यक्रम में 'अमर कुमार' 'भक्ति में शक्ति नागिन नृत्य, थाली नृत्य, आदि बहुत ही सराहे गये। १६ फरवरी १९८९ का दिन अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक उल्लास और आनन्द के वातावरण में प्रारंभ हुआ। मोहना श्री संघ को इसी दिन की चीर प्रतीक्षा थी। मोहना का जैन मित्र मंडल सूर्योदय से ही अपने कार्य में जुट गया था। बाहर गांव के अतिथि बसों, कारों, ट्रेनो से आ रहे थे, स्थानिय नागरिको का उत्साह उमंग देखते बनता था। उत्साह और उमंग का छलकता सागर सभी के मुख मण्डल पर छाई प्रसन्नता की चमक अनोखी थी। आज ही दोपहर ७८ कामी पूरुष को कभी भी ममय, संयोग, परिस्थिति या भविष्यपर विचार करने तक का ज्ञान नहीं होता। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रथयात्रा का आयोजन था। और सुबह से ही इसकी तैयारियां चल रही थी आजका विशेष आकर्षण महालूंगे इंगले का ढोल मंडल था। सुबह वह यहाँ आ गये थे। और ढोल बजा बजा कर विविध प्रकार से मंजीरो की लय मिलाकार अम्बामाता के स्वरुप का वर्णन दिखा रहे थे! वास्तव में इनके वाद्य यंत्रो की लय ही एक विचित्र प्रकार की थी। वरघोडे की पूर्ण तैयारी को ध्यान में रखकर मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. ने सभी से रथयात्रा को विवर्धित करने की अपील की। निर्धारित समय पर दोपहर ढाई बजे रथयात्रा शुरु हुई। इन्द्रध्वजा, घोडे पर सवार युवक धर्म ध्वज लिये हुए था। फिर महालूंगे इंगले का मंडल ढोल की आवाज और मंजीरों की झंकार से दर्शको का मनोरंजन कर रहे थे। मोहना नगर के निवासी छज्जों, चौबारों, गलीयों से बडे कुतुहल से इस रथयात्रा को देख रहे थे। रथयात्रा में सबसे आगे इन्द्रध्वजा महालूंगे इंगले का युवक मंडल, धर्मध्वज लिये हुए घुडसवार, रथ, सुससज्जीत जीप, जैन बालीका मंडल कल्याण पनवेल का ऑरकेस्ट्रा बैण्ड कच्छी गुज. बालीका मंडल (मोहना) और फिर विशाल जनसमुह के साथ मुनिराज द्रय, साध्वी मंडल महिलाएँ आदि शोभायमान थे। यह रथयात्रा मोहना नगर के बाजार से गुजरती हुई एन.आर.सी. कम्पनी के कम्पाउण्ड से एन.आर.सी. कालोनी होती हुई शाम को करीब ६ बजे वापस जैन मंदिर आकर समाप्त हुई। जैन मित्र मंडल का सराहनीय योगदान रहा! उन्होने रथ यात्रा का सफल संचालन किया। वास्तव में यहाँ का युवा वर्ग धन्यवाद का पात्र है। गगनभेदी जय घोष के साथ युवक वर्ग एक नारा और भी लगा रहे थे। "लेखेन्द्र लोकेन्द्र आये है। नई रोशनी लाए है।" रथयात्रा में महिलाओंने शुभसुचक १४ स्वप्न अपने सिर पर धारण किये थे। नवयुवक युवतियाँ मस्ती में सरोबार होकर स्तवन भजन गा रहे थे, नाच रहे थे, डांडीया नृत्यु कर रहे थे। मतलब यह कि आज का पुरा वातावरण अत्यन्त आनन्दित और उल्हासित था। सभी के मुख मंडल पर एक अजिब सी आभा चमक रही थी। रात्रि में ९ बजे धर्मशाला में मुनिराज द्वय की शुभ निश्रा में बाकी रहे चढावे बोले जाने थे। इसके लिये समस्त जैन संघ के सदस्य उपस्थित हो गये थे। मुनिद्वयने आकर प्रारंभिक मंगलाचरण शुरु कर चढावे बोले जाने की आज्ञा प्रदान की! प्रतिष्ठा के बाकी रहे चढावे सोल्लास उदारता पूर्वक बोले गये।।। १७ फरवरी १९८९ का यह शुभदिन मोहना नगर के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जावेगा। आज का दिन प्रतिष्ठा का दिन है। आज आहोर निवासी शा पुखराज भगवानजी परिवारवालों की वर्षों पूर्व की इच्छा पूर्ण होने जा रही है। इन्ही के द्वारा निर्माण किये गये जिन मंदिर में प्रभु प्रतिष्ठा व गुरुमुर्ति प्रतिष्ठा की जा रही है। प्रात: जल्दी ही लोग नव परिधानों में सज्जित होकर पांडाल में इकट्ठे हो रहे थे। भीड में अनेक तरह की चर्चाए हो रही थी। चर्चा का मुख्य केन्द्र बिन्दु था, मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं मनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा.का शांत शीतल स्वभाव और मिलनसार व्यक्तित्व अन्यों को समझने की कला। और अब ठीक ८ बजे शुरु हो गई, प्रतिष्ठा के पहले की गुंजायमान ध्वनि "ॐ पूण्याहां-पूण्याहां, प्रियन्ताम्-प्रियन्ताम्" ज्यों ज्यों प्रतिष्ठा का समय निकट आता जा रहा है। वैसे वैसे उत्साह मैले मन के एक-दो नही अनेकानेक स्वरुप होते है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़ता ही जा रहा है। चढावे वाले व्यक्ति अपने-अपने चढावे के अनुसार एकदम तैयार है। पारम्परिक परम्परानुसार तोरण के लिये आ गये है, श्री गुलाबचन्दजी मोटाजी। तोरण लगते ही शुरु हो गई प्रतिष्ठा की चहल पहल सभी यथा स्थान पहुँच गये। श्री कांतिभाई लहेरचन्द विधि विधानवाले सुध बुध खोकर तन्मय होकर प्रभु भक्ति गुण गान कर रहे है। मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी भी अपने अपने नियत स्थान पर पहुँच गये। ठीक ८/३० बजे (साढे आठ) मुनिराज श्री का इशारा पाते ही घंटे बजाये गये, तुमुल नाद हुआ, और प्रतिमाओं व गुरुमुर्ति को यथा स्थान प्रतिष्ठित किया गया। चारो ओर जिनशासनदेव की जय और गुरुदेव की जय' के नारे गुंजायमान होने लगे। दर्शनार्थीयों की अपार भीड दर्शनों के लिये उमड पड़ी। प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हो जाने के तुरन्त बाद एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इस सभा की अध्यक्षता की बम्बई श्री किशोरचन्द्र जी.एम. वर्धन। इनके साथ ही श्री सुमरेमलजी लुक्कड भी पधारे थे। सभा के मुख्य अतिथि थे, बडौदा (गुज.) के श्री राजेशकुमारजी जैन, बम्बई के श्री प्रफुल्लभाई मणियार। मुनिद्वयने संक्षिप्त उदबोधन देकर मंदिर भेंटकर्ता परिवारवालोको विशेष रुप से आशिर्वाद दिया। इस विशाल जन सभा में दादा गुरुदेव श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के विशाल छाया चित्र पर माल्यार्पण और वासक्षेप पुजन की गई। श्री पुखराजी भगवानजी परिवारवालों को उनके इस उदार कार्य के लिये साफा पहिनाकर स्वागत सत्कार कर अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया। नस प्रतिष्ठा समारोह में नेरल नगर के श्री संघ के गणमान्य व्यक्ति पधारे थे। सभा के बीच उचित अवसर देखकर नेरल श्री संघ के सदस्योनें दोनो मुनिभगवन्तों को अपने नगर में जिन बिम्ब प्रतिष्ठा हेतू विनम्र निवेदन किया। मुनिद्वयने कुछ विचारविमर्श कर प्रतिष्ठा हेतू अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी इस खुशी में जय जय कार के नारे लगाये गये। साथ ही नेरल श्री संघ ने श्रमणी वर्या साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ को भी प्रतिष्ठा कार्य में पधारने हेतू निवेदन किया! जो स्वीकार कर लिया गया। उल्लेखनिय है, कि मोहना में प्रतिष्ठा के कार्यों में श्रमणी वर्या साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी, श्री हेमप्रभाश्रीजी, श्री तरुणप्रभाश्रीजी, श्री रत्नरेखाश्रीजी, श्री दर्शनरेखाश्रीजी, श्री अनुभवदृष्टाश्रीजी आदि का सराहनीय सहयोग रहा। नेरल श्री संघ को प्रतिष्ठा का मुहुर्त दिया। और प्रतिष्ठा का दिन वैशाख सुद १२ संवत् २०४६ तदनुसार १७ मई १९८९ को होना निश्चित किया गया। प्रतिष्ठा का कार्यक्रम में सभा का अन्तिम समय था, इस समय मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी, मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी और साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी को कामली ओढाई गई। अन्तमें प्रतिष्ठा समिति के सदस्यो के प्रति उनके अथक हार्दिक सहयोग के लिये आभार व्यक्त किया जाकर उनका यथोचित सम्मान किया गया। और जैन मित्र मंडल मोहना को उपहार देकर सम्मानित व प्रोत्साहित किया गया। प्रतिष्ठा के तुरन्त बाद एक चमत्कार हुआ। दादा गुरुदेव श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.की प्रतिष्ठीत प्रतिमा की आँखो से अभीझरण हुआ। जिसको कई प्रत्यक्ष दर्शियो ने देखा। और अमीझरण में हाथ स्पर्श कर अपने जीवन को कृतार्थ किया। पूरे मोहना नगर में अमीझरणा अनन्त पाप के बोझ से जिसका ज्ञान विलुप्त हो जाता है वे कभी भी समझदारी पा नहीं सकते। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की खबर विद्युततरंग की भांति फैल गई। और मंदिर में दर्शनार्थियों का तांता लग गया। "गुरुदेव की जय" से गगन मंडल गुंज उठा। मोहना नगर (कल्याण) में इस महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा समारोह में जिन महानुभावो ने अपने-अपने धन का सदुपयोग कर चढावे लिये उनका विवरण निम्न अनुसार है। १) छत्री में मुलनायकजी श्री अजितनाथ स्वामी शा श्री ओटरमलजी शेषमलजी- कल्याण २) श्री राजेन्द्रसूरि गुरुमुर्ति शा श्री. चन्दनमलजी जोधाजी मोहना ३) भगवान की ध्वजा शा. श्री चन्दनमलजी मुथा मोहना ४) श्री राजेन्द्रसूरिजी की ध्वजा शा. पुखराजजी भगवानजी आहोर (राज.) ५) तोरण शा. श्री गुलाबचन्दजी मोटाजी ६) छत्री पर दण्ड शा. श्री पुखराजजी भगवानजी आहोर (राज.) ७) कलश श्री अजितनाथजी शा. श्री दलिचन्दजी चमनाजी, कल्याण ८) गुरुमंदिर पर कलश दण्ड शा. श्री पुखराजजी भगवानजी "कामली ओढाना' पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी/पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. व साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी म.सा.को कामली ओढाने का लाभ निम्न अनुसार है। १) पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. शा. श्री बाबुलाल जोधाजी मोहना २) मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. मे. ममता किराणा स्टोर्स मोहना ३) साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी शा श्री सांकलचन्दजी शेषमलजी भास्कर, कल्याण. मोहना नगर में प्रतिष्ठा के कार्यक्रमों के सानन्द निर्विघ्न समाप्ति के पश्चात वह दिन आया जब मुनि श्री यहाँ से अन्यत्र विहार करनेवाले थे। रात्रि चर्चा के दौरान मुनिराज द्वय ने श्री संघ के सदस्यो से विहार करने की बात कही। २२ फरवरी १९८९ को सुबह विहार कार्यक्रम तय हुआ। विदाई का दुख किसे सहन होता है! फिर भी ऐसा समय आ ही जाता है जब विदाई लेनी और देनी पड़ती है। जिसने सुना वही अनमनासा उदास हो गया। अनमने मन से ही सही विदाई तो देनी ही थी सो सबेरे जल्दी ही लोग विदा देने के लिये उपाश्रय में एकत्रित हो गये मुनिद्रय उपाश्रय के बाहर निकलेही जहां प्रेम, करुणां, वात्सल्यं और साधुत्व है उसी की जय होगी। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेरल नगर में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव नेरल नगर में जिन मंदिर की प्रतिष्ठा का वातावरण लगभग दो वर्ष से बनता चला आ रहा था। प्रयास तो अनेक किये गये थे परन्तु सफलता नहीं मिली थी और अचानक बिन प्रयास के सफलता मिल गई। वह दिन था १४ जनवरी १९८९ का। शुभ समय में शुभ निर्णय लिया गया। और अब नेरल नगर में प्रतिष्ठा का वातावरण फिर गर्म हो उठा। ___ मोहना नगर से विहार कर मुनिद्रय नेरल नगर आयें। नेरल श्री संघने मुनिराज द्वय का भावभीना हार्दिक स्वागत किया। पश्चात मुनिराज उपाश्रय में पधारे और वहाँ उपस्थित जन समुदाय को सारगर्भित प्रवचन सुनाये। प्रवचनों से प्रभावित श्री संघ के सदस्य रात्रि में मुनिराज श्री की शुभ सानिध्य में एकत्रित हुए। और प्रतिष्ठा की समस्या पर विचार विमर्श हुआ मतभिन्नता के कारण टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई थी श्रावक वर्ग अपनी अपनी सुना रहे थे। मुनि श्री मौन थे। रात्रि एक बजे थे समाधान नहीं हो पा रहा था। आखिर श्री संघ के सदस्यो ने मुनिराज श्री का कथन सर्वोपरि मानकर एक स्वर में कहा कि "आप श्री जो भी निर्णय देगें, उसे हम सादर मान्य करेगें और आपश्री के वचनानुसार सभी कार्यक्रम करेगें।" दोनो मुनिराज श्री ने दोनो पक्षो के सम्बन्ध में सुनकर विचार विमर्श करने के पश्चात तटस्थ भाव से अपना निर्णय सुनाया। करतल ध्वनि और हर्षोल्लास के साथ निर्णय सर्वमान्य हो गया। खुशी के इस अवसर पर प्रतिष्ठा कराने और कब कराने का विचार चला। यह निर्णय मोहना नगर में तय किया जाना निश्चित किया गया। इस निर्णय के साथ एक अन्य निर्णय भी किया गया जिसके अनुसार वहीं जय बुलवाना तय रहा। और उपयुक्त समय पर मोहना नगर में प्रतिष्ठा के अवसर पर जय बोला दी गई थी। और अब प्रतिष्ठा का कार्यक्रम बनाना शेष था। २ मार्च १९८९ को मुनिराज द्रय और साध्वी मंडळ ने नेरल नगर में प्रतिष्ठा सम्पन्न कराने हेतू मंगल प्रवेश किया। प्रवेश के मंगल अवसर पर मोहना जैन मित्र मण्डल ने यहाँ आकर अपना उत्साह प्रदर्शित किया। नेरल के नागरिको में नृत्य करते युवको को देख कर आनन्द उमंग का संचार हुआ। स्वागत समारोह के पश्चात धर्मशाला में मुनिश्री ने उद्बोधन दिया। मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने धर्म और अर्थ के सन्दर्भमें कहा "लक्ष्मी का उपयोग यदि धार्मिक कार्यो के लिये किया जाय तो वह चार गुना होकर वापिस मिलता है।" रात्रि १० बजे धर्म शाला में चढ़ावे बोले जाने हेतू जाजम बीछाई गई। जाजम पर उपस्थित जैन संघ के सदस्यो ने बढ़ चढ़ कर चढ़ावे बोले। शायद प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा हो परन्तु जिन लोगो ने चढ़ावे बोले उनकी भक्ति भावना स्पष्टत: बड़ी तीव्र थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सब मन ही मन कह रहे थे। "प्रभु मुझे वह मार्ग दिखाओ जिससे मैं अपने स्वार्थ का त्याग कर पराए सुख का कारण बन सकूँ"। उनके चेहरे पर उत्फूलता की किरण चमक रही थी। ___ नेरल में नूतन जिन मंदिर की प्रतिष्ठा का मुहुर्त १७ मई १९८९ बुधवार वैशाख सुद १२ निश्चित किया गया। - यह कार्य सुसंपन्नता पूर्वक पूर्ण कर यहाँ से विहार कर पून: कर्जत गये। कर्जत में श्रमण सूर्य पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी शीतल म.सा. की पांचवी पुण्यतिथि स्मृति दिवस के जिस हाथ से किया है, जिस हृदय से किया है, उसी हाथ और हृदय को भूगतना भी पड़ता है। ८२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुप में मनाए जाने वाली थी। १३ मार्च को श्रीरंग विजयजी "जैन भिक्षुक" की पूण्यतिथि थी उनके प्रति भावांजली अर्पित की गई। कर्जत जैन मंदिर के निर्माण के लिए उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक उसके लिए अथक परिश्रम किया । ३१ मार्च को कर्जत में ही श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का कार्यक्रम कर्जत निवासी शा. ताराचन्दजी फुलाजी श्रीमाल परिवारवालो की ओर से आयोजित किया गया था । पू. मुनिवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. द्वारा महाराष्ट्र प्रदेश में यह दूसरी महापूजन थी। कर्जत निवासियों और बाहर गांव से पधारे भक्तजनो ने पूजन का पुण्य लाभ प्राप्त किया । १ अप्रेल १९८९ आज श्रमण सूर्य पू. मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी " शीतल" म.सा. की पांचवी पूण्यतिथि हैं। और साथ ही एक विशेष कार्यक्रम भी था। साध्वी श्री हेमप्रभाश्रीजी के पांचसौ आयंबिल का पारणा। पारणा कराने का लाभ शा. श्री प्रेमचन्द गुलाबचंदजी श्रीमाल परिवारवालो ने लिया । सुबह पारणा कार्यक्रम के पश्चात पुण्यस्मृति दिवस का कार्यक्रम शुरु हुआ । मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजीने अपने उपकारी गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी " शीतल" म.सा. के जीवन वृतांत को भावभीने शब्दो में उपस्थित जन समुदाय को बताया और कहा " मेरे गुरुदेव पू. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी " शीतल" म.सा. ने जिन शासन और गुरु गच्छ की जो अभूतपूर्व सेवा की वह जिन शासन के इतिहास में स्वर्णाक्षरो में लिखी जायेगी।" मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजीने भी अपने गुरुदेव का पूण्यआत्मीय स्मरण कर संक्षेप में उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगो की चर्चा की। लोगो ने उन प्रसंगो को दतचित होकर सुना । मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी ने कहा "पुज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जन्म आलीराजपुर (जिला झाबुआ मध्य प्रदेश) में वि. संवत् १९९३ में हुआ था । १६ वर्ष की अल्पायु मे ही श्री मोहन खेड़ा तीर्थ की पवित्र भूमि पर पूज्य आचार्यदेव श्री मद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की छत्रछाया में संयम जीवन स्वीकार किया पूज्य आचार्यदेवने उन्हे मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल" के नाम से सम्बोधित किया। अपने गुरुवर की निश्रा में रहते हुए उन्होने संस्कृत, प्राकृत, मागधी, आदि भाषाओं और साहित्य के अध्ययन के साथ साथ जैनागम सूत्रों का गहन अध्ययन किया, उन्होने कठिन से कठीन साधनाए की मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजीने गुरुदेव द्वारा की हुई जिन शासन की व गुरुगच्छ की सेवाओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा “गुरुदेव ने ३० वर्ष तक जिनशासन की व गुरुगच्छीय मर्यादा का पालन करते हुए अनवरत् सेवा की। और त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम बार दक्षिण प्रदेश की यात्रा कर गुरुगच्छीय शोभा बढ़ाने का श्रेय प्राप्त किया। और उसके बाद तीर्थाधिराज शत्रुंजय तीर्थ में अन्तिम चातुर्मास करकें चैत्र वद १० संवत् २०४० को अहमदाबाद में महाप्रभाविक उवसग्ग हर का श्रवण कर एवं प्रभु पार्श्वनाथजी का पूण्य स्मरण करके महाप्रयाण कर गये। उनका मार्गदर्शन और प्रेरणा हमें अदृश्य रूप से आज भी मिल रही है । " मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी के शब्द में ऐसी अपूर्व आत्मयिता थी ऐसा कारुण्य था, कि उपस्थित जन समूह की आँखे भर आई। अहमदाबाद में मुनिराजश्री अपने गुरुदेव के साथ अंतिम समय तक थे। प्रत्यक्षदर्शी मुनिराज के शब्दो में महाप्रयाण की घटना का वर्णन सूनकर श्रोताओं का हृदय भर आना सहज स्वाभाविक था । आस-पास के संसार को भूले बिना, तन्मयता मिलती ही नहीं और तनम्यता बिना कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं कर सकता । - For Private Personal Use Only ८३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपहर में दो बजे बैण्ड, हाथी, घोड़े, इन्द्रध्वजा, सुसज्जित जीप सहित एक शानदार वरघोडे का आयोजन था। चतुर्विध श्री संघ सहित यह वरघोडा नगर के प्रमुख मार्गो से होता हुआ शाम ६ बजे पंडाल में आकर विसर्जित हुआ। इस रथ यात्रा का प्रमुख आकर्षण था महालूंगे इंगले का ढोल मंडल। जो पहले मोहना में आ चुका था। वरघोडे में श्रद्धालूजनों द्वारा अनेक जगहों पर पुष्पवृष्टि की गई। आज के मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी 'शीतल' म.सा. की पूण्यस्मृति दिन की विशेष सभा के मुख्य अतिथि श्री वालचन्दजी रामाणी थे इन्ही की अध्यक्षता में यह कार्यक्रम सूचारु रुप से सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कर मुनिद्रय ने यहाँ से विहार किया और खापोली, लोनावला कामशेट होते हुए ९ अप्रेल १९८९ को प्राकृतिक छटा युक्त गांव महालूंगे इंगले में प्रवेश किया। यह किसी समय इतिहासिक गांव रहा होगा। क्योंकि यहाँ के मंदिर और प्रवेश द्वार बहुत पुराने समय के बने हुए है। जो अपनी कहानी स्वयं ही कहते है। दरवाजो की बनावट देखने से लगता है कि पुराने समय में यह किन्ही राजा महाराजाओं की गढी रही है। यहाँ अति प्राचिन जिनमंदिर हैं। मंदिर में भगवान पार्श्वनाथजी की चमत्कारीक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यहाँ धर्मशाला में ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। शा. फूटरमल खुमचन्द परिवार के आग्रह से आत्मीय स्नेह वश मुनिद्वय यहाँ पधारे थे। मुनिराज श्री ने दिनांक १६ अप्रेल १९८९ को विचरण करते हुए टांकवा (बुदरुक) नगर में मंगल प्रवेश किया। यहाँ मुनिराजश्री के पधारने के उपलक्ष में पंचान्हिका महोत्सव का आयोजन किया था। जो १५ अप्रेल १९८९ को शुरु हो गया था। १८ अप्रेल १९८९ को महावीर जयन्ति का पर्व विशेष था। महावीर जयन्ती के पर्व पर एक वरघोडे का आयोजन किया गया था। श्री संघ के सदस्य उसी की तैयारी में लगे थे। वरघोडे में मोहना मित्र मंडळ और बैण्ड मंडळ आया था। प्रभु भगवान महावीर स्वामी की जय जयकार से यह छोटा सा गांव गुंजाय मान हो गया। वरघोडे शोभा यात्रा के बाद एक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा के प्रमुख अतिथि थे श्री सुकनजी बाफना तथा विशिष्ठ अतिथि थे श्री चन्दनमलजी मुथा। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री अशोक बाफना ने की। इस सभा में मोहना बैण्ड मंडळ का नाम बदलकर 'श्री लेखेन्द्र-लोकेन्द्र बैण्ड पार्टी रखा गया। मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. ने महावीर जयन्ति पर अपने विचार प्रकट करते हुए उनकी वीरता, उदारता, क्षमा, धैर्य, दृढ, मनोबल, महान त्याग और केवल्य पर प्रकाश डाला। उन्होने कहा कि - "भगवान महावीर अपने युग के प्रवरतम क्रांतिकारी थे, उन्होने आचार और विचार दोनो ही क्षेत्रो में स्वयं के जीवन्त प्रयोगो द्वारा धर्म-क्रांति की।" मुनिराज श्री ने युवावर्ग की ओर इशारा करते हुए कहा कि "भगवान महावीर ने जब गृहत्याग कर सन्यास लिया था तब दे युवा ही थे, अत: युवा पीढ़ी को महावीर प्रभु के त्याग, तप, साधनामय जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये। "यदि वे उनका अनुसरण करे तो निस्संदेह जीवन का नक्शा नजारा कुछ और ही नजर आयेगा।" मुनि श्री की वाणी में ओज था, जोश था, उनकी धारा प्रवाह वाणी सुनकर ऐसे लग रहा था जैसे वे क्रांति का शंखनाद कर रहे थे। अन्त में वृहत् शांति स्नात्र पुजन पढ़ाई गई। मुनिद्रय जहाँ भी जाते है वहाँ का वातावरण अत्यन्त ही धार्मिक हो जाता है। वे अपनी शंका के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते हैं। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहृदयता सरलता, प्रेम और शांति से सभी का मन जीत लेतें थे। और यहाँ विहार कर वापीस आ रहे है, प्रतिष्ठा कराने हेतू नेरल नगर में। गोरल नगर के श्री संघ के श्रावक श्राविका, आबाल वृद्ध सभी दिनांक २६ अप्रेल को उस ओर प्रतिक्षारत थे, जिस ओर से मुनिराज द्वय आने वाले थे। उनके स्वागत सामैये के लिये बैण्ड भी तैयार था। सभी मैं मुनिराज श्री के पधारने का अपार उत्साह था। जैसे ही मुनिद्वय नगर में पधारे वातावरण में जय जयकार के नारे गुंजाय मान हुए। वाद्ययंत्र गरज उठे। पारम्परिक परम्परानुसार मुनिराज द्वय का शानदार स्वागत हुआ। महिलाओ ने मंगल कलश लेकर सुमधुर गीत गाये। मुनिराज द्वय के साथ साथ साध्वी मंडल भी था। नगर के मुख्य मार्गो से होते हुए चल समारोह के साथ उपाश्रय में पधारे जिन मंदिर में दर्शन वन्दन किये। प्रतिष्ठा महोत्सव को सफल बनाने के लिये घर घरमें धर्म के प्रति अतूट निष्ठा जागृत कर, त्याग का बीजारोपण कर मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी सकल श्री संघ के साथ धार्मीक अनुष्ठान के कार्य सम्पन्न करने में जुट गये। लगभग २० वर्ष के पश्चात नेरल नगर के इतिहास में यह पवित्र अवसर आया था, कि इतने विशाल धार्मिक महोत्सव का आयोजन हो रहा था। लोग प्रतिष्ठा के कार्यों में इतने मगन हो गये कि उन्हे न घर की सुध न खाने की और न व्यापार धन्धे की सुध ही थी। १० मई बुधवार वैशाख शुक्ल ६ से नेरल नगर (रायगड) महाराष्ट्र में भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी की प्राण प्रतिष्ठा के पावन अवसर पर श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन, श्री बृहद् शांति स्नात्र महापूजन सह नवान्हिका महोत्सव श्रमण सूर्य पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल" म.सा. के सुशिष्य रत्न पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. तथा साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ की शुभ निश्रा में शुरु हुआ। धार्मिक महोत्सव देखने के लिये दर्शनार्थियों की पूरे नगर में चहल पहल थी। मांडवे की सजावट का कार्य पूनावाले को सोपा गया था। लाइट डेकोरेशन अनोखा था। संध्या समय नेरल नगर महोत्सव की रोशनी से जगमगा उठा औसा लगता था जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। ऐसा प्रकाशमय धार्मिक महोत्सव नेरल नगर में पहले कभी नहीं हुआ था। भावी महोत्सव शायद ही इसकी प्रतिस्पर्धा करे। ५ मई १९८९ को साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी म.सा. की सशिष्या साध्वी श्री दर्शनरेखाश्रीजी के ५०० आयम्बिल की तपस्या की पूर्णाहूति के उपलक्षमें उनको पारणा कराने का लाभ शा. श्री फुटरमल चौथमलजी ने लिया। इसी दिन श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन रखा गया गुरुदेव मुनिद्वय के महाराष्ट्र आगमन के बाद तीसरी बार श्री पद्मावती माताजी के महापूजन समारोह सम्पन्न हुआ। इस महोत्सव मे विधि विधान के लिये विधिकारक इन्दौर निवासी शा. कांतिलाल लहरच दजी शाह और आंगी के लिये आंगीकार राजगढ़ म.प्र. निवासी शा. मीलापचन्द दौलाजी पधारे थे। १६ मई १९८९ मंगलवार का दिन। वैशाख शुक्ल ११ संवत २०४६ प्राकृतिक छटा से आच्छादित सुरम्य नगर नेरल में प्रभात होते ही तीर्थ यात्रियो का आगमन शुरु हो गया। भव्य रथ यात्रा का आयोजन किया गया। इस हेतु नगर में स्थान स्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये। इस प्रतिष्ठा महोत्सव की विशेषता यह थी, कि इस महोत्सव में अजैन नागरिको ने उत्साह पूर्वक पूरा पूरा सहयोग दिया। ढाई बजे रथ यात्रा के चढ़ावे पटांगण में पुरे हुए। झालर की संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संसक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है, तो वह है मात्र धर्म। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झंकार हुई। वायु मंडल में शक्ति रस का संचार हुआ। मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी ने मंच से उद्घोष किया "कुछ ही क्षणो में रथयात्रा प्रारंभ होने जा रही है। पंडाल में सभी भक्त एवं श्रद्धालु महानुभाव वरघोडे के चल समारोहमें सम्मिलीत हो।" परम्परागतानुसार वरघोडे (रथयात्रा) का भव्य आयोजन रखा गया। सबसे आगे इन्द्रध्वजा, हाथी, घुडसवार, महालूंगे इंगले मंडल के साथ भव्य रथ यात्रा का चल समारोह शुरु हुआ। वाद्य यंत्रो की सुरम्य ध्वनि, जिन शासन का जयघोष, बहनों का मंगल गायन आदि से पुरी नेरल नगरी धर्म नगरी प्रतीत हो रही थी। अजैन दर्शको के मुहँ से बरबस निकल पड़ा "यह चल समारोह मानो अश्वमेघ यज्ञ किया जा रहा हो" । रथ यात्रा से मुखरित नगर मे युवको ने रथ यात्रा का सफल संचालन किया। गांव के बाहर विशाल गोलाकार यात्रा मुडकर आगे बढ़ी उस क्षण पुष्पों की वृष्टी की गई। ऐसा आभास हुआ जैसे देवी देवता प्रभु महोत्सव में पुष्प वर्षा कर रहे हो। युवक मनमोहक दृश्य से मुग्ध होकर झुम-झुम कर नृत्य कर रहे थे। जैसे वे भक्तिरस में सरोबार हों। उनके मुख से निकले शब्द कितने प्रिय थे "धुम परे धरती तपे रे" एवं "जोरसे बोलो जय महावीर" - "प्रेम से बोलो जय महावीर"। जब वरघोड़ा समापन की ओर अग्रसर हो रहा था। वहाँ के निवासियोंने प्रभु के समक्ष महालूंगे इंगले मंडळ के साथ भाव विभोर हो कर नृत्य में शामिल हो गये। ऐसे खुशी के अवसर यदा कदा ही आते है। शाम को ६ बजे रथयात्रा भव्य पांडाल मे विसर्जित हुई। १७ मई १९८९ बुधवार वैशाख सुद १२ आज नेरल नगर के नुतन जिन मंदिर में भगवान श्री मनि सव्रत स्वामी आदि जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की जाने वाली है। सभी लोभ ब्रह्म मुहुर्त में उठकर तैयारी में लग गये सभी प्रभु प्रेम के मतवाले हो रहे थे। किसी को आज सामान्य विषयों पर बोलने बतियाने का समय नहीं था। सबकी जबान पर एक ही बात थी। "जल्दी करो, समय नहीं है। आज मंदिर जी मे प्रभु प्रतिष्ठा है।" प्रात: साढ़े नौ बजे अभूत पूर्व भीड के बीच शा. ओटर मलजी हजारी मलजी अपने परिवार सहित हाथी पर बैठ कर तोरण बंधाने आये। करतल ध्वनि के साथ यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। दस बजे मुनिराज श्री का आदेश हुआ। विधिकारक विधि सम्पन्न कराने में तत्परता से जुट गये। झालर की मधुर झंकार का स्वर जैसे ही सुनाई पड़ा वैसे ही "ॐ पुन्याहां - पुण्याहां, ॐ प्रियन्ताम - प्रियन्ताम के स्वर से मंदिर गुंज उठा। मुनिराजने घड़ी मे देखकर जैसे शुभ समय का इशारा किया वैसे ही जय घोष के साथ जिन प्रतिमाओं को यथा स्थान प्रतिष्ठित कर दिया गया। समस्त उपस्थित जन समुदाय प्रफुल्लित हो उठा। बालक, वृद्ध, युवक, युवतियाँ इस महत् आयोजन से प्रसन्न होकर एक दूसरे का अभिनन्दन करने लगे। हाथ मिलाकर हँसते हुए एक दूसरे के छापे लगाने लगे। प्रतिष्ठा महोत्सव का मुख्य कार्यालय सम्पन्न होने के पश्चात मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने प्रतिष्ठा के महत्व को अत्यन्त ही सरल और मार्मिक वाणी में समझाया। उन्होने यह आशा व्यक्त की कि जिन शासन का धर्मध्वज विशाल गगन में युगो युगो तक लहराता रहे और घर घर में धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा बढ़े। ___ बाद में मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी ने अपनी चिर परिचित मधुर वाणी में उपस्थित मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। ८६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन समुदाय को सम्बोधित कर कहा- "जन जन के मन में धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न हो और वे ऐसे ही धर्म कार्य करके जिन शासन की सेवा करे। जिससे धर्म जागरण की चेतना बनी रहे। हमारा महाराष्ट्र प्रदेश विचरण का मुख्य उद्देश्य भी यहीं है। सभी में आपस में सौहार्दु भाव बना रहे। भगवान महावीर ने अपने संदेश में अहिंसा तप - दान - दया का महत्व बताया वह अक्षुण्ण बना रहे। सभी जीवों में भ्रातृत्व भाव उत्पन्न हो यही अभ्यर्थना।" इस प्रतिष्ठा समारोह की सभा में श्री पार्श्व पद्मावती शक्तिपीठ गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र के ट्रस्टी गण में से श्री राजेशकुमारजी जैन बडौदा, श्री चन्दनमलजी मुथा मोहना, श्री ओटरमलजी श्री श्रीमाल कल्याण तथा श्री रमेशभाई बेचराजी वाले उपस्थित थे। मुनिराज श्री जहाँ भी जाते है, पार्श्व पद्मावती शक्ति पीठ की गतिविधियों की जानकारी देते है। तथा दान दाताओ द्वारा नई नई घोषणाएँ होती रहती हैं। नेरल में प्रतिष्ठा के अवसर पर जिन महानुभावों ने चढ़ावे बोल कर स्वपार्जित धन का सदुपयोग किया उनका विवरण निम्न अनुसार है। (१) श्री मुलनायक मुनिसुव्रत स्वामी विराजमान: शा. श्री सागरमलजी सरदारमलजी (२) ध्वजा: शा. श्री वीरचन्दजी आयदानजी (३) कलश: शा. श्री वेलजीभाई नाथाभाई (४) प्रतिष्ठा के दिन बड़ी नवकारसी: शा. श्री मियाचन्दभाई वालाजी परिवार (५) कामली ओढाना:-- मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी :शा. श्री वीरचन्दजी आयदानजी मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी:शा. श्री मियाचन्द वालाजी साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी:शा. श्री फुटरमलजी चौथमलजी इस महिमावंत प्रतिष्ठा समारोह को सानन्द निर्विघ्न सम्पन्न करने में श्री मुनिसुव्रत स्वामी सेवा मंडल एवं श्री मियाचन्दजी वालाजी परिवार, शा. श्री मोहनलालजी पूनमचन्दजी, श्री रमेश छोगमलजी, श्री गणेशमलजी, श्री बाबुलालजी, श्री देवीचन्दजी, श्री वीरचन्दजी आयदानजी, श्री ओटरमलजी हजारीमलजी, श्री सागरमलजी जीवराजजी आदि कई अन्य महानुभावोने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्रदान कर जो अद्वितिय सेवा कार्य किया वह नेरल के इतिहास में सदैव याद किया जाता रहेगा। सभा विसर्जन पश्चात सभी आगत अतिथि पवित्र और मधुर स्मृति लेकर विदा हुए। अभिनय का वेष धारण करना और साधुता का हृदय धारण करना, दोनों के बीज आकाश-पाताल या प्रकाश-अंधकार समान अंतर हैं। ८७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्थपद्मावती माता का अपूर्व प्रभाव श्री पार्श्व पद्मावती देवी तेइसवे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की आधिष्ठायिका देवी है। वे न केवल जिन शासन की रक्षा करती है अपितु चमत्कारो के लिये भी प्रसिद्ध है। श्री पद्मावती माताजी का दिव्य स्वरुप अवर्णनीय है। फिर भी परम्परागत उनके स्वरुप का जो वर्णन प्राचीन ग्रंथो में मिलता है। उसके अनुसार वे स्वर्णवर्णी अथवा रक्तवर्णी मानी जाती है। वे कुर्कुट सर्प की सवारी करती है। उनके चार भुजाएँ, तीन नेत्र और तीन सर्प फण है। उनके दाहिने दो हाथों में कमल और नागपाश है, बाये दोनो हाथों बीजोरा फल तथा अंकुश है। दिगम्बर ग्रंथो में वर्णित उनका स्वरुप भिन्न है। श्री पद्मावती देवी के स्वरुप भेद की मान्यता काल प्रवाह के प्रभाव का फल हो सकती है। प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्धित सिंधु घाटी के मोहन-जोदड़ों के खनन से प्राप्त श्री पद्मावती देवी की प्रतिमा प्राचिनतम मानी जाती है। श्री पद्मावती माताजी का आराधकों के लिये जो स्वरुप निश्चित है। वह इस प्रकार है। वे रक्तवर्णी है। वे कमलासन पर विराजित है। अपने मस्तक पर भगवान श्री पार्श्वनाथ को बिराजित किये है। वे प्रसन्नवदना है। वे कमल पाश, अंकुश, फल धारीणी है। आराधक उनके इसी स्वरुप को ध्यान में रखकर आराधना करता श्री पद्मावती देवी सकल कल्याणकारी है। वे सभी जीवो को भय मुक्त करती है। वे अतिशय महिमा वन्त है इनकी एकाग्र चित्त से आराधना करने पर अनेक सिद्धियां प्राप्त होती है। श्री पद्मावती देवी की आराधना उपासना से जिन-प्रभसूरिजी को अनेक सिद्धियां प्राप्त थी उनकी सिद्धियां जग जाहिर है। उन्होने दिल्ली बादशाह मुहम्मद तुगलक के दरबार में अपनी अनेक सिद्धियों का प्रदर्शन किया था। यहाँ सिर्फ एक उदाहरण ही काफी है। एक बार उन्होने जल से भरा मिट्टी का घड़ा मंगवाया और अपने मंत्र प्रभाव से उसे अधर में टांग दिया फिर अपने डंडासन से मटकी फोड़ दी। घडा टुकडे टुकड़े हो कर गिर पड़ा लेकिन उसका जल ज्यों का त्यों अधर में ही रहा। यह देखकर सभी स्तब्ध रह गए। श्री पार्श्वपद्मावती देवी सब आराधको के मन को आनन्दित करती है। श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति करने वालो पर श्री पद्मावती देवी की विशेष कृपा रहती है। स्वप्न में भी उनके आशिर्वाद से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती है। श्री पद्मावती देवी लक्ष्मी और सौभाग्य देने वाली सम्पूर्ण विश्व को सुखी करने वाली, अपुत्रो को पुत्र देने वाली, अनेक प्रकार के रोगो को नष्ट करनेवाली, सभी पापों को क्षय करने वाली, वांछित फल प्रदान करनेवाली चिंतामणी के समान तीनो लोको की स्वामीनि भवावतारी जब भगवान श्री पार्श्वनाथ स्वामी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अर्हत पदपर आरुढ हुए तो उन्होने चतुर्विध श्री संघ रुपी धर्म तीर्थ की रचना की और उस समय तीर्थंकर कल्प के अनुसार उन्हे शासन रक्षक देव और देवी की स्थापना करना आवश्यक था। इसलिये उन्होने श्री पार्श्वयक्ष ८८ जो अपने अंत:करण से यह मानता है कि मुझसे पाप हुआ है, वह पवित्र और निर्मल है। वे सर्वदा वंदना के पात्र है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को शासन रक्षक देव और श्री पद्मावती माताजी को शासन रक्षिका देवी के रुप में स्थापित किया श्री पार्श्व पद्मावती देवी सदा जागृत है। और ८४ हजार देवीयों पर आधिपत्य रखती श्री पद्मावती माता को स्मरण करने के लिये सहस्त्र नाम स्तोत्र का उपयोग किया जाता है। किन्तु उनके १०८ नाम दर्शाने वाले पद्मावती अष्ठोत्तरशत नाम स्त्रोत्र का वर्तमान में बहुत प्रचलन है। इस स्तोत्र के नित्य प्रतिपाठ करने पर कष्ठो से छुटकारा मिलता है। निम्न श्लोक से उसके प्रभाव का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। "दिव्य स्तोत्र मिदं महासुख कर चारोग्य संपत्करम्। भूत प्रेत पिशाच दुष्ट हरणं पापौद्य संहारकम्।। अन्येन्यार्पित वांछितस्य निलयं सर्वाय मृत्युजंयम्। देव्या प्रीतिकरं कवित्व जनकं स्तोत्रं जगन्मंगलम्।। श्री पद्मावती देवी उस व्यक्ति पर विशेष प्रसन्न होती है जो भगवान श्री पार्श्वनाथ स्वामी का परम भक्त होता है। श्री पद्मावती देवी के मंत्रो की शक्ति का उपयोग परोपकार के लिये करना चाहिये। मंत्र शक्ति का उपयोग अन्यथा नहीं करना चाहिये। __मुनिद्वय के भावी कार्यक्रमों में श्री पार्श्वपद्मावती देवी के महापुजन को प्रधानता प्राप्त हुई है। और उनका लक्ष्य श्री पद्मावती माताजी की १०८ महापूजन पढ़ाने का है। • जिस समय शुभ कर्मा का उदय होता है उस समय मानव के जीवन में अनजाने कार्य भी लाभ-युक्त होते हैं। मानव जितना सोच नहीं सकता, कल्पना नहीं कर सकता उससे भी अधिक प्राप्त करता हैं। कीर्ति वैभव, सत्ता की जहाँ कल्पना भी न हो वहाँ भी उक्त वस्तुएँ चरणों में लौटने लगती हैं। • नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण है। चाहे जितना लुचा या कुटिल मानव धर्मात्मा बनने का ढोंग करे फिर भी उसके अंतर का प्रतिबिम्ब उसकी आँख में झलकता ही रहता है। कर्म ही सत्ता (प्रभाव) नही भोगनी पड़ी हैं? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपोली में जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव २२ मई १९८९ को मुनिद्रय ने प्रभात की मंगल बेला में खापोली गांव में प्रवेश किया। यहाँ आज ही से श्री बृहत् शांति स्नात्र महापूजन, श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन तथा अढारह अभिषेक सहित नवान्हिका महोत्सव का कार्यक्रम शुरु हुआ। खापोली गांव के इतिहास में ५० वर्षों के एक लम्बे समय के बाद पहली बार यह भव्य कार्यक्रम मुनिद्रय की शुभ निश्रा में आयोजित किये गये! यहाँ १८ नवकारसी रखी गई। श्री संघ के महानुभावों ने गुरु वचनानुसार अपनी शक्ति के अनुसार उपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग किया! २५ मई १९८९ को श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का आयोजन किया गया। महाराष्ट्र प्रदेश में मुनिद्रय के द्वारा श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का यह चौथा आयोजन था। श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन के पश्चात लोनावला जैन संगीत मंडळ ने मुनिद्रय के समक्ष उपस्थित होकर लोनावला में इसी तरह का महापूजन पढाने का निवेदन किया। मुनिद्वय ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। __खापोली गांव में ही २९ मई १९८९ को भव्य वरघोडे का आयोजन किया गया। जहाँ कुछ समय पहले धर्म के प्रति इतनी जागृति नहीं थी वहीं मुनिद्रय के पदार्पण और सद्प्रयत्न सें पूरा वातावरण ही धर्ममय हो गया। वरघोडे का मनोहारी दृश्य देखने योग्य था। इन्द्रध्वजा, हाथी, घोड़े, रथ आदि से सज्जित यह रथयात्रा सुन्दर दृश्य उपस्थित कर रही थी। इतर लोग बडी कुतुहलता पूर्वक यह सब देखकर आनन्दित हो रहे थे। पुरे खापोली गांव में यह अनुठा आयोजन एक लम्बे समय के पश्चात हो रहा था। इससे पूरे गांव में अद्भुत आनन्द के वातावरण का समावेश था। खापोली में नवान्हिका महोत्सव के कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न करके मुनिद्वय ने लोनावला की ओर विहार किया। लोनावला में श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन पढाना पूर्व निश्चित था! यथा समय लोनावला में प्रवेश किया। लोनावला गांव हील स्टेशन है! प्रकृति का सुन्दर वातावरण है! हील स्टेशन होने के कारण अनेक लोग मनोहारी प्रकृति का आनन्द लेने यहाँ आते है। पूरे लोनावला में प्राकृतिक छटाओं के बीच अनेक आधुनिक सुविधाओं से युक्त आलीशान बंगले बने हुए है। सम्पन्न परिवार के लोग यहाँ आकर ठहरते है। और प्रकृतिक छटाका आनन्द लेते है। मुनिद्वय १ जून १९८९ को यहाँ पहुँचे। सामैया में मंगल प्रभात का स्वागत करता संगीत का आयोजन रखा गया था। नगर भ्रमण कर मुनिद्वय धर्मशाला मे पधारे। धर्मशाला में मुनिवरश्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने मार्मिक सारगर्भित प्रवचन दिया। उनके प्रवचन सुनकर अनिच्छुक व विरोधी विचार धारा के लोग भी मुनिश्री की विचार धारा से सहमत हो गये। श्री जैन संगीत मंडळ लोनावला ने स्वेच्छा से पूरे कार्यक्रम का भार वहन किया। ५ जून १९८९ को श्री पार्श्वपद्मावती के महापूजन का आयोजन रखा गया था। संगीत मंडळ ने अपने कार्यक्रम से वातावरण को अत्यधिक भक्तिमय बना दिया। इस महापूजन के पश्चात आकुर्डी नगर में यह महापूजन पढाने की घोषणा की गई। वर्ष ध्वनि से जय जयकार करके उपस्थित जन समुदाय ने घोषणा का स्वागत किया। किसी भी छोटे-छोटे मंत्र की आराधना में सिद्ध तन, मन और प्राण की एकाग्रता के बिना होती ही नहीं। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्व पद्मावती महापुजन का अद्भूत चमत्कार आकुर्डी पुणे ८ जून १९८९ को मुनिभगवन्तों ने आकुर्डी में मंगल प्रवेश किया यहाँ श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा सम्पन्न हुई। मुनि भगवन्त ११ जून को आकुर्डी के अन्तर्गत प्राधिकरण में पधारे। वहाँ घाणेराव निवासी गुरुभक्त श्री शाह नागराज चांदमलजी श्रीमाल परिवार की ओर से श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का आयोजन किया गया। इस महापूजन का महत्व अपने आप में एक कहानी बन गयी । मुनिराज जिस समय श्री पार्श्वपद्मावती माता के पूजन के लिये बनवाए गये पांडाल से उपर श्री चांदमलजी के घर पहुँचे। उस समय एक आकस्मिक घटना हुई मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने अभी अपना आसन ग्रहण ही किया था कि उन्हे सहसा ऐसा लगा जैसे बिजली के तार से शरीर छु गया हो। देखा तो ऐसा कुछ नहीं था। न कोई तार था न कुछ और ! फिर ऐसा क्यों हुआ। मुनि श्री ने पलभर आँखे मूंद ली। आत्मा ने पुकार कर सावधान किया " जल्दी नीचे पांडाल में पहुँचो । अनहोनी घटना हो सकती है।" मुनिश्री ने तुरन्त निचे पहुँच कर चारो तरफ नजर दौडाई पांडाल के एक कोने में सजावट के एक बल्ब के करीब बिजली से आग लग चुकी थी। तत्काल मैन स्वीच को बन्द कर उस बल्ब को हटा दिया गया और एक दुर्घटना होने से बच गई। मुनिश्री के पास खड़े व्यक्तियों ने कहा :- 'मुनिवर आपको कैसे ज्ञात हुआ कि आग लगने वाली है। आपकी महिमा अपरम्पार है। सभी उपस्थित जन समुदाय और चांदमलजी श्रीमाल परिवार के लोग हतप्रभ थे। मुनिश्री ने बस इतना ही कहा:- इसमें मेरा कुछ नहीं यह तो श्री पद्मावती माताजी का चमत्कार है।" सबने मन ही मन माताजी को नमन किया। भगवती श्री पद्मावती माताजी के इस चमत्कार की खबर तत्काल चारो तरफ फैल गई। जब महापूजन प्रारंभ हुई तब पूरा पांडाल खचाखच भर गया। सभी भक्तिभाव से विभोर थे। श्री चांदमलजी श्रीमाल परिवार का कोई भी सदस्य पूजा में बैठता तो उसके अंगो में माँ के 'पवन' का संचार होता । माताजी के इस चमत्कार को देखकर लोग भाव विह्वल हो गये और श्री पद्मावती माताजी की जय जयकार करने लगे। श्री पार्श्वपद्मावती की यह छठ्ठी महापूजन थी । यह भक्तो के मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ गई। इस महापूजन में भक्तों की जितनी भीड हुई उतनी पहले कभी नहीं हुई। मुनिप्रवर की साधना की सराहना करते हुए भक्तजन थकते न थे। आकुर्डी में इस चमत्कारिक महापूजन से जिन शासन का प्रभाव द्विगुणित हो गया। कर्तव्य के प्रति जहाँ निष्ठा दृढ होती हैं, वहाँ मन में उत्साह की औट में नौराश्य आता ही नहीं हैं। For Private Personal Use Only ९१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण चातुर्मास स्थल मुनिद्वय ने आकुर्डी से १२ जून १९८९ को उग्र विहार कर दिनांक १५ जून १९८९ को कर्जत नगर में मंगल प्रवेश किया। कर्जत में इसी दिन रात्रि में ९ बजे श्री संघ की एक बैठक का आयोजन किया गया। पू. मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी.म.सा. और मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा.की शुभ निश्रामें बैठक की कार्यवाही शुरु हुई। मुनि श्री ने श्री संघ को कर्जत गांव में ही श्री नमिनाथ जिन मंदिर के निर्माण कार्य के प्रति जागृति लाने हेतू प्रवचन दिया। कर्जत मंदिर के ट्रस्टीगण ने सकल श्री संघ के समक्ष यह प्रस्ताव रखा, कि यदि पू. मुनिद्रय अपने पुनित करकमलोंसे इस कार्य का शुभारंभ करेंगे तो यह कार्य शीघ्र ही पूर्ण होगा। श्री संघ के समस्त श्रावकोने मुनिद्वय के प्रति अपनी आत्मिक श्रद्धा व निस्वार्थ प्रेम प्रकट करते हुए इस शुभ कार्य को पूर्णत: सम्पन्न करने हेतु नए ट्रस्टी मंडल को मंदिर निर्माण की समस्त जिम्मेदारी सौंप दी। जीवन कैसे जिया जाये, जीवन की दिशा क्या हो, कैसे अपने आपको पुण्य कार्य हेतु प्रेरित किया जाये? जीवन में कहाँ और कैसे सार्थकता है? समय एवं धन का कैसे सदुपयोग किया जाये? ये अन्यान्य प्रश्न है। और इन प्रश्नों का उचित समाधान करते है। श्रमण संघ श्रमण भगवन्त शीक्षा देते है! उपदेश देते है! मार्गदर्शन करते है। मनुष्य को मोह निंद्रा से जगाते है। जगत के प्रति सतत् सावधान और धर्म के प्रति जागृति पैदा करने के लिये ही श्रमण भगवंत विचरण करते है। श्रावक इस तथ्य से अवगत है और कर्जत के श्रावक इसके अपवाद नहीं है। इसलिये पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी तथा साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ की शुभ निश्रा में प्रबल पूण्योदय से एक बहुप्रतिक्षीत इच्छा साकार होने लगी। २६ जून १९८९ के दिन शुभ मुहुर्त में शा श्री केशरीमल नवलाजी परिवार ने इस संकल्प का पूण्यलाभ प्राप्त किया। कर्जत में २९ जून को शा श्री हस्तीमलजी जीवराजजी परिवार ने शिलान्यास सम्पन्न करने का लाभ प्राप्त किया दोपहर ३ बजे श्री पार्श्वपंच कल्याणक पूजन का आयोजन किया गया और प्रात: समय स्वामी वात्सल्य रखा गया। कर्जत से विहार कर मुनिश्री साध्वी मंडल सहित मोहना नगर पधारे। मोहना नगर में ४ दिन की स्थिरता के पश्चात १२ जुलाई को मुनिद्रयने मंगल विहार कर कल्याण की ओर चल पडे। पूज्य मुनिराजश्री के चातुर्मास हेतु कल्याण नगर में जोरदार तैयारी की गई थी। स्थान स्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये थे। कल्याण का प्रत्येक धर्मप्रेमी जन उन क्षणों की प्रतीक्षा तीव्रता से कर रहा था जब मुनिद्वय के चरणों का पारस स्पर्श उस क्षेत्र को स्वर्णिम आभा प्रदान करने वाला था। . पू. मुनिद्वयश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी और मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी और साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ ने १२ जुलाई १९८९ को प्रात: १० बजे चातुर्मास हेतू कल्याण नगर में मन भावन श्री अरिहन्त जैन युवक बैण्ड मंडल के वाद्ययंत्रो की सुमधुर ध्वनि और जय जयकार से प्रतिध्वनित आनन्दपूर्ण वातावरण में मंगल प्रवेश किया। सुभाष चौक में शा. श्री प्रतापचंदजी ९२ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवलाजी परिवार की ओर से शानदार सामैया किया गया और गहुँली की गई। पूज्य मुनिद्वय व साध्वी मंडल मंथर गतिसे आगे बढे। श्रावक श्राविकाओं के झुण्ड के झुण्ड आकर स्वागत में शामिल हुए, अत्यन्त हर्षोल्लास के वातावरण में नगर प्रवेश के अवसर पर कर्जत, नेरल, लोनावाला, आकुर्डी, खापोली, मोहना, इन्दापुर, अम्बरनाथ, बम्बई, आदि नगरों से भी श्रध्दालू श्रावक पधारे थे। "त्रिशलानन्दन वीर की, जय बोलो महावीर की' तथा वंदे वीरम के नारों से आकाश गुंजायमान हो उठा। चल समारोह के साथ नगर भ्रमण हुआ जिन मंदिर में दर्शन वन्दन किये। और यह चल समारोह चातुर्मास स्थल प्रताप हाल पहुँचा। प्रताप हाल में कार्यक्रम सुबह ११ बजे प्रारंभ हुआ। पूज्य मुनि भगवन्त श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजीने धीर गंभीर किन्तु मृदु मधुरवाणी में प्रवचन प्रारंभ किया। उन्होने कहा- "अनन्तानन्त उपकारी भगवन्त महाश्रमण भगवान महावीर की अजर अमरवाणी आज भी हमें जीवन्त प्रेरणा प्रदान कर रही है। जैन श्रमण संघ में वर्षा वास या वर्षा ऋतु को समस्त ऋतुओं में महत्वपूर्ण माना गया है। क्योकिं सतत् ४ माह एक ही स्थान पर साधु साध्वियों के सानिध्यता में श्रावक श्राविकाओं के अन्तमन की परिशुध्दि मुनि भगवन्तो के उपदेश प्रवचन से होती है। उनके मन निर्मल, पवित्र, सरल, निश्चल हो जाते है। इसलिये हमारी समस्त धार्मिक क्रियाओं के पूर्व अन्तरतम् में फँसे अज्ञान, इर्ष्या, द्वेष आदि को दूर कर मन को स्वच्छ उर्वर बनाने का विधान है। यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। सामायिक हो या तपस्या किसी में भी अहं का पोषण और धन का प्रदर्शन करने से बचना चाहिये।" गुरुदेव के सानिध्य का महत्व श्रावक श्राविकाओं के लिये कितना है। प्रवचन समाप्त होने पर उस विषय पर चर्चा होना स्वाभाविक था। एक श्रोता ने कहा- "घर बैठे आई गंगा का लाभ लेना तो हम पर निर्भर होता है। नदी किनारे बैठा कोई व्यक्ति प्यासा रह जाय तो नदी का इसमें क्या दोष?" कल्याण चातुर्मास का आयोजन शा श्री प्रतापचन्दजी नवलाजी श्रीश्रीमाल परिवार की ओर से किया गया। विविध कार्यक्रमों और तपस्याओं के साथ चातुर्मास प्रारंभ हुआ। श्रावण वदी ९-१०-११ को भगवान श्री पार्श्वनाथ की अठ्ठम तपाराधना प्रारंभ हुई इसमें अनेक आराधकोंने भाग लिया। उस आराधना का संपूर्ण आयोजन शा. प्रतापजी नवलाजी परिवार की ओर से ही किया गया। पू. मुनिवरश्री लोकेन्द्रविजयजी ने अपने प्रवचन में बताया कि, "यदि हम आपसी मतभेद भूलाकर, इर्ष्या, द्वेष युक्त निहित स्वार्थवाले मनोभावो को तिलांजली देकर धर्म के प्रति तन-मन-धन से, पूर्ण निष्ठा भाव से युक्त होकर आत्मीय समर्पण भाव से आराधना करे तो, निश्चय ही आत्मोन्नति होती है। मन में दया, करुणा के भाव पैदा होते है।" सभी तपस्वीयों की आराधनाए सानन्द सम्पन्न हुई। देव गुरु और धर्म की असीम अनुकम्पा से किसी तरह का कोई विघ्न या बाधा नहीं आई। श्रावण सुद ७ बुधवार दिनांक ९ अगस्त १९८९ को कल्याण नगर में पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी की पावन निश्रा में धर्मानुरागी जुहारमलजी छोगमलजी श्रीश्रीमाल की ओर से श्री नवकार महामंत्र की आराधना में १६५ आराधको ने सोत्साह भाग लिया। तप की भट्टी में काया को तपाकर कुन्दन बनाना ही तपस्या का सर्वश्रेष्ठ और अनिर्वचनीय अनुष्ठान आनन्द तन-मन और प्राण की एकाग्रता से जो साधक साधना करता है उसे जगत में कोई वस्तु अप्राप्य वस्तु नहीं हैं। ९३ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देनेवाला फल और साधन दोनों है। आराधना और वह भी नमस्कार महामंत्र की आराधना महाराष्ट्र के लिये यह द्वितीय सुअवसर था। कल्याण के लिये तो यह प्रथम कल्याणकारी पर्व था। क्योंकी इससे पहले इस प्रकार के आयोजन इस नगर में नहीं हुए। सोने में सुहागा : श्री नमस्कार महामंत्र की आराधना के साथ ही श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन भी किया गया। प्रतिदिन प्रात: साढे १० बजे पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी की निश्रा में कच्छी हाल में "ॐ परमेष्ठि" की मधुर धुन के साथ क्रिया आरंभ होती थी इसके साथ ही सभी आराधक लयलीन हो जाते थे भाव विभोर होकर "ॐ परमेष्ठि" का पाठ करते थे। जब मुनिश्री ध्यान मग्र होकर "मंत्र जपो नवकार" गाते थे तो हाल में गहरी शांति छा जाती थी। सबके अन्दर अजीब सा उत्साह छा जाता था । नमस्कार महामंत्र के जाप की महिमा का तो वर्णन ही नही किया जा सकता है। महामंत्र की आराधना के समय पुज्य मुनिराजश्री अपने प्रवचन में नमस्कार महामंत्र की महिमा का ऐसा अदभूत वर्णन करते थे, कि सुनने वाले एकदम तल्लीन हो जाते थे। मुनिश्री ने फरमाया कि नवकार एक अदभूत महामंत्र है। भवसागर तारण हार है यह आत्मिक और मानसिक शांति प्रदान करता है। यह जीवन और मन को सदैव निर्मल और पवित्र बनाने वाला है कष्टों से मुक्ति दिलाता है। रिद्धी सिद्धि प्रदायक है। सिद्ध शीला के समान हैं निरंतर ध्यान करते रहने पर मोक्ष रूप प्रदान करने वाला है। अगर सच्चे मन से एकाग्र होकर उसकी आराधना की जाये तो शुभ फलप्रदान करने वाला है। नमस्कार महामंत्र का जितना वर्णन किया जाय कम है। आप स्वयं इसका ध्यान करके जाप करके आराधना करके इसकी महिमा प्राप्त कर सकते है। जैन धर्म व्यक्तिवादी नहीं, कर्मवादी और गुणवादी है की उपासना की जाती है। नमस्कार महामंत्र न केवल जैन के जन जन के लिये महामंत्र है। इसे कोई भी अपना है। इस महामंत्र में अलौकिक शक्ति है। " इस आराधना में प्रत्येक आराधक को प्रतिदिन २० नवकार माला जाप करना होता है। १ माला में १०८ बार पूरा नमस्कार महामंत्र का ध्यान करना होता है इसी आराधना के दौरान श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन रखा गया इस महापूजन का आयोजन यशवन्त हाल में रखा गया। मुनिश्री के मुखारविंद से माताजी के मंत्र का उच्चारण सुनकर उपस्थित जन समुदाय भक्ति भावना से झुम उठते थे। शाम को स्वामीभक्ति का आयोजन भी रखा गया था । ९४ इसमें व्यक्ति की उपासना नहीं गुणों धर्मविलम्बियों के लिये अपितु संसार कर अपना हृदय पवित्र बना सकता श्री महामंत्र आराधना और श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन शा श्री जुहारमलजी छोगमलजी श्रीश्रीमाल परिवार की ओर से किया गया था। अतः नमस्कार महामंत्र के आराधकों की ओर से शा जुहारमलजी छोगमलजी श्रीश्रीमाल का शानदार स्वागत किया गया। इस अवसर पर पूज्य मुनिश्री ने फरमाया कि "आपका जीवन धर्माराधनामय, अनुष्ठानमय बनकर फले फुले और सुगंधित सुवास से सभी सुंगधित हो।" संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है तो वह है मात्र धर्म Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अगस्त १९८९ को एक भव्य रथयात्रा का आयोजन किया गया।श्री नमस्कार महामंत्र आराधना के सानन्द निर्विघ्न सम्पन्न होने के उपलक्ष में इस रथयात्रा का आयोजन किया गया था। शहनाई की मंगल ध्वनि के साथ मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी, मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. एवं साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ की शुभनिश्रा में यह चल समारोह प्रतापहाल से शुरु हुआ। कल्याण का अरिहन्त जैन बैंड मंडल रथयात्रा की शान था। श्री चन्दनबाला बालिका मंडल डांडीया नृत्य करते हुए चल रही थी। और अब आ गया समग्र जैन जगत का महान पर्व पर्वाधिराज पर्युषण महापर्व। दिनांक २८ अगस्त को प्रारंभ हुए चातुर्मास काल में आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण पर्व पर्दूषण ही है। पर्युषण महापर्व शुरु होते ही इसकी उपासना के लिये प्रत्येक प्राणी प्रत्येक आत्मा में आनन्द उमंग का संचार होने लगता है। आबाल, वृध्द, यूवक, नर, नारियाँ उपासनाओं की होड में लग जाते है। पू. साधु साध्वीयों के प्रेरणा व मार्गदर्शन से आठ दिन तक सम्पूर्ण जैन जगत धर्ममय हो जाता है। जो व्यक्ति साल भर तक समया भाव के कारण धार्मिक क्रियाएं नहीं कर सकता है वह श्रद्धापूर्वक इस महापर्व में आठ दिन तक श्रद्धा पूर्वक करता है। ज्ञान-ध्यान, व्याख्यान श्रवण तप-त्याग आदि की झडीसी लग जाती है। यशवंत हाल धर्म प्रेमियों से खचाखच भरा हुआ था। सभी उपस्थित जन समुदाय मुनिराज श्री के व्याख्यान सुनने को उत्सुक थे। मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. ने अपने प्रवचन में कहा कि-"आज पर्वाधिराज पर्युषण महापर्व शुभ एवं मंगल संदेश के साथ हमारे अंधकारमय जीवन में प्रकाश पुंज फैलाने आया है। यह पर्व लोकोत्तर पर्व है। इसमें आत्म साधना, आत्माशुद्धि एवं कर्म निर्जरा से उर्ध्वगति प्राप्त की जाती है।" मुनिश्री ने तपस्याओं की चर्चा करते हुए अठ्ठम तप और अठ्ठाई तप का विशेष महत्व बताया। उपवास करने से आत्म जागृति उत्पन्न होती है। इसके पश्चात पू. मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने अपने प्रवचन में फरमाया कि आत्मा में परमात्मा को प्रविष्ठ होने दे। हृदय में संकल्प शक्ति की आवश्यकता है। मुनिराज श्री में अभयदान को सर्वश्रेष्ठ दान बताया। पर्युषण पर्व के अवसर पर रात्रि में प्रभु भक्ति का आयोजन रखा गया था। प्रभु भक्ति में अरिहन्त मंडल-कल्याण, श्री जैन संगीत मंडल-लोनावाला, श्री बालिका मंडल-कर्जत, श्री मुनिसुव्रत मंडल-अम्बरनाथ, श्री अमीझरणा मंडल-कल्याण ने अपने नुतन स्तवनो में भक्तिरस विभोर किया। पू. मुनिराजश्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने आचारांग सुत्र के महत्व को समझाते हुए कहा-"अनुकुल प्रतिकुल परिस्थितियों में राग द्वेष का भाव न रखकर मैत्री दया पूर्ण शांत भाव रखे। कितनी भी तपस्या क्यों न करे, अगर कषाय भाव भी उत्पन्न हो गया, तो सारी की सारी तपस्या व्यर्थ हो जायेगी। मन में क्लुषित नहीं रखना चाहिये।" महापर्व श्री पर्युषण के विभिन्न आयोजनों से पूरा जैन समाज धर्ममय बन गया था। मासक्षमण सोलभद्धा, १५ उपवास, अठ्ठाई, अठ्ठम की तपस्याए हुई। पू. मुनिश्री ने कल्पसुत्र वाचन कर सार तताया कि हे आत्मन् प्रबल पूण्योदय से ही यह मानव भव मिला है लेकिन धर्म का श्रवण तो महापुण्य से ही मिलता है। १ सितम्बर १९८९ भाद्रपद सुदी १ का दिन। आज पर्युषण पर्व के अन्तर्गत महावीर जन्म वाचन का दिन है। आज भगवान महावीर स्वामी का जन्मदिन मनाया जा रहा है। सभी लोग यशवन्त हाल के विशाल प्रांगण की ओर जा रहे है। मुनिश्री यहीं पर प्रभु श्री महावीर स्वामी मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जन्म वांचन करने वाले है। दोपहर में जन्म वांचन हआ और श्रीफल वधारकर आनन्द से प्रभु जन्म की खुशी मनाई गई। सभी एक दूसरे को श्रीफल खीला खीला कर खुशी जाहिर कर रहे थे। पश्चात विशाल वरघोडा निकाला गया। इन्द्रध्वजा, शहनाई वादन, बैण्ड, हाथी घोडे, भैरव बैण्ड कल्याण और प्रभुपालखी आदि से सजीत वरघोडा एक आनन्ददायी दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। मुनिराज श्री और साध्वी समुदाय सहित अपार जन मेदनी समारोह की द्विगुणीत वृद्धि कर रहे थे। ऐसा प्रतित हो रहा था, मानो कि कल्याण नगर के समस्त धर्मप्रेमी शीव सुख लूट रहे हो। नाचते हुए गाते हुए आबाल वृद्ध, नर, नारी हर्षित होकर गा रहे थे। "सिध्दार्थ को लाडलो, महावीर झुले पालनीये," "म्हारा महावीर ने फूलडे वधावू थोने मोरा साहेब वेगा तेडाया मोडा कनवत आयाजी," ढोलक की मधुर ताल अनोखा आनन्द प्रदान कर रही थी। चल समारोह में भगवान महावीर का एक नारा- "अहिंसा परमो धर्म" "जब तक सुरज चांद रहेगा-महावीर तेरा नाम रहेगा' आदि नारों से कल्याण नगर प्रतिध्वनित हो रहा था। यह रथयात्रा गांधी चौक, शंकरराव चौक, शिवाजी चौक से होते हुए महम्मद अली चौक पहुँची। श्री महावीर प्रभु के पालने का चढावा शा श्री हरकचन्दजी नैनमलजी ने लिया था। रथयात्रा श्री महावीर चौक में विसर्जित हुई। ४ सितम्बर भाद्रपद सुदी ४ आज पर्युषण पर्व का अन्तिम और अत्यन्त ही महत्वपूर्ण दिन । आज 'सांम्वतसरिक प्रतिक्रमण' है। और इस क्रिया कों जैन समाज का प्रत्येक जीव अबाल वृद्ध, युवक, नर नारीयां सभी आत्म प्रसन्नता से पूर्ण करते है। क्योंकी इस प्रतिक्रमण से संसार में रहे हुए जीव मात्र से क्षमा याचना की गई है। पू. मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा.ने अपने प्रवचन में फरमाया कि, “यदि संवत्सरी का कोई प्राण है यदि पर्दूषण की कोई सफलता है तो वह क्षमापना है। क्षमा धर्म ही आत्मा को सफलता के उच्चतम शिखर पर ले जाता है। तप करके भी जो कषायों से मुक्त नहीं हुए है वे इस पावन पर्व पर भी वैसे ही कोरे रह जाते हैं! सवत्सरी के दिन भी आहार करने वाले मुनिश्री कुरगडु मुनि क्षमा धर्म की उच्चाराधना करके तीर गयें। जिन शासन के इस महत्व को समझ कर वैरभाव भूल कर, एक दूसरे के गले मिलकर, अहंकार के विष को क्षमा के समुद्र में मिल जाने दो। एक दूसरे को क्षमा प्रदान कर आत्मा को पवित्र बनाओं। सांवत्सरिक क्षमापना का यह पावन दिन वर्ष भर में सिर्फ एक बार आता है। यदि अज्ञान वश यह दिन हाथ से निकल गया, तो फिर पूरे वर्ष पछताना पडेगा। और फिर वर्ष भर जीयेंगे या नहीं इसकी क्या खात्री है। और पश्चाताप के बिना कुछ भी बचेगा नहीं। क्षमाभाव रखने वाला सबसे महान है। किन्तु क्षमा मांगने वाला, क्षमायाचना करनेवाला उससे भी बड़ा है। अत: हमें आज क्षमाभाव ही रखना है। हम आज एक दूसरे की विगत वर्ष में हुई भूलों को भूलकर क्षमा देते और लेते हुए यह संकल्प करे कि केवल पर्युषण के दिनोंमें ही नहीं वरन् प्रतिदिन हम स्वयं को निहारते रहे। क्षमा भाव के बिना तो यह जीवन ही अधुरा है। शुन्य है।" ९६ मानव जब परास्त होता है, हारता है, तब भी अपना दोष देखने जितना निर्मल-पवित्र नहीं बन सकता। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन पूर्ण होने के पश्चात मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी, मुनिश्री लोकेन्द्र विजयजी, साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ और श्री संघ के श्रावक श्राविका कल्याण नगर के जिन मंदिरो में दर्शन-वन्दन करने गये। आज के इस चैत्य वंदन,दर्शन को चतुर्विध श्री संघ सहित "चैत्य परिपाटि" कहते है। वहाँ से आकर अब सामुहिक प्रतिक्रमण की तैयारी की गई। शाम को साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण करके सभी ने अन्त:करण पूर्वक एक दूसरे से क्षमायाचना की। मुनिराजश्री ने सर्वप्रथम श्री संघ से अन्त:करण पूर्वक क्षमायाचना की। मिच्छामि दुक्कड़म किया। पश्चात श्री संघ ने भी भक्तिभाव पूर्वक आत्मप्रसन्नता से मुनिद्रय व साध्वी मंडल से क्षमायाचना की। बादमें सभी ने प्रतिक्रमण के पश्चात एक दूसरे से क्षमा प्रार्थना की। इसी क्षमापना पर्व के साथ ही श्री पर्वृषण महापर्व सानन्द सोल्लास सम्पन्न हुआ। भाद्रपद शुकू १० तदनुसार १० सितम्बर को कल्याण नगर में आठवा अचिन्त्य महिमावन्त महान प्रभावशाली श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन किया गया। यह आयोजन महाजन वाड़ी में शा. श्री. जवेरचन्दजी टेकचन्दजी की ओर से किया गया था। श्री छोटे राही एण्ड पार्टी ने संगीतमय स्वर लहरी में पूजन का जो आनन्द बढ़ाया उसे सभी ने मन्त्रमुग्ध होकर सराहा और आनन्द लिया। महापूजन के सुअवसर पर महाराष्ट्र राज्य के तत्कालीन खाद्य मंत्री श्री नकुल पाटील एवं कल्याण महानगर पालिका के आयुक्त श्री भोसले पधारे थे। महापूजन के दौरान आयोजक श्री जवेरचन्दजी की धर्मपत्नि श्रीमति कमलादेवी के शरीर में माताजी के पवन का संचार हआ। आसोज सुद पूर्णीमा को श्री उम्मेदमलजी प्रतापजी की ओर से श्री पाश्वे पद्मावती महापूजन का आयोजन किया गया। कल्याण नगर में मुनिराजद्वय के चातुर्मास काल में हुए धार्मिक अनुष्ठानों को हमेशा याद किया जायेगा, विशेष रुप से श्री अर्हत् महापूजन की स्मृतियां तो अमिट रहेगी। वास्तव में इस कल्याण नगर में श्री अर्हत् महापूजन का भव्य आयोजन पहली बार ही किया गया था। इसलिये इसकी महिमा निराली बन गई है। यह महापूजन श्री मुनिद्रय की शुभ निश्रा में आसोज शुक्ल ६ दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ को पढ़ाई गई। इस महापूजन में दूर दूर से अनेक श्रद्धालुओं ने आकर लाभ लिया। श्री राजस्थान जैन संघ ने इस महापूजन को पूर्णतया सफल बनाने में तन मन धन से अच्छा सहयोग दिया। रात्रि को प्रभु भक्ति का आयोजन हुआ। श्री सोहनलाल शास्त्री की पार्टी ने प्रभु भक्ति का गुणगान किया। महापूजन में विधिकार डा. बाबुभाई नवसारी गुजरात से पधारे थे। महावीर हाल में आयोजित इस महापूजन के अवसर पर मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने संक्षिप्त उद्बोधन दिया। शा. जुहारमलजी छोगमलजी परिवार की तरफ से कल्याण नगर में सर्वप्रथम बार श्री राजेन्द्र सूरि अष्टप्रकारी पूजन पढ़ाई गई। चातुर्मास काल पूर्ण हो जाने के कारण कार्तिक पूर्णिमा को पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. और साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ६ प्रताप हाल से चातुर्मास परिवर्तन हेतू श्री चतुर्विध श्री संघ सहित बॅण्ड-बाजों के साथ गांधी चौक स्थित ब्राह्मण वाड़ी पधारे। श्री सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा स्वरूप श्री सिद्धाचलजी का पट्ट यहाँ लगाया गया। जिसका उपस्थित श्री संघ समुदाय ने दर्शन वन्दन कर लाभ लिया। जिस तरह समय मन अविरत गतिमान बनता है उसी तरह समय भी अविरत गतिमान है। ९७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना चातुर्मास काल समाप्त करने के उपलक्ष में मुनिश्री ने प्रेरणादायी प्रवचन दिया। मुनिद्वय ने कल्याण श्री संघ का आभार मानते हुए जाने-अनजाने में हुई गलती के प्रति क्षमायाचना की। और चातुर्मास कराने वाले श्रीश्रीमाल परिवार को अर्न्तमन से आशिर्वाद दिया । इनकी वाणी में, प्रवचन में इतना माधुर्य था कि उपस्थित जन समुदाय के नेत्र बरबस ही गीले हो उठे। यह आत्मीय स्नेह का अनुठा उदाहरण है। कल्याण के चातुर्मास पूर्ण होने के बाद कल्याण में ही कुमारी रीम्पल के दीक्षोत्सव का कार्यक्रम शुरु हुआ । कल्याण नगर स्थित नारायण वाड़ी में कुमारी रीम्पल की दीक्षा का भव्य कार्यक्रम रखा गया। परम्परानुसार दीक्षा के पहले कु. रीम्पल द्वारा वर्षीदान करने का वरघोड़ा निकाला गया । वरघोड़े में दीक्षार्थीनी के उत्साहवर्धन स्वरूप नारे लगाये गये- " दीक्षार्थी अमर रहो।" "कु. रीम्पल ने क्या किया सांसारिक सुखों का त्याग किया" । नगर परिभ्रमण कर वरघोड़ा दीक्षास्थान पर सम्पन्न हुआ। दीक्षा विधि के दौरान कु. रीम्पल का संक्षिप्त परिचय दिया गया। "कु. रीम्पल मध्यप्रदेश के गांव बाग जिला घार निवासी शा. विमलचन्दजी मन्नालालजी की सुपुत्री है। वे ७ वर्ष की अल्पायु से ही पूर्व संचित शुभ परिणाम के फलस्वरुप साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी, साध्वी श्री हेमप्रभाश्रीजी की छत्रछाया में रहकर विरति मार्ग पर अग्रसर है। उनकी सांसारिक बड़ी बहन और वर्तमान में साध्वी श्री रत्नरेखाश्रीजी म.सा. भी साध्वी पुष्पा श्री जी की सुशिष्या है। कु. रीम्पल ने १४ वर्ष की आयु में मगसर वदि ५ दि. १७-११-८९ को मोक्षप्रदायिनी, भवतारणी दीक्षा ग्रहण की। - दीक्षा का कार्यक्रम विधिविधान पूर्वक मुनिराजद्वय ने पूर्ण किया। कु. रीम्पल का दीक्षा के पश्चात् साध्वी श्री कल्पादर्शिता श्रीजी के नाम से नामकरण किया गया। और साध्वी श्री पुष्पा श्रीजी की शिष्या घोषित की गई। बजे शुभ मुहुर्त में मुनिराजद्वय ने साध्वी श्री पुष्पा श्री जी विहार किया। कल्याण नगर के श्रद्धालु श्रावक श्राविकाओं ने करते हुए विदाई दी। विदाई के अवसर पर मुनिराज श्री ने " समय परिवर्तनशील है। साधु नियम के नही।" दीक्षा के कार्यक्रम के समाप्त हो जाने के बाद दिनांक २०-११-८९ को सुबह सवासात आदि ठाणा ७ के साथ मंगल अश्रु पुरित नैत्रों से मंगल गान उपस्थित जन समुदाय को कहा : अन्दर ही एक स्थान पर ठहरते है। नियम के पश्चात पू. मुनिद्वय ने साध्वी समुदाय के साथ बम्बई महानगर की और प्रस्थान किया । बम्बई के उपनगर गोरेगांव में शाह रुपचन्दजी हंजारीमलजी की ओर से दिनांक १४ दिसम्बर १९८९ को श्री पार्श्व पद्मावती माताजी की महापूजन का आयोजन मुनिद्वय की शुभ निश्रा में रखा ९८ गया था। इस महापूजन को सानन्द सम्पन्न करके मुनिराजद्वय बम्बई के उपनगरों में विचरण करते हुए धर्म प्रभावना करते हुए पुनः कल्याण नगर पधारे। कल्याण नगर में दिनांक ३१ दिसम्बर १९८९ को श्री एस.के. हींगड़ और श्री जी. पी रांका की ओर से श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का भव्यातिभव्य आयोजन रखा गया था। अति उल्हास के वातावरण यह पूजन सम्पन्न हुई। मन की गति में थोडा विराम आता है। For Private Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहना नगर में गुरु सप्तमी। ३ जनवरी १९९० मनुष्य अपने जीवन काल में कभी सफल होता है, तो कभी असफल। सफलता और असफलता का रहस्य गुढ़ होता है। सफलता और असफलता के सुख दुख से परिपूर्ण जीवन की समस्याओ से निर्मित ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर तो गुरुदेव ही दे सकते है। __मोहना नगर के श्रावक श्राविकाएँ मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी, मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी की प्रतिक्षा में व्याकुल थे, क्योंकि गुरु सप्तमी का पावन पर्व इस वर्ष मोहना में ही मनाना निश्चित था। और आज मुनिराजद्रय साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा ७ का यहाँ पधारना पूर्व निश्चित था। नववर्ष के मंगल प्रभात में १ जनवरी १९९० को मुनिद्वय साध्वी सुमदाय के साथ मोहना नगर प्रवेश किया। नगर प्रवेश पर मंगल गीत गाये गये। अपूर्व सामैया के साथ नगर प्रवेश हुआ। युवाओं ने नारे लगाये। "लेखेन्द्र, लोकेन्द्र ने क्या किया - कोंकण को धर्ममय किया" "लेखेन्द्र, लोकेन्द्र आये है नई रोशनी लाए है।" अभूतपूर्व सामैये का आयोजन गुरु सप्तमी के आयोजनकर्ता शाह पुरवराजजी भगवानजी फोलामुथा परिवार मोहनावालों की ओर से किया गया। नगर भ्रमण कर मनिद्वय धर्मशाला में पधारे और संक्षिप्त प्रवचन दिया। गुरु सप्तमी के अवसर पर पंचकल्याणक पूजा पढ़ाई गई। पूजन में संगीत की रमझट मचाने के लिये प्रदीप कुमार को आमंत्रित किया गया था। गुरु सप्तमी के पावन पर्व ३ जनवरी १९९० पौष शुक्ल ७ को विश्ववंद्य प.पू. गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी म.सा. की अष्ट प्रकारी पूजन पढ़ाई गई। आज के इस पावन प्रसंग पर पू. मुनिराजद्रय की शुभनिश्रा में श्री गुरुगुण गरिमा का आयोजन रखा गया। अनेक वक्ताओं ने गुरुगुण की महिमा का बखान किया। पू. मुनिराज ने दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. के त्यागमय जीवन का इतिहास बताया। शाम को उल्लासमय वातावरण में बडे हर्ष और आनन्दपूर्वक गुरुदेव की आरती उतारी गई। इसी कार्यक्रम के मध्य आगामी चातुर्मास कराने को उत्सुक श्री संघोने यहाँ पधार कर मुनिश्री से आगामी चातुर्मास अपने - अपने गांव में करने की विनन्ती की। पूना, नेरळ, मोहना, रोहा, गोरेगांव, नागोठाणे, इन्दापुर, आदि जगहो से पधारे श्री संघ के समक्ष मुनिराज श्री ने अपना निर्णय सुनाकर गोरेगांव श्री संघ को चातुर्मास कराने का अवसर प्रदान किया। इससे गोरेगांव श्री संघ में आनन्द छा गया। चैत्र वद १० को पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजय म.सा. 'शीतल' की पूण्यतिथि का आयोजन का आदेश कामशेट निवासी शा. सुकनराज अदाजी बाफना को दिया गया। आगामी गुरु सप्तमी मनाये जाने का आदेश श्री पद्मावती ऑइल मिल कानेवाड़ी वालो को दिया गया। इनकी तरफ गुरु सप्तमी का पूरा कार्यक्रम मोहना नगर में आयोजित किया जावेगा। संसार में काम-राग के भक्त अधिक होते है, त्याग के आकाश में पहुँचने वाले विरल होते है। . ९९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहना नगर में गुरु सप्तमी के पावन पर्व पर गुरुमंदिर में चमत्कारिक घटना हुई। आरती के पश्चात गुरुचरण से अमीझरणा हुआ। अनेक लोगो ने इसेदेखा। स्वयं मुनिराजश्री ने भी इस दृश्य को देखा। गुरुदेव की महिमा अपरम्पार है। गुरु सप्तमी का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कर मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी, मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी, साध्वी समुदाय सहित मोहपाडा रसायनी की तरफ विहार किया। मोहपाडा रसायनी के नुतन जिन मंदिर की प्रतिष्ठा हेतू पौष सुद पौर्णिमा दिनांक ११ जनवरी १९९० को नगर प्रवेश किया। यहाँ के नूतन जिन मंदिर में माघ शुक्ल ३ सोमवार दिनांक २९ जनवरी १९९० को प्रतिष्ठा का शुभ मुहुर्त तय था। प्रवेश के पश्चात उपस्थित जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए मुनिराजश्री ने अपने प्रवचन में फरमाया कि जिन शासन में प्रतिष्ठा का अपार महत्व है। जिन मंदिर बनवाना मूर्ति भराना और प्रतिष्ठा कराना, जिन बिम्ब प्रतिष्ठित करना आदि कार्य से कर्म की निर्जरा होती है। और इस ओर प्रवृति रखने से आत्म श्रेय के मार्ग पर अग्रसर होता है। भगवान श्री आदिनाथ आदि जिन बिम्ब और कलिकाल कल्पतरु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा का शुभ मुहुर्त पूर्व निश्चित किया जा चूका था। कल्याण चातर्मास के दौरान आसोज सदी पर्णिमा को मोहोपाडा (रसायनी) जैन श्री संघ ने पूज्य मुनिराज श्री की शुभ निश्रा में उपस्थित होकर प्रतिष्ठा कराने का अपने निर्णय से अवगत कराया। तब मुनि श्री ने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी। तब से श्री संघ में अति आनन्द छाया हुआ था और आज मुनिश्री के नगर प्रवेश के साथ आनन्द के वातावरण में द्विगुणीत वृद्धि हुई। माघ वदी ११ दिनांक २२ जनवरी से प्रतिष्ठा महोत्सव के कार्यक्रम की शुरुआत हुई। माघ सुदी १ को श्री पार्श्वपद्मावती माताजी की महापूजन का भव्य आयोजन रखा गया था। माघ सुदी २ को भव्य रथयात्रा का आयोजन किया गया था। इस विशाल रथयात्रा में करीब ३००० दर्शनार्थी शामील हुए। रात्रि में मुख्य मुख्य चढ़ावे बोले गये।। माघ सुदी ३ दिनांक २९ जनवरी १९९० सोमवार को प्रतिष्ठा का दिन था। मोहोपाड़ा (रसायनी) के श्री संघ की बहु प्रतिक्षित समय की पूर्णाहूति होने जा रही थी। सुबह से ही चारो तरफ धर्ममय वातावरण में कार्यक्रम की चहल पहल चल रही थी। मुनिराजद्वय के मंदिर में प्रवेश के साथ ही "ॐ पुण्याहां पुण्याहां - प्रियन्ताम प्रियन्ताम" की ध्वनि से गगन गुंज उठा। और ठीक सवा दस बजे श्री आदिनाथादि जिन बिम्ब और गुरु मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया। नुतन जिनमन्दिर में प्रतिष्ठा के पश्चात दर्शन वन्दन सामूहिक रुप से किया गया। बाद में एक विशाल जन सभा का आयोजन किया गया। इस सभा मे मुनिद्वय ने जिन शासन के महत्त्व को समझाया। मोहोपाड़ा श्री जैन संघ ने पूज्य मुनिराज श्री के प्रति आभार व्यक्त किया। यहाँ का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न करके कोंकण प्रदेश की और विहार किया। १०० संसार में ऐसे भी पुरुष है जो आपत्ति के आंधी-तूफान का पान कर लेते है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोंकण में धर्म प्रभावना कोंकण प्रदेश में जैन श्रमण संघो ने नहीं के बराबर विचरण किया है। सर्व प्रथम बार इन्ही मुनिद्वय ने पुरे कोंकण प्रदेश का विचरण किया और धर्म जागृती का शंखनाद किया। कोंकण प्रदेश के प्रसिद्ध नगर पेण में माघ सुदी ९ दिनांक ४ फरवरी सन् १९९० को श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्यातिभव्य आयोजन किया गया। इस क्षेत्र में इस प्रकार की यह महापूजन सर्व प्रथम बार हो रही थी। - इस महापूजन का आयोजन शा. मोहनलालजी छोगमलजी सराफ की ओर से किया गया था। और स्वामी वात्सल्य भी रखा गया था। इस महापजन को देखकर और प्रभावित होकर फतापुरा नि. शा फुटरमल सेनाजी परिवार ने भी पूजन पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की। इनकी इच्छा को मान देकर मुनिद्रय ने २७ फरवरी १९९० फागुन वदी १० का मुहुर्त प्रदान किया। - पेण से विहार कर मुनिद्वय साध्वी मण्डल सहित इन्दापुर की ओर विहार किया। महाराष्ट्र प्रदेश में सर्वप्रथम बार इसी इन्दापुर (तलाशेत) गांव में गुरु सप्तमी का भव्य आयोजन हो गया था। अत्यन्त उल्लासमय वातावरण में महापूजन का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम से पूरे कोंकण प्रदेश में धर्म की भावना तीव्र गति से फैली फिर तो कोंकण प्रदेश में अनेकानेक कार्यक्रम मुनिद्वय की शुभ निश्रा में आयोजित किये गये। . __ इसी के अन्तर्गत रोहा श्री संघ की तरफ से रोहा में भी श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्यातिभव्य आयोजन किया गया। दिनांक २७ फरवरी १९९० को रोहा में महापूजन का कार्यक्रम अति आनन्द के वातावरण में सम्पन्न हुआ। यहाँ पर कार्यक्रम सम्पन्न करके मुनिराज द्वयमय साध्वी मंडल के विहार करके अलीबाग पधारे। अलीबाग महाराष्ट्र प्रदेश का सुन्दर सुरम्य और प्राकृतिक छटा से युक्त आकर्षक नगर है। प्रकृति की गोद में बसे इस सुन्दर नगर के वातावरण का आनन्द लेने के लिए दुरदराज गांवो नगरो से अनेक लोग यहाँ आते रहते है। समुद्र तट पर स्थित इस नगर में १२५ वर्ष प्राचिन श्री शांतिनाथ भगवान का जिन मंदिर । विद्यमान है, अति प्राचिन होने से मंदिर जिर्ण हो चुका है। मुनिराजश्री ने इस मंदिर की यह हालत देखकर इसका जिर्णोद्धार कराने की आवश्यकता से श्री संघ को अवगत कराया। श्री संघ ने उचित निर्णय लिया और फागुन सुदी ६ संवत २०४६ दिनांक २ मार्च १९९० को श्री शांतिनाथ जिन मंदिर का शिलान्यास समारोह सम्पन्न हुआ। इसी समारोह के अन्तर्गत दोपहर में श्री पार्श्व पद्मावती महापुजन का आयोजन रखा गया व शाम को स्वामी वात्सल्य हुआ। अलिबाग के कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कर मुनिराजद्वय साध्वी मंडल साहित नागोठाणा पधारे। पूर्व में नागोठाणा जैन श्री संघ ने पंचान्हिका महोत्सव का निवेदन मुनिश्री से किया था उनका निवेदन आज साकार रुप ले रहा है। फाल्गुन सुदी ७ दिनांक ३ मार्च १९९० को नागोठाणा में मंगल प्रवेश हुआ। पंचान्हिका महोत्सव शुक्रवार को ही शुरु हो गया था। रविवार दिनांक ४ मार्च १९९० को अचिन्त्य महिमावन्त श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन पढ़ाई गई। सोमवार दिनांक ५ मार्च को भव्य रथयात्रा का आयोजन रखा गया। मंगलवार दिनांक ६ मार्च १९९० को शास्त्रोक्तानुसार श्री बृहत शांतिस्नात्र महापूजन पढ़ाई गई। अनेक जैन जैनेतर लोगो ने देखा एवं खुब खुब सराहना की। यहाँ प्रति दिन प्रवचन सन्यास समारताव शाम को स्वामंडल साहित मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। १०१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते थे। मुनिश्री अत्यन्त मधुर वाणी में सारगर्भित प्रवचन देते थे। यहाँ के कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न करके मुनिद्वय और साध्वी मंडल ने दूसरे दिन मंगल विहार किया नगरजनो ने भावभीनी विदाई दी। यहाँ से विहार कर मुनिश्री पाली गांव पधारे। पाली गांव में शाह नैनमलजी डायाजी की और से श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन एवं स्वामीवात्सल्य का कार्यक्रम रखा गया था। उल्लास और आनन्द के वातावरण में कार्यक्रम सम्पन्न हुए। इस तरह पूरे कोंकण प्रदेश में मुनिराज श्री ने विचरण कर धर्मोपदेशना देकर जैन जागृती का शंखनाद गुजांयमान किया लोगो में एक बार फिर से जिन शासन और गुरुगच्छ के प्रति सेवा भावना जागृत हुई। पुरे कोंकण प्रदेश में धर्म प्रभावना के अनेक कार्यक्रम सम्पन्न हुए। पाली से विहार कर पूज्य मुनिश्री एवं साध्वी मंडल पूना की तरफ उग्र विहार किया। पूणे में धार्मिक आयोजनो की भरमार कोंकण प्रदेश से पूणे को विहार करते हुए पूज्य मुनिराजश्री और साध्वी मंडल महाराष्ट्र के सुरम्य हिल स्टेशन कार्ला में दिनांक १२ मार्च १९९० को मंगल प्रवेश किया। कार्ला में शाह वस्तीमलजी चुन्नीलालजी पोसालियावालों की तरफ से मां भगवती श्री पद्मावती माताजी की श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन और स्वामीवात्सल्य का मंगल भव्यातिभव्य आयोजन किया गया था। श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन के लिए लाल वस्त्रो से पूरा मंडप सजाया गया था। कार्ला हील का प्राकृतिक सौन्दर्य इससे. और निखर उठा था। सुन्दर ऊल्लासमय वातावरण में श्री महापूजन पढ़ाई गई और स्वामीवात्सल्य भी रखा गया था। इस महापूजन में आस-पास के क्षेत्र से अनेक श्रावक श्राविकाओं ने पधार कर लाभ लिया। कार्ला के बाद मुनिश्री कामशेट पधारे। कामशेत में श्रमण सूर्य मुनिराजश्री लक्ष्मणविजय जी 'शीतल' म.सा. की छठी पूण्यतिथि मनाये जाने का कार्यक्रम था। पूण्यतिथि मनाई जाने का लाभ शा. सुकनराज अदाजी बाफना ने लिया था। चैत्र वद १० संवत २०४६ दिनांक २२ मार्च १९९० को पूण्यतिथि का आयोजन किया गया। प.पू. श्रमण सूर्य मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' म.सा. के फोटो को सुसज्जित जीप में रखकर शानदार रथयात्रा निकाली गई। जैन मंदिर से रथयात्रा शुरु हुई और नव निर्मित भवन 'कल्पतरू' में विशाल जन सभा में परिवर्तित हो गई। इस सभा में अनेक वक्ताओं ने पूज्य मुनिराज श्री शीतल जी म.सा. द्वारा जिनशासन की सेवा और गुरुगच्छ की शोभा बढाने का जो उल्लेखनिय कार्य किये गये वे चिरस्मरणीय है। पू. मुनिद्वय ने भी अपने गुरुदेव के कार्यों से जनसमुदाय को अवगत कराया। दोपहर में श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन किया गया था। समारोह के अन्तर्गत श्री राजेन्द्र आरोग्यधाम का उद्घाटन श्री सुकनराज जी बाफना के शुभ हस्ते सानन्द सम्पन्न हुआ। श्री बाफना ने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा- "आज समग्र महाराष्ट्र में पूज्य मुनिद्वय श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी और श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. ने सम्प्रदाय रहित अभिनव धर्मक्रांति का शंखनाद किया है। आज मेरा अहोभाग्य है, कि मुझे पूज्य गुरुदेव की षष्ठम पूण्यतिथि और श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन पढाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं मुनिद्वय का हृदय से अत्यन्त ही आभारी हूँ, कि उन्होने यहाँ पधार कर और कार्यक्रम करके जिन १०२ सत्य कभी कडवा नही होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नहीं होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन और गुरुगच्छ की शोभा में अभिवृद्धि की" पूणे पहुँचने में विलम्ब न हो इस कारण से मुनिराजद्वय और साध्वी मंडल ने २३ मार्च को ही विहार कर दिया। पूणे नगर में १ अप्रेल १९९० को नव निर्मित राजस्थान भवन में मंगल प्रवेश किया। उल्लेखनिय है, कि गत ८ वर्ष के पहले सन १९८२ में मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' महाराज साहब ने यहाँ का विवाद खत्म करके सभी को एकता के सुत्र में बांधा था। और इस एकता के स्वरुप यह राजस्थान भवन की जगह का शिलान्यास किया गया था। इसी भवन में इन ८ वर्ष के अन्तराल के बाद उनके ही शिष्यद्वय फिर यहाँ पधारे है। और आज मंगल प्रवेश हुआ है। ५ अप्रेल सन १९९० को पूणे केम्प में श्री संघ की ओर से श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन किया गया। श्री महापूजन के बीच इस राजस्थान भवन के प्रेरणादाता पू. ज श्री लक्ष्मणविजयजी 'शीतल म.सा. को हार्दिक श्रद्धान्जली अर्पित की गई। प.पू. मुनिराज श्री 'शीतलजी म.सा. के अथक प्रयास के फलस्वरुप इस भवन का निर्माणकार्य सम्पन्न हुआ। __फूलवाला चौक पूणे सीटी में ८ अप्रेल सन् १९९० रविवार को शाह देवीचन्दजी खीमाजी की ओर से श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन रखा गया था। पश्चात् सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय श्री संघ की तरफ से दिनांक ११ अप्रेल को श्री सिद्धचक्र महापूजन पढ़ाई गई। और संघ भक्ति स्वरुप स्वामीवात्सल्य का आयोजन रखा गया। पूणे नगर में नवपद आराधना (आयम्बिल चैत्री ओली) की गई। इस आयम्बिल ओली में अनेक तपस्वीयों ने ९ दिन तक आयम्बिल की तपस्या की। पूणे के उपनगर निगडी के श्री संघ में अपार हर्ष व्याप्त था। क्योंकि निगडी शहर में पूज्य मुनिद्वय की शुभ निश्रा में श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन पढाई जानी थी और वह शुभ दिन नजदीक आता जा रहा था। दिनांक १६ अप्रेल १९९० को निगडी श्री संघ की ओर से निगडी गार्डन में महापूजन पढाई गई। यहाँ के विविध कार्यक्रम सम्पन्न करके विहार कर मुनिद्वय साध्वी मंडल सहित वडगांव पधारे। वडगाँव के निवासी शा. मदनलालजी बाफना की ओर से इस अचिन्त्य महिमावन्त श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन किया गया था। वैशाख वदी १२ तदनुसार दिनांक २२ अप्रेल १९९० को यह महा मांगलिक कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ। मावळ तालूका के सभी धर्मप्रेमीयों ने सोत्साह इस महापूजन में भाग लिया। महापूजन के दौरान श्री मदनलालजी बाफना ने कहा:- "हमारे अहोभाग्य है, कि पूज्य मुनिराजश्री की पावन निश्रा में हमें महिमाशाली श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।" शीवाजीनगर पूणे के श्री संघ ने मुनिश्री की सेवा में उपस्थित होकर शीवाजी नगर में पंचान्हिका महोत्सव सह श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन पढाने का विनम्र अनुरोध किया। इनके अनुरोध को स्वीकार करके मुनिराज श्री ने वैशाख सुदी ५ से ९ तक का समय प्रदान किया। पंचान्हिका महोत्सव में महापूजन के अतिरिक्त अठारह अभिषेक, और विविध प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गये थे। मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। १०३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्जत में अस्पताल का उद्घाटन शीवाजीनगर पूणे में कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न करके मुनिराजद्वय साध्वी समुदाय के साथ विहार करके चाकण गांव पधारे। दिनांक ९ मई १९९० को मुंडारा निवासी शाह श्री खुबीलालजी बदनमलजी की ओर से श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन चाकण गांव में किया गया। चाकण गांव की फेक्ट्री के विशाल प्रांगण में विशेष सजावट के साथ मंडप तैयार किया गया। इस लाल रंग के विशेष मंडप में श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन की महिमा द्विगुणित हो उठी। यह आयोजन चल ही रहा था, कि पानी की बौछारें शुरु हो गई। इस बरसते पानी के मौसम में भी महापूजन का कार्यक्रम चलता ही रहा। यहाँ का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न करके मुनिश्री उल्लासपूर्ण वातावरण में कर्जत नगर पधारे। कर्जत में नव निर्मित रत्नराज नर्सिंग होम (अस्पताल) में दादा गुरुदेव प. पू. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम था। इस नर्सिंग होम के निर्माता और इस समारोह के आयोजक शा. डा. प्रेमचन्द वस्तीमलजी थे। दादा गुरुदेव की अनन्य श्रद्धा भक्ति के स्वरुप इनके द्वारा निर्मित नूतन अस्पताल का नाम गुरुदेवश्री के जन्मनाम 'रत्नराज' रखा गया। इस नर्संग होम में दादा गरुदेव की गुरुमुर्ति की प्रतिष्ठा जेष्ठ वदी ८ संवत् २०४७ दिनांक १८ मई १९९० शुक्रवार को निश्चीत की गई। इस दिन दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. प्रतिमा एक आकर्षक सुसज्जित जीप में रखकर शानदार रथयात्रा निकाली गई। यह रथयात्रा नगर के प्रमुख मार्गो से होती हुई नव निर्मित 'रत्नराज' नर्सग होम में पहुँच कर प्रतिष्ठा कार्यक्रम के रुप में परिवर्तित हुई। गगनभेदी जय घोष के साथ शुभ समय में दादागुरुदेव की मुर्ति की प्रतिष्ठा की गई। प्रतिष्ठा के पश्चात सभा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मुनिश्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने जनसभा को संबोधित करते हुए दादा गुरुदेव के जीवन पर संक्षिप्त व्याख्या की और उनके द्वारा किये गये कार्यों का गुण गान किया। सभा के मध्य रत्नराज नर्सिंग होम के निर्माता डा. प्रेमचन्द वस्तीमलजी का स्वागत किया गया और उन्हे साफा पहना कर सम्मान किया गया। प्रतिष्ठा का कार्यक्रम पूर्ण होने के पश्चात दोपहर में अतिशय महिमावन्त श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन पढाई गई। शाम को स्वामीवात्सल्य रखा गया। यहाँ पर कार्यक्रम सानन्द करके मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी एवं साध्वी श्री पुष्पा श्री जी आदि ठाणा ७ बम्बई की ओर विहार किया। १०४ कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहां दृढ होती हैं, वहां मन में उत्साह की औट में नैराश्य आता ही नहीं है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामाठीपुरा में मंदिर की भव्य प्रतिष्ठोत्सव एवं गोरेगांव में एतिहासिक चातुर्मास बम्बई में भव्य गुरु मुर्ति प्रतिष्ठा महोत्सव मई माह का अन्तिम सप्ताह मुनिराज द्रय की शुभ निश्रा में १४ जून सन् १९९० को भव्य प्रतिष्ठा कार्यक्रम होना है! इस कार्यक्रम को सफळ बनाने हेतु मुनि श्री अविराम गति से विहार कर रहे है। मुनिराज द्रय के यहाँ पधारने पर शानदार सामैया कर मंगल प्रवेश कराया गया। २६ मई १९९० को प्रवेश हुआ धर्मशाला में मांगलिक सुनाकर संक्षिप्त उद्बोधन दिया। अपने प्रवचन में मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने फरमाया कि "राजेन्द्र नाम में वह अलौकिक शक्ति विद्यमान है, कि जिससे असंभव कार्य भी संभव हो जाते है।" गुरू मुर्ति प्रतिष्ठा महोत्सव के लिये विशाल मंडप बनाया गया था! सारे पंडाल को रंगीन बल्बों से सजाया गया था। आठवी गली कामाठीपुरा बम्बई का तो वातावरण ही बदल गया था। ज्येष्ठ सुदी १४ दिनांक ७ जून १९९० गुरुवार को महोत्सवका मंगल कार्यक्रम शुरू हुआ। आषाढ वदी २ दिनांक १० जून १९९० को अतिशय महिमावंत प्रभावशाली श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का भव्य आयोजन रखा गया। यह महापूजन बम्बई महानगर में सर्व प्रथम बार हो रही थी। समग्र जैन समाज यह महापूजन देखने के लिये उत्सुक था। बम्बई के सुप्रसिद्ध शंखेश्वर मित्र मंडल और प्रदीप ठाकुर ने श्री पार्श्व प्रभु और श्री पद्मावती माताजी के भक्ति गीतों से उपस्थित जन समुदाय को भाव विभोर किया। भव्य रथ यात्रा का आयोजन आषाढ वदी ५ बुधवार दिनांक १३ जून १९९० को किया गया। राजस्थानी ढोल वादन और जनता बॅण्ड की सुमधुर धुनों के साथ रथ यात्रा शुरु हुई। इस गुरु मुर्ति प्रतिष्ठा रथ यात्रा में करीब १० हजार व्यक्तियों ने सोल्लास भाव से भाग लिया। आषाढ वदी ६ गुरूवार दिनांक १४ जून १९९० को "ॐ पुण्याहं पुण्याह" "प्रियन्ताम-प्रियन्ताम" के उदघोष के साथ गुरू मुर्ति की प्रतिष्ठा की गई। उस दिन का वातवरण व उत्साह उमंग का ठाठ देखते बनता था। गुरुमुर्ति प्रतिष्ठा का तो वर्णन करना मानो "सुर्य को दीपक" दिखाना है। महोत्सव में किशोर मनराजा, बलवन्त ठाकुर एण्ड पार्टी प्रदीप ठाकुर एण्ड पार्टी और अन्य स्थानों से आये बालक बालिका मण्डल ने विविध प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जिसे सभी देखनेवालों ने मुक्त कण्ठ से सराहना की व उपहार देकर प्रोत्साहित किया। नवकारसी का आयोजन का ठाठ तो नीराला ही था। उसमें राजेन्द्र जैन मण्डल ने सहयोग देकर उचित व्यवस्था कर सराहनिय कार्य किया। इस अवसर पर साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी और साध्वी श्री महेन्द्रश्रीजी आदि ठाणा १४ भी उपस्थित थी। मुनि श्री ने गुरू मुर्ति प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न कराने के पश्चात भायखला अरविन्द कुंज होते हुए दादर पधारे दादर में स्थित श्री ब्राह्मण सेवा मण्डल में आषाढ सुदी ३ सोमवार दिनांक २५ जून १९९० को विराट श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन कीया गया था। मुनि श्री की शुभनिश्रा में महापूजन पढाई गई। इस महापूजन के दौरान दो महिलाओं के शरीर में माताजी के पवन का संचार हुआ! यह महापूजन का प्रत्यक्ष चमत्कार है। यहाँ का कार्यक्रम सानन्द सोल्लास सम्पन्न कर बम्बई के उपनगरों में अनेक विध जिन जहां प्रेम, करुणा, वात्सल्य और साधुत्व है उसी की जय होगी। १०५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन सेवा के कार्य किये। धीरे धीरे मुनिद्वय और साध्वी समुदाय अपने चातुर्मास गंतव्य स्थान की ओर बढ रहे थे । और वह दिन आ गया जब मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी और साध्वी मंडल गोरेगांव में चातुर्मास प्रवेश करने वाले है। आषाढ सुद ९ दिनांक १ जुलाई १९९० को गोरेगांव श्री जैन संघ समस्त आतुरता से मुनि श्री के प्रवेश की प्रतिक्षा कर रहे थे। सामैये स्वागत की सभी तैयारियां पूर्ण थी महिलाएँ मंगल कलश लेकर बधाने के लिये तैयार थी। और वो..... सामने आते दिख रहे है मुनिराज द्वय व साध्वी मण्डल । एक शोर उठा " आ गये आ गये" आगे पिछे भाग दौड मच गई। बैण्डबाजे वालो ने वाद्ययंत्र बजाना चालू कर दिया। महिलाएं मंगल गीत गाने लगी और लोग मुनि श्री के सामैये स्वागत के लिये आगे बढ गये। जय जयकार के नारे लगाये गये। गहूलियां की गई और सामैया चल समारोह के रूप में विभिन्न मार्गो से होता हुआ राजस्थान भवन आरे रोड, पहुँचा । भावभीने उल्लास पूर्ण वातावरण में राजस्थान भवन में मंगल प्रवेश हुआ। उसके पहले श्री जिन मंदिर में दर्शन वंदन किये गये । राजस्थान भवन के विशाल हाल में उपस्थित जन समुदाय को मुनिराज श्री ने मांगलिक सुनाया। और संक्षिप्त प्रवचन देकर आपसी सहयोग देने की अपील की साध्वी मंडल को त्रिपाठी भवन के उपाश्रय में ठहराया गया। गोरेगांव में चातुर्मास मंगल प्रवेश के साथ ही शुरु हो गई धार्मिक गतिविधियां । प. पू. शांत स्वभावी गच्छाधिपति आचार्य देवेश श्री मद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ति श्रवण सूर्य पू. मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी शीतल म.सा. के सुविनित शिष्य रत्नेश शासन प्रभावक प्रवचनकार मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. ज्योतिषरत्न, मृदुभाषी, वात्सल्य महोदधि मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. एवं साध्वी रत्ना विदुषी साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी म.सा. आदि ठाणा ७ की पावनीय शुभ निश्रा में गोरेगांव (प.) बम्बई के राजस्थान भवन में ऐतिहासिक धर्म आराधनाए पर्वाराधनाए अनेक विध महोत्सव एवं महापुजनों के चातुर्मास प्रारंभ होने जा रहा है। पूज्य मुनिद्वय तथा साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म.सा. का जब से गोरेगांव में चातुर्मासिक प्रवेश हुआ। तब से ही गोरेगांव (प.) धार्मिक रंग से आपुरित हो गया। प्रतिदिन प्रवचनों में अध्यात्म की विवेचना से जन समाज में धर्मोल्लास की ओर अभिमुख हुए। सर्व प्रथम अतिशय महिमावन्त श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान के अठ्ठम तप श्रावण वदी ८-९-९० को विधिवत आराधना के साथ उत्साहमय वातावरण में सम्पन्न हुए। गोरेगांव में सर्वप्रथम समवसरण तप की सामुहिक आराधना का भी प्रारंभ हुआ उत्कृष्ठ मय इस आराधना में ६० से भी अधिक आराधको ने भाग लिया। चौदह पूर्व का सार रूप नमस्कार महा मंत्र की नौ दिवसीय आराधना का आयोजन श्री जवाहरलालजी पुखराजजी देशलहरा की ओर से किया गया । अचिन्त्य महिमा वन्त श्री नमस्कार महामंत्र की आराधना श्रावण सुदी ७ दिनांक २९ जुलाई १९९० रविवार से नवान्हिका महोत्सव के रूप में प्रारंभ हुई आराधना के शुभावसर पर श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का विराट आयोजन किया गया। आज समग्र महाराष्ट्र में इस महा पूजन की महिमा अभूतपूर्व है। श्रद्धालुगण सैकडों की संख्या में उपस्थित होकर श्रद्धा सुमन अर्पित करते है। नव दिवसिय महोत्सव सामूहिक १०६ अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। For Private Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना व एकासणा व्रत ने गोरेगाँव में अनोखा वातावरण निर्मित कर दिया। आराधना के दौरान श्रावण सुदी १४ रविवार ५ अगस्त १९९० को श्री सिध्धचक्र महापूजन का आयोजन भी किया गया। श्री नवपद पर ९ दिन तक सारगर्भित प्रवचन भी हुए। आनन्द और उल्लास के वातावरण में यह आराधना सम्पन्न होते ही पुन: अक्षयनिधि तप की सामूहिक आराधना प्रारंभ हुई। पर्वाधिराज पर्व पर्युषण की तैयारियों के साथ तपाराधनाएँ भी प्रारंभ हुई। जिसमें मासक्षमण १६ उपवास १५ उपवास अठ्ठाइया अठ्ठम आदि अनेक विध तपश्चर्या प्रारंभ हो गई। मानो उस वर्ष गोरेगाँव मे तपस्याओं की बाढ आ गई हो। पर्वाधिराज पर्व पर्युषण के शुभागमन पर सर्व प्रथम तीन दिवसीय अष्ठान्हिका व्याख्यान का प्रारंभ हुआ। भाद्रपद अमावस्या को श्री कल्प सुत्र का वांचन रोचक शैली में किया गया। भादवा सुदी १ की वीर जन्म वांचन के समय अप्रत्याशित धर्म में अभिवृद्धि हुई। शा मोहनलाल शंकरलालजी बागरा वालो ने वीर प्रभु का पारणा घर ले जाने का लाभ प्राप्त किया। भाद्रवा सुदी ४ को प्रात: स्वर्णिम प्रभात में बारसा सुत्र का वाचन किया गया। श्रावक गण एक एक अक्षर को मंत्र युक्त धारण कर श्रवण कर रहे थे। बीच बीच में सार गर्भित सुत्र की महिमा भी समझाई गई। तथा संध्या के सुनहरे वातावरण में संम्वत्सरी प्रतिक्रमण कर ८४ लक्ष जीव योनि से क्षमा याचना की गई। भाद्रवा सुदी ५ को सामूहिक पारणा कराने का लाभ शा रतनलाल शंकरलालजी बागरावालों ने प्राप्त किया उस शुभावसर पर शकुन्तला बहिन मोहनलालजी के मासक्षमण के उपलक्ष में जिनेन्द्र भक्ति स्वरुप पंचान्हिका महोत्सव का आयोजन भी भादवा सुदी ५ से प्रारंभ हुआ। भादवा सुदी ६ रविवार दिनांक २६-८-९० को एकावततारी श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन हुआ जिसमें २ हजार से भी अधिक जनसंख्या उपस्थित थी। महापूजन के दौरान कलकता निवासी शा. भानमलजी वस्तीमलजी जीवाणा वालों के कर कमलों से श्री गुरु लक्ष्मण वंदना ऑडीयो केसेट का उद्घाटन हुआ। इस अवसर पर मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने जन सभा को उद्बोधन करते हुए कहा कि "आज समग्र महाराष्ट्र प्रदेश में उस महापूजन का अचिन्त्य प्रभाव से जैन समाज को एक नई अनुभूति का अनुभव हो रहा है। २४ भुजा युक्त माँ भगवती का हमारे पूज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी म.सा. ने संवत २०२६ में पालीताणा की पावनिय तीर्थ स्थलि पर प्रत्यक्ष दर्शन किया था। पूज्य याद के शुभाशिर्वाद से पूज्य श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. की निश्रा में प्रत्येक महापूजन भक्त गणों पर एक अमिट भावों से उनका हृदय ओत प्रोत कर देती है। २७ अगस्त को पहलीबार श्री राजेन्द्रसूरि गुरुपद महापूजन हुआ। भादवा सुदी ९ बुधवार २९ अगस्त ९० को श्री. अष्ठोत्तरी बृहत शांति स्नात्र महापूजन का बहुत ही उल्लास मय वातावरण में जिनेन्द्र भक्ति स्वरुप पंचान्हिका महोत्सव सम्पन्न हुआ। भादवा सुदी १० गुरुवार को श्री दमयन्ती बहन गणेशमलजी के १५ उपवास के उपलक्ष में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ महापूजन व स्वामी वात्सल्य का आयोजन किया गया। भादवा सुदी १० (दुसरी) को समवसरण तपाराधिका महिला मंडल की ओर से श्री भक्तामर महापूजन का आयोजन हुआ भादवा सुदी ११ शनिवार को श्री सिद्धचक्र महापूजन का एक स लातों के अधिकारी कभी भी बातों से नहीं मानते। १०७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दर व अनोखा आयोजन रहा। जवाली निवासी शा गेनमलजी सोनीमलिया के आत्मश्रेयार्थ शा. वस्तीमलजी गेनमलजी की ओर से भादवा सुदी १२ रविवार को श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का विराट आयोजन किया गया। श्री आदर्श मण्डल की भक्ति धुनों से भक्त गण झुम उठे। राजस्थान के वित्त एवं न्याय मंत्री श्री शांतिलालजी चपडोद भी महापूजन में भाग लेने हेतू पधारे। उस अवसर पर श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने कहा कि भक्ति ही एक ऐसा साधन है कि जहाँ व्यक्ति सम्प्रदाय की संकुचित प्रवृतियों से मुक्त होकर सर्वांगीण समर्पित भाव से परमात्म चरणों में अर्पित हो जाता है। जहाँ जातिगत साम्प्रदायिक आत्माओं का दुराग्रह का नाम शेष भी नहीं रहता है। जैन समाज के अग्रगण्य श्री किशोरमलजी वर्धन ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जब से मुनि द्रय मोहनखेडा तीर्थ भूमि से विहार कर महाराष्ट्र में पधारे तबसे आपने अपने तपोबल और ज्ञानबल से समग्र महाराष्ट्र प्रदेश में धर्म क्रांति का शंखनाद गुंजायमान कर दिया युवा मुनि द्रय की यह महापूजन की सौरभ चमत्कार और अचिन्त्य महिमा से आत्मप्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा कि पूज्य मुनि द्वय की निश्रा में सहज संयोग से इस महापूजन में आने का एक पुण्य एवं श्वर्णीम अवसर प्राप्त हुआ। श्री तीलोकचन्दजी और कुन्दनमलजी की ओर से भाव भीना स्वागत किया गया। यह महापूजन अनवरत ८ घंटे तक चलती रही राजस्थान भवन का विशाल प्रांगण कुछ समय के लिये छोटा पड़ गया। ५ हजार से भी अधिक जन संख्या ने इस अतिशय महिमावंत महापूजन में श्रद्धान्वित भक्त गणों ने भाग लिया। अनेक विध आयोजनों समारोहो स्वामीवात्सल्य धर्म द्वय में अप्रत्याशित अभिवृद्धि संघ पूजा आदि अनेकानेक कार्यक्रमों से गोरेगाँव का ऐतिहासिक चातुर्मास गौरव पूर्ण इतिहास को संजोए लिये पूर्णता की ओर अग्रसर हो रहा है। चातुर्मास के दौरान तपस्वी रत्ना साध्वी श्री हेमप्रभा श्रीजी, साध्वी श्री अनुभवदृष्टा श्री जी ने धर्मचक्र तप किया। जिन शासन का उत्कृष्ट तप श्रेणी तप की तपश्चर्या साध्वी श्री दर्शनरेखाश्रीजी म.सा. ने की। इस अवसर पर अष्ठान्हिका महोत्सव का आयोजन शा. तिलोकचन्दजी धरमाजी की ओर से किया गया। कार्तिक वद १ दिनांक ५-१०-९० को गाजे बाजे के साथ अष्ठान्हिका महोत्सव के आयोजक के घर पर साध्वीजी के पारणे का लाभ दिया गया। कार्तिक वदी ३ रविवार ७-१०-९० को श्री पुखराजजी वालचन्दजी एवं श्री चम्पकलालजी श्री लालजी सेवाडी की तरफ से श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का विराट आयोजन किया गया। पूरे मण्डप को लाल वस्त्रों से सजाकर विद्युत सजावट की गई थी। गोरेगाँव चातुर्मास के दौरान अनेक धार्मिक आयोजन हुए है। परन्तु इसी के साथ एक सामाजिक रचनात्मक कार्य के रुप में श्री पार्श्वपदमावती साधर्मिक फाउन्डेशन की स्थापना करने का निर्णय लिया गया। पूज्य मुनिद्वय, मानव मात्र के लिए कारुण्य और वात्सल्य का भाव रखते है। इसी कारुण्य भावना से प्रेरित होकर मध्यम वर्गीय समाज की सहायता हेतु संस्था के माध्यम से असाध्य बिमारी से पीडित, किडनी, कैन्सर और विधवा महिलाओं को स्वावलंबी बनाने हेतु योजना को साकार रुप देने हेतु कार्तिक शुक्ला ९ रविवार २८ अक्टुम्बर को श्री संघ गोरेगाँव द्वारा आयोजित श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन के दौरान श्री पार्श्व पद्मावती साधर्मिक १०८ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाउन्डेशन का उदघाटन किया गया। अध्यक्ष श्री वस्तीमलजी जी. शाह जवाली उपाध्यक्ष श्री घिसुलालजी सी. जैन जवाली कोषाध्यक्ष श्री सांकलचन्दजी भास्कर आहोर कोषाध्यक्ष श्री रमेश अमिचन्दजी रांका भीनमाल मंत्री श्री चन्दनमलजी बी. मुथा श्री शांतिलालजी मुथा सादडी उपरोक्त उद्घाटन के अवसर पर सर्व सम्मति से पदाधिकारियों का निर्णय लिया गया। संस्था के उद्घाटन समारोह का संचालन श्री चंदनमलजी चांद बम्बई ने किया। श्री मगराजजी भीकमचंदजी जैन जवालीवालों ने इस संस्था का विधिवत उद्घाटन किया। संस्था के मुख्य अतिथि थे, श्री लालचंदजी चुन्नीलालजी इसके अलावा बम्बई से मुख्य वक्ता के रुप में पधारे थे श्री किशोरचन्द्रजी एम. वर्धन। समारोह में विशेष अतिथि के रुप में विराजमान थे सर्व श्री पृथ्वीराजजी सेठ श्री डूंगरमलजी दोशी। इसी कार्यक्रम के मध्य श्री पार्श्व पद्मावती गीत गुंजन नामक ऑडियो केसेट का उद्घाटन शा श्री हीराचन्दजी भगवानजी आहोर ने किया। समारोह को सम्बोधित करते हुए मुनि श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने कहा कि समाज में बहुत से लोग ऐसे है जो स्वयं व्यवस्था नहीं कर सकते, बीमारी का महंगा इलाज नहीं करवा सकते। दु:खी, विधवा और असहाय महिलाएं किसी के आगे हाथ नहीं फैला सकती। ऐसे ही लोगों के परिवार कल्याण के उद्देश्य से इस संस्था का गठन किया गया है। मुख्य वक्ता श्री किशोरचन्दजी एम. वर्धन बम्बई ने कहा "मुनिराज द्वय के इस कार्य से समाज के मध्यम गरीब वर्ग को बहुत लाभ मिलेगा। समाज में इस प्रकार की संस्था की कमी महसुस की जा रही थी। मुनि द्वय श्री का यह प्रयास वास्तव में स्तुत्य है।, उन्होंने अपनी सुझ बुझ से समाज में एक नई चेतना पैदा की है, और संस्था का गठन कर सामाजिक रचनात्मक गीत शीलता का कार्य किया है। संस्था के कार्यकर्ता गण धन्यवाद के पात्र है। जो उन्होने इस महत् कार्य को हाथ में लिया है। समाज के प्रत्येक दान दाता को इस सेवा और पूण्य के कार्य में अवश्य सहयोग करना चाहिये। उपस्थित जन समुदाय ने तालीयों के गडगडाहट के साथ संस्था की सफलता की मंगल कामना की। समय की गति के अनुसार धीरे धीरे चातुर्मास अपने अन्तिम चरण में पहुँच रहा है। कार्तिक पूर्णिमा को परम्परानुसार चातुर्मास परिवर्तन की क्रिया की जा रही है। गोरेगाँव में चातुर्मास परिवर्तन का लाभ श्री मोहनलालजी मांगीलालजी अमृतलालजी सुकनराजजी श्री श्रीमाल परिवारवालों ने लिया। राजस्थान भवन से प्रात: शुभ बेला में गाजे बाजे के साथ श्री चतुर्विध श्री संघ सहित चातुर्मास परिवर्तन की क्रिया शुरु हई। श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ जैन श्वे. मंदिर में सामुहिक वंदन दर्शन के पश्चात चल समारोह के रुप में चतुर्विध श्री संघ नगर भ्रमण कर श्री श्रीमाल परिवार के घर पर मुनिराज द्वय एवं साध्वी मंडल सहित पधारे यहाँ मानसिक चिंता - फिक्र एक प्रकार की ठंडी आग है। १०९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा विशाल मण्डप सजाया गया था। मुनि श्री के आसनग्रहण के पश्चात श्री संघ ने सामुहिक गुरु वन्दन किया। पश्चात मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. ने मांगलिक सुनाया और संक्षिप्त उद्बोधन दिया और कहा, "इस चातुर्मास समय में जो समय हमने बिताया। उस दौरान हमारे द्वारा अगर किसी का मन दुखाया गया हो। कारण वश कटुवचन कहे गये हो। और उनकी आत्मा को ठेस लगी हो तो आज विछोह की इस घडी में हम अन्र्तमन से उन लोगों से और श्री संघ से क्षमा चाहते है।" मुनिराज श्री के वचनों को सुनकर उपस्थित जन समुदाय के नेत्र बरबस ही गीले हो गये। मुनि श्री लोकेन्द्र विजयजी ने अपने संक्षिप्त और सारगर्भित प्रवचन में बताया "इस गोरेगाँव के राजस्थान भवन में हमने सफलता पूर्वक जो चातुर्मास पूर्ण किया। उसका श्रेय यहाँ के श्री संघ को है। यहाँ साम्प्रदायिक सौहार्दता एकता का जो अनुठा उदाहरण हमे देखने को मिला, वह वास्तव में प्रशंसनिय है। यहाँ के कार्यकर्ता गण को हम अतमन से धन्यवाद देते है और आशिर्वाद देते है कि भविष्य में भी इसी प्रकार से श्री संघ और अन्यत्र जगहो से पधारे मुनि भगवन्तो की निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहे!" इसके पश्चात श्री सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा के प्रतिक श्री सिद्धाचल पट्ट की परिक्रमा विधिवत कि गई और चैत्यवन्दन किया गया। पातुर्मास परिवर्तन में पधारे चतुर्विध श्री संघ की भक्ति का लाभ श्री श्रीमाल परिवार की तरफ से की गई थी। आज मुनिराज द्वय श्री से मिलने वालों का तांता लगा रहा! जो सौहार्द भाव, एकता और आत्मीयता का अनुपम उदाहरण गोरेगाँव चातुर्मास मे देखने को मिला वह वास्तव में प्रशंसनिय है। यहाँ के चातुर्मास को सानन्द सम्पन्न कर के गोरेगाँव से विहार कर जोगेश्वरी, अंधेरी की तरफ प्रस्थान किया। इस तरह बम्बई महानगर के उपनगरों में विचरण करते आगे बढते हए दिनांक २३-११-९० को श्री शांतिनाथ जैन मंदिर कबुतर खाना दादर प्रवेश किया। दादर ईस्ट मे श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन था। बम्बई के उपनगर दादर (पूर्व) में दिनांक २६-११-९० सोमवार को श्री राजेन्द्र जैन मण्डल (भीनमाल) शैतान चौकी दादर की ओर से राज राजेश्वरी माँ भगवती श्री पार्श्व पद्मावती माताजी की महापूजन का भव्यातिभव्य आयोजन रखा गया। यह अनुठा, अनोखा आयोजन श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य एवं षष्ठम पट्टधर शांत स्वभावी गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य देवेश श्री मद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ति श्रमण सूर्य आगम दिवाकर पू. मुनि प्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' म.सा. के सुविनित शिष्य रत्नेश प्रवचनकार, शासन प्रभावक मृदुभाषी पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. वात्सल्य महोदधी ज्योतिषरत्न मधुर वक्ता पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. एवं साध्वी श्री पुष्पा श्रीजी आदि ठाणा ७की पावनिय शुभ निश्रा में किया गया। इस महापुजन के लिये श्री हालारी वीसा ओसवाल भवन में विशेष सजावट की गई थी। ठीक १२ बजे महापूजन का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। इस महापूजन के मध्य अपने संक्षिप्त सारगर्भित उद्बोधन में भक्ति के महत्व पर प्रकाश ११० मानव जब माया-के-मोह जाल में उलझ जाता हैं तब वह अपने अस्तित्व को भी भूल जाता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालते हुए बताया, कि "भक्ति में ही अनन्य शक्ति निहीत है। भक्ति में एक अद्भूत ताकत होती है। भक्ति कई तरह से की जाती है। माँ भगवती श्री पद्मावती माताजी का चमत्कार तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है माँ भगवती के प्रति अनन्य श्रद्धा ही आत्मिक भक्ति है। हमारे पूज्य गुरुदेव श्री मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी म.सा. संवत २०२६ में पालीताणा तीर्थ के चातुर्मास में श्री पद्मावती माताजी की भक्ति में इतने तल्लीन हो गये थे कि २४ भुजा युक्त माताजी ने दर्शन दिये थे। उनमें श्री पद्मावती माताजी के प्रति अन्यान्य श्रद्धा भक्ति थी माताजी के नाम की माला गिने बिना उन्हें चैन नहीं मिलता था। उनके शुभाशिर्वाद से ही आज हमारी इच्छा आकांक्षाए फल फूल रही है। और शंखेश्वर तीर्थ में उनकी चिर स्मृति में श्री पार्श्व पद्मावती शक्ती पीठ गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र की स्थापना की जा रही है। इस महापूजन में श्री जैन संघ मोहना के सदस्य गण पधारे थे मोहना श्री संघ के सदस्यों ने पू मुनिराज श्री को मोहना में गुरु सप्तमी का पावन पर्व मनाये जाने हेतू पधारने की अनुनय विनय भरी विनंति की। मुनि द्वय ने विनन्ती को स्वीकार करके अपने मोहना आने की स्वीकृति दी। मोहना श्री संघ ने जय जय कार के साथ अपार आनन्द व हर्ष व्यक्त किया। इस महापूजन के दौरान २ महिलाओं को माताजी का पवन संचार हुआ। संगीतमय स्वरों में अत्यन्त हर्षोल्लास के वातावरण में महापूजन पढाई गई। इस महापूजन में करीब २००० श्रावक श्राविकाओं ने पधारकर पूजन का लाभ लिया। श्री राजेन्द्र जैन मंडल की तरफ से आगन्तुक अतिथियों के लिये जलपान की सुन्दर व्यवस्था थी और शाम को शानदार स्वामी वात्सल्य का आयोजन किया गया था । अत्यन्त ही आनन्द के वातावरण में महापूजन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। वैर का लावा जिसके हृदय में धधकता रहता है, वह कभी भी अपने अकल्याण की चिंता नही करते । १११ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापूजन ही महापूजन। जो भी एक बार इस महापूजन को देख लेता है, उसके मनमें सहज ही यह भाव उत्पन्न हो जाते है, कि माताजी का यह महापूजन मै भी पढवाऊँ। और अपनी अनन्य श्रद्धा भक्ति से माताजी के गुण गाऊँ। _ऐसी स्वेच्छा के वशीभुत होकर लोग अपनी पूजन पढ़ाने की भावना लेकर स्वत: ही मुनि श्री की सेवा में उपस्थित हो जाते है और अपनी महापूजन पढाने की भावना से मुनि श्री को अवगत कराते है। और मुनि श्री अपनी स्विकृति देकर उनकी इच्छा पूर्ण करते है। और फिर माताजी की महापूजन का प्रभाव ही कुछ औसा है, कि लोग स्वत: ही खींचे चले आते है। महापूजन के जो श्रृंखला बद्ध आयोजन हो रहे है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। - इसी श्रृंखला में अब यह महापूजन अरविंद कुंज तारदेव बम्बई में होने जा रही है। श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर अरविन्द कुंज तारदेव में यह महापूजन श्री किशोरचन्द्रजी एम. वर्धन परिवार की ओर से श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का भव्यातिभव्य आयोजन रखा गया। उस क्षेत्र में इस प्रकार के महापूजन का यह सर्वप्रथम अवसर था। महापूजन के दौरान मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म. सा. ने मां भगवती पद्मावती माताजी की भक्ति के गुणगान करते हुए फरमाया कि "श्री पद्मावती माताजी की भक्ति मे एकाकार होकर ही एक विलक्षण अनूभूति एक अत्यन्त ही आनन्द का क्षण घटीत होता है। महाआनन्द का यह क्षण अद्भूत होता है। हमें भी श्री पार्श्व पद्मावती माताजी की भक्ति में एकाकार होकर उस आनन्द को प्राप्त करना है। और इसका एक ही माध्यम है। यह महापूजन श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन देखकर सुनकर ही उनके चमत्कार का अनुभव किया जा सकता है। जब साधक मां की भक्ति में तल्लीन हो जाता है, एकाकार हो जाता है, तब उसके भीतर हृदय में एक चमत्कार स्वयं ही घटित होता है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव साधक स्वयं ही करता है।" इसका वर्णन करना दुष्कर कार्य है। इसलिये आत्मिक सुख प्राप्त करने के लीये निष्काम भाव से तन्मय होकर एकाकार होकर मां की साधना करनी चाहिये। इसलिये आइये माताजी के इस अनुपम अनुष्ठान में सम्मिलित होकर आत्मीय सुख और आनन्द के क्षण प्राप्त करें। इस अवसर पर श्री किशोरचन्द्रजी एम. वर्धन ने कहा : "हम आभारी है मुनि द्रय के जिन्होंने अरविन्द कुंज में पूजन पढाने की हमारी हार्दिक भावना को साकार रुप देते हुए यहाँ पधारकर पूजन पढाकर हमारे आनन्द में द्विगुणित वृद्धि की. मुनिराज द्वय श्री के पू. गुरूवर मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी म. सा. ने श्री पालीताणा तीर्थ में माताजी की साधना में एकाकार होकर २४ भुजा युक्त श्री पद्मावती माताजी के दर्शन किये थे। इससे बड़ा और चमत्कार क्या हो सकता है। उनकी साधना सिद्धि अनुपम थी और मुनि द्रय भी साधना के सोपान पार करते हुए उनके द्वारा मार्गदर्शीत राह पर अग्रसर हो रहे है।" पूजन के मध्य घाटकोपर स्थित सर्वोदय नगर में श्री सुखराजजी नाहर भीनमाल द्वारा निर्मीत श्री मद्विजय राजेन्द्रसूरिजी म. सा. की गुरुमुर्ति प्रतिष्ठा की विनंती की गई। जिसे मुनिराज श्री ने सहर्ष स्वीकार करके गुरू मंदिर प्रतिष्ठा का मुहुर्त फाल्गुन सुदी ३ संवत् २०४७ रविवार का दिन निश्चित किया गया। __ महापूजन के पश्चात सभी निमंत्रित महापूजन में पधारे आगन्तुक अतिथियों की भक्ति स्वरुप स्वामीवात्सल्य रखा गया। यह महापूजन भी अपने आपमें एक अपूर्व था। ९ डिसेम्बर १९९० को श्री हिम्मतमलजी सुरतींगजी बागरावालों की और से यही महापूजन लालबाग में पढायी गयी। ११२ आत्म-दर्शन और आत्मा के जन्म मरण के भय को नष्ट करने का पुरुषार्थ ही सबसे कठिन पुरुषार्थ है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोंकण केशरी पद प्रदान समारोह - एक झलक मोहने (कल्याण) महाराष्ट्र में प्रात:स्मर्णिय, कलिकाल कल्पतरु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म. सा. की गुरू जयन्ती का भव्य आयोजन प. पू. गच्छाधिपति वर्तमान आचार्य देवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरिश्वरजी म. सा. के आज्ञानुवर्ती श्रमण सूर्य प. पू. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म. सा. के शिष्य रत्न प. पू. प्रवचनप्रभावक, मृदुभाषी, सरल स्वभावी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. सा. प. पू. वात्सल्य महोदधि मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. एवं श्रमणीवर्या पू. गुरूणिजी म. श्री मगनश्रीजी म. सा. की शिष्यरत्ना विदुषी साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म. सा. आदीठाणा ७ की पावनीय निश्रा में श्री पद्मावती ऑइल मिल्स की ओर से पोष शुकला ७ सोमवार, २४ डिसेम्बर ९० को गुरु जयन्ती का भव्य महोत्सव आयोजित किया गया। गुरु जयन्ती के इस स्वर्णिम अवसर पर पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. सा. को समस्त कोंकण प्रदेशिय श्री संघो की भावनाओं को साकार करते हुए श्री संघ मोहने जैन संघ की ओर से "कोंकण केशरी पद' प्रदान समारोह का भव्य आयोजन आयोजित किया गया था। प्रात: से ही समग्र महाराष्ट्र प्रदेश की धर्म परायण जनता "गुरु पर्वोत्सव" एवं जन-जन के प्रियातिप्रिय पू. मुनिराज श्री को "कोंकण केशरी' पद से विभुषित कर उनकी अभूतपूर्व जिन शासन प्रभावना में अनुमोदनार्थ पुण्याई में सहभागी बनना चाहती थी। पूजा दादा गुरुदेव के पक्षाल पूजा आदि का कार्यक्रम होते ही श्री अजित जैन मण्डल के सौजन्य से "कोंकण केशरी' पद प्रदान के उपलक्ष में सुबह १० बजे ऑर्केष्ट्रा का रंगारंग कार्यक्रम था। "गुरुवर कोंकण के आइजो, गुरुवर ज्ञान गंगा' का गीत प्रस्तुत होते ही तालियों की गुंज से आकाश मण्डल गुंज उठा। गीत की प्रस्तुती में समस्त, कोंकण प्रदेश के ऐतिहासिक उल्लेखनीय कार्यों का वर्णन इतना चतुराई से किया गया कि श्रोतागण भाव विभोर बन गये। विभिन्न गायक और गायीकाओंने यह कार्यक्रम शानदार ढंग से पेश किया। मोहना नगर में देखते ही देखते हजारों की जन मेदिनी जन संख्या आज के इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में पूज्य दादा गुरुदेव की जयन्ती एवं "कोंकण केशरी' पद समारोह को देखने के लिए आतुर थी। जयजयकार के जयघोष वातावरण में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म. सा. व लोकेन्द्रविजयजी म.सा. साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म. सा. आदि ठाणा विशाल मंच को सुशोभित कर रहे थे। सभा का प्रारंभ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के दिप प्रज्जवलन से हआ। दिप प्रज्जवलन श्री अशोकजी बाफना एवं माल्यापर्ण श्री भीनमाल निवासी दानवीर श्रेष्ठीवर्य श्री डूंगरमलजी सरेमलजी दोशी के कर कमलों से हुआ। पूज्य दादा गुरुदेव का दीप प्रज्ज्वलन का चढावा लेकर श्री धनराजजी राजमलजी सुमेरपुर एवं भीनमाल निवासी श्री सायरमलजी माणकचन्दजी के कर कमलों से माल्यार्पण विधि सम्पन्न श्री चन्दनमलजी मुथा सभा का संचालन कर रहे थे। सभा का प्रारंभ करते हुए उन्होंने कहा कि प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी गुरु जयन्ती का भव्य आयोजन हो रहा है। परन्तु इस बार पूज्य श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म. सा. को "कोंकण केशरी' पद से अलंकृत किया जा रहा है। पूज्य श्री के धर्म यात्रा का प्रारंभिक चरण इसी मोहना नगर से प्रारंभ हुआ था। जो वस्तु उत्तमोत्तम हो उसे ही जिनेन्द्र पूजा में रखना चाहिए। ११३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज हमारे प्रबल पुण्योदय है कि हम उनकी अभूतपूर्व जिन शासन के प्रभावना स्वरुप हमें "कोंकण केशरी' पद प्रदान समारोह करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। शीवराजजी गोरेगाँव "कोंकण केशरी' पद से सम्बन्धि भावभरा गीत प्रस्तुत किया। गीत की पूर्णाहुति श्री अशोकजी बाफना बड़गाँवने सभा की अध्यक्षता का पदभार संभाला। इस सभा के मुख्य अतिथि थे दानवीर शेठ श्री डूंगरमलजी सरेमलजी दोशी भीनमाल। समस्त कोंकण प्रदेश के श्री संघो के प्रमुख व विभिन्न प्रान्तों व नगरों से पधारे विशेष अतिथि गण मंच की शोभा बढा रहे थे। श्री मोहना जैन संघ की ओर से समस्त अतिथियों का भावभिना स्वागत किया गया। श्री चन्दनमलजी चाँद ने अपने भाषण में कहा कि पूज्य श्री का व्यक्तित्व एवं कृतृत्व महान है। समस्त कोंकण प्रदेश में ही नही, समुचे महाराष्ट्र प्रदेश में जहाँ भी आप पधारे है वहाँ आपने धर्म की ध्वजा फहराई है। यह कोंकण प्रदेश के लिए गौरवपूर्ण प्रसंग है कि आज हम पूज्य श्री को "कोंकण केशरी" पद पदालंकृत कर रहे है। श्री चाँद ने भाषण के दौरान कहा कि इनके माता-पिता भी कितने महान् है जिन्होने समग्र जैन समाज को लेखेन्द्र और लोकेन्द्र जैसे महान् संतो को जन्म दिया है। संभा की इसी श्रृंखला में श्री सुकनजी बाफना (कामशेट) ने कहा कि जब मुझे यह ज्ञात हुआ कि पूज्य श्री को "कोंकण केशरी" पद प्रदान किया जा रहा है तो मेरी आत्म प्रसन्नता का पार नहीं रहा। क्योंकि पूज्य श्री का व्यक्तित्व से आज सारा जैन समाज प्रभावित है। आपने सम्प्रदाय रहित जैन समाज को शुद्ध धर्म कि देशना देकर एक नई मिसाल कायम की है। इसी का सहज परिणाम है कि कोंकण में लेखेन्द्र लोकेन्द्र के नाम कि एक अमर गूंज पूज्य मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म. सा. ने कहा कि कोंकण प्रदेश की जनता का धर्म स्नेह मिला। जिसके परिणाम स्वरुप हम कोंकण में विशेष तौर जिन शासन प्रभावना के कार्य समापन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कोंकण की जनता की पुकार थी कि पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. को कोंकण केशरी पद से अलंकृत किया जाय। पूज्य श्री का जीवन इतना पावन है कि वे हमेशा पद प्रशंसा और लौकिक लोकैषणा से दूर रहे हैं। उनका जीवन एक आत्मसाधक का जीवन हैं। वे सदा निस्पृह रहे है। मोहने जैन संघ का सतत् १ वर्ष से पद ग्रहण करने हेतु आग्रह रहा। आज कोंकण प्रदेश की ओर से जो विशेष सम्मान प्राप्त हो रहा है वह हमारा नहीं बल्कि हमारे पूज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मण विजयजी म.सा. का है। महाप्रयाण से १५ मिनिट पूर्व जो शब्द उन्होंने कहे थे, वे शब्द आज महाराष्ट्र की पावन धरा पर साकार हो रहे हैं। आप सभी का इस प्रकार प्रेम एवं धर्म स्नेह मिलता रहा तो जब भी कोंकण की धर्म परायण जनता हमें याद करेगी, तब हम कोंकण क्षेत्र के लिए. जिन शासन की सेवा देने के लिए तैयार रहेंगे। तालियों की गुंज से आकाश मण्डल गुंज उठा था। इसी बीच मुनिश्री ने कहा कि हम मुनिद्वय जिन शासन की सेवा तब तक करते रहेंगे जब तक हृदय की धडकन हमारा साथ देगी। __ अध्यक्षीय भाषण में श्री अशोकजी बाफना ने कहा कि पूज्य मुनिद्रय से बाफना परिवार का एक वर्ष से निकट का सम्बन्ध रहा है। आप पूज्य श्री की निश्रा में हमारे परिवार में प्रथम बार श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का आयोजन हुआ जो कि मावल तालुका में यादगार बन गया ११४ निराश हृदय में जब आशा का अंकुर फूटता है तब उस में आनन्द की किरणे फूटने लगती हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आपने इस धर्म यात्रा के दौरान चारों सम्प्रदायों में सद्भावनाओं का सृजन किया। एक दूसरे को निकट में लाने का सुयश प्राप्त किया। महापूजन के माध्यम से कोंकण की जनता को भक्ति का एक नया आयाम दिया। __ मोहना नगर का विशाल प्रांगण भी छोटा पड़ गया था। क्योंकि आज पूज्य प्रवर की "कोंकण केशरी पद प्रदान की अभूतपूर्व समारोह था। ५ हजार से भी अधिक महाराष्ट्र की जनता अपलक नेत्रों लिए समारोह को निहार रही थी। सर्व प्रथम पूज्य श्री के "कोंकण केशरी" के शाल का चढ़ावा हुआ जो उच्च बोली बोलाकर अनन्य श्रद्धालु गुरु भक्त श्री धनराजजी राजमलजी पोसालिया सुमेरपुरवालों ने लिया। प्रथम गुरु पूजन का लाभ भीनमान निवासी श्री सायरमलजी माणकचन्दजी ने लिया। "कोंकण केशरी" पदप्रदान समारोह में मोहने जैन संघ की ओर से अभिनन्दन पत्र पढा गया जिसमें पूज्य श्री के व्यक्तित्व की गरीमा का वर्णन किया गया था। साथ ही वीतराग देव से प्रार्थना भी की गयी कि पूज्य श्री के हाथों से और भी जयवन्ता जिनशासन के उल्लेखनीय कार्य होते रहे। संयम जीवन की शुद्ध परिपालना करते हुए दिर्घायुष्य को प्राप्त कर जैन समाज को प्रगति के पथ पर बढायें। इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ पूज्य श्री के कर कमलों में अर्पण किया। खचाखच भरे इस समारोह के विशाल प्रांगण में जय निनादों की गुंज में पोसालिया निवासी श्री धनराजजी राजमलजी सुमेरपुर ने पूज्य श्री को "कोंकण केशरी' पद की शाल ओढाकर, "कोंकण केशरी" पद से सम्मानित किया। 'कोंकण केशरी की जय-जयकार से आकाश मण्डल गुंज उठा १५ मिनिट तक "कोंकण केशरी" की जय-जयकारों की प्रतिध्वनी आकाश मण्डल में गुंजती रही। इस शुभावसर पर आगामी गुरुजयन्ती । पूज्य श्री लक्ष्मणविजयजी शीतल म.सा. की गुरु जयन्ती एवं आगामी चातुर्मास के लिए भायंदर, कर्जत, मोहोपाडा, पूना निगडी, मोहना, रोहा आदि श्री संघों ने चातुर्मास के लिए भावभरी विनंतियाँ की। कोंकण केशरी पद ग्रहण करते ही पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. ने अपनी अमृतभरी वाणी में कहा कि पूज्य दादा गुरुदेव की जयन्ती तभी हमारे जीवन में सार्थक हो सकती है जब हम गुरुदेव के बताये हुए आदर्श को हृदयांगम करें। उनका संदेश था कि सम्मान और समृद्धि से जब अहं जन्म लेता है। तब स्वयं के लिए अमंगल है। हमें देखना होगा कि गुरुदेव का यह पावन संदेश का हम अपने जीवन में कितना अमल कर पाये है। मैने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरुदेव के बताये गये आदर्शो के पद चिन्हों पर अग्रसर होता हुआ समाज की सेवा का संकल्प लिया है। उसी संकल्प के परिणाम दो वर्ष पूर्व श्री गुरु समाधि मंदिर मोहन खेडा तीर्थ से महाराष्ट्र के लिए हम दोनों मुनियों ने प्रस्थान किया। इन्दापुर गुरु सप्तमी हेतु हमारा विहार था। कोंकण के नगरों एवं गाँवों में विचरण किया, यहाँ की जनता का हमें धर्म स्नेह मिला जिसके परिणाम स्वरुप श्रृंखला बद्ध महापूजन, प्रतिष्ठा जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव अदि कार्यक्रम होते रह। "कोंकण केशरी" पद से मेरा जो सम्मान किया जा रहा है वह तो ठीक है लेकिन मेरे जीवन निर्माता परम श्रद्धेये पूज्य श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा.का परम उपकार है। जिन्होंने मेरे जीवन को पत्थर से मूर्ति बनाने का प्रयास किया है। जो कुछ है उन्हीं महापुरुष का है। उन्हीं का आशीर्वाद है हम तो मात्र निमित्त है। काा जिसे कोई चिंता नहीं होती उसकी निन्द्रा से गाढी दोस्ती होती हैं। ११५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उक्त अवसर पर पूज्य श्री ने वांगणी में साधु साध्वी के लिए टोकरसी नैनसी सावला की ओर से आराधना भवन बनाने की घोषणा की। पूज्य श्री ने विहार यात्रा में एहसास किया कि वांगणी में आराधना भवन का निर्माण करना आवश्यक है। इस घोषणा का करतल ध्वनी से स्वागत किया गया। भाषण दौरान कहा कि साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी म. आदि श्रमणी मण्डल का इस कोंकण यात्रा में मुझे सदा सहकार मिलता रहा। समस्त कोंकण प्रदेश में श्रमणी मण्डल के विचरण करने से महिलाओं में विशेष रुप से धर्म जागृती आयी है। उक्त अवसर पर पूज्य श्री ने आगामी गुरु जयन्ती का आदेश गुडा बालोतान् निवासी श्री अमिचन्दजी हंजारीमलजी अम्बरनाथ को दिया। उनकी ओर से पौष शुक्ला ७ रविवार १२ जनवरी १९९२ को मोहने में गरु जयन्ती का भव्य आयोजन होगा। श्रमणसूर्य पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. की सप्तम पुण्य तिथि का आदेश श्री संघ भायंदर (पूर्व) को दिया। इसी के साथ अनेक श्री संघो की विनंतियाँ के आग्रह को ध्यान में रखते हुए, विशेष लाभ को देखते हुए भायंदर (पूर्व) में २०४८ का आगामी चातुर्मास की घोषणा की। पूज्य श्री ने भाषण के अन्त में कहा कि कोंकण प्रदेश में तब तक रहँगा जब तक कोंकण के अधुरे कार्य पूर्ण नहीं हो जाते है। हमारी सबसे बड़ी जबाबदारी कर्जत की है। मैने कई बार कहा है कि कर्जत के मंदिर का कार्य पूर्ण करवाना है। मेरा वह मुख्य कार्य है। आज वह कार्य प्रगति के पथ पर अग्रसर है। पूज्य श्री ने भावात्म होकर धाराप्रवाही मधुर भाषा में प्रवचन दिया ५ हजार से भी अधिक जनमेदिनी एकाग्रचित्त होकर पूज्य श्री के मुखार बिन्द से श्रवणकर रही थी। __ परम पूज्य श्री लेखेन्द्रर्शखरविजयजी म.सा. द्वारा लिखित धार्मिक उपन्यास "बहती नदी" का विमोचन श्री डूंगरमलजी दोशी के कर कमलो द्वारा हुआ। सविधि पंचक्रमण का विमोचन श्री मोहनलाल श्री जैन के द्वारा हुआ पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म. द्वारा दिये गये गुजराती भाषा में प्रवचनों की पाण्डुलीपी का विमोचन गोरेगाँव निवासी श्री उमरावचन्दजी गुन्देचा, तिलोकचन्दजी पटियात, कुन्दनमलजी डी. जैन व श्रीपुरुषोत्तमदास के कर कमलों द्वारा उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। श्री पार्श्वपदमावती शक्तिपीठ गुरु लक्ष्मण ध्यानकेन्द्र में निर्मित विशाल धर्मशाला का उद्घाटन माघ शुकल ११ शनिवार २६ जनवरी को किये जाने की घोषणा की। इसी अवसर पर श्री कुन्दनमलजी नाहर एवं सायरमलजी माणेकचन्दजी की ओर से शक्ति पीठ में दिये गये उदार मन से सहयोग की घोषणा की। मुनि द्रय के सांसारिक पिता श्री मोतीलालजी चुन्नीलालजी गुगलिया मातुश्री कमलाबाई का शाल ओढाकर मोहने जैन संघ ने भावभीना स्वागत किया गया। श्री राजेश सी. जैन, उमरावचन्दजी गुन्देचा, शा. तिलोकचन्दजी डी. शाह, कुन्दनंमलजी डी. शाह, मोहनलाल एस जैन आदि एवं कोंकण प्रदेश के प्रत्येक नगर गाँव से पधारे पदाधिकारी इस समारोह में विशेष अतिथि के रुप में कार्यक्रम की शोभा बढा रहे थे। __अंत में श्री मोतीलालजी रांका ने पूज्य मुनिद्वय से सम्बन्धि एक भावभरा गीत प्रस्तुत किया। जिससे सभागण मन्त्र मुग्ध हो गये। पूज्य श्री के मांगलिक श्रवण के साथ ही सभा एक विशाल जुलुस के रुप में परिवर्तित हो गयी। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ का चित्र, नवकार मंत्र का पट्ट एवं पूज्य दादा गुरुदेव का चित्र लिए विक्टोरिया व खुली जीप चल समारोह में विशेष आकर्षण था। पूना का संगम बेण्ड मधुर ध्वनियों से वातावरण को रोचक बना रहा था। श्री लेखेन्द्रलोकेन्द्र बेण्ड पार्टी विशेष आकर्षण का केन्द्र थी। इस भव्य रथयात्रा में दादा गुरुदेव की जय-जयकार से मोहना नगर गुंजायमान हो गया लेखेन्द्र-लोकेन्द्र आये है, नई रोशनी लाये है। युगवर्ग बारंबार प्रतिध्वनित कर श्रद्धाभाव प्रकट कर रहे थे। ११६ मानवता का विकास न होने पर मानव दानवता, पिशाच्त्व, पशुता और शुद्धता को प्राप्त होता हैं। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैनमलजी जुहारमलजी, छगनलालजी, मोतीलालजी, मांगीलालजी, धरमचन्दजी, चम्पालालजी, खीमचन्दजी, अजितकुमार ताराचन्दजी फर्म " श्री पद्मावती आइल मिल्स" ने गुरु जयन्ती का सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किया । और शाम की आरती भी श्री पद्मावती आइल मिल्स ने चढ़ावा बोलकर प्राप्त को पूज्य गुरुदेव की आरती जैसे ही होने लगी और दिवालों और छत से, गुरुदेव की छतरी से अमीय वर्षा प्रारंभ हो गयी। अमीय वर्षा भी केशर युक्त थी । अमीय वर्षा प्राप्त करने के लिए सैकड़ों गुरु भक्त लालायित हो उठे। सैकड़ों गुरु भक्त अमीय वर्षा का यह चमत्कार देखकर श्रद्धान्वित हो गये। गुरु समाधि मंदिर श्री मोहनखेडा तीर्थ पर अमीय वर्षा होती है। फिर मोहना नगर में विगत २ वर्ष से हो रही है। मोहना नगर में गुरुदेव की मूर्ति ही चमत्कारिक है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि प्रतिवर्ष गुरु जयन्ती के आयोजन पर श्रद्धालु गुरु भक्तों की भीड़ बढ़ती जा रही थी । बास्तव में मोहना का गुरुजयन्ती पेला देखने पर ऐसा लगता है कि सचमुच मोहना, मोहनखेड़ा के पद चिन्हों पर अग्रसर है। कोंकण के इतिहास की गौरवमय गाथा में पूज्यश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. की जिनशासन प्रभावनाएँ स्वर्णाक्षरों से अंकित हो गयी है। यह शृंखला यही पूर्ण नही होती है। पूज्य प्रवर की तेजस्वी कार्य शक्ति की सौरभ बम्बई महानगर कह हरक्षेत्र में व्याप्त हो गयी है। श्री पार्श्वपद्मावती महापूजनों के विराट् आयोजनों इस महानगर में आ रहे हजारों श्रद्धालु भक्तों को एक साथ में मंत्र लयबद्ध हो जाना भी एक कीर्तिमान था । " कोंकण केशरी" के पद से शोभित होते ही महिमावंत गरिमायुक्त पद से सुशोभित होते ही कलवा पधारे। पूज्य श्री के आगमन से चारों और हर्ष की लहर दौड़ गयी। कलवा ही नहीं अन्य शहरों में भी "कोंकण केशरी" पद की शाल ओढ़कर अनुमोदना में धन्य भागी बन रहे थे। इससे पूर्व भिवंडी में भी आपका सत्कार समयोचित सम्मानिय रहा है। दानवीरता एवं शुरवीरता से सुशोभित राजस्थानी भूमि पर गोडवाड़ क्षेत्र में बसा जवाली गाँव। जवाली गाँव के धर्मपरायण श्रेष्ठीवर्य श्री मुलचन्दजी गेनमलजी का एक प्रतिष्ठित परिवार रहा है। श्रीमति चम्पाबाई मूलचन्दजी शाह की ओर से माटुंगा - बम्बई में माघ कृष्णा ६ रविवार दिनांक ६/१/९१ को श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का विराट् आयोजन हुआ। पूज्य श्री की पावन निश्रा में ६१ वां महापुजन था। जो कि आज तक महापूजनों में एक यशस्वी शाही महापूजन था। हजारों की जनमेदिनी इस महापूजन को श्रद्धान्वित दृष्टि से देखने में भाव निमग्न थी । "कोंकण केशरी" पूज्य प्रवर भावमयी तन्मयता में, माँ का स्वरुप, उसकी अलौकिक शक्ति और आज के इस युग में भी मां के चमत्कारों से अवगत करवा रहे थे। बलवन्त ठाकुर एण्ड पार्टी अपनी आर्केष्टा लिये भक्ति धुनों से भक्त गणों की भक्ति में सराबार कर रही थी। मुनि श्री लोकेन्द्र विजयजी ने कहा कि आज यह महापूजन इतनी महिमावंत हो गयी है कि हजारों भक्त गण पूजा का सुनकर भक्ति भाव में मग्न होने के लिए इस और कदम बढ जाते हैं। हमें हमारी चेतना को भक्ति के माध्यम से उर्ध्वगामी बनाना है। क्यों कि आज के इस युग में विषम वातावरण में हमारे पास यही एक मात्र विकल्प सुरक्षित है। माटुंगा की यशस्वी शाही पूजन की विराटता का वर्णन शब्दों से लिपिबद्ध करना असंभव सा प्रतीत होता है। क्यों कि आयोजक की विराटता भी प्रसंसनीय है। जैन समाज अपनी दानवीरता से सदा गोरवान्वित रहा है। केवल धार्मिक कार्यों में मानव सेवा, शिक्षण संस्थान और विभिन्न दृष्टिकोण के लिए रचनात्मक कार्यों में सदा अग्रणीय रहा है। आज वर्तमान विचारधारा में जैन समाज एकता के सूत्र में संगठित हो रहा है। अगर वास्तविकता में यह समाज अनेकता में एकता विश्वास प्रकट कर दे तो यह समाज भारतीय परिपेक्ष्य में एक महानता का कार्य हो सकता है। " कोंकण केशरी" पूज्य प्रवर सदा ही समाज को समन्वय का संदेश दिया हैं। पल-पल जो जागृत रहे, वह साधु। निद्रा में भी जो जागृत हो, वह साधु । For Private Personal Use Only ११७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारीवली वेस्ट में स्थित सुमेरनगर में भिनमाल निवासी शा. सुमेरमलजी हंजारीमलजी लूंकड़ एवं तेजराजजी गोवाणी द्वारा निर्मित श्री श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर एवं प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाने हेतु १०/१/९१ को मंगल प्रवेश किया। २० जनवरी को इसी सुमेरनगर में सोसायटी की ओर से श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का विराट् आयोजन हुआ। सुमेरनगर में इस महापूजन का यह प्रथम आयोजन था। माघ शुक्ला ५ से महोत्सव का प्रारंभ हुआ जो अनवरत विविध अनुष्ठानों के साथ माघ शुक्ल ११ शनिवार को एतिहासिक रथयात्रा का आयोजन हुआ। सैंकड़ों की जन संख्या में श्रद्धालुगण सम्मिलित थे। यह रथयात्रा भी इस क्षेत्र की अर्पूव थी। २०४७ माघ शुक्ला १२ रविवार २७ जनवरी १९९१ को प्रात: से ही श्रद्धालुगण प्रभु प्रतिष्ठा महोत्सव के लिए उत्सुक थे। "ॐ पुण्याहं पुण्याहं", "ॐ प्रियंतां प्रियंतां" की ध्वनियों से आकाश मण्डल भी गुंज उठा था। अपूर्व उत्साह था यहाँ के भक्त गणों में। सोसायटी की ओर से आयोजकों का भाव-भीना स्वागत किया गया। दानवीर श्रेष्ठीवर्य श्री सुमेरमलजी एवं धर्मपरायण तपस्वी श्रीमति सुआबाई की प्रभु भक्ति भी अपने आप में अनोखी व प्रेरणादायी है सुमेरनगर जैन समाज का योगदान भुलाये पर भी नही भूल सकते है। श्री सुखराजजी बाबूलालजी नाहर द्वारा निर्मित घाटकोपर वेस्ट में सर्वोदय नगर अस्पताल के विशाल प्रांगण में प्रभु श्रीमदविजयराजेन्द्रसुरीश्वरजी म.सा. के गुरु मूर्ति की प्रतिष्ठा हेतु वि.सं. २०४७ फाल्गुन शुक्ला ३ रविवार १७ फरवरी १९९१ को प्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त था। विशेष ज्ञातव्य यह है कि यह गुरुमंदिर इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि सर्वोदय नगर अस्पताल में सर्व धर्म समन्वय की भावना से मानव मंदिर के रुप में सभी धर्म के आराध्य देव बिराजमान है। जो कि भारतीय संस्कृति और उसकी सभ्यता की याद दिलाता है। यह मानव मंदिर हमें प्रेम और भाई चारे की ओर आकृष्ट करता है। ऐसे मानव मंदिर में २० वीं शताब्दी के महान युगप्रवर्तक उपकारी गुरुदेव का मंदिर निर्माण उनके पावन आदर्शो का युगो युगो तक प्रतिपादन करता रहेगा मानवीय मूल्यों की गौरव गाथा का यह एक कीर्तिस्थंभ है । फाल्गुन शुका ३ रविवार को हजारों की जन मेदिनी में जय जयकार के जयघोष में विश्ववंद्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की गुरुमूर्ति प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस धर्मयात्रा वृतांत में पूज्यश्री का विहार, उनकी धर्मयात्रा और धार्मिक आयोजनों का सजीव चित्रण करने का प्रयास किया गया है। "कोंकण केशरी' पदप्रदान के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। इतिहासने सदा सर्वदा युगपुरुषों, दानवीरों और शुरवीरों की यशोगाथाँए गायी है। पूज्य मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. के बहु आयामी व्यक्तित्व का चित्रण इस महाग्रन्थ में शब्दों द्वारा प्रकटीकरण करने का आंशिक प्रयास किया गया है। क्यों कि धर्म पुरुषों के पावनीय चरित्रों का चित्रण करने में लेखनी सदा असमर्थ रही है। परन्तु मनुष्य सदा धर्म पुरुषों के अनन्त उपकारों के प्रति कृतज्ञ रहा है। उसी का प्रतिबिम्ब है यह अभिनन्दन ग्रन्थ। परम श्रद्धेय श्रमण सूर्य पूज्य मुनिराजश्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. की सातवी पुण्यतिथि चैत्रवदि ९ रविवार को भायंदर इस्ट में मनायी जा रही है। उक्त अवसर पर इस ग्रन्थ का समर्पण समारोह भी है। कोंकण केशरी पूज्य मुनिप्रवर को यह अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण करते हुए आत्मीय प्रसन्नता का अनुभव कर रहे है। कि धर्मप्राण धर्म पुरुष के प्रति आदरांजलि के रुप में समर्पण करने का एक अहोभाग्य प्राप्त हुआ है। "कोकण केशरी" पूज्य मुनिप्रवर आप सदैव जिनशासन एवं गुरुगच्छ के विकास में चहुमुखी योगदान प्रदान करते रहे। इसी मंगल कामना के साथ। ११८ मन की पंखुडीयाँ जब एक्यता के से पृथक ले जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफळ नहीं हो सकते Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार और सत्य श्रमण भगवन्त महावीर की धर्म परम्परा में २५ सौ वर्षों से अव्याबाध गति से अविच्छिन रुप से चल रही है। इस धर्म परम्परा की गति में अनेक बाधाएँ आई, समस्याओं का प्रादुर्भाव हुआ, संघर्षों का सीलसीला भी चलता रहा हैं। परन्तु श्रमण भगवन्त महावीर का त्याग मार्ग इतना उत्कृष्ट था जिससे समस्त अवरोध तिनके की भाँति हवा में उड़ते गये। क्यों यह धर्म संस्कति त्याग प्रधान रहा है। आज भी महावीर के श्रमण संघ में अनेक आत्माएँ ज्ञान, ध्यान और उत्कृष्ट तप साधना से अनेक आत्म साधकों को बोधीबीज प्रदान कर रहे हैं। उनकी तप पुत: साधना आज भी हमारी समाज को गोरवान्वित कर रही है। प्रात: स्मर्णिय गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य रत्न श्रमण सूर्य पूज्य प्रवर मुनिराजश्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. भी एक ऐसे ही प्रकाश पूंज है जिन्होंने समस्त कोंकण क्षेत्र में अपनी ज्ञान प्रतिमा से आलोकित किया है। उनकी यह धर्मयात्रा न केवल एतिहासिक है बल्कि आगामी पीढ़ी के लिए दिकदर्शक भी। उन्होंने अनेक रचनात्मक कार्य किये है। जैसे कि कर्जत, अलिबाग आदि जिनमंदिरो का पुन:निर्माण कार्य में आ रहे अवरोधों को आध्यात्मिक शक्ति के मनोबल से दूर किया। खोपोली नगर में ५० वर्षों के बाद जिनेन्द्र भक्ति स्वरूप अष्टान्हिका महोत्सव का आयोजन हुआ। यह कार्यक्रम खोपोली जैसे संघ के लिए कल्पानातीत था। पूज्यश्री का जब प्रवेश हुआ तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि खोपोली के इतिहास में इतना विराट् आयोजन हो सकेगा। मोहने, नेरल, मोहोपाड़ा और कामाठीपुरा और बोरीवली सुमेर नगर में जिन बिम्बों एवं गुरु बिम्बों की प्रतिष्ठा का निर्विघ्न कार्य सम्पन्न कर आध्यात्मिक शक्ति एवं गुरु आशिर्वाद का अनूठा परिचायक है। कर्जत एवं कामशेट में परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री के जयन्ती के भव्य आयोजन करावाये। गुरु की शक्ति कितनी अनोखी है और वह हमारे जीवन की एक अनुपम घरोहर है। मोहने कल्याण में प्रति वर्ष गुरु जयन्ती के मेले का आयोजन करवाने का श्रेय प्राप्त किया। उनका जीवन एक अकथ कहानी है। क्योंकि जिनके जीवन की समग्र चेतना उर्ध्वमुखी है। उर्ध्व ही जिनका लक्ष्य है। वे हमेशा समाज के उत्कर्ष के प्रति ही चिंतन करते है। उनका चिंतन भी सर्वांगीण होता है। किसी एक सम्प्रदाय के प्रति नही, बल्कि सर्व धर्म समन्वय के रुप में विचारों का प्रतिपादन करते है। चिंतन के नवनीत में प्रतिती हुई कि परमात्मा की शुद्ध भक्ति ही एकता व सर्वधर्म समन्वय के निकट ला सकती है। इस लिए उन्होंने श्री पार्श्वपद्मावती महापूजनों के अनेकानेक विराट्र आयोजन महाराष्ट्र की धरा पर करवाये। न केवल मूर्ति पूजक समाज ही बल्कि जैन समाज के अन्य प्रमुख वर्गों ने भी इस भक्ति भाव को स्वीकार किया है। मन मोहक आकर्षक प्रतिमा सम्पन्न मुनिवर ने इस महापूजन से अनेक श्रावक श्राविकाओं के मनोरथ पूर्ण किये हैं। क्यों कि सिद्ध पुरुष का आशीर्वाद व उनकी वचन सिद्ध वाणी ही एक शक्ति है। आत्मा की आन्तरिक गहराई से प्रकट हुए वचन अक्षरसः सत्य हुए है। ऐसे महिमा वंत मुनि का अभिनन्दन सहज ही आत्मीय भावों से हो जाता है। कोंकणप्रदेश की धर्मप्राण जनता कृतज्ञभाव प्रकट करना चाहती थी। आत्मीयश्रद्धा की अभिव्यक्ति के रुप में "कोंकण केशरी" पद प्रदान समारोह। पूज्य प्रवर जिनकी जीवन साधना निष्काम रही है। नदी के प्रवाह की तरह जो बहती रहती है फिर कभी पीछे मुड के नहीं देखती कि मैंने किसकी प्यास बुझाई, उसने मुझे धन्यवाद दिया कि नहीं। आत्मिय गुणों से प्रेरित संत आत्माएँ भी सदा दिये चले विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साथ मन-व्यवसाय बंधा हुआ है। ११९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाते है। फिर भी वे प्रशंसा, लौकेषणा व मान-सम्मान से परे रहे है। परन्तु मानव हमेशा से, नदी, संत, वृक्ष और सूर्य के प्रति कृतज्ञता का भाव अनादि से प्रकट करता रहा है। आजभी भारतीय संस्कृति में उदित सूर्य को नमन करते है। यह मानवताकी कृतज्ञता का परिचायक है। कोंकण की जनता कृतज्ञता प्रकट करना चाहती थी। पूज्य श्री की अनिच्छा होते हुए भी मोहने श्री जैनसंघ द्वारा प्रात: स्मणिय दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. की गुरु जयन्ती के पावन प्रसंग पर, समस्त कोंकण क्षेत्र की भावना साकार करते हुए पोष शुक्ला६, सोमवार २४ डिसेम्बर १९९० को "कोंकण केशरी" पद से विभुषित किया गया। कोंकण प्रदेश के लगभग ६१ नगरों से सैकडों गुरुभक्त भक्ति प्रकट करने हेतु उपस्थित हुए थे। "कोंकण केशरी" की जय-जयकारों से आकाश मण्डल गुंज उठा था। श्री धनराजजी राजमलजी पोसालिया सुमेरपरवालों की तरफ से "कोंकण केशरी" कामली ओढायी गयी। पदारुढ़ होते ही प्रथम गुरुपूजन श्री सायरमलजी माणकचन्दजी भीनमाल वालों की ओर से किया गया। अभिनन्दन पत्र मोहने संघ की ओर से पूज्य श्री के करकमलों में समर्पित किया गया। हजारों हजार श्रावकों के मन प्रसन्नता से झूम उठे। पूज्य प्रवर को कोंकण की धर्मपरायण जनता अपने जीवन में कदापि नहीं भूल सकती है। भुलाये नहीं भूल सकते हम। इस धर्म यात्रा में पूज्य प्रवर के लघुभ्राता मुनिराज श्री लोकन्द्रविजयजी म. ने विशिष्ठा भूमिका अदा की है। ये दोनों गुरुभाई रामलक्ष्मण की जोड़ी है। निरहंकारी व्यक्तित्त्व के घनी है, साधना शील है। ऐसे गुरुवर के चरणों में हमारा कोटि-कोटि वंदन। आप शतायु हो और इसी प्रकार अविराम अविच्छिन्न रुप से जिन शासन प्रभावनाएँ करते रहें। इसी मंगल कामना के साथ। विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साथ मन-व्यवसाय बंधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती है। और अनंतानं भव भ्रमण वाला भोमिया भी बनता है। मानव जब मनोजयी होता है तब वह स्वच्छ आत्म दृष्टि और ज्ञान दृष्टि उपलब्ध करता है। १२० नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान की धन्य धरा पर श्री गुरु लक्ष्मण धाम तीर्थ - एक सिंहावलोकन लेखक-धनराजजी जैन भारत के भुखण्ड पर राजस्थान प्रदेश की ऐतिहासिकता एवं पुरातात्विक दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्व लिए हुए है। यहाँ के गौरवमय इतिहास में अनेक शुरवीरों की वीरता की यशोगाथाएँ छुपी हुई है। जो आज भी जन मानस को गोरवान्वित कर रही है। वहीं दूसरी ओर धार्मिक दृष्टि से व अभूतपूर्व शिल्पकला युक्त जैन मंदिरो की श्रृंखला भी विद्यमान है। जिन्हें देखने पर सहज ही सिर नतमस्तक हो जाता है। अरावली पहाडियों, हरियाली तथा मरुस्थल की आंशिक तपस के बीच स्थित है। ग्रेनाहट सिटी "जालोर" जालोर एक जिला मुख्यालय है। इसी जालोर के निकट (जालोर अहमदाबाद राजमार्ग पर) भागली प्याऊ नामक स्थान पर वि.सं. २०४१ आषाढ वदि १० रविवार २४ जुन १९८४ में विधिवत श्री मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम के नाम से यह सुहावना स्थल नामांकृत किया गया। परम श्रद्धेय मनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल' म.सा. ने पार्थिव शरीर त्यागने के पहले सिर्फ १५ मिनीट पूर्व २५ मार्च ८४ को कहा था कि " मेरे जाने के बाद जालोर के निकट मरुघर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ के नाम से तीर्थ की स्थापना करना।" उनका यह आदेश उनके सुविनित शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. एवं मुनि श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा., की गुरुभक्ति स्वरुप यह बृहत् योजना को वे साकार रुप दे रहे है। सौधर्म बृहत तपागच्छ में गुरु स्मृति के रुप में यह प्रथम तीर्थ साकार रुप ले रहा है। इसी पावन भूतल पर पूज्य गुरूदेव की इस्वी सं. ८५-८६ और ८७ में गुरू जयन्ती के भव्य आयोजन किये गये। मुनि द्वय ने इस जंगल को भी मंगल का रुप दे दीया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस क्षेत्र में विचरण करने वाले मुनि भगवंतो एवं श्रमणीभगवतों के लिए विशेष सुख-सुविधा हो गई है। क्योंकि जालोर अमदाबाद राजमार्ग होने से शेषकाल में ५०० से ७०० साधु साधवियों का अवागमन रहता है। जिनकी वैयावच्च से यह संस्था लाभान्वित हो रही है। गुरु लक्ष्मण धाम भागली प्याऊ पर विशाल धर्मशाला का निर्माण कार्य हो गया है। भोजन शाला निरन्तर चालू है। यह एक अनुभव पूर्ण सत्य है कि "श्रेयांसि बहुविध्नानि" जब श्रेय के कार्य या रचनात्मक कार्य किये जाते है। कितने ही प्रकार के विध्न व बाधएँ आती है। परन्तु धीर, वीरपुरुष उन सभी बाधाओं को पार करते है। दोनों पूज्य प्रवर कर्मनिष्ठ है, कर्मयोद्धा है, आत्मनिश्चय के धनी है। आशा और विश्वास है कि यह तीर्थ राजस्थान् कि जैन तीर्थ श्रृंखला में अपना शिघ्र स्वतंत्र अस्तित्व व अलग पहचान कायम करेगा। गुरु श्रद्धा का प्रतिबिम्ब है। इस तीर्थ भूमिके हर पत्थर और कण-कण में स्पष्ट रुप से झलकता है। नवकार मंत्र यह जीवन का परम् सत्व रुप है। नवकार की आराधना से मानसिक क्लेश नष्ट होते है। १२१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज में प्रथम शक्ति पीठ लेखक- चन्दनमल बी. मुथा मोहने (कल्याण) महा. श्री शंखेश्वर तीर्थ में इतिहास सदा सत्य का उद्गाता रहा है। अतीत, अनागत और वर्तमान में सत्य सदा एक ही रुप में जीवंत है। परिवर्तन सृष्टि का एक सहज नियम है। परन्तु इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ अतीत के आलोक को सदा प्रकाशित व पथ प्रदर्शक रहे है। अतीत को चौविसी में श्री दामोदर स्वामी हुए हैं जिन्होंने आषाडी श्रावक की भव परम्परा अन्त अनागत चौविसी के २३ तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के गणघर के रुप में होगा। तीर्थंकर की वाणी सुनकर श्रावक की जिज्ञासा बढ गयी और श्री पार्श्वनाथ का स्वरुप आदि की जानकारी प्राप्तकर उसी आकार से श्री पार्श्वनाथ जिन बिम्ब बनवाकर भविष्य के अनन्त उपकारी होने वाले तीर्थंकर की भक्ति में भाव विभोर हो गया। कालान्तर में यही जिन प्रतिमा देवलोक, पाताल लोक में श्री घरणेन्द्र पद्मावती द्वारा पजित हई भगवान नेमिनाथ के समय के जरासंघ और यादवों के बीच घमासान लडाई हुई। जराविद्या के प्रयोग से ५६ कोटि यादव मुर्छित हो गये। तब श्रीकृष्णने अठ्ठम तप की तपस्या की माँ भगवती पद्मावतीदेवी प्रकट हुई। उनके द्वारा पुजित श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा का पक्षाल कर मुर्छित यादवों पर छींटते ही चेतना आ गयी। उसी समय श्रीकृष्ण ने शंखनाद कर शंखपुर नाम से गाँव की स्थापना की। और यह प्रतिमा का जिन मंदिर भी यही बनाया गया। कालान्तर में यही तीर्थ श्री शंखेश्वर नाम से जग विख्यात हुआ। इस तीर्थ पर कई बार आक्रमण हुए अनेक बार जिर्णोद्वार भी हुआ। परन्तु महान अतिशयवन्त श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु की महिमां युगो-युगो तक अविछिन्न रुप से रही है। गुजरात की पावन धरा पर स्थित यह महान तीर्थ आज भी अपनी वर्षों की गौरव गाथा लिए श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। गुजरात की पावन धरा पर वि.सं. २०४३ में पोष कृष्ण ५ को पुज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं पूज्य मुनि श्री लोकेन्द्रविजयजी म.ने श्री शंखेश्वर की भूमिपर प्रवेश किया। पोष वदि १० के मेले पर सैकडों की जन संख्या में अट्ठम तप की आराधना की हजारों श्रावको का भक्तिभाव अनोखा था। इस अतिशय तीर्थ पर पूज्य मुनिराज द्रय के अन्तरतम में एकभाव उठा कि इस पावन भूमि पर श्री पार्श्व पदमावती शक्ति पीठ की स्थापना करके इस तीर्थ को और भी महिमा मंडित किया जाय। क्यों कि आज जैन समाज में कहीं पर भी श्री पद्मावती देवी का शक्ति पीठ नहीं है। अगर शंखेश्वर में शक्ति पीठ की स्थापना हो तो वीतराग भक्ति के साथ शक्ति उपासना का भी केन्द्र स्थल बन जायेगा। पावन भूमि पर उठे विचारों ने २०४५ में १४ जानवरी १९८९ में साकार रुप करने हेतु जमीन ली गयी। और इन्दापुर तलाशेत में घोषणा की गई। १५ मई १९८९ में वैशाख शक्का १० सोमवार को भूमि पूजन एवं खात मुहूर्त किया गया। देखते ही देखते तीन मंजिला भवन निर्मित हो गया। २०२६ में पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी 'शीतल' म.सा. ने साधना के द्वारा २४ भुजा १२२ अपनी कोई भी वस्तु सर्वश्रेष्ठ हो तो गर्व होना सहज ही है किंतु यह सर्वनाश का कारण भी है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त एकावतारी श्री पद्ममावती देवी के दर्शन हुए। पूज्य श्री ने अपने प्रिय शिष्य मुनि श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी को भी साधना की दृष्टि से .सं २०४० में पालीताणा चातुर्मास के दौरान एक साधना निष्ठ साधक बनाया। पूज्य श्री 'शीतल' के महाप्रयाण के पश्चात साधना से साध्य तक पहुँचने के लिए गतिमान रहे है। आज उनकी ही साधना का प्रतिफल है कि उनके द्वारा लिया गया १०८ महापूजनों का संकल्प पूर्णता की ओर बढ़ रहा है। अतिनिकट समय में ही श्री पार्श्वनाथ प्रभु युक्त २४ भुजाओं से सुशोभित मां भगवाती पद्मावती देवी का नयनाभिराम मंदिर का निर्माण होगा। भोजनशाला, ध्यानकक्ष और मंदिर के भूमि पूजन भी हो चुके है। इतने कम समय में इस संस्था का इतना विराट रुप में विकास होना भी श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु की कृपा का फल है। श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ के नाम से इसका रजिस्ट्रेशन भी हो गया है। और आज विकास के पथ पर प्रगतिशील है। इसके कर्मठ कार्यकर्ता है श्री राजेश सी. जैन, चन्दनमल बी. मुथा, रमेश एस. जैन, डूंगरमलजी दोषी, ओटरमलजी जैन, वीरचन्दभाई के सतत प्रयत्नों से यह शक्ति पीठ एक जैन समाज का एक अनोखा धाम होगा। • जिस जीव की धर्म के प्रति सची भावना हैं उसे धर्म-चर्चा में आनंद ही आनंद दिखाई देता है। जहाँ धर्म चर्चा होती वहाँ मेरे-तेरे का वितण्डवाद नही होता। क्योंकि धर्म एक व्यापक तत्व द्वारा ही अपूर्व ज्ञान प्राप्त कर मुक्ति पथ प्रशस्त होता पर-कल्याण को दृष्टि-ध्यान में रखकर कार्य करने वाले कभी भी पराजय को उपलब्ध नहीं होते। १२३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा सहयोग एवं समाज विकास के लिए बृहत् योजना लेखक - वस्तीमल जी. शाह, जवाली (राज.) श्री पार्थपद्मावती साधार्मिक फाउन्डेशन मानव सेवा का एक उपक्रम सेवा जीवन में सुवास भरती है एवं आत्म-विकास की ओर अग्रसर करती है। साधार्मिक भक्ति एवं सेवा का जैन धर्म में अत्यन्त महत्व बताया गया है। हमारे समाज के स्थिति अत्यन्त विषम है। निम्न मध्यम वर्गीय समाज भीषण महंगायी के कारण आर्थिक संकट मे फँसा हुआ है। अपने स्वाभिमान के कारण किसी के सामने हाथ पसारना पसंद नहीं करता, लेकिन असाध्य खर्चीली बिमारीओं, शिक्षा आदि के लिए निम्न मध्यम वर्गीय समाज के पास साधनों का अभाव है। व्यापार, छोटे उद्योग आदि न रहने के कारण आर्थिक स्थिति दिनोंदिन गिरती जा रही है। बम्बई जैसे महानगर में हमारा समाज झोपडपट्टियों में जीवन आवश्यक सुविधाओं से वांचित ही रहा है। समाज की इस दारुण परिस्थिति को देखकर पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म. एवं मुनि श्री लोकेन्द्रविजयजी म. का हृदय करुणा से भर उठा। उन्होंने निर्णय किया हैं कि साधर्मिक बन्धुओं के उत्थान, विकास रोजगार आदि के लिए समाज के सहयोग से कुछ किया जाय इस भावना का ही मूर्तरुप है " श्री पार्थपद्मावती साधार्मिक फाउन्डेशन' इसकी स्थापना कर ट्रस्ट मण्डल बना दिया गया है एवं २८ अक्टम्बर ९० कार्तिक शुक्ला नवमी को इसका विधिवत् उद्घाटन हो गया। यह ट्रस्ट समाज के दु:खी उन भाईयों के अंधकार भरे जीवन में प्रकाश, आशा एवं आस्था के लिए प्रयत्नशील रहेगा। खर्चीली बिमारीयों जैसे कैंसर, किडनी हार्ट आदि की चिकित्सा में आर्थिक सहयोग, उच्च अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ देना, युवावर्ग को छोटे उद्योगों एवं व्यापार के लिए सहयोग करना। महिलाओं को स्वालम्बि बनाने के लिए सिलाई मशीने उपलब्ध कराना जैसी विविध प्रवृत्तियों का इस ट्रस्ट द्वारा संचालन होगा। यह भी उल्लेखनीय है। कि इस ट्रस्ट में प्राप्त सहयोग राशी उसी वर्ष में खर्च की जावेगी। व्यापार के आधार पर इस ट्रस्ट का संचालन नहीं होगा। बल्की समाज से प्राप्त राशि सीधे जरुरतमंद भाई -बहनों तक पहुँचेगी। जैन समाज "परस्परोग्रही जीवानाम' के सिद्धान्त को मानता है। प्रत्येक प्राणी के प्रति उसके मन में दया, करुणा सेवा भावना है। अपने साधर्मिकों के प्रति तो जैन उदार पूर्वक सहयोग करेगा ही। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस ट्रस्ट को पूरे समाज द्वारा बड़ी राशि सहयोग में प्राप्त होगी। जिससे निम्न मध्यम वर्गीय समाज की सेवा का लाभ मिलेगा। सेवा ही सुगन्ध है, सेवा परम धर्म है और सेवा पुण्योपार्जन का अनुपम साधन है। १२४ वेदना या दुःख का पान करने वले अन्य को वेदना या दुःख दे ही नहीं सकते। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव गम्य अनुभुति- श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन लेखिका - साध्वी रत्नरेखा यह एक सनातन सत्य है कि भक्ति संगीत मानव मात्र को आकर्षित करता रहा है। भक्ति संगीत के अनेक रूप हैं। भक्ति में समर्पण भाव हैं। आत्मीय भावोल्लास को प्रकटीकरण करने का एक अमोघ साधन हैं। साधन ही साध्य तक पहुँचाता हैं। विश्व के प्रत्येक धर्म आम्नाय में भक्ति मार्ग सर्वोच्च रहा हैं। जैन इतिहास में महान आध्यात्म योगी श्री आनंदधन, श्रियानंद और श्री यशोविजयजी जैसे महान तपः पुत आत्माओं ने भक्ति को चरम रूप दिया हैं। श्री आनंदधर्म ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में अलंकृत किया है। शांति जिनेश्वर साहिबा घर आओरे दोला मुझ सरिखी तुज लाख है तु ही मुझ यमोला। उपरोक्त भावों से यही प्रकट होता हैं कि आत्मिय भावों से किया गया अर्पण ही शुद्ध भक्ति हैं। भक्त, भक्ति और भगवान का यह संगम अपूर्व हैं। भक्त जब भक्ति में खो जाता है तभी सोहं की प्रतिध्वनी गुंजीत होती हैं। परमात्म भक्ति के सामर्थ्य से ही श्रीमती ने सांप को फूल की माला के रूप में परिवर्तीत कर दिया। मिरा ने विष को अमृत बना दिया। भक्ति एक परमतत्व हैं। भक्ति की अपूर्व शक्ति आज भी विद्यमान हैं। इसके साक्षात अनुभव का प्रमाण है श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन यह एक आद्यक्रम रहा हैं कि प्रत्येक तिर्थंकर के अधिष्ठायक और अधिष्ठायिका रहे हैं। परमपुरुषायानी श्री पार्श्वनाथ प्रभु को जब कमठ ने भयंकर जल उपसर्ग किया तब श्री धरणेन्द्र एवं श्री पद्मावती माता ने स्वयं अवधि ज्ञान से देखा कि जिस पार्श्वकुमार ने काष्ट मे जलते हुए हमे बचाया था और नमस्कार महामंत्र का श्रवण करने से ही हम पातालवासी के देव-देवी बने हैं। उपकारों को स्मरण करते हुए जल में कमलासन कर नाग का छात्र बनाकर प्रभु सेवा में उपस्थित हुए। श्री पार्श्वनाथ प्रभु को जब केवल ज्ञान और केवल दर्शन उपलब्ध हुए तब श्री पद्मावती देवी अधिष्ठायिका के रूप में एकावतारी, सम्यकत्व धारी जिनशासन रक्षिका के रूप में महिमा मंडित हुई। कालचक्र का यह अनंत प्रवाह अविराम गति लिए प्रवाहित होता रहा हैं। इस बीच अनेक सिद्ध पुरुष हुए। युग श्रमण भगवन्त हुए जिन्होंने आत्मसिद्धी के द्वारा अनेक चमत्कारिक सिध्धियां प्राप्त की हैं। श्रमण भगवंत महावीर की धर्मपरंपरा में भद्रबाहु स्वामी, नवांगी टिकाकार, अभय देव सुरिजि और जिनप्रभ सुरिजी, हरिसुरिजी, श्री हेमचन्द्राचार्य, हरिभद्र सुरिजी हुए हैं जिन्होने अपनी आत्मिय शक्ति या दैविक शक्ति से तत्कालिन समय के सम्राट, बादशाह आदि को तो प्रभावित किया ही है इसी के साथ शक्ति का सम्यक उपयोग जिन शासन की अभूतपूर्व प्रभावनों के लिए किया हैं। इस जगत के आत्मोत्थान के लिए विविध आयोजनों से भारतीय संस्कृति की धर्म प्राण जनता में श्रद्धा रुपी दिए को पज्जवलित कर रखा हैं। नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण है। १२५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम श्रद्धेय 'कोंकण केशरी' पूज्य प्रवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. का जीवन उनके सर्वांगीण व्यक्तित्व की विलक्षण प्रतिभा से आज समग्र जैन समाज भलिभांति परिचित हैं। सरल हृदयी, सौम्य मूर्ति, परम आराधक 'कोंकण केशरी' पूज्य प्रवर की पावन सानिध्यता में हो रहे अनेकानेक पार्श्वपद्मावती महापूजन उनकी अंतरंग साधना का ही एकरूप हैं। विगत दो वर्ष से उनकी पावनीय छत्रछाया में विचरण करते हुए मैंने स्वयं ने इस महापूजन के अनेक चमत्कारों की महिमा देखी भी है और श्रद्धालु भक्तों के मुखों से सूनी भी हैं। गुरु चद्रा धाम श्री मोहन खेडा तीर्थ से २५-११-८८ को विहार महाराष्ट्र प्रदेश के लिए किया। महाराष्ट्र प्रदेश में कल्याण के सन्निकट मोहने नगर में माघ शुक्ला १०, १५ फरवरी १९८९, को यह महापूजन श्री श्रृंखला कोंकण की धरती पर प्रारंभ हुई। यह प्रथम महापूजन आयोजन भी अनूठा था। पूज्य प्रवर श्री पूजन के प्रारंभ से अंत तक एक आसन को धारण किए भक्ति में मग्न हो जाते हैं। महापूजन के दौरान इस महिमा मंडित पूजन की महिमा से श्रावकों को अवगत करवाते हैं। इस प्रथम पूजन की सुगंध की सुवास कोंकण में प्रवाहित हो गयी। प्रथम महापूजन ही इतनी प्रभावक रही कि कर्जत, नेरल, खोपोली, लोनावाला में यह महापूजन हुए। इन महापूजनों में अनेक चमत्कार हुए हैं जो हजारों हजार श्रद्धालू परम गुरु भक्तों ने देखा हैं। आकुर्डी पूना में श्री नगराजजी, चान्दमलजी श्री श्रीमाल परिवार की ओर से यह पूजा आयोजित की गई थी। इस परिवार की कुलदेवी भी श्री पद्मावती देवी ही है। सर्वप्रथम श्री पार्श्वनाथजी प्रभूके पूजन से यह पूजन प्रारंभ होता हैं। इसके बाद माँ भगवती का अष्टप्रकारी पूजन होता हैं। प्रत्येक पूजन १०८ मंत्रों द्वारा किया जाता हैं। अभी जलपूजा की मंत्र ध्वनी गुंजीत हुई ही थी कि जल पूजा के साधकों को माँ का पवन शुरू हो गया। यह भी कितनी चमत्कारिक घटना हैं कि जो भी इस महापूजन में उनके परिवार का कोई भी युगल बैठता तो जोरों से माँ का संचार हो जाता। श्री नगराजजी की माँ जो लगभग ७० वर्ष से भी अधिक वय की थी उन्हें जब पवन का संचार हुआ वह इतना जोशिला था कि १० व्यक्ति उन्हें संभाल नहीं पाए। यह अनोखा अनुभव दृश्य इन महापूजनों के दौरान प्रथम था। यह महापूजन चल ही रहा था कि एक व्यक्ति ने संकल्प लिया कि यदि इस महापूजन में कोई चमत्कार हो तो जिस व्यक्ति को मैं तीन वर्षों से खोज रहा हूँ वह मुझे तीन दिनों में मिल जाय। पाठक वर्ग को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब यह व्यक्ति अपने नगर की ओर जाने के लिए रवाना हुआ और स्टेशन पर पहुँचकर जिस गाड़ी में बैठने के लिए वह उद्धत हुआ तो उसकी दृष्टि उसी व्यक्ति पर जा गिरी जिसे वह तीन वर्षों से खोज रहा था। उसका हृदय श्रद्धा से भर आया। तत्वार्थ सुत्र में कहा है कि तत्वार्थ श्रद्धानां सम्यक दर्शनम परम तत्व पर जो श्रद्धा है वही सम्यक दर्शन हैं। सदर्शन का ही रूप है श्रद्धा। आत्मीय श्रद्धा ही प्रत्येक आत्मा के मनोरथ पूर्ण करती हैं। किसी ने कहा हैं कि "संत की भभूति में चमत्कार का वास हैं" यह मंत्र केवल श्रद्धा का प्रतिक हैं। "विश्वासो फलती सर्वत्र" श्री कृष्ण ने भी कहा है कि 'संशयात्मा विनश्यति" संशय और संदेह से भरी आत्माएँ विनाश को प्राप्त होती हैं और ऐसे व्यक्ति हर क्षेत्र में असफल होते हैं। जयवंता जिन शासन में श्रद्धा को सर्वोच्च रूप दिया हैं। इस महापूजनों में देखा गया १२६ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं कि श्रद्धा के प्रतिफल में भक्त गणों के अनेक महारथ पूर्ण हुए हैं। यह भी एक अद्भूत घटना हैं कि चाकण महाराष्ट्र में श्री खुबीलालजी मदनमलजी मुंडारा वालों की ओर से ९ मई वैशाख शुक्ला पूर्णीमा को श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का आयोजन था । वैशाख पूर्णीमा याने कि ग्रीष्म ऋतु का मौसम । यह महापूजन लाल वस्त्र से बने टेन्ट में हो रहा था। अचानक चाकण नगर में आसमान बादलों से घिर गया। चारों ओर बादलों का घेराव, बिजलीयाँ और आसमान से आती गर्जना ने सबको चमत्कृत कर दिया। देखते ही देखते बादलों ने वर्षा का पानी भर गया। यह तो आप भलिभांति जान सकते है कि वर्षा को रोकने की ताकत कपडे से बने टेन्ट में कितनी होती हैं। १ हजार से भी अधिक जनसंख्या इस पूजा में सम्मिलित थी। संपूर्ण भीड पानी की परवाह किए बिना मंत्र धुनों में मग्न थी। सबसे अधिक चमत्कारिक बात तो यह थी कि इतनी वर्षा में भी एक बूंद पानी भी माँ भगवती पद्मावती देवी के मांडले में नहीं गया, दिये लजते रहे, भावनाओं का दीप भी भक्ता गणों में प्रज्जवलित हो उठा था। खोपोली में ५० वर्षो के बाद विराट महोत्सव का आयोजन हुआ। कर्जत, अलीबाग आदि में जिनमंदिरो का कार्य अनेक वाद-विवादों के बावजूद होना भी माँ भगवती के आशीर्वाद का ही एक प्रतिक हैं 1 पूज्य प्रवर की पावन निश्रा में ६५ महापूजनों के आयोजन हो चुके हैं। जो कि समग्र जैन समाज एक मिशाल हैं। उनकी यह पवित्र भावना हैं कि जैन समाज के हमारे चातक वीतराग देव की प्रति श्रद्धान्वित होकर ही मनोरथ पूर्ण करे। हम अन्य स्थलों पर न भटकते हुए जिन शासन के अनुरागी बनकर अनन्य शक्ति से परिचित हों। पूज्य प्रवर का जीवन तो सार्वभौम हैं। किसी ने कहा है कि सूर्य को ढँकने का प्रयत्न व्यर्थ हैं। आसमां पर थुंका, खुद अपने मुंह पर आता हैं। चारण की विरूद्धावली या चुगलखोर की निन्दा से मानव का मूल्य नहीं आंका जाता I सबकी पीडा के साथ व्यथा अपने मन की जो जोड सके मुड सके जहाँ तक समय, उसे निर्दिष्ट दिशा में मोड सके, युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता हैं। सबके मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता हैं। श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन से आपने अनेकों व्यक्तियों को नई रोशनी, नई दिशा में प्रदान की हैं। इस महापूजन के अनेक चमत्कारों से में स्वयं प्रभावित हुई हूं। कोंकण प्रदेश और महाराष्ट्र की भूमि पर अनेकों महापूजन हो चुके हैं। जो श्रद्धा, भक्ति और पूज्य प्रवर की प्रभाविकता का परिचायक हैं। पल-पल जो जागृत रहे, यह साधु । निद्रा में भी जो जागृत हो, वह साधु । For Private Personal Use Only १२७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दिक्षादाता गुरुवर्य - लेखिका-साध्वी कल्पदर्शिता श्रमण भगवंत महावीरने आरचारंग सुत्र में कहा है कि जब तक जिवात्मा द्रव्य या भाव से चारित्र ग्रहण नहीं करता है तब तक वह भवोदधि से पार नहीं हो सकता। इतिहास साक्षि है कि मरूदेवी माताने भाव चारित्र को अंगीकार करके तत भव मोक्ष प्राप्त की है। भिरवारी के भव में द्रव्य चारित्र को स्वीकार करने वाला व्यक्ति आगामी भव में जैन जगत की महति प्रभावना राजा संत्रति ने की है। जैन जगत के उज्जवल इतिहास में अनेको पवित्र आत्माओं ने संयम जीवन को अपनाकर भवतारिणी भगवती दीक्षा अंगीकार की है। पूर्वभव के प्रबल पूण्योदय का संयोग था कि मुझे बाल्यकाल से ही श्रमणीतर्या साध्वी पुष्पाश्रीजी, साध्वी हेमप्रभाश्रीजी, की पावनीय सेवा में ज्ञानाभ्यास करने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ। अध्ययन के साथ ही मेरी संयम भावना विकसीत होती गयी। अंतत: मेरी यह भावना २०४६ का चातुर्मास कल्याण में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी तथा श्री लोकेन्द्र विजयजी के सतत आध्यात्मिक प्रवचनों में विशेष तोर से मेरे वैराग्य भावों में अभिवृद्धि की है। जनता जनार्दन के विचारों से मेरी आयु कम थी परन्तु प्रज्ञावात पुरुषों ने कहा कि शुभ विचारों का आचरण शिघ्र ही करना चाहिए और अशुभ विचारों को क्रियान्वयन करने में जितनी देरी कर सके करें। उपरोक्त विचार ही मेरे वैराग्य जीवन का आदर्श रहा हैं। पूर्व में भी कम आयु में वज्रबाहु स्वामी, अहम्रत्ता मुनियों के उदाहरण आज भी हमें गौरवान्वित करते हैं। यह भी एक वास्तविक तथ्य हैं कि बाल्यावस्था में संयम गृहण करने वाले साधक पुरुष इस जगत की आत्मोत्थान के लिए प्रगतिशील रहे हैं। मुझे मेरी आत्मा संयम के लिए पुकार रही थी। मैने आत्मनिश्चय किया कि चातुर्मास की पूर्णाहति के साथ ही मुझे अत्याबाध रुप से संयम पथ का राही बनना है। पूज्य मुनिद्वय के पावनीय आशिर्वाद से मेरी भावना फलवती बनी और वह दिन भी मेरे लिए धन्य हो गया जब मुझे मार्गशिर्ष कृष्ण-५ शुक्रवार १७ नवम्बर १९८९ के शुभमुहूर्त की घोषणा की। राजस्थान जैन संघ के तत्वावधानता में यह आयोजन करने का शुभ निर्णय भी लिया गया। ___ कल्याण नगर में मागसर वद ५ को मेरा दिक्षा समारोह अपने आप में अनुठा था। हजारों जन की उपस्थिती में मैं साध्वी कल्पदर्शिता के रुप में घोषित हुई। जय-जयकार की जय ध्वनि में मुझे अपने कर्तव्य का बोध हुआ कि जैन समाज में ज्ञान, ध्यान और तप संयम के द्वारा मुझे जन-जन की सेवा करनी है। उसी आत्मनिश्चय से मैं ज्ञानाभ्यास कर रही हूँ। पूज्यवरों की सतत् मार्गदर्शन और प्रेरणा अस्खलित रुप से मुझे प्राप्त हो रही हैं। मेरे दिक्षा दाता पूज्य 'कोंकण केशरी' मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी के कर कमलों में वन्दना करती हुई उनके अहर्निष उपकारों के प्रति भाव श्रद्धा से श्रद्धान्वित होकर कलम को विराम देती हूँ। १२८ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संत का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम कदम पर पुष्प खिले है महाराष्ट्र की पावन धरा पर पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. ने दो वर्षो में समस्त महाराष्ट्र प्रदेश में धर्म क्रान्ति का शंखनाद कर अभिनव कीर्तिमान स्थापित किया है। जिसकी झलक की है ये रंगीन चित्रावली श्री मोहन खेडा तीर्थ से वि.सं. २०४५ मागशिर्ष कृष्णा २ दिनांक २५ नवम्बर १९८८ को महाराष्ट्र की भूमी पर विचरण करने हेतु गुरुदेव का परम आशिर्वाद प्राप्त कर शुभ संकल्प के धनी पूज्य मुनिराज श्री लेवेन्द्र शेखर विजयजी "शार्दूल" मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोंकण इन्दापूर गुरु जयन्ती महोत्सव की झलक १४ जनवरी १९८९ शुक्ला ७ शनिवार प्रातः स्मरणीय प्रभु श्री मन्दि जय राजेन्द्र विरजी म.सा के चरण त्रिस्तुतिको कोटी कोटी वंदना | मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. गुणानुवाद सभा को सम्बोधित करते हुए । श्री गुरु पर्वोत्सव के आयोजक श्री दलिचंदजी मियाचन्दजी वेडया फतापुरा • विचार विमर्श करते हुए मंगलन 285288 मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. गुरु जीवन पर प्रकाश डालते हुए। गुरु जयन्ती पर्वोत्सव पर विशाल जन समूह 200 गुरु जयन्ती के आयोजक श्री कावेडिया परिवार रथ यात्रा में गुरूदेव का चित्र लेकर बैठे हुए) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 मोहने कल्याण में प्रभु श्री अजितनाथ भगवान व श्री राजेन्द्र सूरी प्रतिष्ठा महोत्सव प्रतिष्ठा के समय वासक्षेप करते हुए पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्र विजयजी म.सा. श्री चन्दनमलजी मुथा, चम्पालालजी मुथा मंदीर ध्वजा चढ़ाते हुए श्री अजितनाथ भगवान की मूर्ति की स्थापना करते हुए श्री चम्पालालजी मुथा और उनकी धर्मपत्नी श्री चन्दनमलजी जोधाजी और उनकी धर्मपत्नी गुरुदेव की मूर्ति स्थापना करते हुए। प्रभु श्री अजितनाथ भगवान एवं गुरूदेव राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के मन्दिर का निर्माण करवाया उनका मोहने जैन संघ अभिनन्दन पत्र प्रदान करते हुए, श्री पुखराजजी भगवानजी परिवार (आहोर) राजस्थान SHASHTHHTHHHHHHITRIE Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्जत महाराष्ट्र में मंगल प्रवेश एवं परम पूज्य मुनिराज श्रमण सूर्य श्री लक्ष्मण विजयजी म.सा के पंचम पुण्यतिथी समारोह परिवान श्रेडिमेडस्टोअर्स कर्जत में प्रथम प्रवेश का दृश्य गुरुदेव का चित्र लेकर बैठे हुए श्री शान्तिलालजी बाबुलालजी बडगांववाले हाथी पर परम पू. मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी म.सा. का खुली जीप में फोटो लेकर शोभा यात्रा पूनम साडी सेन्टर भव्य शोभा यात्रा पुण्यतिथी समारोह के अवसर पर जैन भिक्षक रंग विजयजी की प्रथम पुण्यतिथी के अवसर पर भव्य शोभायात्रा Seational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાહ સુધા नेरल प्रतिष्ठा महोत्सव निवासी विपिनारा જય ધકર આ.શ્રી સુચીત સુરીજી મંસાની આ ઈછત શિશ पूर्णरतिनिि સાજીયાવાલા તરી A MILE International नेरल नगर में मुलनायक मुनि सुव्रत स्वामी भगवान पू. मुनिराज लेखेन्द्र शेखर विजयजी का शा. वीरचन्दजी आईदानमलजी परिवार काम्बली ओढाते हुए रमलजी हजारीमत आप जहा ज्यान जिनद्वार पर तोरण मारते हुए श्री ओटरमलजी हंजारीमलजी 1000 जिन मन्दिर पर ध्वजा रोपण करते हुए शा. वीरचंदजी आईदानमलजी परिवार श्री जवेरचन्दजी टेकचन्दजी, श्रीश्रीमाल द्वारा महापूजन का कल्याण में भव्य आयोजन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण चातुर्मास कल्याण चातुर्मास प्रवेश का दृश्य चातुर्मास आयोजक श्रीमान छोगमलजी उमेदमलजी पुखराजजी श्रीश्रीमाल परिवार लोनावला जैन संगीत मण्डल विका लिड. A जैन संगीत मण्डल लोनावला द्वारा आयोजीत श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन के विराट आयोजन का भव्य दृश्य Jai E c h International www.jainelibrary.od Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण महाराष्ट्र में कुमारी रिम्पल की भव्य भागवती दीक्षा महोत्सव वरसीदान करती हुई कु. रिम्पल संयम ग्रहण करते ही पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्र विजयजी द्वारा प्रथम वासक्षेप करते हुए मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी कुमारी रिम्पल को दीक्षा क्रिया विधि कराते हुए A समस्त श्रमणवृंद नूतन साध्वी कल्पदर्शिताश्री को वासक्षेप करते हुए शा. फुटरमलजी सेनाजी द्वारा इन्दापुर तलाशेत में श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का एक दृश्य For Private Personal use only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहोपाडा रसायनी श्री आदिनाथ जिन बिम्ब एवं प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी प्रतिष्ठा महोत्सव श्री आदिनाथ प्रभु प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सुरीश्वरजी म.सा. श्री हिराचन्दजी कोटड़ीया परिवार शोभा यात्रा का एक दृश्य शा. प्रकाशचन्दजी बाबुलालजी जिन मन्दिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ाते हुए। A Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. गुरुमूर्ति स्थापना के समय का एक दृश्य कामाठीपुरा बम्बई में प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरु मूर्ति प्रतिष्ठा महोत्सव www.w महेन्द्र श्री. जी आ. आदि आया यहाँ चातुर्मास विरा श्री नमि गुरु राजेन चाकरा नि पारसमल मुनिराज श्री को शा. डुंगरमलजी सरेमलजी दोशी काम्बली ओढ़ाते हुए पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी गुरुमूर्ति स्थापना से पूर्व संचालन करते हुए भव्य रथयात्रा का एक विहंगम दृश्य प्रतिष्ठा समय पर उपस्थित श्रमणी वृन्द Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातपटनादतासा रन्जिी म.सा. श्री पार्श्व पद्मावती साधर्मिक फाउन्डेशन के उद्घाटन के समय का एक दश्य श्री पार्श्व पद्मावती गीत गुंजन के ऑडियो केसेट का उद्घाटन करते हुए श्री हिराचन्दजी भगवानजी एवं श्री तिलोकचन्दजी पटियात व श्री अमृतलालजी श्रीश्रीमाल दृष्टीगोचर हो रहे हैं गुरु लक्ष्मण धाम भागली प्याउ पर निर्मित विशाल धर्मशाला का एक दृश्य देवगुरु और धर्म के परम भक्त श्रमणोपासक घाणेराव (राज.) निवासी अन्य श्रद्धान्वित गुरु भक्त श्री दानवीर शेठ स्व. देवराजजी मोहनलालजी गुन्देचा श्रीमती मेथीबाई देवराजजी गुन्देचा श्री उमरावमलजी मोहनलालजी गुन्देचा श्रीमति मदनबाई उमरावचन्दजी गुन्देचा GO Jen mational www.jairioinerary. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोंकण केशरी पद प्रदान समारोह की झलक मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी को परम गुरुभक्त पोसालिया निवासी श्रीमान धनराजजी राजमलजी सुमेरपुरवाले, कोंकण केशरी पद प्रदान की कामली ओढ़ाते हुए स्मरणी गुरुजयन्ति एवं पा (प्राना स्मरणीयपूज्यगर जूरीश्वरजी म.सा.गुरुजयन्ति या तक के शी पद स्तर कोंकण केशरी पद ग्रहण करते ही प्रथम गुरू पूजन करते हुए सेठ सायरमलजी माणकचन्दजी-भीनमाल टपटानराकर फरेवी मदिवलेन्द्र वत्सव एवं मोहने जैन संघ द्वारा अभिनन्दन पत्र प्रदान करने का एक दृश्य कोंकण केशरी पद ग्रहण करते ही विशाल जन सभा को संबोधित करते हुए gau tos interlonal Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारुजय माना स्मर रजीमा Ma पूज्य मुनिद्रय के पिता श्रीमान मोतीलालजी गुगलिया एवं मातुश्री कमलाबाई मुनिवर्य श्री लोकेन्द्र विजयजी को कामली ओढ़ाते हुए श्रीमान राजेशभाई चुन्नीलालजी अलीराजपुरबडौदा श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन के आयोजक श्री जुहारमलजी एवं उनकी धर्मपत्नी दिखायी दे रहे है। श्रीमान अमीचन्दजी हंजारीमलजी मोहने जैन संघ से १२ जनवरी १९९२ की गुरू जयन्ती का आदेश प्राप्त करते हुए। मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी सभाका सफल संचालन करते हुए। गुरुजया शाना स्मरण श्विरजी म.सा. तल्या केशी dreal Education International Dralso Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. कोंकण केशरी मुनिराजजी लेखेन्द्र शेखर विजयजी अभिनन्दन ग्रन्थ प्रधान संपादिका: साध्वी पुष्पाश्रीजी दिशा निर्देश: मुनिराज लोकेन्द्र विजयजी संयोजक : चन्दनमल बी. मुथा संपादिका: साध्वी तरुण प्रभाश्री धर्मयात्रा वृतांत के लेखक एवं विशेष सहयोगी श्री पुखराज एस. जैन-कल्याण Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन तीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री धनराजजी श्री पार्थपद्मावती शक्तिपीठ गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र के पदाधिकारी श्री राजेश सी. जैन अध्यक्ष श्री चन्दनमलजी मुथा कोषाध्यक्ष डुंगरमलजी दोषी वीरचंदजी ओटरमलजी एस. जैन कल्याण श्री पार्धपद्मावती साधर्मीक फाउन्डेशन रमेश अमीचंद रांका बस्तीमलजी शाह जवाली, अध्यक्ष भगराजजी जैन जवाली साकलचन्दजी भास्कर आहोर कल्याण शाह फुटरमल सेहनाजी कोंकण यात्रा के विशेष सहयोगी J u ne rational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान भंवरलालजी भगवानजी जैन श्रीमान भंवरलालजी का जीवन त्यागमय आदर्शो का रहा है, जिन्होंने जीवन पर्यन्त सादगी और सदाचार को ही आत्मसात किया है। और आत्म साधना के साथ ही श्री तालनपुर तीर्थ विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। तालनपुर तीर्थ ने जितना भी विकास किया है, उसके पीछे आपका योगदान व प्रेरणा रही है। आज भी आपका परिवार पिता के बताये गये आदर्शो पर चलकर निरन्तर समाज सेवा एवं तीर्थ सेवा कर रहे है। उनके सुपुत्र क्रमश: श्री आनन्दीलालजी कमलचन्दजी, रमेशकुमार की और से प्रतिवर्ष पोष वद १० एवं कुक्षी में चैत्र शुक्ला १३ को स्वामी वात्सल्य का आयोजन होता है। श्री भंवरलालजी के ही सद्प्रयत्नों से श्री आदिनाथ जिन मन्दिर एवं श्री गौडी पार्श्वनाथ जिन मन्दिर का जिर्णोध्दार हो चूका है। और आज वर्तमान में उनके सुपुत्र एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमति हरखुबाई भंवरलालजी की धर्म भावना के लिए तीर्थ के विकास में प्रगतिशील है। निम्बाड़ क्षेत्र में श्री भंवरलालजी का व्यक्तित्व कृतत्त्व कि एक अमर देन देकर महाप्रयाण कर गये। Inimational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प.पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. का गोरेगांव चातुर्मास के अवसर पर श्रीमति शकुन्तला मोहनलालजी बागरा (राज.) ने मासक्षमण की महा तपस्या की उस अवसर पर बृहत् शांति स्नात्र महापुजन श्री पार्श्व पद्मावती महापुजन सह पंचान्हिका महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया था। प. पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. श्रीमति शकुन्तला बहन का वासक्षेप करते हुए। श्री पार्श्वपद्मावती महापुजन के अवसर पर श्री पुखराजजी शंकरलालजी एवं पुखराजजी की धर्मपत्नी, मां भगवती पद्मावती का पुजन करते हुए । गोरेगांव चातुर्मास श्रीमति शकुन्तला बहन मोहनलालजीने मासक्षमण एक महा के ऊपवास किये। एवं दमयन्ती बहन गणेशमलजीने १५ उपवास की तपस्या की। दोनों तपस्वीनी साथमें - श्री मोहनलालजी एवं उनकी धर्मपत्नी महापुजन में प्रवेश करते हुए । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कामशेत महा. में पुण्यतिथि समारोह प.पू. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. की षष्टम पुण्यतिथि समारोहका आयोजन श्री सुकनराजजी आदा जी बाफना की ओर से किया गया। शउबरपर्बलावावलम) श्रीरजेन्द्र देवयनमः श्रीराजेन्द्र आराग्यधाम काल महाराष्ट्रो श्री सुकनराजजी बाफना एवं उनकी धर्मपत्नी कंगनबाई गुरुदेव का चित्र लेकर रथ में बैठे हुए। आरोग्य धाम का उद्घाटन करते हुए आरोग्य धाम के अध्यक्ष श्री सुकनराजजी भव्य जल समारोह का परिदृश्य श्री पार्थपद्मावती महापुजन का विराट आयोजन पुण्यतिथि समारोह एवं कल्पतरु भवन के उपलक्ष में किया गया है प.पू. 'कोंकण केशरी' मुनीराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा., प.पू. ज्योतिष रत्न मुनीराज श्री लोकेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. जयंत प्रिन्टरी में श्री छोटुभाई के साथ अभिनंदन ग्रंथ की चर्चा करते हुए Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटुंगा महापुजन श्री मुलचंदजी शाह परिवार की ओर से श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन का विराट आयोजन किया गया। श्री चम्पाबाई, पुत्र फतेचंदजी, मां भगवती की पुजा करते हुए श्री पार्श्वपद्मावती साधर्मिक फाऊन्डेशन के उपाध्यक्ष श्री धीसुलालजी जवालीवाले, कमल ज्वेलर्स थाना national श्री यतीन्द्रसुरि साहित्य प्रकाशन मंदीर ट्रस्ट अध्यक्ष जयन्तीलालजी जैन आलीराजपुर जिन्होने परम पूज्य कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. की सानिध्यतामें श्री पार्श्वपद्मावती महापुजन का विराट आयोजन प्राधिकरण पुना में स्वयं के निवास स्थान पर करवाया था। श्री नगराजजी चांदमलजी श्रीश्रीमाल घाणेराव (राज.) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न लाक्षणिक मुद्राओं में प.पू. कोंकण केशरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. Jal Ed i tional Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राओं में प.पू. मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म.सा. aino stesconal Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिनन्दन गन्थ विमोचन कर्ता शा. भंवरलालजी जावंतराजजी पुनमिया घाणेराव (राज.) निवासी श्री भंवरलालजी जावंतराजजी पुनमिया जैन समाज में उज्ज्वल नक्षत्र के रुप में है। जिन्होंने अपने बहुंमुखी व्यक्तित्व से धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक विकास में सक्रिय सहयोग प्रदान कर विकसित किया है। मानविय जन सेवा में भी सदा अग्रशील रहे हैं। गोडवाड़ क्षेत्र का सुप्रसिद्ध तिर्थस्थल अभिनव नाकोड़ा पार्श्वनाथ कीर्ति स्थंभ के नव निर्माण में अभूतपूर्व सेवाएँ अर्पित की हैं। उस संस्था के आप श्री उपाध्यक्ष कोषाध्यक्ष पदों पर रहकर के चहुंमुखी विकास किया है। और वर्तमान में इस संस्था के चेयरमेन हैं। बम्बई दागिना बाजार में आप श्री की १६५ वर्ष पूर्व की चेनाजी नरसींगजी नामकी सबसे पुरानी पेढी है। और एक सफल व्यापारी के रुप में भी आपने यश: कीर्ति प्राप्त की है। SHEELHILHHHHHHHHI बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न जिन शासन श्रमणोपासक श्री भंवरलालजी पुनमिया के करकमलों द्वारा कोंकण केशरी अभिन्दन ग्रन्थ का विमोचन चैत्र वद ९ रविवार १० मार्च १९९१ को हजारों की जन मेदिनी की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। -: फर्म :-- चेनाजी नरसींगजी १२२ मुम्बादेवी रोड, दु. - ७. बम्बई - ४०० ००२. फोन - ३२९५४४ - ३४६८४७ विपुल ज्वेलर्स दु. - ३ चोकसी चेम्बर, पहली ११वी लेन, जवेरी बाजार, बम्बई-४०० ००२. फोन - ३३०२२५. logeternal Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অনিকলে অe तृतीय खण्ड जैनागम विषयों एवं वर्तमान संदर्भ में विविध रचनाएँ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान : आत्मा का गुण भी, स्वरुप भी - उपाध्याय अमरमुनि शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया-'आत्मा का स्वरूप क्या है?' गुरु ने तत्व ज्ञान की गंभीर गांठ खोलते हुए बताया-ज्ञानमयो हि आत्मा-आत्मा ज्ञानमय है। ज्ञान ही उसका स्वरुप है, ज्ञान ही उसका गुण है। तात्पर्य यह हुआ, कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव वस्तु से दूर नहीं होता। जैसे ताप अग्नि से अलग नहीं रह सकता, प्रकाश सूर्य से भिन्न नहीं हो सकता। कोई कहे अग्नि तो है, पर उष्ण नहीं है, सूर्य आकाश में चमक तो रहा है, पर अभी तक अंधकार छाया हुआ है यह बात नितान्त गलत है। स्वभाव कभी है कभी नहीं, यह नहीं हो सकता। स्वभाव तो सर्व काल और सर्वदेश में समान रुप से रहता है। गुरु ने जब कहा-'ज्ञानमयो हि आत्मा' तो एक नया प्रश्न और खड़ा हो गया? जब ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, तो फिर एकेन्द्रिय और निगोद अवस्था में आत्मा जड़वत् ज्ञान-शून्य क्यों प्रतीत होता है? न उस में कुछ संवेदनशीलता प्रतीत होती है और न सुख-दु:ख के प्रति चंचल चेतना। यह शून्यता और स्थिरता ज्ञान का अभाव प्रकट नहीं करती है? प्रश्न का समाधान देते हुए कहा गया है-चेतना प्रत्येक आत्मा में समान रुप से होते हुए भी कर्म के आवरण के कारण किसी में कम विकसीत प्रतीत होती है, और किसी में अधिक। सर्वज्ञ आत्मा में वह चैतन्य रुप विकसित होता है। ज्ञान की शक्ति को आच्छादित करने वाले आवरण को ज्ञानावरण कहते हैं। 'ज्ञानावरण की व्याख्या समझने पर उक्त-प्रश्न का स्वयं समाधान हो जाएगा। 'ज्ञानावरण' का अर्थ अज्ञान या ज्ञानाभाव नहीं है। क्योकि जो आज ज्ञान नहीं है, वह पहले न अनन्त भूत में कभी ज्ञान था और न अनन्त भविष्य में कभी ज्ञान हो सकेगा। अत: जब कर्मो का नामकरण करने का प्रश्न आया, तो उन्होंने चेतना के अर्ध विकास को ज्ञानाभाव नहीं बताया, पर 'ज्ञानावरण-ज्ञान का आच्छादन बताया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण दो कर्म हैं और उसका अर्थ -ज्ञान तो है, पर उसके ऊपर एक आवरण आया हुआ है। दर्शन तो है, पर उसके ऊपर एक आवरण आ गया है। 'आवरण' आ गया इसका अर्थ है, कि आवरण भी एक वस्तु है, वस्तु भी एक सत्ता है, एक शक्ति है। किसी वस्तु को मुट्ठी में बन्द करके कहा जाए कि उसको बन्द कर दिया है। वस्तु पर एक ढक्कन या वस्त्र डालकर कहा जाए, कि उस पर आवरण डाल दिया है। यह शब्द ध्वनित करता है, कि जो शक्ति है, एक सत्ता है, वह तो विद्यमान है, उसका नाश नहीं हुआ है, किन्तु उसे आवृत कर दिया गया है। 'आवरण' शब्द को व्याकरण की दृष्टि से देखेंगे, तो यह स्पष्ट हो जाएगा - वस्तु जो एक शक्ति या सत्ता है, उसके चारों ओर एक आच्छादन-ढक्कन डाल दिया गया है। उसके मुँह पर पर्दा डाल दिया गया है। नाश और विलय-वस्तु के अभाव का द्योतक है, वस्तु की सत्ता की अस्वीकृति है। किन्तु आवरण के उच्चारण में-'वस्तु की सत्ता का स्वीकार है; इन्कार नहीं, इकरार है। बादल आकाश में मंडरा रहे है, काली - काली घटाएँ छा रही हैं और विस्तृत होती हुई पूरे नीले आसमान को ढंक लेती हैं। सूर्य भी उसके अंचल में छिप जाता है, बादलों की काली-नीली चादर ने उसको आच्छादित कर लिया है। किन्तु, बादलों के इस आवरण का अभिप्राय यह तो नहीं है, कि सूर्य ही समाप्त हो गया। सूर्य विद्यमान है, उसका कसौटी पर कसे जाने का भाग्य कुंदन को ही मिलता है, कथिल को नही। १८७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश भी बिखर रहा है, पर बादलों ने उसे आवृत कर लिया है। बादल, बादल है। आवरण, आवरण है। आवरण वस्तु के स्वरुप को ढंक सकता है, पर उसे मिटा नहीं सकता। वह वस्तु की सत्ता का विनाश नहीं कर सकता। कल्पना कीजिए घर में दीपक जल रहा है और जलते हुए दीपक पर यदि ढक्कन रख दें, आवरण कर दें, तो इसका अर्थ हुआ दीपक का प्रकाश गायब हो गया। घर में अंधेर घुप्प हो गया। समूचा घर अन्धकार में डूब गया। अपने हाथ से रखी हुई वस्तु का भी आपको पता नहीं चल रहा है, कि वह कहाँ रखी है? और उस अंधकार में कहीं घुस-पुस हो जाए, चोर-चोर की आवाज लग जाए, तो सभी लोग उठकर इधर-उधर दौडते हुए परस्पर एक दूसरे से टकरा जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को चोर-चोर कह कर भिड़ पड़ते है, एक-दूसरे का सिर फोड़ने लगते है। क्योंकि उन्हें अपने-पराये का, चोर और साहूकार का क्या पता चलेगा अंधकार में? इसलिए वे एक-दूसरे को पहचान नहीं पा रहे है, परस्पर में टकरा रहे हैं। यह सब क्यों हो रहा है? क्या दीपक का प्रकाश समाप्त हो गया? ज्योति विलीन हो गई? ऐसा तो नहीं हुआ। दीपक का प्रकाश ढक्कन के अन्दर में तो जगमगा रहा है। उसकी ज्योति जल रही है। फिर अन्धकार क्यों हुआ? दीपक है, प्रकाश भी है, फिर भी अन्धकार है? दीपक जल रहा है, पर अन्धकार छाया हुआ है। कैसी विचित्र पहेली है? । आवरण हटा, प्रकाश मिला भारत का दर्शन और चिन्तन इस पहेली को ऐसे सुलझाता है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा में एक अखण्ड ज्योति जल रही है। वह आत्मा कहीं भी, किसी भी स्थिति में है-चाहे निगोद में हो, एकेन्द्रिय आदि योनि में हो, नरक या तिर्यञ्च गति में हो, सर्वत्र वह प्रकाशमान है, उसकी ज्योति जगमगा रही है, किन्तु उस पर काम, क्रोध, मद अहंकार आदि विकारों का आवरण छा गया है। कहीं पर आवरण गहरा छा रहा है। और कहीं पर झीना, दूधिया। जहाँ-जहाँ जैसा आवरण है, वहाँ अन्दर दीपक के जलते हुए भी बाहर में अन्धकार परिलक्षित होता है। यह आत्मा आवरण, ढक्कन से ढका हुआ दीपक है, घटाओं से घिरा हुआ सूर्य है। आवरण हटने के लिए है, घटाएँ नष्ट एवं विलीन होने के लिए है, किन्तु तुम्हारे दीपक-सूर्य का अस्तित्व नष्ट होने के लिए नहीं है। आवरण जो आया है, वह जाएगा। आत्मा की सत्ता को, अस्तित्व को जिसने ढक रखा है, वह उससे उन्मुक्त होगी, स्वतंत्र होगी और उस पर आया हुआ कर्म आवरण समाप्त होगा। आत्मा स्वर्ग में गया तब भी वह दीपक जलता रहा और नरक में गया तब भी। आवरण आते रहे, हटते रहे, कम या अधिक होते रहे और ज्योति जलती रही। जब आवरण कमजोर हो गए, तो उसके भीतर से प्रकाश छन कर आने लगा, आवरण कुछ गहरे हो गए तो प्रकाश का छनना भी कम हो गया। ज्ञान की तरतमता आवरण की तरतमता यानी सघनता और विरलता पर निर्भर करती है। प्रगाढ आवरणों के नीचे भी वह ज्योति जलती रही, नष्ट नहीं हुइ। कल्पना करो, यदि एक क्षण के लिए भी वह ज्योति बुझ गई, तो फिर उसका प्रकाश समाप्त हो जाएगा। फिर वह ज्ञान, ज्ञानावरण से आवृत्त नहीं रहेगा, किन्तु ज्ञानाभाव हो जाएगा। चेतना, चेतन नहीं रह कर, जड हो जाएगा। पर यह स्थिति आज तक न कभी आई है, और न कभी आएगी। १८८ तन-मन और प्राण की एकाग्रता से जो साधक साधना करता है उसे जगत में कोई वस्तु अप्राप्य वस्तु नहीं है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म से कर्म की गाँठ: बोल-चाल की भाषा में हम कहते आए है, कि ज्ञान प्राप्त करो। पर यह भाषा दर्शन की भाषा नहीं है। प्राप्ति का अर्थ 'अप्राप्तस्यार्थस्य उपलब्धि: प्राप्ति:' जो आज तक प्राप्त नहीं हुआ है, मिला नहीं, उसकी उपलब्धि प्राप्ति कही जाती है। परन्तु जो वस्तु अपने पास है, उसकी प्राप्ति कैसी? दर्शन-शास्त्र की दृष्टि से विचार करेगें तो 'ज्ञान-प्राप्ति' इस शब्द का कोई अर्थ नहीं है, भारतीय-दर्शन में उस प्राप्ति का कोई स्थान नहीं है। जो अपने अन्दर में है उसको क्या प्राप्त किया जाए, वह तो प्राप्त है ही। जो दूसरा है, पर है, अपने से भिन्न है उसको पाया जाता है, प्राप्त किया जाता है। परन्तु स्वयं की कैसी प्राप्ति? कोई व्यक्ती इधर उधर नजर दौडाता हुआ कुछ ढूँढ रहा है, तलाश कर रहा है। लोग पूछते हैं-बाबा! क्यां खोज रहे हो? तो वह कहे कि अपने आपको खोज रहा हूँ तो लोग हसेगें की यह पागल हो गया है। इसे पागल के अस्पतालों में भेजो। आगरा या राँची ले जाओ-| इसका दिमाग बिगड गया है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, वह आत्मा में विद्यमान है। उसकी प्राप्ति जैसी कोई बात नहीं है। जो वस्तु प्राप्त की जाए वह अपनी नही होती, उधार की हुई होती है, पराई होती है। ज्ञान तो आत्मा का निज स्वरुप है। आत्मा ही ज्ञानमय है। अत: उसकी प्राप्ति नहीं होती। प्रश्न होता है- जब 'प्राप्ति' शब्द के साथ इतना वितर्क जुड़ा हुआ है, तो फिर उसे क्या कहा जाए? बात यह है कि ज्ञान की प्राप्ति नहीं, किन्तु जागति होती है। वह प्रगट या प्रकाशित किया जाता है। यों तो शब्दों का चक्कर है। इस चक्कर से बचकर ही चलना पडता है, पर जब गहराई से चक्कर को भी समझने की बात करते है, तो यह सब विश्लेषण किया जाता है, कि प्रकाश अन्दर में विद्यमान है, और जिस पर आवरण छा गया है, उस आवरण को हटा कर फैंकना है। शास्त्र कहते हैं-तू प्रकाशमान है, अखण्ड जोतिर्मय है, सचिदानन्द रुप है। कितने ही प्रगाढ़ आवरण छा जाएँ, पर तेरा प्रकाश पूर्णत: कभी लुप्त नहीं हो सकता। प्रकाश का ज्योति-मण्डल सिमट सकता है, परंतु मिट नहीं सकता। किसी भी आवरण में उसे मिटाने की क्षमता नहीं है। अन्धकार जो छाया हुआ लगता है, वह आवरणों के कारण है। आवरण हटे कि तू स्वयं प्रकाशमय दिखाई पडेगा। आवरण क्या है, वस्तुत: आवरण कर्म-बन्धन है। आत्मा के ऊपर कर्म का एक पर्दा है। प्रश्न यह है कि आवरण या बन्धन किसको होता है? बोल-चाल की भाषा में हम कह देतें हैं, कि आत्मा को कर्म लग गए हैं। परंतु तात्विक दृष्टि से यह भाषा भी अशुद्ध है। कर्म को ही कर्म लगते है, आवरण पर ही आवरण चढता है। आत्मा का जो अपना रुप है, जिसे हम आत्म-द्रव्य कहतें है, वह तो शुद्ध निर्विकार है. चिदानन्द स्वरुप है। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, अन्तर नहीं पड़ता। फिर कर्म कहाँ लगते हैं? तथ्य यह हैं, कि आत्मा की भाँति कर्म भी अनादि है। नये कर्म आते है, पुराने चले जाते हैं। ये पुराने-नये कर्म जब आत्मा के साथ नहीं बन्धते, तो फिर वे कहाँ रहते हैं, उनका आधार क्या है? यह भी एक प्रश्न है? कर्म, कार्मण शरीर के साथ रहते है। कार्मण शरीर के साथ उनका सम्बन्ध रहता है। कार्मण शरीर का अर्थ हैं - कर्मों का पुञ्ज। पुराने कर्म अपना फल दे कर या साधना के द्वारा कार्मण शरीर से हट जाते हैं और नये कर्म उसी कार्मण के साथ घुल मिल जाते हैं। कर्म की सत्ता (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पड़ी है? १८९ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ की मैत्री जड़ के साथ होती है। मूर्ख की दोस्ती मूर्ख के साथ होती हैं। विद्वान मूर्ख से मैत्री कभी नहीं करता। अतः इन कर्मों का अधिष्ठान कार्मण शरीर है। उसीके साथ उनका सम्बन्ध होता है। कर्म का कर्म के साथ बन्धन होता है। प्रश्न यह है कि जब कर्म के साथ ही कर्म का बन्धन होता है, तो फिर आत्मा उसके बन्धन में क्यों आबध्द होता है? कल्पना कीजिए आपने एक गाय के गले में रस्सा डाल कर उसे बाँध लिया। जब रस्से से गाय को बांधेगे, तो उसमें गांठ लगाऐंगे ही आपने गाय के गले में रस्सा डाला और वह बन्ध गई। किन्तु, गाँठ कहाँ लगी ? गाय के गले में तो गांठ नहीं लगी। रस्सा गले में आया, फिर भी गला स्वतन्त्र है। चमड़ी में किसी प्रकार की गांठ नहीं लगी तो इसका मतलब यह हुआ, कि गांठ गाय के साथ नहीं, किन्तु रस्से में रस्से के साथ लगी, और गाय बच गई। यही स्थिति आत्मा की है। आत्मा और कर्म का संबन्ध भी इसी तरह का है। आत्मा के साथ कर्म की गांठ नहीं लगी है। कर्म की कर्म के साथ गांठ लगी है माया की माया के साथ गांठ लगी है प्रकृति के साथ प्रकृति का ही बन्धन हुआ है में फंस गया है, जैसे रस्से में गाय का गला । परन्तु आत्मा उस बन्धन आत्मा अरूपी है और कर्म रूपी है आत्मा चेतन है और कर्म जड़ अरूपी रूपी के साथ कभी सम्बन्ध नहीं करता। अतः चेतना का जड़ के साथ संबन्ध नहीं होता। विचित्र बात तो यह है कि कर्म के साथ कर्म के बन्धन में आत्मा बन्ध रहा है और जब गाय के गले में पड़ी हुई रस्सी की गांठ खुल जाती है, तो वह बन्धन मुक्त हो जाती है। इसी प्रकार से कर्म की गांठ, जो कर्म के साथ लगी हुई है, उसे खोल कर अलग कर दो, तो आत्मा स्वतन्त्र और कर्म बन्धन से मुक्त हो जाएगी। इस उदाहरण से आत्मा और कर्म का बन्धन आपकी समझ में आया होगा मुक्ति प्राप्त करने का क्या अर्थ है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है। आत्मा तो प्रत्येक स्थिति में मुक्त है, किन्तु उसने बाह्य बन्धन को अपना मान लिया है। कर्म के बन्धन को अपने आपमें स्वीकार कर लिया है। इसलिए वह कर्म से आबद्ध है और प्रतिक्षण नए कर्मों को बांध रहा है। जब वह अपने स्वरुप को समझ लेता है, तब वह यह अनुभव करने लगता है, कि यह बन्धन मेरा अपना नहीं है। और उसी क्षण उसके मन में, आवरण से मुक्त होने की भावना जागृत होती है और तभी मुक्ति प्राप्त करने की बात उठती है। जड़-चेतन की भिन्नता: मुक्ति की बात ही ज्ञान प्राप्ति की बात है ज्ञान तो आत्मा में विद्यमान है, उसकी प्राप्ति कैसी? व्यवहार में हम प्राप्ति शब्द का प्रयोग करते है, उनको अभिप्राय यही है कि ज्ञान पर जो बाह्य आवरण आ गया है, उसको हटा देना। जब आवरण हट जाएगा, तो उस आवरण के भीतर विद्यमान ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाएगा जब तक ज्ञान पर आवरण रहता है, एक भ्रान्ति बनी रहती है, आत्मा स्व पर को समझ नहीं पाता, सत्य-असत्य का बोध नहीं कर पाता, बस यही अज्ञान है, तात्विक भाषा में यह मिथ्यात्व है पर में स्व- आत्मा को समझना, और स्व में पर को समझना, यह भ्रान्ति है। नित्य को अनित्य और अनित्य को नित्य समझना, चैतन्य के गुण को अपना गुण नहीं समझकर अचैतन्य का गुण समझना और शरीर के गुण-धर्म को अपने ऊपर थोप लेना, यहीं तो भ्रम है, मिथ्यात्व है। कभी-कभी पहुँचे हुए साधक भी कह देते है, कि में रोगी हूं मैं निरोग हूँ, मैं सुखी १९० कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहाँ दृढ होती है, वहां मन में उस्ताह की ओट में नैराश्य आता ही नहीं है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या दु:खी हैं। इसका अर्थ यह हुआ, कि शरीर के धर्म को, उसकी गति और चेष्टा को आत्मा अपना धर्म समझ बैठा है। अनादि कालीन सह-परिचय के कारण यह भ्रान्ति होना सहज है। आत्मा और कर्म अनादि काल से साथ-साथ चले आ रहे है, किन्तु साथ-साथ चले आने से दोनों एक नहीं हो जाते। दूध में पानी रहता ही नहीं है। और जब दूध में पानी मिला होता है, तो वह दूध के नाम से चलता है। परन्तु दूध के नाम से बिकने पर क्या पानी दूध हो गया? नहीं। पानी दूध में मिलकर भी पानी ही रहेगा, किसी भी स्थिति में वह दध नहीं बन सकता। दोनों पदार्थ मूलत: भिन्न - भिन्न है, उनकी एकात्म प्रतीति भ्रान्ति है। दूध और पानी की पहचान जिसको है, वह इस भ्रान्ति के चक्कर में कदापि नहीं आता। विचार कीजिए, कि सौ प्रकार की भिन्न-भिन्न औषधियों को कितना ही बारीक कूट-पीस कर एक कर दिया जाए, फिर भी प्रत्येक औषधि का गुण-धर्म भिन्न-भिन्न ही रहेगा। उनके संमिश्रण से औषधियों के अपने गुण -धर्म नष्ट नहीं होते। आत्मा और कर्म का, चेतन और जड़ का सम्बन्ध इसी प्रकार से चलता चला आ रहा है। आत्मा शरीर के ऊपर और शरीर आत्मा के ऊपर ऐसे छाए हुए हैं, कि दोनों के एकत्व की भ्रान्ति हो जाती है। यह भ्रान्ति ही तो अज्ञान है। जब दूध - पानी को भिन्न - भिन्न समझ लिया, तो भेद विज्ञान की बात शुरु हो गई। मुक्ति स्थान नहीं, स्थिति है: जड़ ओर चैतन्य का भेद-विज्ञान जब हो जाता है, शरीर और आत्मा की भिन्न प्रतीति जब होने लगती है, तो आत्मा स्व-स्वरूप को जान कर अपने स्व-स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करता है, इसे आगमन की भाषा में सम्यक्-ज्ञान कहते हैं। और जब आत्मा कर्म आवरण को हटाता हुआ स्वयं को पहचानने की स्थिति में पहुँचता है, तो यहीं से 'मुक्ति शुरु हो जाती है। अर्थात् वह 'मुक्त होना प्रारंभ कर देता है। जिसे हम 'मक्ति कहते हैं. जिसके लिए हमारी समस्त साधनाएँ चल रही हैं। कहीं तपस्याएँ, कहीं दान-पुण्य और कर्म-काण्ड चल रहे हैं। उस मुक्ति के सम्बन्ध में भी हमारे मन में अनेक प्रकार के भ्रम और अज्ञान घुसे हुए हैं। वास्तव में मुक्ति क्या हैं? इसे बहुत कम साधक समझ पाते हैं। श्रमण भगवान महावीर की 'मुक्ति कब हुई? यदि पूछा जाए तो आप कहेंगे-जीवन के ७२ वें वर्ष में, पावापुरी में, दिवाली के दिन। इतिहास की दृष्टि से आपका उत्तर सही हो सकता है, पर दर्शन और तत्त्व-ज्ञान की दृष्टी से यह उत्तर गलत है। दीवाली को तो प्रभु ने शरीर छोड़ा था, शरीर के समस्त बन्धनों को तोड़कर वे अशरीरी स्थिति में पहुँचे थे। तो क्या शरीर छोड़ना ही मुक्ति है? शरीर तो सभी व्यक्ति छोड़ते हैं? मनुष्य भी, पशु-पक्षी भी। ऊँट-बैल और गधे-घोड़े भी शरीर छोड़ते हैं, कीट-पतंगे भी शरीर छोड़ते हैं, तो क्या वे सब मुक्त हो गए ? बात यह हुई, कि शरीर को छोड़ देना मात्र मुक्ति नहीं हैं। दूसरी बात, मुक्ति को एक स्थान-विशेष के साथ जोड़ दिया गया हैं। आप से पूछा जाए, कि मुक्ति कहाँ हैं? आप कहेंगे, कि लोकाग्र भाग पर जो स्थान है, सिद्धशिला है, वह मुक्ति है। मैं पूछता हूँ, लोकाग्र भाग पर तो एकेन्द्रिय जीव भी बैठे हैं, बहुत से जीव वहाँ अनन्त-अनन्त काल से बैठे हैं, पृथ्वी, पानी, वायु आदि के अनन्त जीव-पिण्ड वहाँ विद्यमान है। क्या वे सब सिद्ध भगवान हैं? क्या उन्हें हम 'णमो सिद्धाणं.....अथवा लोगग्ग पइट्ठाणं' में ले सकते हैं? आप और हम भी उस स्थान पर अनेक बार जन्म मरण कर आए हैं, पर अभी तक मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। १९१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध तो नहीं बने ? बात यहाँ अटक जाती है, कि शरीर को छोड़ना मुक्ति नहीं, सिद्धशिला और लोकाग्र भाग भी मुक्ति नहीं है, तो फिर मुक्ति क्या है ? और कहाँ है ? वास्तव में जैन दर्शन कभी किसी भौतिक पदार्थ के साथ आत्मा का समझौता नहीं करता। वह किसी स्थान या रूप को मुक्ति नहीं मानता। मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं, परिस्थिति विशेष है। आत्मा की अपनी स्वाभाविक स्थिति को ही मुक्ति कहा है। शरीर छोड़ना मुक्ति नहीं, किन्तु आत्मा का स्वस्वभाव में रमण करना ही मुक्ति है। अतः मुक्ति है, कषाय से राग-द्वेष आदि से मुक्त होना "कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।" यह मुक्ति जीवन में ही प्रारम्भ हो जाती है। आत्मा जब चतुर्थ गुणस्थान को स्पर्श करती है, उसमें सम्यक् ज्ञान की ज्योति जग उठती है, और मिथ्यात्व का अन्धकार छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जाता है, कषाय की दृढ़ बेड़ियाँ शिथिल हो जाती है, तभी से आत्मा की मुक्ति प्रारम्भ हो जाती है। चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक मुक्ति है। जैसे-जैसे गुणस्थान की स्पर्शता आगे बढ़ती है, और राग-द्वेष की मन्दता, क्षीणता होती चली जाती है, ज्ञान का प्रकाश तीव्र से तीव्रतर होता चला जाता है, वैसे-वैसे आत्मा मुक्ति की और अग्रसर होती जाती है। गुणस्थान का क्रम आत्मा की क्रमिक विशुद्धि अर्थात् क्रमिक मुक्ति का चित्र है। जितने जितने अंश में विशुद्धि, निर्मलता और ज्ञान की ज्योति जलती रहती है, उतने उतने अंश में आत्मा मुक्त हो जाती है। जब आत्मा पूर्णतया राग-द्वेष एवं कषाय से मुक्त हो जाता है, तब ज्ञानावरण - कर्म का क्षय होकर ज्ञान का सम्पूर्ण प्रकाश आलोकित हो उठता है "नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण मोहस्स विवज्रणाए ।" अज्ञान और मोह का सम्पूर्ण है, तो यह ज्योति जो एक घेरे में लग जाती है। बस, यही मुक्ति का मुक्ति है। फिर देह का बन्धन रहा बन्धन नहीं रहा तब भी । - सिद्धान्त यह हुआ कि देह की मुक्ति मात्र ही मुक्ति नहीं है, न कोई स्थान विशेष ही मुक्ति है, न कोई देश और न कोई वेश ही मुक्ति है, सम्प्रदाय और परम्परा में भी कोई मुक्ति नहीं है। दिगम्बर, श्वेताम्बर ये कोई मुक्ति के द्वार नहीं खोल देते, आज तो यह दुकानदारी हो गए है। दिगम्बर कहता है मेरी दुकान पर ही मुक्ति की पुड़िया मिलेगी, तो श्वेताम्बर कहता है- मेरे यहाँ मिलेगी। दूसरी किसी दुकान पर पहुँचो तो वह कहता है, कि मेरे यहाँ पर भी इसकी ऐजेन्सी है, मुक्ति का मुख्य वितरक तो मैं ही हूँ, बाकी तो नकली पुड़िया देते हैं। इस प्रकार से मुक्ति की ऐजेन्सियाँ लेकर सब अपनी-अपनी दुकानदारी चला रहे है। वास्तव में मुक्ति किसी के पास नहीं है, तुम्हारी मुक्ति तुम्हारे ही पास है। यदि कोई मुक्ति की पुड़िया होती तो श्रमण भगवान महावीर अपने जामाता जमाली को अवश्य ही दे देते। उसे मिथ्यात्व की बीमारी से बचा लेते। पर ऐसा हो ही नहीं सकता। मुक्ति कोई किसी को दे नहीं सकता, वह कहीं से भी प्राप्त नहीं हो सकती, वह तो अपने में ही है, और अपने से ही प्राप्त की जा सकती है। १९२ विलय हो जाने से ज्ञान पर गिरा पर्दा आवरण हट जाता बन्द थी, आवरण से ढकी हुई थी, उन्मुक्त प्रकाश बिखेरने स्वरुप है। ज्ञान का संपूर्ण प्रकाश हो जाना ही परिपूर्ण तब भी आत्मा उस बन्धन से मुक्त रहता है, और देह ऑपरेशन की शान्ति : अन्तर की कषायो का जब शमन किया जाएगा, उन्हें शान्त कर दिया जाएगा, तभी मुक्ति सत्य कभी कडवा नही होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नही होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते है। For Private Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नव उल्लास और अनन्त आनन्द की हृदय में अनुभूति होगी। विचारो में कषाय की उष्णता बनी रहे, विकारों का दावानल जलता रहे और आशा लगाये बैठा रहें आनन्द मिलने की, तो वह कैसे मिलेगा ? दावानल पर आसन लगाकर बैठे है और कहो ताप लग रहा है? जब नीचे धांय धांय करती हुई आग जल रही है, तो उसकी गर्मी तो लगेगी ही । एक सज्जन कह रहे थे "अब कषायों पर विजय प्राप्त करने का बहुत ही सरल तरीका निकल गया है। शरीर - विज्ञान ने यह पता लगाया है, कि मनुष्य के शरीर की रक्तवाहिनी नाड़ीयों एवं नर्सों के साथ कुछ इस प्रकार की नसें है, जिनसे क्रोध करने, झुठ बोलने एवं अभिमान करने के भाव जागृत होते है। यदि इन नसों को काट दिया जाए, ऑपरेशन कर दिया जाए, तो फिर क्रोध आदि भाव जागृत ही नहीं होंगे।" मैंने कहा उनसे - इस प्रकार के ऑपरेशन की शान्ति हमें नहीं चाहीए । मनुष्य किसी बौध्धिक कमी के कारण, शारीरिक दुर्बलता एवं अशक्ति के कारण या किसी नशे, इंजेक्शन या दवा आदि के कारण यदि शान्ति अनुभव करता है, तो वह शान्ति नहीं है, उसमें आनन्द की अनुभूति नहीं है । शान्ति का अर्थ है किसी भी तरह के वातावरण में रहने पर भी मन में शान्ति का भाव बना रहे, विचारों में शान्ति का प्रवाह प्रवहमान रहे, ऐसी शान्ति हमें चाहीए। धर्म तो वह है, जो अपनी गति से चलता रहे। कषाय आदि पर हम धर्म के विचार से, ज्ञान और चिन्तन के सहारे से नियन्त्रण पा लेते है, उसे शान्त अन्तर् मन के मन में समाधान पाते है, तो हमारे ज्ञान की विजय है, हमारी समता का पराक्रम है। राग और विराग की लड़ाई में यदि राग पर विजय हो जाती है, तो उसमें आनन्द है, उल्लास है। अभाव और दुर्बलता के कारण, जो शान्ति मिलती है, वह शान्ति नहीं, पराजय है उसमें हीनता और क्षुद्रता का विचार जन्म लेता है बाहर में शान्ति दिखाई देती है, पर मन में घुटन बनी रहती है, क्षोभ और व्याकुलता करवट लेती रहती है। धर्म और दर्शन ऐसी शान्ति की बात नहीं करता, वह कषाय पर अध्यात्म और ज्ञान के द्वारा विजय पाने की बात करता है। राग को जब विराग से जीता जाता है, तब वह साधना है, मुक्ति की । हम उसी की बात करते है वह मुक्ति कोई प्रदेश और देश पर आधारित नहीं है, किन्तु वह आत्मा की विशुद्ध दशा है वह स्थान नहीं, स्थिति है उस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है "यस्य स्थिरा भवेत् प्रज्ञा यस्यानन्दो निरन्तरः । प्रपंचो विस्मृतप्रायः स जीवनमुक्त उच्यते ।। " और बुद्धि स्थिर हो जाती है, आत्मभाव में लीन हो जाती है, आनन्द होती रहती है, अखण्ड आनन्द की अनुभूतियाँ उसके हर श्वासोच्छवास में उछवासित होती रहती है और आत्मा बाहर के प्रपंच में बाल विकारों की हलचल में विस्मृत प्रायः अवस्था में पहुँच जाता है, इन्द्रियाँ के होते हुए भी इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किए गए सुख-दुख के संवेदन आत्मा को उद्वेलित नहीं कर सकते, संसार की वेदनाएँ पीडीत नहीं कर सकती आत्मा की यह स्थिति जीवन मुक्त की स्थिति है देह होते हुए भी उसकी उसके बन्धनों से मुक्त अवस्था होती है। गीता की भाषा में इसे स्थिति प्रज्ञ कहा गया है। जीवन मुक्त की भी यही स्थिति है, जो स्थितप्रज्ञ की है। जिसकी प्रज्ञा — मन की धाराएँ निरन्तर प्रवाहित - जब ज्ञान और वैराग्य के द्वारा वृतियों और इच्छाएँ नियंत्रित हो जाती है, मन आत्म-भाव से बाहर नहीं भटकता, तब 'देहछतां देहातीत' अवस्था प्राप्त हो जाती है। साधना की यह मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रूप होता है। १९३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम विकसित अवस्था है, जीवन में कुछ क्षण के लिए भी यदि इस अवस्था की अनुभूति की जा सके, तो वह साधना के आनन्द की सची रसानुभूति होगी। साधना की अनुभूति : कुछ साधकों की मन: स्थिति से मेरा परिचय हुआ है। जिनकी चालीस-पच्चास वर्ष की साधना रही है। कहना चाहीए, कि पच्चास वर्ष से वे साधना के मार्ग पर चल रहे है, वे जब मुझ से पुछते है-'महाराज पता नहीं लगा, कि हम भव्य भी है या नहीं? साधना तो करते चले आ रहे है, संयमपाल रहे है, पर अभी सम्यक्-दर्शन तो दूर, भव्य-अभव्य का प्रश्न ही मन में अटक रहा है। मैं सोचता हूँ, कि इस साधना का मूल्य क्या है ? एम.ए. का विद्यार्थी कहे, कि मैं A B C D नहीं जानता, मुझे A B C D , अ, आ, इ, ई, अथवा क, ख, ग सिखा दिजीए, तो यह कैसी विचित्र बात है? क्या यह संसार को धोखा ही देते रहे है? इतनी लम्बी साधनाओं के बाद भी यह अनुभूति नहीं हुई, कि हम भव्य है, या अभव्य? यह यक्ष प्रश्न अब भी मन में खड़ा हुआ है, कि हम सम्यक्-दृष्टि है या नहीं? मै पूछता हुँ, साधना करके क्या भार ढोया ? बारह वर्ष दिल्ली में रह कर क्या भाड़ झोंकी? बाईस वर्ष वाशिंगटन में बिताकर भी जूठी कप-प्लेटें साफ करते रहे? इतनी कठोर साधना करने पर भी नहीं पहचान पाए! दूसरा व्यक्ति भव्य है, या नहीं, सम्यक्-दृष्टि है या नहीं, इसका निर्णय हम नहीं दे सकते। यह केवलज्ञानी से, सर्वज्ञ से पूछने जैसी बात है। पर हम, भव्य हैं या अभव्य, सम्यक्-दृष्टि हैं, या मिथ्यादृष्टियह बात तो किसी से पूछने की आवश्यकता ही नहीं, आपकी आत्मा स्वयं ही इसका निर्णय दे सकती है। कुछ बुदे साधु या श्रावक कहा करते है–श्रीमन्धर स्वामी के पास चलें तो पूछे, हम भव्य है या नहीं, सम्यक्-दर्शन की स्पर्शना हुई या नहीं? पर वे यह नहीं सोचते, कि श्रीमन्धर स्वामी आखिर वाणी से ही कहेंगे, वे भी तो जो तुम्हारी आत्मा की स्थिति है, वही स्पष्ट कर सकेंगे। हमारे सामने भगवान महावीर की वाणी विद्यमान है। हजार श्रीमन्धर स्वामी भी आ जाएँ, तब भी वे वाणी से ही कहेंगे। उनके दर्शन हो जाए तो बहुत अच्छी बात है, पर जहाँ तक यह पूछने का सवाल है, वे भी वाणी से ही कहेंगे। जो बात वाणी द्वारा समझने की है, वह भगवान महावीर की वाणी से भी हम समझ सकते है। यदि वाणी पर विश्वास नहीं है, तो फिर श्रीमन्धर स्वामी से पूछ लेने से क्या होगा? वाणी पर जिसे विश्वास नहीं, उसे शरीर पर कैसे विश्वास होगा। स्थिति यह है, कि आप लड्डु खा रहे है, और दूसरों से पूछ रहे है, कि भाई! इस लड्डु का स्वाद कैसा है? यदि आप की जिह्वा का स्वाद ठीक है, गुडमार वनस्पति नहीं खाई है, अनुभव करने की शक्ति ठीक है, तो फिर उनका स्वाद दूसरों से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। बात यह है, कि साधक का संकल्प दृढ़ होना चाहीए। वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उसे विश्वास के साथ चलना चाहिए। श्रद्धा आस्था का दिपक जलाकर चलना चाहिए, ताकि वह अंधेरे में ठोकरें न खाता फिरे। जो साधना कर रहा है, उसे उसके रस की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। अहिंसा की साधना कर रहा है, तो हृदय में क्षमा, करुणा और प्रेम की लहर उठनी ही चाहिए। विकार-विजय की साधना में चल रहा है, तो उसे आत्म-भावों में आनन्द आना ही चाहिए, वैराग्य और निर्वेद के रस में डूब जाना चाहिए। उसकी अनुभूतियाँ १९४ मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागृत रहनी चाहिए, किसी से पूछने की जरुरत नहीं, कि मैं चल तो रहा हूँ, पर वास्तव में मैं क्या चल ही रहा हैं? अपनी गति पर, अपनी मति पर, और अपनी स्थिति पर, कभी सन्देह नहीं होना चाहिए। सम्यकू-दर्शन और मिथ्या-दर्शन : मैं अपनी कहूँ, कि मेरे मन में कभी ऐसे संकल्प नहीं जगते, कि मैं भव्य हैं या नहीं? सम्यक्-दृष्टि हुँ या नहीं? चूँकि मेरे मन में श्रद्धा है, विश्वास है, अपनी गति, मति एवं स्थिति पर आस्था है। मैं जो कुछ साधना कर रहा हूँ, उसकी रसानुभूति भी यदा-कदा आत्मा को आप्लावित कर ही देती है। वस्तुत: सम्यक्-दर्शन की अनुभूति कोई आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है। सम्यक्-दर्शन और मिथ्या-दर्शन क्या चीज है? यह आप एक उदाहरण से समझ सकते है। एक अहोरात्र-रात-दिन में एक ओर प्रकाश रहता है, उजाला रहता है, और दुसरी ओर अन्धकार, घनघोर अन्धेरा। आत्मा एक अहोरात्र की स्थिति में है, जहाँ ज्ञान का प्रकाश है, वहाँ सम्यक्-दर्शन है; जहाँ उस पर आवरण आ गया, विकृति आ गई है, वहाँ वह मिथ्या-दर्शन हो गया। जब सम्यक्-दर्शन की स्थिति में रहते है, तो दिन के प्रकाश की स्थिति और जब मिथ्यात्व की स्थिति में जाते है, तो अन्धकारमय रात्रि की स्थिति आ जाती है। मिथ्यात्व की रात्रि जब समाप्त होती है, तो सम्यक्-दर्शन का सुनहरा प्रभात दिन के उदयाचल पर विहँस उठता है। मिथ्यात्व अज्ञान है, और अज्ञान एक बन्धन है। जब तक यह बन्धन नहीं टूटता, आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। स्व-पर का भेद, जड़-चेतन की पहचान जब हो जाती है, तो जीवन में जो सुख-दु:ख आते है, उनमें राग-द्वेष एवं मोह उत्पन्न नहीं होता, आसक्ति का भाव नहीं जगता। सम्यक्-दृष्टि भोजन करता हुआ भी भोग करता हुआ भी, उसके बन्धन से मुक्त क्यों रहता है? जब कि मिथ्यात्वी, भोजन बिना किए भी, भोग भोगे बिना भी, उसके संकल्प मात्र से कर्म बांध लेता है। सम्यक्-दृष्टि बन्धन के स्वरुप को समझता है, इसलिए वह संसार के भोगों के बीच रहकर भी उन में तन्मय नहीं होता, आसक्त नहीं रहता। वह वस्तु का, पदार्थों का उपभोग करता नहीं, पर उपभोग होता है। वह भोग में रस नहीं लेता यह साधना की कला है, सम्यकत्व की कला है। सम्यक्-दृष्टि और मिथ्या-दृष्टि के जीवन-दर्शन में यही मौलिक अन्तर है। सम्यक्-दृष्टि आत्म-परक दृष्टिकोण रखता है, वहाँ मिथ्या-दृष्टि वस्तु परक! सम्यक्-दृष्टि की मुक्ति उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाती है, जिस क्षण में वह साधना के क्षेत्र में चरण बढाता है। वह शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार आत्मा को पहचानता है, और उसी लक्ष्य की ओर श्रद्धा एवं विश्वास के साथ, साधना के रस की अनुभूति करता हुआ निरन्तर चलता रहता है। ज्ञानमयो हि आत्मा : बात यह है, कि जब मिथ्यात्व के संकल्प टूटने लगते हैं, तो आत्मा में विशेष प्रकार की जागृति होती है, अनुभूति होती है। यह जागति और अनुभूति बाहर से नहीं आती, आत्मा में ही सुप्त पड़ी थी, आवरणों के अभेद्य अन्धकार में छुपी थी, जब अन्धकार का भेदन हो गया, वह समाप्त हो गया, तो वह ज्योति प्रकट हो गई, आत्मा का मूल स्वरुप ज्ञात हो गया। __मैं एक बार हरिद्वार गुरुकुल में गया था। वह बहुत बड़ा विद्या-केन्द्र है, दर्शन-शास्त्र का शं के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते है। १९५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठ है। वहीं आचार्य विश्वेश्वर शर्मा थे। स्वयं साथ में घूम कर विद्यापीठ की अनेक प्रवृतियाँ दिखलाई, उनकी जानकारी दी। मैंने उनसे कहा, विद्यापीठ की महत्वपूर्ण चीज हमें दिखलाइए। तो वे पुस्तकालय दिखाते हुए एक कक्षा में हमें ले गए जहाँ दर्शन शास्त्र के उचकोटि के अध्ययन की व्यवस्था थी। विद्यार्थी दर्शन शास्त्र का उच्च अध्यन इस कक्षा में कर रहे थे। विश्वेश्वर शर्मा ने बताया कि यह कक्षा गुरुकुल का प्राण है। दर्शन - शास्त्र के गम्भीर ग्रन्थों का यहाँ पर अध्ययन, चिन्तन एवं मनन किया जाता है दर्शन शास्त्र के अभ्यासी विद्यार्थीयों के बीच पहुँच कर मैं भी बहुत प्रसन्न हुआ। विद्यार्थी खडे हो गए, आचार्य विश्वेश्वर शर्मा बोले- कुछ पूछिए विद्यार्थीयों से ? मैंने उन विद्यार्थीयों से एक छोटा सा प्रश्न किया, कि मेरे स्नेही विद्यार्थीयो ! आपने इस गुरुकुल में किसलिए प्रवेश किया है ? आपका यहाँ रहने का उद्देश्य क्या है ? थोडी सी देर सन्नाटा सा छाया रहा, फिर एक विद्यार्थी का हाथ उठा। मैंने उसे कहने - की अनुमति है, तो वह बोला—यहाँ हम ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए है। पने विद्यार्थीयों से खजाना दबा पड़ा है? का सब ज्ञान प्राप्त कर हो जाएगा ? - १९६ सभा में सन्नाटा छा गया। वास्तव में विद्यार्थी का उत्तर पूर्णतः गलत नहीं था, सामान्यतः यही उत्तर होता है पर जहाँ दर्शन शास्त्र का विद्यापीठ है, दर्शन की उचतम शिक्षा दी जाती है, वहाँ दर्शन शास्त्र की उब कक्षाओं के विद्यार्थीयों का यह उत्तर— "ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए हैं" गलत है। मैंने कहा— यदि इस प्रकार आप ज्ञान लेते जाएँगे, तो गुरुकुल के गुरुओं के ज्ञान का तो दिवाला निकाल देंगे। विश्वेश्वर शर्मा बोले आप बहुत दूर की बात पर चले गए। मैंने कहा, नहीं मैं तो निकट आ रहा हूँ। आखिर मैंने ही अपने प्रश्न का उत्तर दिया, बात यह है, कि ज्ञान प्राप्त करने जैसी चीज नहीं है। ज्ञान तो तुम्हारा स्वरुप है, आत्मा का लक्षण है— " ज्ञानाधिकरणो आत्मा" ज्ञान का अधिष्ठाता आत्मा ही है 'जीवो उवओगो लक्खणो' कहने वाले आचार्यों ने ज्ञान को तुम्हारे से दूर नहीं माना है, तुम्हारे से भीन्न वस्तु नहीं मानी है, वह तुम्हारी ही वस्तु है और तुम्हारे भीतर ही है। ज्ञान आत्मा का गुण है, उसे तो सिर्फ प्रकट करने की आवश्यकता है, जगाने की जरुरत है। भारतीय दर्शन ने कहा है- " आत्मा ज्ञानवान है" फिर एक छलांग लगाई कि ज्ञान स्वरुप आत्मा है। और उससे भी आगे बढकर कहा है- "ज्ञान ही आत्मा है।" पूछा- क्या गुरुकुल में ज्ञान का उत्पादन होता है? या ज्ञान का कोई इस भाँति यदि आप ज्ञान प्राप्त करके लेते जाएँगे, यहाँ के विद्वानों लेंगे, तो फिर यहाँ का ज्ञान तो कुछ ही दिनों में ही समाप्त नहीं ज्ञान आत्मा में ही है, उसे केवल जगाने की जरुरत होती है दियासलाई पर मसाला लगाया हुआ है उसे सिर्फ एक रगळ, संघर्ष की जरुरत होती है बस उस संघर्षण के लिए ही विद्यालय, या गुरुकुल में प्रवेश किया जाता है। वास्तव में ज्ञान आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है, वह आत्मा में ही है, उसे जगाने की जरूरत है, प्रकट करने की आवश्यकता है और जितनी साधनाएँ एवं आत्माभिमुखी प्रवृत्तियाँ है, वे सब उस ज्ञान की ज्योति को प्रकट करने का निमित्त है, साधन है। इस ज्ञान के साथ जीवन में साधना का भी महत्व है, उसे हमें भूलना नहीं है अतः साधना के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ साधना दोनों के माध्यम से परिपूर्णता, आत्मा की सार्वभौम विशुद्ध ज्योति का अनावृत्त करना है। विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार मार्ग कल्याण एवं मंगल कारक होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहल लेखक : महाप्रज्ञ धर्म की आराधना का मूल आधार है आत्मा। हमारे शरीर में आत्मा नहीं है। शरीर में आत्मा है। आत्मा अमूर्त है और शरीर मूर्त है। दार्शनिक जगत् में एक प्रश्न बहुत चर्चित रहा है- अमूर्त के साथ मूर्त का संबंध कैसे हो सकता है? आत्मा और शरीर यौगिक है, . एक मिश्रण है। दोनों साथ-साथ चल रहे हैं पर यह मिश्रण कब बना और कैसे बना। यह सम्बन्ध की बात बहुत जटिल है। आत्मा मूर्त भी, अमूर्त भी जैन दर्शन ने एक नयी स्थापना की आत्मा शरीर से बंधी हुई है इसलिए वह सर्वथा अमूर्त नहीं है। आत्मा का अस्तित्व या स्वरूप अमूर्त हो सकता है। उसमें स्वरूपगत अमूर्तता हो सकती है किन्तु वर्तमान में वह सर्वथा अमूर्तन हीं है। शरीर में बंधी हुई आत्मा मूर्त भी है। यदि आकाश की भांति आत्मा सर्वथा अमूर्त होती तो शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। आकाश में वर्षा होती है, सर्दी होती है, धूप होती है पर आकाश पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। न आकाश गीला होता है, न आकाश ठंडा होता है और न आकाश गर्म होता है। उस पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता। यदि आत्मा आकाश की भांति सर्वथा अमूर्त होती तो उस पर शरीर का कोई प्रभाव नहीं होता और वातावरण का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं होता, किन्तु इनका आत्मा पर प्रभाव होता है, इसलिए यह मानना बहुत संगत है कि आत्मा कथंचितथ मूर्त है। यह मूर्त और अमूर्त का योग कब बना, इसका कोई आदि-बिन्दु ज्ञात नहीं है। जब से आत्मा है तब से वह शरीर के साथ है और इसीलिए वह मूर्त्तिमान् बनी हुइ है। भविष्य के आधार पर कहा जा सकता है- शरीर मुक्त होते ही आत्मा अमूर्त बन जाएगी। शरीर-मुक्त होने के बाद आत्मा पर हमारे जगत् का, वातावरण और पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं होता। मुक्त आत्मा न विकृत होती है, न अशुद्ध होती है। विकार और आवरण उस आत्मा में है जो आत्मा कथंचित् मूर्त बनी हुई है। अमूर्त आत्मा में कोई विकार या आवरण नहीं होता। सांख्य दर्शन में आत्मा सांख्य दर्शन में आत्मा सर्वथा अमूर्त है इसलिए उसमें न आत्मा का बंध होता है और न आत्मा का मोक्ष होता है। उसके अनुसार आत्मा कर्त्ता नहीं है और एक दृष्टि से भोक्ता भी नहीं है। वह उपचरित दृष्टि से भोक्ता हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वथा अलिप्त नहीं है, सर्वथा अमूर्त नहीं है इसलिए वह सर्वथा शुद्ध नहीं है। शरीर और आत्मा--दोनों की भिन्नता का बिन्दु हम नहीं खोज सकते। यदि ऐसी अवस्था होती कि एक दिन आत्मा अमूर्त थी, बाद में शरीर के साथ संयोग हुआ और वह मूर्त बन गई। जब आत्मा अमूर्त थी, तब बिलकुल शुद्ध थी और शरीर का योग होते ही अशुद्ध बन गई। अगर ऐसा होता तो कुछ अलग बात होती। किन्तु संसारी आत्मा अमुक्त आत्मा, कभी भी शरीर से मुक्त नहीं थी, शरीर-शून्य नहीं थी, इसलिए यह कल्पना नहीं की जा सकती। शरीर के साथ उसका संबंध कब हुआ, यह अज्ञात है। शरीर के साथ उसका सम्बन्ध कैसे हुआ, यह अज्ञात है। इतना ज्ञात है-जब से संसार में आत्मा है, वह शरीर के साथ है। मानव जब माया-के मोह जाग में उलझ जाता हैं तब वह अपने अस्तित्व को भी भूल जाता हैं। १९७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आत्मा शरीर-परिमाण है। 'आत्मा शरीर के साथ है-इस आधार पर महावीर ने एक और नयी स्थापना की आत्मा शरीर-परिमाण है। आत्मा के बारे में एक सिद्धांत यह है कि आत्मा व्यापक है। सांख्य दर्शन, नैयायिक दर्शन आदि जितने आत्मवादी दर्शन हैं, वे आत्मा को असीम मानते हैं, व्यापक मानते हैं। उनका मानना है-आत्मा पूरे संसार में फैली हुई है। जैन दर्शन की यह नयी स्थापना है आत्मा व्यापक नहीं है। वह शरीर-परिमाण है। जितना शरीर है उतने में फैली हुई है। यदि एक चींटी का शरीर है तो आत्मा उस शरीर-परिमाण वाली है। यदि एक हाथी और सारस का शरीर है तो आत्मा उनके शरीर-परिमाण है। मनुष्य के शरीर में वह मनुष्य के शरीर-परिमाण है। सब आत्माएं समान है ___ एक ओर जैन दर्शन का मानना है सब जीव समान हैं, न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। दूसरी ओर एक हाथी की आत्मा और एक चींटी की आत्मा में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है। यह कैसे हो सकता है कि सब आत्मा समान हैं? चींटी की आत्मा छोटी है और हाथी की आत्मा बड़ी है यह सहज ही मान्य हो जाता है। इस प्रश्न पर जैन दर्शन का अभिमत रहा-आत्मा द्रव्य प्रत्येक व्यक्ति में बिल्कुल समान है। प्रत्येक आत्मा के असंख्य प्रदेश या अविभक्त परमाणु हैं। किसी भी आत्मा में एक भी प्रदेश या परमाणु न न्यून है और न अधिक है। सबका प्रमाण समान है किन्तु परिमाण में अन्तर हो सकता है और परिमाण में जो अन्तर होता है वह शरीर के आधार पर होता है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक सिद्धांत की स्थापना की गई संकोच-विस्तारवाद। आत्मा में यह क्षमता है कि वह अपने प्रदेशों का संकोच कर सकती है, विस्तार कर सकती है। आत्मा में संकोच और विस्तार-दोनों होता है। संकोच इतना किया जा सकता है कि सूई की नोक टिके उतने स्थान में अनंत आत्माएं हो सकती हैं। यदि विस्तार किया जाए तो एक आत्मा समूचे लोकाकाश में फैल सकती चार चीजें समान मानी जाती हैं लोकाकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आत्मा। प्रत्येक के असंख्य प्रदेश हैं और सब समान हैं। पूरे लोकाकाश में एक आत्मा फैल सकती है और अनन्त आत्माएं एक सूई की नोक में समा सकती हैं। यह है आत्मा की संकोच-विकोच की शक्ति । संकोच-विस्तार का आधार केशी स्वामी ने राजा प्रदेशी को बताया-सब जीव समान होते हैं। उन्होंने एक उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को समझाया-एक दीप को एक कमरे में रखा, पूरा कमरा प्रकाश से भर गया। उस दीप पर एक बड़ा-सा बर्तन लाकर रख दिया, प्रकाश उसमें सिमट गया, बाहर प्रकाश फैलना बंद हो गया। उसे हटाकर एक बिलकुल छोटा-सा ढक्कन रखा, प्रकाश उसके भीतर सिमट गया। जैसे दीये के प्रकाश को ढक्कन के आधार पर संकुचित और विकसित किया जा सकता है, उसके प्रकाश से पूरे कमरे को प्रकाशित किया जा सकता है, असंकुचित और विस्तृत बनाया जा सकता है, वैसे ही आत्मा शरीर के आधार पर अपना संकोच और विस्तार कर लेती है। आत्मा को बड़ा शरीर मिलेगा तो उसमें फैल जाएगी, छोटा मिलेगा तो १९८ कामी पुरुष को कभी भी समय, संयोग, परिस्थिति या भविष्य विचार करने तक का ज्ञान नहीं होता। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें फैल जाएगी। चींटी की आत्मा को मरकर एक बड़े शरीर में जाना है तो वह उतने में फैल जाएगी और हाथी की आत्मा को मरकर एक छोटे से कीटाणु में पैदा होना है तो उसकी आत्मा उतनी सिकुड़ जाएगी। यह है संकोच और विस्तार। आत्मा में संकोच विस्तार की क्षमता है। शेष किसी द्रव्य में यह क्षमता नहीं है। न आकाश में संकोच और विस्तार होता है ओर न किसी दूसरे द्रव्य में ऐसा संभव होता है। आज यह माना जाने लगा है-आकाश सिकुड़ता है, आकाश फैलता है, काल भी सिकुड़ता और फैलता है। हो सकता है इस विषय पर एक नया अनुसंधान किया जाए। किन्तु अब तक संकोच और विस्तार की व्याख्या आत्मा के साथ ही की जाती रही है। संकोच और विस्तार सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है, स्थूल शरीर के आधार पर नहीं। स्थूल शरीर को छोड़कर जीव दूसरे जन्म में जाता है। एक हाथी के जीव को मरकर एक छोटे से शरीर में पैदा होना है तो वह सीधा पैदा नहीं होता, उसका सूक्ष्म शरीर, कर्म शरीर पहले ही सिकुड़ना शुरू हो जाता है और वह सिकुड़ा हुआ सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर का उतना ही निर्माण करता है जितना उस जीव का होता है। यह संकोच और विस्तार-सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है। व्यवस्थित स्वीकृति जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके सामने भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है—आत्मा व्यापक है किन्तु उसकी सारी प्रवृत्ति शरीर में मिलती है। सुख-दु:ख का संवेदन वहां होता है जहां शरीर है। आत्मा व्यापक है और पूरे लोक में फैली हुई है किन्तु साराज्ञान और संवेदन इस शरीर के माध्यम से होता है। सांख्य दर्शन ने सूक्ष्मलिंग शरीर का संकोच-विस्तार माना है, शरीर के बिना व्यवस्था सम्यक् बैठती नहीं है। असीम और व्यापक आत्मा कुछ भी नहीं कर सकती। सब कुछ शरीर के माध्यम से होता है। शरीरगत सारी प्रक्रियाओं को स्वीकार करना आवश्यक होता है, इस दृष्टि से यह देह-परिमाण आत्मा की स्वीकृति एक व्यवस्थित स्वीकृति प्रतीत होती है। प्रश्न कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व का आत्मा के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न है—कर्तृत्व और भोक्तत्व का। आत्मा अपना संकोच और विस्तार करती है, वह क्यों करती है और कैसे करती है। इसका कारण है उसमें कर्तत्व की शक्ति है। यदि उसका कर्तृत्व अपना नहीं होता तो वह कोई संकोच-विस्तार नहीं कर पाती। आत्मा कर्ता है और वह यह करती है अपने कर्म शरीर के कारण। इसका अर्थ है-आत्मा भोक्ता है। करने की स्वतंत्रता और भोगने की स्वतंत्रता दोनों आत्मा में है। आत्मा का लक्षण बन गया—कर्ता और भोक्ता। इस बारे में दार्शनिक जगत में काफी मतभेद हैं। सांख्य दर्शन आत्मा को कर्त्ता नहीं मानता । उसके अनुसार सारा कर्तृत्व प्रकृति में है। प्रकृति ही कर्म करती है, प्रकृति ही बन्ध करती है और प्रकृति ही मुक्त होती है। आत्मा सर्वथा शुद्ध है। उसके न बन्ध होता है और न मोक्ष। __ जैन दर्शन ने आत्मा को सर्वथा शुद्ध नही माना। इसलिए आत्मा का बंध भी होता है और आत्मा का मोक्ष भी होता है। आत्मा करती है, बंधती है। अपना कर्तृत्व और अपना भोक्तृत्व-दोनों आत्मा के साथ जुड़े हुए है। __ आत्मा के कतृत्व के साथ कर्मवाद के सिद्धांत का विकास हुआ। आत्मा, के कर्तृत्व को जैन दर्शन में दो भागों में विभक्त किया गया - विभाविक कर्तृत्व और स्वाभाविक कर्तृत्व, वैभाविक मैले मन के एक-दो नहीं अनेकानेक स्वरुप होते हैं। १९९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौक्तृत्व और स्वाभाविक भौक्तृत्व। स्वाभाविक कर्तृत्व प्रत्येक द्रव्य में निरन्तर परिणमन होता रहता है, परिवर्तन होता रहता है। आत्मा उस परिणमन की कर्ता है। आत्मा अपने स्वाभाव को करती है, उसका कर्तृत्व-भाव निरन्तर चलता रहता है। यदि एक क्षण भी उसका कर्तृत्वभाव बन्द हो जाए तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाए। उसे निरन्तर कुछ न कुछ करना होता है। पारिभाषिक शब्दावली में इसे कहा गया -अर्थपर्याय, स्वाभाविक पर्याय, स्वाभाविक परिणमन। परिवर्तन का चक्का स्वभाव से निरन्तर घूमता रहता है, कभी बन्द नहीं होता। आत्मा में निरन्तर परिणमन होता रहता है, इसलिए उसका अस्तित्व टिका रहता है। परिणमन बन्द हो जाए तो उसका अस्तित्व भी बन्द हो जाए। एक क्षण में आत्मा का अस्तित्व है। यदि वह दूसरे क्षण के योग्य अपने अस्तित्व को न बना सके तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अपने अस्तित्व को टिकाए रखने लिए प्रतिक्षण करना होता है और यही आत्मा का स्वाभाविक कर्तृत्व है। वैभाविक कर्तृत्व ___ एक आत्मा मनुष्य बन गई और एक आत्मा पशु बन गई। एक आत्मा तिर्यंच योनि में चली गई, एक नरक गति में चली गई, एक देव गति में चली गई। यह है, वैभाविक कर्तृत्व।व्यक्ति अपने कर्तृत्व से मनुष्य बना है, उसे कोई बनाने वाला नहीं है। अपने कर्तृत्व से ही वह पशु गति में चली जाती है। यह उसका वैभाविक कर्तृत्व है। उसने अपने साथ एक ऐसा जाल रच रखा है जिसके कारण उसका कर्तृत्व चलता है और उस नाना गतियों में भ्रमण करना पडता है। यह गतिवाद, नाना गतियों में परिभ्रमण का चक्र आत्मा के कर्तृत्व के आधार . पर चलता है। उसे दूसरा कोई करने वाला नहीं है। प्रश्न सुख-दुःख का इस कर्तृत्व के सिद्धांत के आधार पर साधना का एक बहुत बड़ा सूत्र प्रस्तुत होता है-दुनिया में कोई किसी को सुख-दु:ख नहीं देता। यह मानना मिथ्या है कि अमुक आदमी ने मुझे सुख दिया और अमुक आदमी ने मुझे दु:ख दिया। साधक कभी अपने सुख और दुःख को दूसरे पर आरोपित नहीं कर सकता। इस तथ्य को समझने में कुछ कठिनाई हो सकती है। प्रत्येक आदमी कहता है - उसने मुझे सुखी बना दिया और उसने मुझे बड़ा दु:खी बना दिया। सुख दु:ख का आरोपण दूसरों पर होता है। आदमी अपने आपको बचा लेता है और दूसरों पर आरोपण कर देता है। यह मिथ्या भ्रम है। इसका टूटना बहुत जरुरी है। __ दूसरा आदमी कुछ भी नहीं करता, ऐसी बात नहीं है। वह किसी को सुख देना चाह सकता है और किसी को दु:ख देना भी चाह सकता है। किन्तु उसके वश में नहीं है कि वह किसी को सुख दे सके और किसी को दु:ख दे सके। वह केवल सुख के साधनों को जुटा सकता है, द:ख के साधनो को जुटा सकता है। वह द:ख देने वाले वातावरण और परिस्थिति का निर्माण कर सकता है, सुख देने वाले वातावरण या परिस्थिति का निर्माण कर सकता है। इससे आगे उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। वह सुख-दु:ख दे नहीं सकता, उनका निमित्त बन सकता है। २०० अनन्त पाप के बोझ से जिसका ज्ञान विलुप्त हो जाता है वे कभी भी समझदारी पा नहीं सकते। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ दु:ख का एक साधक ध्यान की मुद्रा मे खड़ा था। उसे देखते ही एक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की आग मभक उठी। उसने सोचा-यह कैसा आदमी है। मेरी कन्या के साथ इसकी शादी निश्चित की गई और यह उसे छोडकर सन्यासी बन गया। इस चिन्तन से उसके प्रतिशोध की आग अत्यधिक तीव्र बन गई। उसने सोचा - इसे अभी मार डालूं। पास ही श्मशान में आग जल रही थी। समीपस्थ तालाब में गीली मिट्टी थी। वह मनुष्य मिट्टी ले आया और उसने साधक के सिर पर पाल बांध दी। उस पाल में उसने जलते हुए अंगारे लाकर रख दिए। __हम इस भाषा में सोचेंगे-उसने साधक को कितना दु:खी बना दिया किन्तु जिसे दु:खी बनाया गया, वह क्या सोचता है-यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह आत्मलीन बन गया। वह परम ज्ञान एवं परम आनन्द भोग रहा है। कैवल्यज्ञान की प्राप्ति, मोहनीय कर्म का विलय और अनंत आनन्द उसमें प्रकट हो गया। वह सुख में डूब गया। बाहर से देखने वाला सोचता है - बेचारा कितना दु:खी है और करने वाला समझता है मैंने प्रतिशोध ले लिया, बदला ले लिया, दु:खी बना दिया। इन दोनों में कहीं कोई तालमेल नहीं है। दूसरा आदमी दु:ख की सामग्री जुटा सकता है पर किसी को दु:खी बना नहीं सकता। दुःखी होना अपने हाथ में है। जैन दर्शन का प्रसिध्द सूत्र है - 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण या सुहाण य' - सुख दुःख की कर्ता और विकर्ता अपनी आत्मा है। यदि दूसरा कर्ता होता तो यह सिद्धांत गलत हो जाता है। किन्तु यह सिध्दान्त सही है, दूसरा कोई कर्त्ता नहीं है। कर्ता अपनी ही आत्मा है। संदर्भ सुख का सुख के संदर्भ में भी यही तथ्य सत्य की कसौटी पर खरा उतर सकता है। एक व्यक्ति बहुत उदास था, बहुत दु:खी था। उसे संवाद मिला था कि तुम्हारा जवान लड़का मर गया है। नौकर उसके दु:खी एवं उदास होने का कारण नहीं समझ पाए। उन्होंने सोचा - आज स्वामी उदास कैसे? वे हर सुविधा जुटाना चाहते थे उदासी मिटाने के लिए। गर्मी का मौसम था, पंखा चला दिया, वातानुकूलन शुरू हो गया। पीने के लिए ठंडा पेय सामने रख दिया। जितनी सुविधा जुटाई जा सकती थी, वे सारी जुटा दी, किन्तु उदासी नहीं मिटीं। वह भोजन करता है, सारी बदिया सामग्री सामने पड़ी है, पर मन में भयंकर दु:ख और कष्ट है। सारी सुविधा की सामग्री और सुख की सामग्री होने पर भी वह बड़ा दु:खी है, बेचैन है। कोई किसी को सुखी बना नहीं सकता। दूसरा केवल सुख-सुविधा की सामग्री जुटा सकता है। ग चिन्ता है शरीर की कोइ पैदल चलता है तो दूसरा कहता है - देखो! बेचारा शरीर को कितना सता रहा है। एक व्यक्ति गर्मी में बैठा है, पंखा नहीं चलता है तो देखने वाला कहता है शरीर को कितना सताया जा रहा है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना और कष्ट को सहना, इसका अर्थ हो गया शरीर को सताना। 'शरीर को सताया जा रहा है-इसकी चिन्ता है किन्तु आत्मा को सताया जा रहा है-इसकी कोई चिन्ता नहीं है। व्यक्ति का सारा दृष्टिकोण शरीरलक्षी है। साधना का सूत्र है आत्माभिलक्षी होना। आत्मा के कर्तृत्व और आत्मा के भोक्तृत्व से साधना का यह सूत्र फलित हुआ। आत्मलक्षी दृष्टिकोण में जहां प्रेम, करुणा, वात्सल्य और साधुत्व है उसी की जय होगी। २०१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर का संयम महत्त्वपूर्ण होगा। शरीर का संयम होता है तो चंचलता कम होती है। आसन करने से, पद्मासन में बैठने से शरीर को कष्ट होता है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना, आने वाले सारे तापों को सहना शरीर को कष्ट देना है। यदि आत्मा का कर्तृत्व और भौक्तृत्व नही है तो सहने की कोई जरुरत नहीं है। सुख-दु:ख को करने वाली आत्मा है इसलिए सहना आवश्यक है। आत्मलक्षी होना शरीरलक्षिता को कम करना है। इससे सहन करने की बात स्वत: फलित होती है। दर्शन की दो धाराएं दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं है - एकात्मवाद और अनेकात्मकवाद। कुछ दर्शनों का मत है-आत्मा एक है। जैन दर्शन अनेकात्मवादी है। उसके अनुसार आत्मा अनंत है, प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई आत्मा ईश्वर का अंश नही है, ब्रह्म का अंश नही है और न कोई माया या प्रपंच है। हर आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। संख्या की दृष्टि से अनंत-अनंत आत्माएं है और उन सबका अपना-अपना कार्य है। अकेली आत्मा जन्म लेती है, अकेली आत्मा मरती है और अकेली आत्मा अपने सुख:दुख का संवेदन करती है। उसका कोई हिस्सा नहीं बंटाता, उसमें कोई भागीदार नहीं बनता। सब कुछ अपना होता है। हो सकता है-इससे स्वार्थवाद के पनपने की संभावना की जा सके। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और सब कुछ अपना-अपना है, अपना सुख और अपना दु:ख, अपना संवेदन और अपना ज्ञान, अपना जन्म और अपनी मृत्यु-यह नितान्त स्वार्थवाद है। अपनी ही चिन्ता करो, दूसरों की चिन्ता करने की कोई जरुरत नहीं। अपना किया कर्म अपने को भोगना है, दूसरा कोई बीच में नहीं आता। अच्छा करता है तो अच्छा भोगता है और बुरा करता है तो बुरा भोगता है। न बाप काम आता है, न माता काम आती है, न भाई काम आता है, न और कोई काम आता है। इससे स्वार्थवादी भावना पनपेगी बस, अपना करो और अपना भोगो, दूसरों से क्या लेना-देना। प्रत्येक व्यक्ति सोचेगा-मैं दूसरे के लिए क्यों करूं? दूसरे के लिए क्यो कर्म बांधू? मेरा कर्म मुझे भुगतना है। एक ओर ग्वार्थवाद का यह स्वर मिलता है तो दूसरी और स्वर मिलता है महायान का - जब तक सब जीवों की मुक्ति नहीं होतीं, तब तक मैं मोक्ष में जाना नहीं चाहता। एक ओर सबकी मुक्ति का विचार और दूसरी ओर अपनी मुक्ति का विचार। मुझे मुक्त होना है, दूसरे की दुसरे जानें, मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अपनी मुक्ति का विचार और समष्टि की मुक्ति का विचार - दोनो दृष्टिकोणो में बड़ा अन्तर है। वास्तविक सचाई क्या है? क्या यह मान लिया जाए- स्वतंत्र या प्रत्येक आत्मा की भावना ने मनुष्य में स्वार्थ की भावना पैदा की है, मनुष्य स्वार्थी बना है? इसकें दो पहलू हैं-दार्शनिक और व्यवहारिक। दार्शनिक पहलू के आधार पर कहा गया-आत्मा नहीं है। व्यवस्था की दृष्टि से नाना आत्माएं है। हमारे सामने एक आत्मा नही है। एक आत्मा है, यह दार्शनिक प्रकल्पना है। व्यक्ति के सामने असंख्य आत्माएं है। हर मनुष्य की अपनी आत्मा है, हर पशु की अपनी आत्मा है। प्रश्न हुआ-यह कैसे? इस प्रश्न को समाहित करने के लिए एक पूरे मायावाद या प्रपंचवाद की कल्पना की गई। कहा गया-वास्तव में आत्मा एक है किन्तु अनेक आत्माएं जो दिखाई दे रही है, वह २०२ अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति की दृष्टि का आभास है, मिथ्या दृष्टिकोण है। वह वास्तविक सचाई नहीं है। जैन दर्शन ने इसे वास्तविक सचाई माना है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और अनंत आत्माएं है। यह अव्यावहारिक नहीं, काल्पनिक नहीं, आभास नहीं किन्तु वास्तविक सचाई है। आत्मवादः व्यावहारिक पहल व्यावहारिक पहलू से देखें तो एकात्मवाद से एकता फलित होती है सब अत्मा एक हैं इस अद्वैतवाद में एकता की साधना फलित हुई। कहा गया सबको एक ही अनुभव करें। प्राणी को ईश्वरीय अंश मानने वाले कहते है हम सब एक हीं पिता के पुत्र हैं। हमारा एक ही परिवार है यह बात बहुत अच्छी है, पर व्यवहार में कोई भी व्यक्ति अपने आपको एक पिता का पुत्र नहीं मानता। सब बंटे हुए है इसीलिए हिंसा, आतंक, अपराध, दूसरों को सताना और दूसरों के प्रति क्रूर व्यवहार करना चल रहा है एक ही पिता के पुत्र हों तो यह सब नहीं चलता सचाई यह है एक बाप के चार बेटों में भी विरोध और विग्रह चलता है। यह दर्शन की बात जीवन में अभी तक उतरी नहीं है जैन दर्शन के अनुसार एकत्व की बात फलित नहीं होती 'हम सब एक है यह फलित नहीं होता। उसके अनुसार फलित होता है 'हम सब समान हैं किन्तु व्यवहार में यह भी फलित नहीं होता। जैन दर्शन को मानने वाले भी समानता के आधार पर व्यवहार नहीं करते सब आत्माएं समान हैं, किन्तु व्यक्ति का व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है। उसमें बहुत विषमता है और सारा व्यवहार विषमतापूर्ण चल रहा है। आत्मवादः दार्शनिक पहलू व्यवहारिक पहलू पर एकात्मवाद और अनेकात्मवाद दोनों में किसी को भी बहुत सफलता मिली है, ऐसा नहीं कहा जा सकता किसी व्यक्ति ने भले ही भावना के स्वर में कह दिया- मैं तब तक मोक्ष जाना नहीं चाहता, जब तक सब मोक्ष नहीं चले जाते। कोई-कोई समानता के आधार पर ऐसा व्यवहार कर सकता है। यह एक आपवादिक स्वर हो सकता है किन्तु इसके आधार पर समाज में न तो एकत्व का प्रयोग हुआ और न समत्व का प्रयोग हुआ। व्यावहारिक दृष्टि से समाज में कोई परिवर्तन नहीं लगता। अनेक आत्मा मानने से या प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मानने से स्वार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता और एक आत्मा मानने से परमार्थवाद पनपा, ऐसा भी नही कहा जा सकता। प्रश्न दार्शनिक पहलू का है। उसके संदर्भ में कहा जा सकता है एकात्मवाद की व्याख्या काफी जटिल है, व्यवहार के साथ उसकी संगति बिठाने में काफी जटिलताएँ है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है, अनेकात्मवाद का यह सिध्दान्त दार्शनिक प्रक्रिया की दृष्टि से सरल और स्पष्ट अनुभव देने वाला है। मै कौन हूं? आत्मा के बारे में इन सारे सिध्दान्तों को जानने के बाद जो निष्कर्ष आएगा, जो एक प्रश्न उभरेगा, वह होगा मैं कौन हूं? जब तक आत्मा के इतने पहलुओं को नही जान लिया जाता, तब तक 'मैं कौन हूं' -यह बात समझ मे नहीं आती और इसका उत्तर भी नहीं दिया जा सकता। साधना का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है 'मैं कौन हूं। साधना के इस प्रश्न को समाहित करने के लिए दर्शन के इतने सारे प्रश्नों को समझना जरुरी है और इन प्रश्नों को समझने के बाद ही व्यक्ति अपने आपको यह उत्तर दे सकता है- 'मैं कौन हूं? - लातों के अधिकारी कभी भी बातों से नहीं मानते। - २०३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषमताओं और असंगतियों से घिरे इस समाज का सारा वातावरण और परिवेश असंतुलित है। शक्तिस्त्रोतों में असंतुलन है, प्रकृतिजगत में असंतुलन है, मनुष्य के विचारो - भावों में असंतुलन है। मनुष्य का सकल जीवन विषमताग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषित है, हमारी जीवन-पद्धति प्रदूषित है। वायु, जल सभी में प्रदूषण है। भ्रष्टाचार, उत्कोच, लुट-मार, मिलावट, तस्करी, हिंसा भरे मानव समाज में अजीब तरह की अफरा-तफरी है। भौतिकता द्वंद्वमयी बन चुकी है। मनुष्य की जीवन - सरिता में जीवन मूल्यों के स्त्रोत सूख गये है। वह विदिशा में भ्रमित होकर भटक रहा है। नैतिकता स्खलित हो रही है। जो देश अहिंसा को परम धर्म समझता आ रहा है, उसी देश में महावीर, गौतम, नानक के देश में हिंसा पर हिंसा हो रही है। मनुष्य मनुष्य को जान से मार रहा है। लगता है हम गीता, कुरआन भूल गये, जिनवाणी, गुरुवाणी बिसार बैठे है। महावीर ने 'आचारांगसुत्र' में कहा है- "जब तुम किसी को मारने, सताने या अन्य प्रकार से कष्ट देना चाहते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो। यदि वही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाता तो कैसा लगता ? यदि मानते हो कि तुम्हें अप्रिय लगता है तो समझ लो दूसरे को भी अप्रिय लगेगा। यदि नहि चाहते कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करे तो तुम भी किसी के साथ वैसा व्यवहार मत करो।" उन्होने संदेश दिया था कि राग-द्वेष के तटों के बीच रहो; न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । किसी के प्रति न राग रखो, न द्वेष रखो, समभाव मे रहो। समता भाव के उपवन में ही अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य और जैनदर्शन में समतावादी समाज - रचना के प्रेरक तत्त्व डॉ. निजाम उद्दीन अर्थ है मन की स्थिरता, राग-द्वेष आत्मा का स्वरुप है। सभी प्राणियों साधु प्राणिमात्र के प्रति समता का अनेकान्त के सुगंधित गुलाब विकसित होते है। समता का का उपशमन, समभाब, सुख दुःख में अचल रहना। समता के प्रति आत्मतुल्य भाव रखना चाहिए "आयतुले पयासु' चिन्तन करते है। समता से श्रमण, ज्ञान से मुनि होता है । २ समता में ही धर्म है- "समया धम्ममुदाहरे गुणी" । ३ महावीर ने कहा है कि साधक को सदैव समता का आचरण करना चाहिए। उनके मांगलिक धर्मोपदेश का आधार समता है, अर्थात् पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, निर्जीव- सजीव, सकल मानवजगत् की रक्षा की जाये, सब पर दया दृष्टि रखी जाये, सब से प्रेम- मैत्री भरा व्यवहार किया जाये। सूक्ष्मातिसूक्ष्म, क्षुद्रातिक्षुद्र जीव की भी देखभाल और रक्षा की जाये, जल, वृक्ष, नदी तालाब, खेत वन, वायु, वन्यपशु, वनस्पति सभी को सुरक्षा प्रदान की जाये, सभी प्राणियों को अभयदान दिया जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर का जीवन-दर्शन सबका हित और कल्याण चाहना है, हित और कल्याण करना है, आचार-व्यवहार में भी मैत्री, अहिंसा, समता, भाव हो, केवल विचारों में, वाणी में, शब्दों में ही समताभाव न हो। कोरी सहानुभूति से या 'लिप्स सिम्पेथी से काम नहीं चलेगा, उसके अनुकूल आचरण भी करना जरुरी है। आचार्य जीतमल ने समता को आत्मधर्म मानते हुए कहा है। १. सूत्रकृतांग १/११/३, २. उत्तराध्ययन २५/३०, ३. सूक्षकृतांग, २/२/६ २०४ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। For Private Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समता आतम धर्म है, तामस है पर धर्म अच्छा अपने आप में, रहन्त समझो मर्म ॥ समता में साता घणी, दुख विषमता माह । ममता तज समता भजो जो तिरने की चाह । समता-धर्म को आचरित करने पर ही जीवात्मा इस संसार सागर का संतरण कर सकता है। समता में सद्गति है, समता में सद्भाव है, समता में प्रेम-मैत्री है। इसके विपरीत विषमता या तामस में दुर्गति है, दुर्भावना है, द्वेष- घृणा है। समता सुधा है, अमृत है, राग अग्नि है। 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जब जीव अपनी आत्मा को आत्मा के द्वारा औदारिक, तैजस व कार्मण इन तीन शरीरों से तथा राग, द्वेष व मोह इन तीन दोषों से भी रहित जानता है तब उसका साम्यभाव में अवस्थान होता है ।४ क्रूर तथा उग्रवादी की क्रूरता, उग्रता समत्वयोगी के प्रभाव से शान्त हो जाती है- शाम्यन्ति जन्तवः क्रूर बद्धवैरा परस्परम्। अपि स्वार्थप्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभातः ॥ समता मोह, क्षोभ को शान्त करती है भगवती आराधना में मोह को हाथी कहा गया है- मोहमहावारणेन हन्यति ।७ जो व्यक्ति समता भाव में विचरण करता है। उसकी कथनी करनी समान होती है, उसका अन्तबा एक जैसा होता है उसी प्रकार दूसरे जीवधारियों को भी अपने प्राण प्रिय है भला हमें किसी के प्राण हरने का क्या अधिकार है जबकि हम उसे प्राण प्रदान नहीं कर सकते। यही समत्वदृष्टि है, आत्मौपम्यभाव है। 'गीता' में कहा गया है कि वही महान योगी है जो आत्मौपम्यभाव रखकर अपने सुख दुःख के समान ही, दूसरे के सुख-दुःख को समझता है ८ आसक्ति का परित्याग कर सिद्धि असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर कर्म करना समत्वभाव है।९ जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है, शुभ-अशुभ फल का त्याग करता है, वही व्यक्ति सच्चा भक्त है तथा ईश्वर को प्रिय है १० और जो व्यक्ति शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में समान रहता है, सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख के द्वन्द्व में भी सम रहता है, संसार में जिसकी आसक्ति नहीं होती, वह सचा भक्त है, वही परमपिता परमात्मा को प्रिय है ।११ समता का अर्थ समभाव है - न राग द्वेष, न ममत्व न आसक्ति । समता का अर्थ है एक नीचे न दूसरा उपर समत्व में जीना ही सचा जीना है। मन में समत्व का भाव है, किसी के प्रति वैरभाव नहीं आशा का त्याग कर समाधि समत्व को ग्रहण करना चाहिए तराजू के दो समान पलडे न समस्त प्राणियों के प्रति मेरे सम्मं मे सव्वभूदेस, वेरं मज्झं ण केण वि । आसाए वोसरित्ताणं, समाहि पडिवज्जए । (मूला, २ / ४२ ) शलाकापुरुष वीतरागी महावीर का कथन है कि तुम में न कोई राजा है न प्रजा, न ४. ज्ञानार्णव, २०/१६, ५. ज्ञानार्णव, २०/२०, ६. प्रवचनसार १/७, ७. भगवती आराधना, १३ / ९, ८. गीता ९. गीता-२, ४९, १०. गीता १२, १७, ११. गीता - १२.१८. सत्य कभी कड़वा नहीं होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नहीं होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते हैं। २०५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई स्वामी है न कोई सेवक। समता-शासन में दीक्षित होने के पश्चात् राजा-प्रजा, स्वामी सेवक नहीं हो सकता। सबके साथ समता का व्यवहार करना चाहिए। १२ जो समभाव में रहता है वह लाभ-हानि, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में एक जैसा होता है। १३ वह इस लोक व परलोक में अनासक्त वसूले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है- हर्ष-विषाद नहीं करता। १४ मैत्री और सद्भाव भरा व्यवहार करना ही समता भाव है। जहाँ मैत्री व सद्भाव नहीं, वहाँ न समता है न शांति समता के आयाम चार माने जा सकते है(१) अहिंसा, (२) निर्भयता, (३) मैत्री, (४) सहनशीलता। जैनदर्शन अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा का मतलब है किसी जीव को किसी भी प्रकार का - शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, आर्थिक कष्ट न देना सबका कल्याण चाहना सबको आत्मवत् समझना अहिंसा है, तीर्थंकर महावीर ने 'सर्वजनहिताय' की बात कही थी, जबकि उनके समसामयिक गौतम बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' की बात कही थी। जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा पांच अणुव्रतों/महाव्रतों में सर्वोपरि है। उसके द्वारा सकल प्राणिजगत् की रक्षा की जा सकती है। महावीर ने सही कहा है - 'अहिंसा के घड़े में शुत्रुता का एक छेद नही रह सकता। वह पूर्ण निश्च्छिद्र होकर ही समत्व के जल को धारण कर सकता है।' भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे साथवाह का साथ आधारभूत है, उसी प्रकार अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिसा चरअचर सभी का कल्याण करने वाली है "एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं पिव गगणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं मिव असणं, समुद्दमज्झे वा पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपर्य, दृहठ्ठीयाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्ञ व सत्यगमणं, एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा जा सा पुढवि-जल अगणि-मारुय-वणस्सइ-बीज-हरित-जलचर-थलचर-खहंचर-तस-थावर-सव्वभेखेममकरो"१५ 'उत्तराध्ययनसुत्र' में कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त होकर साधक सब प्राणियों को आत्मवत् समझे और किसी की हिंसा न करे। 'आचारांग' के अनुसार आत्मीयता की भावना का आधार ही अहिंसा और मैत्री है। किसी उद्वेग, परिताप या दु:ख नहीं पहुँचाना चाहिए। अहिंसा शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जिसका प्रतिपादन तीर्थंकरों अर्हतों ने किया।१७ अहिंसा १२ जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। जे मोणपयं उवट्ठिए, नो लज्जे समयं समा चरे।। -सूत्रकृतांग-१/२/२/३. १३. समणसुत्तं - ३४७ १४. समणसुत्तं - ३४९ १५. प्रश्नव्याकरण, ६/२१ १६. उत्तराध्ययन, ६/६ १७. आचारांगसूत्र, १/४/२ २०६ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नैतिकता के साथ-साथ रखना चाहिएं, यह दोनो पृथक पृथक नहीं है। व्यवहार में अहिंसा नैतिक आचरण की सीमा का संस्पर्श करती है। 'आचारांगसुत्र' में बहुत ही गहन और व्यापक जीवन-दर्शन अहिंसा, मैत्री के माध्यम से रेखांकित किया गया है, यह आत्मीयता का साकार रुप है "जिसे तु मारना चाहता है वह त ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे परिताप देना चाहता है वह तू ही है।" १८ यहीं से हम समाज में समानता और एकता का वातावरण बना सकते है। अहिंसा, मैत्री से बढकर समाज में समानता, एकता, सद्भाव, शांति और किसके द्वारा प्राप्त हो सकती है। उपनिषदों में सब भूतों को अपनी आत्मा में देखना या समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखने का सर्वात्मदर्शन व्यंजित है, वह अहिंसा का ही प्रतिपादन है, यहाँ किसी से घृणा का प्रश्न नहीं उठता यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुप्सुते॥ यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः ।। तत्र को मोह : क: शोक: एकात्वमनुपश्यतः ॥ महाभारत में अहिंसा, मैत्री, अभय का विस्तार से बार-बार प्रतिपादन किया गया है। भला जो सर्व भूतों को अभय देने वाला है वह दूसरों को कैसे मार सकता है। अभयदान या प्राणदान से बढकर संसार में और कोई दान नहीं हो सकता - "प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। न ह्यात्मान: प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्। १९ अहिंसा परम धर्म है, परम दम है, परम दान है, परम तप है। २० यही परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख है। २१ अहिंसा निर्बल, कायर या शक्तिहीन का काम नहीं, यह तो सबल व्यक्ति का अस्त्र है | शक्ति होने पर किसी को न सताया जाये, न बदला लिया जाये अपितु क्षमा कर दिया जाये, यही वीरता का लक्षण है, यही अहिंसा है, इसी को निर्भयता कहेंगे । जब कहते है कि मैं किसी से वैर नहीं रखता, कोई मुझ से वैर न रखे, सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ति मे सव्व भूएस, वेरं मज्झं न केणई॥ तब मनुष्य को सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए - 'मेतिं भूएसु कप्पए । २२ सामयिक का अर्थ है प्राणिमात्र को आत्मवत् समझना, समत्व का व्यहार करना । सामयिक वह व्यवहार है जिसके द्वारा हम समत्व को, समता भाव को अपने जीवन में उतारते है-"समस्य आय: समाय: स प्रयोजनम् यस्य तत्साममायिकम्।" हमारे अन्दर समता भाव आ जाये १८. आचारांगसूत्र, १/५/५ १९. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-१६ २०. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-२८ २१. महाभारत, अनु. पर्व ११६-२९ २२. उत्तराध्ययन ६/२ कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहां दृढ होती हैं, वहां मन में उत्साह की औट में नैराश्य आता ही नहीं हैं। २०७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हमारी अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। समतावादी समाज की संरचना के लिए सहिष्णुता या सहनशीलता का होना भी अनिवार्य है। भारत में शासनप्रणाली की प्रमुख विशेषता धर्मनिरपेक्षता है | धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविमुख होना नहीं है, वरन् इसका अर्थ है जैसे हम अपने धर्म को महान श्रेष्ठ समझते है, वैसे ही दूसरों के धर्मो को महान् और श्रेष्ठ समझे। हम यदि चाहते है कि हमारे धर्मग्रन्थ या धर्मग्रन्थों की कोई अवमानना न करे, सब लोग उनका सम्यक् सम्मान करें तो हमें भी चाहिए कि हम भी दूसरी जाति के धर्म का, धर्मग्रन्थों का उचित सम्मान करें। दूसरों की र्धमपद्धति या जीवनपद्धती के प्रति उचित सम्मान प्रदशित करना हमारा कर्तव्य है, पर हम ऐसा करते कहाँ है? तभी बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि मंदिर पर झगडा खडा करके एक दूसरे की जान लेने पर उतारु हो जाते है । हमारे पास महान् धर्मग्रन्थ है महान् धर्मोपदेशक और धर्मगुरु है, विद्वान है, आचार्य है, लेकिन आचरण हम सर्वथा विपरीत करते है । कष्टसहिष्णु तो है हि नहीं, दूसरे के कटु शब्द भी सहन करने की सहनशीलता, विशालहृदयता हमारे अन्दर नहीं । हमारा दृष्टिको ही संकुचित और दूसरों के प्रति, द्वेष-घृणा से पूर्ण रहता है। मानवीय संदर्भ नहीं होते हमारे जीवन व्यवहार में । हम यह जानते है कि क्रोध प्रीति का नाश करता है, माया मैत्री का नाश करती है और लोभ सबका (प्रीति, विनय, मैत्री का) नाश करता है ।२३ हमें चाहीए कि उपशम से क्रोध को नष्ट करें मृदुता से नाम को जीते, ऋजुभाव से माया और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करे । २४ धर्म जोडने का काम करता है, तोडने का नहीं | धार्मिक असहिष्णुता न जाने कितने वर्षों से अनिष्ट करती आ रही है । जैनदर्शन सभी मतों का समान आदर करने की दृष्टि प्रस्तुत करता है । आचार्य हरिभद्र ने धार्मिक सहिष्णुता के कारण ही अनात्मवाद (बौद्धदर्शन), कर्तृत्ववाद (न्यायदर्शन), सर्वात्मवाद (वेदान्त) में भी सामंजस्य दर्शाने का सत्प्रयास किया। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि संसार-परिभ्रमण के कारण रुप रागादि जिसके क्षय हो चुके है, उसे मै प्रणाम करता हूँ, फिर चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महेश हो अथवा जिन हो। जैनदर्शन में समतावादी समाज के लिए वैचारिक सहिष्णुता, अनाग्रही विचारधारा बड़ा योग दे सकती है। जैनदर्शन में इसी को अनेकान्तवाद कहा जाता है। आज सभी देशों में मताग्रह के कारण शीतयुद्ध जैसा वातावरण बना हुआ है। हमारे समाज में, परिवार में मताग्रह के कारण २३. दशवकालिक ८/३७ २४. दशवैकालिक ८/३८ २०८ मन की पंखुडियाँ जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही द्वेष-वैमनस्य तथा मनमुटाव लोगों के दिलों में भरा रहता है जो किसी भी समय प्रतिकूल हवा पाते ही क्रोध, शत्रुता, कलह, संघर्ष तथा हिंसा में परिवर्तित हो जाता है। अनेकान्तवाद -ऐसा प्रेरक तत्व है जिसको अंगीकार कर हम अनेक समस्याओं, प्रश्नों, उलझनों को सुलझा सकते है। अनेकान्तवाद विचारों के प्रति अनाग्रही दृष्टि का नाम है। वस्तु के अनन्त धर्मात्मक गुणों के प्रति विद्येयात्मक समन्वित दृष्टि अनेकान्त कहलाती है। हमें वस्तुस्वरुप को सापेक्षता में देखना है। हम मताग्रहग्रस्त होकर वस्तुस्वरुप देखते है, विचार को देखते है, व्यक्ति को देखते है। पूर्वाग्रह के कारण विषमता उत्पन्न होती है। हम यदि पूर्वाग्रह छोडकर दूसरे के मत-दृष्टिकोण को जानने-समझने की कोशिश करे तो समाज में समतावादी वातावरण बनाया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है(१) दूसरों के विचारों को सहानुभूति से सुने, (२) दूसरे के मत के प्रति सहिष्णु बने, (३) अपने विचार को शिष्टता से प्रस्तुत करे, (४) अपने मत के प्रति दुराग्रह न रखे, (५) व्यवहार मे विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाऐं। विभिन्न मतों- दृष्टिकोणों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करना अनेकान्तवादी का परम धर्म है। यहीं से वैचारिक धरातल पर हम समरसता और सहिष्णुता की भावना प्राप्त कर सकते है। जैनदर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद समन्वयवाद पर आधारित है, अत: समाज में हम इनके आधार पर समतावादी समाज की संरचना करने में अपने कदम आगे बढ़ा सकते है। हमारी युवाशक्ति जो भटकी हुई है, पथभ्रष्ट है, विदृष्टि-ग्रस्त है, उसे सम्यक् दृष्टि अनेकान्तवाद द्वारा दी जा सकती है। अपनी बात को हम यों कह सकते है कि अहिंसा द्वारा हम सहअस्तित्व विश्व-बन्धुत्व की भावना जाग्रत की जा सकती है, मैत्री के राजमार्ग बनाये जा सकते है। वैर-वैमनस्य को मिटाकर प्रेम के, दया के, करुणा व सहानुभूत्व कर सकते है। अहिंसा के एक तरफ अनेकान्तवाद और दूसरी तरफ स्याद्राद स्थित है यं लोका असकृन्नमन्ति ददते यस्मै विनम्रांजलि, मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिंसाभिध। नित्यं चारधारणमिव बुधा : यस्यैकपार्श्व महान, स्याद्वाद : परतो बभूवतु स्थानकान्तकल्पद्र मः ।। जैनदर्शन के अनुसार समाज में समतावादी भावना के लिए आर्थिक विषमता को, परिग्रहवाद को समाप्त करना आवश्यक है। जमाखोरी, रिश्वत, मिलावट, तस्करी, चोरी डकैती सब परिग्रहवादी भावना के अलग-अलग मुखौटे है और यह मुखौटे हमे सर्वत्र नजर आते है। इनके द्वारा हिंसावृत्ति को, भ्रष्टाचार को, अनैतिकता को बल मिलता है। इसी दुष्प्रवृत्ति के कारण दहेज जैसा अजगर अपना रुप अधिकाधिक विकराल बनाता जा रहा है। अनेक कोमलांगी नववधुओं को जिंदा जलाया जाता है, उन्हें अमानवीय यातनाओं का शिकार बनाया जा सकता है। कानून बना है देहेजविरोधी, लेकिन मनुष्य की अर्थलिप्सा पर रोक नहीं लग सकी। परिग्रह को जैनदर्शन में 'मूर्छा' कहा गया है,५ यही ममत्व की, आसक्ती की, लोभ की, मोह की भावना है। 'दशवैकाक्तिकसूत्र' में आसक्ति को ही परिग्रह माना गया है।२६ लोभ मैत्री, विनम्रता, प्रेम आदि सदगुणों का नाश कर डालता है। २० "मोहांध व्यक्ति को २५. तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) ७/१७, २६. दशवैकालि मन के दुर्भाव रुप अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी से काया और आत्मा दग्ध हो जाती है, मन भभक कर जल उठता है। २०९ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सन्मार्ग नहीं सूझता । २८ आर्थिक विषमता का कारण तृष्णा है, तृष्णा कभी शांत नहीं होती । तृष्णा तृष्णा को बढाती है, लोभ से लोभ पैदा होता है । इच्छाओं ओर तृष्णाओं को बढने से रोकना अपरिग्रह है। लोभासक्ति पर नियंत्रण लगाना अपरिग्रह है। अर्थ संचय आज के युग का प्रथम ध्येय है, आर्थिक संघर्ष और विषमता ने मानव जीवन को अशांति का अभिशार्प दे दिया है। अर्थजन्य विषमता से समाज बुरी तरह आक्रान्त है। किसी को झोपडपट्टी में सिर छिपाने को जगह नहीं और किसी के पास कई-कई भव्य भवन है। वही लोक परिग्रह को परिभाषित करते है; 'परि' = परितः सब ओर से, सब दिशाओं से, 'ग्रह' = ग्रहण करना, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना, चारों हाथों से लूट खसोट करना परिग्रह कहलाता है। मनुष्य परिग्रह के कारण असत्य बोलता है, चोरी करता है, दूसरे के साथ छल-कपट करता है। परिग्रह दो प्रकार का होता है आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत माया, लोभ, मान, क्रोध, रति, मिथ्यात्वव, स्त्रीवेद आदि आते है और बाह्य परिग्रह में मकान, खेत वस्त्र, पशु, दास-दासी, धन-धान्य आदि शामिल है। यदि कोई निर्धन है, लेकिन उसमें धनी बनने की आसक्ति या मोह है तो वह परिग्रही ही माना जायेगा। ज्योतिपुरुष महावीर ने वस्तुगत परिग्रह नहीं कहा, वरन् उन्होंने 'मुर्च्छा' को ही परिग्रह कहा है न सो परिग्गहो वुतो, नायपुतेण ताइणा मुच्छा परिग्गहो वुतो, इस वृतं महेसिणा ।। २९ उन्होंने परिमाण में आवश्यकतानुसार वस्तु-संग्रह और धनोपार्जन की स्वीकृति दी । आवश्यकता से अधिक धन संग्रहको उन्होने पाप कहा है और ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता। प्रेमचन्द धनी व्यक्ति को बडा नही समझते थे, क्योकिं बडा आदमी बनता है शोषण से लूट-खसोट से, बईमानी से दूसरों का हक छीनने से। गांधीजी ने सम्पति को जनसाधारण के प्रयोग के लिए 'ट्रस्टीशिप' का विचार दिया वह भी धनसंग्रह या परिग्रह के विरोधी थे। मार्क्सवाद में जो अर्थ का, पदार्थों का समान वितरण करने का आदर्श है वही अपरिग्रह है । इस्लाम में भी परिग्रह को निंदनीय माना गया है। समतावादी भूमि प्रदान करने के लिए आर्थिक विषमता की उँची होती दीवारों को तोडना होगा । भारतीय समाज में जातिवादी प्रथा एक अभिशाप है, कलंक है। एक जाति का व्यक्ति अपने को दूसरी जाति के व्यक्ति से श्रेष्ठ समझता है। शूद्र अछूत, अपृश्य समझे जाते थे । डॉ. आम्बेडकर जैसी राष्ट्र-विभूती को जातिवाद के कारण घृणा, अपमान का शिकार होना पडा फलतः उन्होने हिंदूधर्म का परित्याग कर बौद्धधर्म अंगीकार किया। इस शताब्दी की महानात्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अछूतों, शूद्रों को 'हरिजन' का नाम देकर समाज में आदर और समानता का दर्जा देने का भरसक प्रयत्न किया और उसमें वे कुछ सफल भी हुए। परन्तु हरिजनों पर आज भी यातनाओं की बिजली गिराई जाती है। अनेक स्थानों पर उन पर पुलिस द्वारा, उच्च जाति के लोगों द्वारा जुल्म ढाये जाते रहे है। कहने को तो हमारा संविधान धर्म, जाति से ऊपर है, धर्म और ज्ञाति निरपेक्ष है, परन्तु व्यवहार में हम कितने धर्मनिरपेक्ष या जातिनिरपेक्ष है ? सन् १९४७ से अब तक हम हरिजनों की दशा में सुधार नहीं कर सके। यह अवधि कोई कम नहीं है। राजनीति में धर्म, जाति का दखल नहीं होना चाहिए, राजनीति को धर्म में धर्म को राजनीति में नहीं लाना चाहिए। परन्तु निर्वाचन में जाति / धर्म के आधार पर 'पार्टी मेनडेट' दिया जाता है। मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिम को एम एल. ए. या एम. २८. उत्तराध्ययन ४ / ५२९. समणसुत्तं ३७९ २१० मानसिक चिंता फिक एक प्रकार की ठंडी आग है। For Private Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी. का टिकिट पार्टियां देती है। इस प्रकार राजनीति में निर्वाचन में हम धर्म और जाति को खुद ही दाखिल कर देते है। धर्म और जाति के नाम में हम एक दूसरे के गलेको काटते है, मकान-दुकान जलाते है क्या यह मनुष्य के लिए शोभनीय है? हिन्दू-मुस्लिम दंगे अंग्रेजों के जाने के बाद स्वतन्त्र भारत में आज तक जारी है, उन्हें हम बन्द नहीं करा सके। हजारों साल पहले महावीर ने मनुष्य की समानता का एक आदर्श प्रस्तुत किया था। उन्होने कहा था मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान होता है। उन्होने स्वयं हरिकेश चाण्डाल को गले से लगाया, उसे मुनि बनाया और कहा मुनष्य को मुनष्य से घृणा नहीं करनी चाहीए। हर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सब भगवान् बन सकते है। जैनदर्शन यह नहीं मानता कि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ ब्राह्मण कहलाता है या ब्राह्मणकुल मे पैदा होने पर व्यक्ति ब्राह्मण होता है। यहाँ जाति को जन्मना नहीं, कर्मणा मना गया है कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||३० अर्थात मुनष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है। ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म का आचरण करे,३१ जो सत्यवादी हो, अहिंसक हो, अकिंचन हो,३२ और जिसमें रागद्वेष न हो, भय न हो।३३ हमारा समाज जाति-प्रथा में, राग-द्वेष में, सम्प्रदाय में फंसा है। साम्प्रदायिक उन्माद ने धर्म-ज्योति को मलिन कर दिया है। समतावादी समाज की रचना के लिए साम्प्रदायिकता, जातिवाद, संकीर्णता और दुर्भावना को त्यागना होगा। जैनदर्शन इस युग में हमें नयी समाज-संरचना का व्यावहारिक रुप प्रदान करता है। सम्प्रदाय की प्रतिबद्धता की केंचुली को उतारना होगा। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण हम दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करते है, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की जरुरत नहीं समझते, क्योंकि एकान्तिक आग्रह से ग्रस्त होते है। धर्म-दृष्टि को व्यापक, उदार बनाने पर, धर्म-सहिष्णु होने पर, आत्मोपम्य दृष्टि विकसित करने पर अवश्य समतावादी समाज की संरचना की जा सकती है। ३०. उत्तराध्ययन २५/३१ ३१. उत्तराध्ययन २५/३० ३२. उत्तराध्ययन २५/२१ ३३. उत्तराध्ययन २५/२२-२३ संसार के छोटे-बडे प्रत्येक व्यकि आशा और कल्पना के जाल में फंस कर मंत्र भ्रमण करते रहते है। २११ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की नीति 0 उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. जिस प्रकार धार्मिक जीवन का आधार आचार है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन की रीढ नीति है और यह भी तथ्य है कि बिना नैतिक जीवन के धार्मिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से नीति, धर्म का आधार है। यही कारण है कि प्रत्येक धर्मप्रवर्तक, धर्मोपदेशक और धर्मसुधारक ने धर्म के साथ नीति का भी उपदेश दिया, जन साधारण को नैतिक जीवन जीने के प्रेरणा दी। हाँ, यह अवश्य है कि धर्म, धर्म के मूल्य, धर्म के सिद्धान्त स्थायी है, सदा समान रहते है। उनमें देश-काल की परिस्थितियों के कारण परिवर्तन नहीं होता; जैसे अहीसा धर्म है, यह संसार में सर्वत्र और सभी कालों में धर्म ही रहेगा। किन्तु नीति, समय और परिस्थिति सापेक्ष है, इसमें परिवर्तन आ सकता है। जो नीतिसिद्धान्त भारतीय परिस्थितियों के लिए उचित है, आवश्यक नहीं कि वे पश्चिमी जगत् में भी मान्य किये जाएँ, वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार नैतिक सिद्धान्त भिन्न प्रकार के भी हो सकते है। __ व्यावहारिक जीवन से प्रमुखतया सम्बन्धित होने के कारण नीतिसिद्धान्तों में परिवर्तन आ जाता है। जैन नीति के सिद्धान्त यद्यपि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा निश्चित कर दिये गये थे और वे दीर्घकाल तक चलते भी रहे थे; किन्तु उन सिद्धान्तों को युगानुकूल रुप प्रदान करके भगवान महावीर ने निश्चित किया और यही सिद्धान्त अब तक प्रचलित है। इसी अपेक्षा से इन्हे 'भगवान महावीर की नीती' नाम से अभिहित करना समीचीन होगा। भगवान् महावीर भगवान् महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड ग्राम में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी की कुक्षि से ईसा पूर्व ५९९ में हुआ था। आपने ३० वर्ष गृहवास में बिताये, तदुपरान्त श्रमण बने। १२.१/२ वर्ष तक कठोर तपस्या की, केवलज्ञान का उपार्जन किया और फिर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। ३० वर्ष तक अपने वचनामृत से भव्य जीवों के लिए कल्याण मार्ग बताया और आयुसमाप्ति पर ७२ वर्ष की अवस्था में कार्तिकी अमावस्या के दिन निर्वाण प्राप्त किया। वे जैन परम्परा के चौबीसवे और अन्तिम तीर्थंकर है। वर्तमान समय में उन्ही का शासन चल रहा है। भारतीय और भारतीयेतर सभी धर्मप्रवर्त्तको, से भगवान महावीर का उपदेश विशिष्ट रहा, उपदेश की विशिष्टता के कारण ही उनके द्वारा निर्धारित नीति में भी ऐसी विशेषताओं का समावेश हो गया जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सकतीं। इस अपेक्षा से भगवान महावीर की नीति को दो शीर्षको में विभाजित कीया जा सकता है १- भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति २- भगवान् महावीर की सामान्य नीती सामान्य नीति से अभिप्राय नीति के उन सिद्धान्तों से है, जिनके ऊपर अन्य दार्शनिकों, मनीषियों और धर्म-सम्प्रदायके उपदेष्टाओं ने भी अपने विचार प्रकट किये है। ऐसे नीति-सिद्धान्त २१२ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, अहिंसा आदि है।किन्तु इन सिद्धान्तों का युक्तियुक्त तर्कसंगत विवेचन जैन ग्रन्थों मे प्राप्त होता है। भगवान महावीर और उनके अनुयायियों ने इन पर गम्भीर चिन्तन किया है। विशिष्ट नीति से अभिप्राय उन नीति-सिद्धान्तों से है, जिन तक अन्य मनीषियों की दृष्टि नही पहुँची है। ऐसे नीति-सिद्धान्त अनाग्रह, अनेकान्त, यतना, समता अप्रमाद आदि है। यद्यपि यह सभी नीति-सिद्धान्त सामाजिक सुव्यवस्था तथा व्यक्तिगत व्यावहारिक सुखी जीवन के लिए थे फिर भी अन्य र्धम प्रवर्तकों के चिन्तन से यह अछूते रह गये। भगवान् महावीर और उनके आज्ञानुयायी श्रमणों, मनीषियों ने नीति के इन प्रत्ययों पर गम्भीर विचार किया है और सुखी जीवन के लिए इनकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। जैन नीति के मूल तत्व । उपर्युक्त सामान्य और विशिष्ट नीति के सिद्धान्तों को भली भाँति हृदयंगम करने के लिए यह अधिक उपयोगी होगा कि जैन नीति अथवा भगवान् महावीर की नीति के मूल आधारभूत तत्वों को और उनके हार्द को समझ लिया जाय। __ जैन नीति के मूल तत्व है, पुण्य, संवर और निर्जरा। ध्येय हैं- मोक्ष। आस्त्रव, बंध तथा पाप अनैतिक तत्व है। जैन नीति का सम्पूर्ण भाग इन्ही पर टिका हुआ है। पाप अनैतिक है, पुण्य नैतिक, आस्त्रव अनैतिक है, संवर नैतीक, बंध अनैतिक है निर्जरा नैतिक इस सुत्र के आधार पर हि सम्पूर्ण जैन निति को समझा जा सकता है। पाप और पुण्य शब्दों का प्रयोग तो संसार की सभी नीति और धर्म-परम्पराओं में हुआ है, सभी ने पाप को अनैतिक बताया और पुण्य की गणना नीति में की है। यह बात अलग है कि उनकी पाप एवं पुण्य की परिभाषाओं में अन्तर है इनकी परिभाषायें उन्होंने अपनी-अपनी कल्पनाओं में बाँधकर की है। किन्तु आस्त्रव, संवर बंध और निर्जरा शब्द जैन नीति के विशेष शब्द है। इनका अर्थ समझ लेना अभीष्ट है। आस्त्रव का नीतिपरक अभिप्राय है- वे सभी क्रियाएँ जिनको करने से व्यक्ति का स्वयं का जीवन दु:खी हो, जिनसे समाज में अव्यवस्था फैले आतंक बढ़े विषमता पनपे, समाज के, देश के, राष्ट्र, राज्य और संसार के अन्य प्राणियों का जीवन अशान्त हो जाय, वे कष्ट में पड़ जायें। जैन-नीति ने आस्त्रों के प्रमुख पाँच भेद माने है-१ मिथ्यात्व (गलत धारणा) २. अविरीत (आत्मानुशासन का अभाव), ३. प्रमाद (जागरुकता का अभाव-असावधानी), ४. कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ) और ५. अशुभ योग (मन, वचन काय की निंद्य एवं कुत्सित वृत्तियां)। एक अन्य अपेक्षा से भी पांच प्रमुख आस्वव है- १. हिंसा, २. मृषावाद-असत्य भाषण, ३. चौर्य ४. अब्रह्म सेवन और ५. परिग्रह।। स्पष्ट है कि ये सभी आस्त्रव अनैतिक है, समाज एवं व्यक्ति के लिए दु:खदायी है, अशान्ति, विग्रह और (उत्पीडन करने वाले है। इन आस्त्रवों को अनैतिकताओं को अनैतिक प्रवृत्तियों को रोकना, इनका आचरण न करना संवर है- नीति है, सुनीति है। हिंसा आदि पाँचों आस्त्रवों को पाप भी कहा जाता है, इसीलिए पाप अनैतिक है। किसी का दिल दुखाना, शारिरिक मानसिक चोट पहुँचाना, झूठ बोलना, चोरी करना, धन अथवा वस्तुओं का अधिक संग्रह करना आदि असामाजिकता है, अनैतिकता है। अनन्त पाप और दुष्कर्मों के भार से जिनका आत्म-स्वरूप तिरोहित हो जाता है, वे कभी भी सत्यता को समझ नहीं सकते। २१३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज समाज में जो विग्रह, वर्गसंघर्ष, अराजकता आदि बुराइयाँ तीव्रता के साथ बढ रही है इनका मूल कारण उपर्युक्त अनैतिक आचरण और व्यवहार ही है। एक और धन के उंचे पर्वत और दूसरी और निर्धनता एवं अभाव की गहरी खाई ने ही वर्गसंघर्ष और असंतोष को जन्म दिया है, जिसके कारण मानव-मन में विप्लव उठ खड़ा हुआ है। इस पाप रुप अनैतिकता के विपरीत अन्य व्यक्तियों को सुख पहुँचाना, अभावग्रस्तों का अभाव मिटाना, रोगी आदि की सेवा करना, समाज में शान्ति स्थापना के कार्य करना, धन का अधिक संग्रह न करता, कटु शब्द न बोलना, मिथ्या भाषण न करना, चोरी, हेरा-फेरी आदि न करना नैतिकता है, नीतिपूर्ण आचरण है। धर्मशास्त्रों के अनुसार बन्ध का अभिप्राय है- अपने ही किये कर्मों से स्वयं ही बँध जाना, किन्तु नीति के सन्दर्भ मे इसका अर्थ विस्तृत है। व्यक्ति अपने कार्यों के जाल में स्वयं तो फंसता ही है, दूसरो को भी फंसाता है। जैसे मकड़ी जाला बुनकर स्वयं तो उसमें फंसती ही है, किन्तु उसकी नीयत मच्छरों आदि अपने शिकार को भी उस जाल में फंसाने की होती है ओर फँसा भी लेती है। इसी तरह कोई व्यक्ति झूठ-कपट का जाल बिछाकर लच्छेदार और खुशामद भरी मीठी-मीठी बाते बनाकर अन्य लोगों को अपनी बातों में बहलाता है, भुलावा देकर उन्हें वाग जाल में फँसाता है, उन्हे वचन की डोरी से बांधता है, अकडता है तो उसके ये सभी क्रिया कलाप-वागजाल बन्धन रुप होने से अनैतिक है। और नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से निर्जरा है, ऐसे वागजालो में किसी को न फँसाना, झुठ-कपट और लच्छेदार शब्दों में किसी को न बांधना। यदि पहले कषाय आदि के आवेग में किसी को इस प्रकार बन्धन में ले लिया हो तो उसे वचनमुक्त कर देना, साथ, ही स्वयं उस बन्धन से मुक्त हो जाना। इसी बात को हेमचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में कहा है आस्त्रवो भवहेतु: स्यात् संवरो मोक्षकारणम्। _इतीयनार्हती दृष्टिरन्यदस्या प्रपंचनम्।। - वीतराग स्त्रोत्र - आस्त्रव भव का हेतु और संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्त्रव अनैतिक है तथा संवर नैतिक है। यह आर्हत (अरिहन्त भगवान् तथा उनके अनुयायियों की) दृष्टि है। अन्य सब इसी का विस्तार है। जैन दृष्टि के इन मूल आधारभूत तत्वों के प्रकाश में अब हम भगवान् महावीर की नीति को समजने का प्रयास करेगें। भगवान् महावीर के अनुयायियों का वर्गीकरण श्रमण और श्रावक इन दो प्रमुख वर्गो में किया जा सकता है। इन दोनों ही वर्गों के लिए भगवान ने आचरण के स्पष्ट नियम निर्धारित कर दिये है। पहले हम श्रमणों की ही लें। श्रमणाचार में नीति श्रमण के लिए स्पष्ट नियम है कि वह अपना पूर्व परिचय -गृहस्थ जीवन का परिचय श्रावक को दे। सामान्यतया श्रमण अपने पूर्व जीवन का परिचय श्रावकों को देते भी नहीं, किन्तु कभी-कभी परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि परिचय देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा श्रमणों के प्रति आशंका हो सकती है। इसे एक दृष्टान्त से समझिये २१४ असद्ज्ञान मानव को सूखाभास के भ्रमजाल में फंसाकर जन्म-जन्म की वेदनाओं में गलाकर भव भ्रमण करवाता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् नेमिनाथ के शिष्य छह मुनि थे- अनीकसेन आदि। ये छहों सहोदर भ्राता थे, रुप रंग आदि में इतनी समानता थी कि इनमें भेद करना बड़ा कठिन था। दो-दो के समूह में वह छहों अनगार देवकी के महल में भिक्षा के लिए पहुँचे। देवकी के हृदय में यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये दो ही साधु मेरे घर भिक्षा के लिए तीन बार आये है, जबकि श्रमण नियम से एक ही दिन में एक घर में दो बार भिक्षा के लिए नहीं जाता। देवकी की इस शंका को मिटाने के लिए साधुओं ने अपना पूर्व परिचय दिया, जो कि उस परिस्थिति में अनिवार्य था। इसलिए भगवान ने साधु के लिए उत्सर्ग और अपवाद - दो मार्ग बताये है। उत्सर्गमार्ग में तो पूर्व परिचय साधक देता नहीं, लेकिन अपवाद-मार्ग में, यदि विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो दे सकता है। यह अपवाद-मार्ग जैन साध्वाचार में नीति का द्योतक है। इसी प्रकार केशी श्रमण ने जब गौतम गणधर से भ. पार्श्वनाथ की सचेलक और भ. महावीर की अचेलक धर्मनीति के भेद के विषय में प्रश्न किया तो गणधर गौतम का उत्तर नीति का परिचायक है। उन्होंने बताया कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तप की साधना ही मोक्ष मार्ग है। वेष तो लोक-प्रतीति के लिए होता है। इसी प्रकार के अन्य दृष्टान्त श्रमणाचार सम्बन्धी दिये जा सकते है, जो सीधे व्यावहारिक नीति अथवा लोकनीति से सम्बन्धित है। अब हम भगवान् महावीर की नीति का- विशिष्ट नीति का वर्णन करेंगे, जिस पर अन्य विचारकों ने बिल्कुल भी विचार नहीं किया है, और यदि किया भी है तो बहुत कम किया है। भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति के मूलभूत प्रत्यय है - अनाग्रह, यतना, अप्रमाद, उपशम आदि। समाज देश अथवा राष्ट्र का एक वर्ग अपने ही दृष्टिकोण से सोचता है उसी को उचित मानता है तथा अन्यों के दृष्टिकोण को अनुचित। वह उनके दृष्टिकोण का आदर नही करता, इसी कारण पारस्परिक संघर्ष होता है। आर्य स्कन्दक ने भगवान महावीर से पुछा - लोक शाश्वत है या अशाश्वत, अन्त सहित है या अन्त रहित? इसी प्रकार के और भी प्रश्न किये। भगवान ने उसके सभी प्रश्नों को अनेकांत नीति से उत्तर दिया, कहा लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। यह सदा काल से रहा है, अब भी है और भविष्य में रहेगा, कभी इसका नाश नहीं होगा। इस अपेक्षा से यह शाश्वत है। साथ ही इसमें जो द्रव्य-काल-भाव की अपेक्षा परिवर्तन होता है, उस अपेक्षा से अशाश्वत भी है। इसी प्रकार भगवान ने स्कन्दक के सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। इस अनेकांतनीति से प्राप्त हुए उत्तरों से स्कन्दक संतुष्ट हुआ। यदि भगवान् अनेकांत नीति से उतर न देते तो स्कन्दक भी संतुष्ट न होता और सत्य का भी अपलाप होता। सत्य यह है कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है। वस्तु स्थिर भी रहती है और उसी क्षण उसमें काल आदि की अपेक्षा परिवर्तन भी १. अन्तगड सुत्र, २. उत्तराध्ययन सुत्र १३/२९-३२, ३. भगवती २, ९. सद्ज्ञान के बिना सिद्धि नहीं। २१५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते रहते है। आज को विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है, तभी आइन्स्टीन आदि वैज्ञानिकों ने अनेकांत नीति की सराहना की है, इसे भगवान् महावीर की अनुपम देन माना है, और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए इसे बहुत उपयोगी स्वीकार किया है। आइन्स्टीन का Theory of relativity तो स्पष्ट सापेक्षवाद अथवा अनेकांत ही है। यतना-नीति यतना का अभिप्राय है- सावधानी। नीति के संदर्भ में सावधानी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। भगवान ने बताया है कि सोते, जागते, चलते, उठते, बैठते बोलते-पत्येक क्रिया को यतनापूर्वक४ करना चाहिए। सावधानी पूर्ण व्यवहार से विग्रह की स्थिति नहीं आती, परस्पर मन-मुटाव नहीं होता, किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होता। आत्मा की सरक्षा भी होती है। समता-नीति समता भाव अथवा साम्यभाव भगवान् महावीर या जैन धर्म की विशिष्ट नीति है। आचार और विचार में यह अहिंसा की पराकाष्ठा है। भगवान् महावीर ने आचार-व्यवहार की नीति बताते हुए कहा अप्पसमे ममनिन छप्पि काए । छह काय के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझो। छह काय से यहाँ अभिप्राय मनुष्य, पशु, पक्षी, देव छोटे से छोटे कृमि और यहां तक कि जल, बनस्पति, पेड पौधे आदि प्राणिमात्र से है। जैन धर्म इन सभी में आत्मा मानता है और इसीलिए इनको दु:ख देना, अनीति में परिगणित किया गया है, तथा इन सबके प्रति समत्वभाव रखना जैन नीति की विशेषता है। क्रूर, कुमार्गगामी, अपकारी व्यक्तियों के प्रति भी समता का भाव रखना चाहिये, यह जैन रीति है। भागवान् पार्श्वनाथ पर उनके साधनाकाल में कमठ ने उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने इस उपसर्ग को दूर किया, किन्तु प्रभु पार्श्वनाथ ने दोनों पर ही सम भाव रखा। मनोविज्ञान और प्रकृति का नियम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और फिर प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया। इस प्रकार यह क्रिया प्रतिक्रिया का एक चक्र ही चलने लगता है। इसको तोडने का एक ही उपाय है- क्रिया की प्रतिक्रिया होने ही न दी जाय। केसी एक व्यक्ति ने दूसरे को गाली दी, सताया, उसका अपकार किया या उसके प्रति दुष्टतापूर्ण व्यवहार किया। उसकी इस क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरुप वह दूसरा व्यक्ति भी गाली दे अथवा दुष्टतापूर्ण व्यवहार करे तो संघर्ष की, कलह की स्थिति बन जाये और यदि वह समता का भाव रखे, समता नीति का पालन करे तो संघर्ष शान्ति में बदल जायेगा। समाजव्यवहार, तथा लोक में शान्ति हेतु समता की नीति की उपयोगिता सभी के जीवन में प्रत्यक्ष है, अनुभवगम्य है। समतानीति का हार्द है- सभी प्राणियों का सुख-दुःख अपने ही सुख-दु:ख के समान समझना। सभी सुख चाहते है, दु:ख कोई भी नहीं चाहता। इसका आशय यह है कि ऐसा कोई भी काम न करना जिससे किसी का दिल दुखे। और यह समतानीति द्वारा ही हो सकता है। ४. दशवैकालिक, ५. उत्तराध्ययन सूत्र २१६ सद्शांत के बिना मुक्ति नहीं। सद्ज्ञान के बिना अनन्त सुखा की भी उपलब्धि नही। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशासन एवं विनयनीति विनय एवं अनुशासन संसार की ज्वलंत समस्यायें है। अनुशासन समाज में सुव्यवस्था का मूल कारण है और विनय जीवन में सुख-शान्ति प्रदान करता है। यद्यपि विनय तथा अनुशासन को सभी ने महत्व दिया है, किन्तु भगवान महावीर ने इसे जीवन का आवश्यक अंग बताया है। उन्होंने तो विनय को धर्म का मूल - "विणयमूलो धम्मो' कहा है। विनय का लोकव्यवहार में अत्यधिक महत्व है। एक भी अविनयपूर्ण वचन कलह और केश का वातावरण उत्पन्न कर देता है, जबकि विनय-निति के पालन से संघर्ष की अनि शांत हो जाती है, वैर का दावानल सौहार्द में परिणत हो जाता है। विनय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की कुंजी है। लेकिन विनयनीति का पालन वही कर पाता है, जो अनुशासित हो, अनुशासन पाकर कुपित न हो। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा अणुसासिओ न कुपिज्जा और विणए ठविज अप्पाणं ।। विनय में स्थित रहे, विनय नीति का पालन करे। गुरुजनों, माता-पिता आदि का विनय परिवार में सुख-शांति का वातावरण निर्मित करता है तथा मित्रों, सम्बन्धियों, समाज के सभी व्यक्तियों के प्रति विनययुक्त व्यवहार यश-कीर्ति तथा प्रेम एवं उन्नति की स्थिति के निर्माण में सहायक होता है। मित्रता (Friendship) को संसार के सभी विचारक श्रेष्ठ नीति स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि सिर्फ अपनी ही जाति तक सीमित रह गई, कुछ थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के साथ मित्रता नीति के पालन की बात कही। किन्तु भगवान् महावीर की मैत्री-नीति का दायरा बहुत विस्तृत है, वे प्राणीमात्र के साथ मित्रता की नीति का पालन करने की बात कहते हैं मित्तिं भूएसु कप्पए। प्राणीमात्र के साथ मैत्री का मित्रता की नीति का संकल्प करे। भगवान् की इसी आज्ञा को हृदयंगम करके प्रत्येक जैन यह भावना करता है प्राणीमात्र के साथ मेरी मैत्री (मित्रता) है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई। मित्रता की यह नीति स्वयं को और अपने साथ अन्य सभी प्राणियों को आश्वस्त करने की नीति है। सामूहिकता की नीति सामूहिकता अथवा एकता सदा से ही संसार की प्रमुख आवश्यकता रही है। बिखराव अलगाव की प्रवृत्ति अनैतिक है और परस्पर सद्भाव-सौदाद-मेल-मिलाप नैतिक है। भगवान् महावीर ने सामूहिकता तथा संघ-ऐक्य का महत्त्व साधुओं को बताया। उनके संकेत का अनुगमन करते हुए साधु भोजन करने से पहले अन्य साधुओं को निमन्त्रित करता और कहता है कि यदि मेरे लाये भोजन में से कुछ ग्रहण करें तो मैं संसार-सागर से तिर जाऊँ। साहू हुज़ामि तारिओ दशवैकालिकसूत्र के इन शब्दों से यही नीति परिलक्षित होती है। वैदिक परम्परा में भी सामूहिकता अथवा ५. उत्तराध्ययनसुत्र६. उत्तराध्ययन सु,७. उत्तराध्ययन सुत्र ६/२, ८. उत्तराध्ययन सुत्र ६/२, ९. आवश्यक सुत्र, १०. दशवैकालिकसूत्र ५/१२५ किंतु जब असद्ज्ञान को सद्ज्ञान और सज्ञान को असद्ज्ञान मान पूजा करते है तब वे दुःख के दावानल की सृष्टि करते है। २१७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगठन की महत्ता स्वीकृत की गई है। 'संघे शक्ति: कलौ युगे' कलियुग में संगठन में ही शक्ति है। इन शब्दों में सामूहिकता की ही नीति मुखर हो रही है। आधुनिक युग में प्रचलित शासनप्रणाली प्रजातन्त्र का आधार तो सामूहिकता है ही। प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा है-United we stand divided we fall. —सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित.होने पर हमारा पतन हो जाता है। सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है। स्वहित और लोकहित स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्त्वपूर्ण पहलू रहे हैं। विदुर११ और चाणक्य ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है- अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीए, जीवन उसी का है।१३ यहाँ तक कहा गया है जिस जीवन में लोकहित न हो उसकी तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है।१४ इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांगी नीति-धाराएँ नीति-साहित्य में प्राप्त होती हैं। लेकिन भगवान महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना। इसका कारण यह है कि भगवान् की द्रष्टि विस्तृत आयाम तक पहुँची हुई थी। उन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया। स्वहित का अर्थ स्वार्थ और लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया। अपितु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना। इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता-जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके। __ उन्होंने अपने साधुओं को स्व-पर कल्याणकारी बनने का सन्देश दिया। इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया। श्रमणजन अपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं। भगवान् की वाणी लोकहित के लिए है।१५ पांचों महाव्रत स्वहित के साथ लोकहित के लिए भी हैं।१६ अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है|१७ 'णमोत्थुणं' सूत्र में तो भगवान् को लोकहितकारी बताया ही है। भगवान् स्वयं तो अपना हित कर ही चुके होते हैं; किन्तु परिहन्तावस्था की सभी क्रियाएँ, उपदेश आदि लोकहित ही होती हैं। __साधु जो निरन्तर (नवकल्पी) पैदल ही ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, उसमें भी स्वहित के मायालोकहित सन्निहित है। ही श्रावकवर्ग और साधारणता देते हैं। सिद्धान्तों में लोकहित श्रमण साधुओं के समान ही श्रावकवर्ग और साधारण जन भी, जो भगवान् महावीर की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, स्वहित के साथ लोकहित को भी प्रमुखता देते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगवान महावीर द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों में लोकहित को सदैव ही उच्च स्थान प्राप्त हुआ है और उनका अनुयायीवर्ग स्वहित के साथ-साथ लोकहित का भी अविरोधी रूप से ध्यान रखता है तथा इस नीति का पालन करता है। भगवान् महावीर ने इन विशिष्ट नीतियों के अतिरिक्त सत्य, अहिंसा, करुणा—जीव-मात्र पर दया आदि सामान्य नीतियों का भी मार्ग प्रशस्त किया तथा इन्हें पराकाष्ठा तक पहुँचाया। नीति के सन्दर्भ में भगवान ने इसे श्रमण नीति और श्रावक नीति के रूप में वर्गीकृत किया। श्रावक चूंकि समाज में रहता है, सभी प्रकार के वर्गों के व्यक्तियों से उसका सम्बन्ध रहता ११. विदुरनीति १६, १२. चाणक्यनीति १/६: पंचतन्त्र १/३८७ १३. सुभाषित, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. २०८, १४. वही, पृष्ठ २०५ १५. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्फध २, अ. १, सू. २१ १६. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्कन्ध २, अ. १, सू., १७. शकस्तब-आवश्यकसूत्र १८. श्रावक व्रत और उनके अतिचारों के नीतिपरक विवेचन के लिए देखें लेखक की जैन नीतिशास्त्र पुस्तक का सैद्धान्तिक खण्ड (अप्रकाशित) २१८ पाप का उदयकाल होता है तब पुण्य भी स्तंभित हो जाता है। पुण्य के उदयकाल में पाप स्तंर्मित हो जाता है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, अत: इसके लिए समन्वयनीति का विशेष प्रयोजन है। साथ ही धर्माचरण का भी महत्त्व है। उसे लौकिक विधियों का भी पालन करना आवश्यक है। इसीलिए कहा गया है सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम्॥ -सोमदेवसरि : उपासकाध्ययन —जैनों को सभी लौकिक विधियाँ प्रमाण हैं, शर्त यह है कि सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रतों में दोष न लगे। श्रावक-व्रतरूपी सिक्के के दो पहलू होते हैं—१. धर्मपरक और २. नीतिपरक। श्रावक व्रतों के अतिचार भी इसी रूप में सन्दर्भित हैं। उनमें भी नीतिपरक तत्त्वों की विशेषता है। ठाणांगसूत्र में जो अनुकंपादान, संग्रहदान, अभयदान, धर्मदान, कारुण्यदान, लज्जादान, गौरवदान, अधर्मदान, करिष्यतिदान और कृतदान—यह दस प्रकार के दान१६ बताये गये हैं, वे भी प्रमुख रूप से लोकनीतिपरक ही हैं। उनकी उपयोगिता लोकनीति के सन्दर्भ में असंदिग्ध है। इसी प्रकार ठाणांगसूत्र में वर्णित दस धर्मो २० में से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म आदि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नीति से है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन नैतिक द्रष्टिबिन्दु स्वहित के साथ-साथ लोकहित को भी लेकर चलता है। गृहस्थ-जीवन में तो लोकनीति को स्वहित से अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ है। __ भगवान् के उपदेशों में निहित इसी समन्वयात्मक बिन्दु का प्रसारीकरण एवं पुष्पनपल्लवन बाद के आचार्यों द्वारा हुआ। आचार्य हरिभद्रकृत धर्मबिन्दुप्रकरण२१ और आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र२२ में मार्गानुसारी के जो ३५ बोल २३ दिये गये हैं वे भी सद्गृहस्थ के नैतिक जीवन से सम्बन्धित प्रवचनसारोद्वार में श्रावक के २१ गुणों में भी लगभग सभी गुणनीति से ही सम्बन्धित हैं। इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा निर्धारित नीति-सिद्धान्तों का लगातार विकास होता रहा और अब भी हो रहा है। यद्यपि नीति के सिद्धान्त वही हैं, किन्तु उनमें निरन्तर युगानुकूल परिमार्जन और परिष्कार होता रहा है, यह धारा वर्तमान युग तक चली आई है। महावीर-युग की नैतिक समस्याएँ और भगवान् द्वारा समाधान भगवान् महावीर का युग संघर्षों का युग था। उस समय आचार, दर्शन, नैतिकता, सामाजिक १९. दसविहे दाणे पण्णत्ते, तंजहाअणुकंपासंगहे चेव, भये कालुणिये इय। लज्जाए गारवेण य, अहम्मे पुण सत्तमे। धम्मे य अछमे कुत्ते कहीइ य कतंति य। -ठाणांग १०/७४५ २०. दसविहे धम्मे पण्णत्ते तंजहा(१) गामधम्मे, (२) नगरधम्मे, (३) रट्टेधम्मे, (४) पासंडधम्मे, (६) गणधम्मे, (७) संघधम्मे, (८) सुयधम्मे, (९) चरित्तधम्मे, (१०) अस्थिकायधम्मे। -ठाणांग १०/७६० २१. आचार्य हरिभद्र-धर्मबिन्दुप्रकरण १, २२. आचार्य हेमचन्द्र-योगशास्त्र १/४७-५६ २३. मार्गानुसारी के ३५ बोलों और श्रावक के २१ गुणों का नीतिपरक निवेचन अन्यत्र किया गया हैं। २४. प्रवचनसारोद्धारदार २३९, गाथा १३५६-१३५८. संपूर्ण सुख में रहने वाला मानव जब दुःख के दावानल के बीच फंस जाता है तब वह दुःख का मुकाबला कर नहीं सकता। २१९ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच-नीच की धारणाएँ, दास-दासी-प्रथा आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ थीं। सभी वर्ग उनमें भी समाज में उच्चताप्राप्त ब्राह्मणवर्ग अपने ही स्वार्थों में लीन था, मानवता पद-दलित हो रही थी, क्रूरता का बोलबाला था, नैतिकता को लोग भूल से गये थे। ऐसे कठिन समय में भगवान् महावीर ने उन समस्याओं को समझा, उन पर गहन चिन्तन किया और उचित समाधान दिया। १. नैतिकता के दो दृष्टिकोणों का उचित समाधान उस समय ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित हिंसक यज्ञ एक ओर चल रहे थे तो दूसरी और देह दण्डरुप पंचाग्नि तप की परम्परा प्रचलित थी। यद्यपि भ. पार्श्वनाथ ने तापसपरम्परा के पाखंड को मिटाने का प्रयास किया किन्तु वे नि:शेष नहीं हए थे। भगवान् महावीर ने यज्ञ, याग, श्राद्ध आदि तथा पंचाग्नि तप को अनैतिक (पापमय) कहा और बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, इसमें पापकारी प्रवृत्तियों नहीं होनी चाहिए। उन्होंने विचार और आचार के समन्वय की नीति स्थापित की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुभ विचारों के अनुसार ही आचरण भी शुभ होना चाहिए। तथा शुभ आचरण के अनुरूप विचार भी शुभ हों। यों उन्होंने नैतिकता के बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों पक्षों का समन्वय करके मानव के सम्पूर्ण (अन्तर्बाह्य) जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा की। २. सामाजिक असमानता की समस्या उस युग में जाति एवं वर्ण के आधार पर मानव-मानव में भेद था ही, एक को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझा जाता था, किन्तु इस ऊँच-नीच की भावना में धन भी एक प्रमुख घटक बन गया था। धनी और सत्ताधीशों को सम्मानित स्थान प्राप्त था, जबकि निर्धन सत्ताविहीन लोग निम्न कोटि के समझे जाते थे। शूद्रों-दासों की स्थिति तो बहुत ही दयनीय थी। वे पशु से भी गये बीते माने जाते थे। यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से तो विषम थी ही, साथ ही इसमें नैतिकता को भी निम्नतम स्तर तक पहुँचा दिया गया था। भगवान् महावीर ने इस अनैतिकता को तोड़ा। उन्होंने अपने श्रमणसंघ में चारों वर्गों और सभी जाति के मानवों को स्थान दिया तथा उनके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया। चाण्डालकुलोत्पन्न साधक हरिकेशी२५ की यज्ञकर्ता ब्राह्मण रुद्रदेव पर उच्चता दिखाकर नैतिकता को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसी प्रकार चन्दनबाला२६ के प्रकरण में दास-प्रथा को नैतिक दृष्टि से मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध किया। मगध सम्राट् श्रेणिक७ का निर्धन पूणिया के घर जाना और सामायिक के फल की याचना करना, नैतिकता की प्रतिष्ठा के रूप में जाना जायेगा, यहाँ धन और सत्ता का कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व है नैतिकता का, पूणिया के नीतिपूर्ण जीवनका। भगवान महावीर ने जन्म से वर्णव्यवस्था के सिद्धान्त को नकार कर कर्म से वर्णव्यवस्था२८ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और इस प्रतिपादन में नैतिकता को प्रमुख आधार बनाया। उस युग में ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित यज्ञ के बाह्य स्वरूप को निर्धारित करने वाले लक्षण को भ्रमपूर्ण बताकर नया आध्यात्मिक लक्षण दिया, जिसमें नैतिकता का तत्त्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मानव की जकड़न से मुक्ति उस युग का मानव दो प्रकार के निविड बन्धनों से जकड़ा हुआ था- (१) ईश्वर कर्तृत्ववाद २५. उत्तराध्ययन सूत्र, १२ वाँ हरिकेशीय अध्ययन, २६. महावीरचरियं, गुणचन्द्र २७. श्रेणिकचरित्र, २८. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २५, गा. २७, २१ आदि। २९. उत्तराध्ययनसूत्र १२/४४ २२० साधु पूरुषों के प्रभाव से अनेक पापी आत्मायें सत्य मार्गपर विचरण करती हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और (२) सामाजिक धार्मिक तथा नैतिक रूढ़ियों से। इन दोनों बन्धनों से ग्रस्त मानव छटपटा रहा था। इन. बन्धनों के दुष्परिणामस्वरूप नैतिकता का हास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर फैलने का अवसर मिल गया। ईश्वरवाद तथा ईश्वरकर्तृत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बना ली। साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियंत्रक और नियामक माना जाने लगा। इससे मानव की स्वतन्त्रता का हास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई। भगवान् ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही, साथ उसमें नैतिक साहस भी जगाया। - इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जल स्नान) एक नैतिक कर्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रुप भी प्रदान कर दिया गया था, जब कि बाह्य स्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रुढिवादिता है। भगवान ने स्नान का नया आध्यात्मिक लक्षण३० देकर इस रुढिवादिता को तोडा। ब्राह्मणों को दान देना भी उस युग में गृहस्थ का नैतिक-धार्मिक कर्त्तव्य बना दिया गया था। इस विषय में भी भगवान ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा कि प्रतिमास सहस्त्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है।३१ वस्तुत: भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं है, अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनो में दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया, किन्तु उस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रुढि बन गई थी, इस रुढिग्रस्तता को ही भगवान ने तोडकर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी। भगवान के कथन का अनुमोदन धम्मपद ३२ मे भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य३३ में भी। उपसंहार इस सम्पूर्ण विवेचन से सपष्ट है कि भगवान महावीर ने नीति के नये आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित किये। संवर आदि ऐसे धटक है जिन पर अन्य विद्वानों की दृष्टि न जा सकी। उन्होंने अनाग्रह, अनेकांत, यतना, अप्रमाद, समता, विनय आदि नीति के विशिष्ट तत्व मानव को दिये। सामूहिकता को संगठन का आधार बताया और श्रमण एवं श्रावक को उसके पालन का संदेश दिया। सामान्यतया, सभी अन्य धर्मो ने धर्म तत्व को जानने के लिए मानव को बुद्धि-प्रयोग की आज्ञा नहीं दी, यही कहा कि जो धर्म-प्रवर्तको ने कहा है, हमारे शास्त्रों में लिखा है, उसी पर विश्वास कर लो। किन्तु भगवान महावीर मानव को अंधविश्वासी नहीं बनाना चाहते थे, अत: 'पन्ना समिक्खए धम्म' कहकर मानव को धर्मतत्व में जिज्ञासा और बुद्धि-प्रयोग को अवकाश देकर उसके नैतिक धरातल को ऊँचा उठाया। आत्महित के साथ-साथ लोकहित का भी उपदेश दिया। तत्कालीन एकांगी विचारधाराओं का सम्यक समन्वय किया, सामाजिक धार्मिक दृष्टि से रसातल में जाते हुए नैतिक मूल्यों की ठोस आधार पर प्रतिष्ठा की। इस प्रकार भगवान महावीर ने नीति के ऐसे दिशानिर्देशक सूत्र दिये जिनका स्थायी प्रभाव हुआ और समस्त नैतिक चिन्तन पर उनका प्रभाव आज भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। ३०. उत्तराध्ययन सूत्र १२/४६, ३१. उत्तराध्ययन सूत्र ९/४०, ३२. धम्मपद १०६ ३३. देखिए, गीता ४/२६-२७ पर शांकर भाष्य संसार में ऐसे भी पूरुष है जो आपत्ति के आंधी-तूफान का पान कर लेते हैं। २२१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और स्याद्वाद डा. हुकमचंद भारिल्ल वस्तु का स्वरुप अनेकान्तात्मक है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुणधर्मो से युक्त है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु ही अनेकान्त है और वस्तु के अनेकान्त स्वरुप को समझाने वाली सापेक्ष कथन पद्धति को स्यावाद कहते हैं। ये अनेकान्त और स्याद्वाद में द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है। समसार की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में आचार्य अमृतचन्द्र इस सम्बन्ध में लिखते "स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरुप को सिद्ध करने वाला अर्हन्त सर्वज्ञ का अस्खलित (निधि) शासन है। वह (स्याद्वाद) कहता है कि अनेकान्त स्वभाव वाली होने से सब वस्तुएं अनेकान्तात्मक हैं।... जो वस्तु तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है- इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।" अनेकान्त शब्द "अनेक" और "अन्त" दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ होता है- एक से अधिक। एक से अधिक दो भी हो सकते हैं और अनन्त भी। दो और अनन्त के बीच में अनेक अर्थ सम्भव हैं। तथा अन्त का अर्थ है धर्म अर्थात् गुण। प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण विद्यमान हैं, अत: जहाँ अनेक का अर्थ अनन्त होगा वहाँ अन्त का अर्थ गुण लेना चाहिये। इस व्याख्या के अनुसार अर्थ होगा। अनन्तगुणात्मक वस्तु ही अनेकान्त है। किन्तु जहाँ अनेक का अर्थ दो लिया जाएगा वहाँ अन्त का अर्थ धर्म होगा। तब यह अर्थ होगा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में होना अनेकान्त है। स्यात्कार का प्रयोग धर्मो में होता है, गुणों में नहीं। सर्वत्र ही स्यात्कार का प्रयोग धर्मो के साथ किया है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं। यद्यपि "धर्म" शब्द का सामान्य अर्थ एण होता है, शक्ति आदि नामों से भी उसे अभिहित किया जाता है, तथापि गुण और धर्म में कुछ अन्तर है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त शक्तियाँ है, जिन्हें गुण या धर्म कहते हैं। उनमें से जो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं या सापेक्ष होती हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। जैसे- नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, सत्-असत्, भिन्नता-अभिन्नता आदि जो शक्तियाँ विरोधाभास से रहित है, निरपेक्ष हैं, उन्हें गुण कहते हैं। जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि पुद्गल के रुप, रस गंध आदि। जिन गुणों में परस्पर कोई विरोध नहीं है, एक वस्तु में उनकी एक साथ सत्ता तो सभीवादी-प्रतिवादी सहज स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु जिनमें विरोधता प्रतिभासित होता है, उन्हें स्याद्वादी ही स्वीकार करते हैं। इतर जन उनमें से किसी एक पक्ष को ग्रहण कर पक्षपाती हो जाते हैं। अत: अनेकान्त की परिभाषा में परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रकाशन पर विशेष बल दिया गया है। प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक युगल (जोडे) पाये जाते हैं, अत: वस्तु के बल अनेक धर्मो (गुणों) का ही पिझड नहीं है- किन्तु परस्पर विरोधी दिखने वाले अनेक धर्म-युगलों का भी पिनड नहीं है। उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मो को स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादन करता है। २२२ शंका के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। उन सबका कथन एक साथ तो सम्भव नहीं है- "योंकि शब्दो की शक्ति सीमित है, वे एक समय में एक ही धर्म को कह सकते हैं। अत: अनन्त धर्मो में एक विवक्षित धर्म मुख्य होता है जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है, बाकी अन्य सभी धर्म गौण होते हैं, क्योंकि उनके सम्बन्ध में अभी कुछ नहीं कहा जा रहा है। यह मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा नहीं, किन्तु वक्ता की इच्छानुसार होती है। विवक्षा अविवक्षा वाणी के छे भेद हैं, वस्तु के नहीं। वस्तु में तो सभी धर्म प्रति समय अपनी पूरी हैसियत से विद्यमान रहते हैं, उनमें मुख्य - गौण का कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि वस्तु में तो उन परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों को अपने में धारण करने की शक्ति है, वे तो उस वस्तु में अनादिकाल से विद्यमान हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। उनको एक साथ कहने की सामर्थ्य वाणी में न होने से वाणी में विवक्षा अविवक्षा और मुख्य-गौण का भेद पाया जाता है। वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मो को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं हैं। उसमें नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जाएगा तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। अत: जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे तब श्रोता यह समझ सकता हैं कि वस्तुनित्य ही है अनित्य नहीं। अत: हम किसी अपेक्षा नित्य भी है, ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ध्यान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है, भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। अत: वाणी में स्यात्-पद का प्रयोग आवश्यक है, स्यात्-पद् अविवक्षित धर्मो को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में स्याद्वाद का अर्थ इस प्रकार दिया है: "अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को। मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता के अन्य धर्म भी गौण रुप से स्वीकार होते रहैं, उनका निषेध न होने पाये, इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता हैं।" कुछ विचारक कहते हैं कि स्यावाद शैली में "भी" का प्रयोग है, "ही" का नहीं। उन्हें "भी' में समन्वय की सुगंध और "ही" में हठ की दुर्गन्ध आती है, पर यह उनका बौद्धिक भ्रम ही है। स्यावाद शैली मे जितनी आवश्यकता "भी" के प्रयोग की है, उससे कम आवश्यकता "ही" के प्रयोग की नहीं। "भी" और "ही" का समान महत्व है। 'भी" समन्वय की सूचक न होकर 'अनुक्त की सत्ता की सूचक है और "ही" आग्रह की सूचक न होकर "दृढता' की सूचक है। इनके प्रयोग का एक तरीका है और वह है-जहाँ अपेक्षा न बताकर मात्र यह कहा जाता है कि "किसी अपेक्षा" वहाँ "भी" लगाना जरुरी है और जहाँ अपेक्षा स्पष्ट बता दी जाती है वहाँ "ही" लगाना अनिवार्य है। जैसे- प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी है। यदि इसी को हम अपेक्षा लगाकर कहेंगे तो इस प्रकार कहना होगा कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य ही है और पर्याय स्मृति के चित्र, मन की दुनिया है। मन की दुनिया स्पष्ट हुए बिना स्वच्छता आती नहीं हैं। २२३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा अनित्य ही। "भी" यह बताता की हम जो कह रहे हैं वस्तु मात्र उतनी ही नहीं है, अन्य भी है, किन्तु "ही" यह बताता है कि अन्य कोणों से देखने पर वस्तु और बहुत कुछ है, किन्तु जिस कोणसे यह बात बताई गई है वह ठीक वैसी ही है, इसमें कोई शंका की गुंजाइश नहीं है। अत: "ही" और "भी" एक दुसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं। "ही" अपने विषय के बारे में सब शंकाओं का अभाव कर दृढता प्रदान करती है और "भी" अन्य पक्षों के बारे में मौन रह कर भी उनकी संभावना की नहीं, निश्चित सत्ता की सूचक है। "भी" का अर्थ ऐसा करना कि जो कुछ कहा जा रहा है उसके विरुद्ध भी सम्भावना हैं, गलत हैं। सम्भावना अज्ञान की सूचक है अर्थात् यह प्रगट करती है कि मैं नहीं जानता और कुछ भी होगा। जब कि स्याद्वाद, संभावनावाद नहीं, निश्चयात्मक ज्ञान होने से, प्रमाण है। "भी" में से यह अर्थ नहीं निकलता कि इसके अतिरिक्त क्या है, मैं नहीं जानता, बल्कि यह निकलता है कि इस समय उसे कहा नहीं जा सकता अथवा उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। अपूर्ण को पूर्ण न समझ लिया जाय इसके लिए "भी" का प्रयोग है। दूसरे शब्दों में जो बात अंश के बारे में कही जा रही है उसे पूर्ण के बारे में न जान लिया जाय इसके लिए "भी" का प्रयोग है, अनेक मिथ्या एकान्तो के जोड-तोड के लिए नहीं। इसी प्रकार "ही" का प्रयोग "आग्रही" का प्रयोग न होकर इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि अंश के बारे में जो कहा गया है, वह पूर्णत: सत्य है। उस दृष्टि से वस्तु वैसी ही है, अन्य रुप नहीं। ____ वाक्येउवधारण तावदनिष्टार्थ निवृत्तये। कर्त्तवयमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुथंचित् ।। वाक्यों में "ही" का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढता के लिए करना ही चाहीए, अन्यथा कहीं कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है। युक्त्यनुशासन श्लोक ४१-४२ में आचार्य समन्तभद्र ने भी इसी प्रकार का भाव व्यक्त किया है। इसी सन्दर्भ में सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्दजी लिखते हैं: "इसी तरह वाक्य में एवकार (ही) का प्रयोग न करने पर भी सर्वथा एकान्त को मानता पडेगा क्योंकि उस स्थिती मे अनेकान्त का निराकरण आवश्यम्भाति है।" जैसे - "उपयोग लक्षण जीव का ही है। इस वाक्य में एवकार (ही) होने से यह सिद्ध होता है कि उपयोग लक्षण अन्य किसी का न होकर जीव का ही है। अत: यदि इसमें से "ही" को निकाल दिया जाय तो उपयोग अजीव का भी लक्षण हो सकता है।' प्रमाण वाक्य में मात्र स्यात्पद का प्रयोग होता है, किन्तु नये वाक्य में स्यात् पद के साथ साथ एवं (ही) का प्रयोग भी आवश्यक है। "ही" सम्यक एकान्त की सूचक है और "भी" सम्यक् अनेकान्त की। यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है, तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी माने तो यह भी तो एकान्त हो जायगा। अत: जैन दर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन सर्वथा न एकान्तवादी है न सर्वथा अनेकान्तवादी। वह कथंचित् एकान्तवादी और कथंचित अनेकान्तवादी है। इसी का नाम अनेकान्त में अनेकान्त है। कहा भी २२४ अभिनय कभी सत्य नहीं होता किंतु छदम वेष धारियों को इसका ध्यान कुछ मन ही रहता हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्ताउप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्ताउर्पितान्नयात्॥ प्रमाण और नय हैं साधन जिसके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरुप है, क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त स्वरुप एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरुप सिद्ध जैन दर्शन के अनुसार एकान्त भी दो प्रकार का होता है और अनेकान्त भी दो प्रकार का यथा सम्यक एकान्त और मिथ्या एकान्त, सम्यक अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है तथा सापेक्ष नयों का समूह अर्थात श्रुतप्रमाण सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्ष नयों का समूह अर्थात प्रमाणाभास मिथ्या अनेकान्त है। कहा भी है: जं वत्थु अणेयन्तं, एयंतं तं पि हो दि सविपेक्खं। सुयणा ण णएहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥ जो वस्त अनेकान्त रुप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रुप भी है। श्रतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्त रुप है और नयों की अपेक्षा एकान्त रुप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का रुप नहीं देखा जा सकता है। अनेकान्त मे अनेकान्त की सिद्धि करते हए अकलंकदेव लिखते है : "यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव की तरह, तत्समुदाय रुप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। अत: यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जावे तो फिर अविनाभावी इतर धर्मो का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।" सम्यगेकान्त नय है और सम्यगेनकान्त प्रमाण। अनेकान्तवाद सर्वनयात्मक है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बन जाता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्यावाद रुपी सूत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय शृत प्रमाण कहे जाते है। परमागम के बीज स्वरुप अनेकान्त में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकान्तों) को विलास है, उसमें एकान्तों के विरोध को समाप्त करने की सार्थय है, क्योंकि विरोध वस्तु में नहीं, अज्ञान में है। जैसे- एक हाथी को अनेक जन्मान्ध व्यक्ति छूकर जानने का यत्न करें और जिसके अनेक हाथ में हाथी का पेर आ जाय वह हाथी को खम्भे के समान, पेट पर हाथ फेरने वाला दीवाल के समान, कान पकडने वाला सूप के समान, और सूंडपकडनेवाला केले के स्तम्भ के समान कहे तो वह सम्पूर्ण हाथी के बारे में सही नहीं होगा। क्योंकि देखा है अंश और कहा गया सर्वांस को। यदि अंश देखकर अंश का ही कथन करें तो गलत नहीं होगा। जैसे-यदि यह कहा जाय कि हाथी का पैर खम्भे के समान है, कान सूप के समान हैं, पेट दीवाल के समान है तो कोई असत्य नहीं, क्योंकि यह कथन सापेक्ष है और सापेक्ष नय सत्य होते हैं, अकेला पैर हाथी नहीं है, अकेला पेट भी हाथी नहीं है, इसी प्रकार कोई भी अकेला अंग अंगी को व्यक्त नहीं कर सकता है। "स्यात्" पद के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ जो कथन किया जा रहा है, वह अंश के सम्बन्ध में है, पूर्ण वस्तु के सम्बन्ध में नहीं। हाथी और हाथी के अंगों के इच्छा को, आशा को अवसान जब हो जाता है जीवन निस्तेज, और निराश और निराश और निष्प्राण हो जाता है। २२५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथन में "ही" और "भी' का प्रयोग इस प्रकार होगा:___ हाथी किसी अपेक्षा दीवाल के समान भी है, किसी अपेक्षा खंभे के समान भी है, और किसी अपेक्षा सूप के समान भी है। यहाँ अपेक्षा बताई नहीं गई है, मात्र इतना कहा गया है कि "किसी अपेक्षा" अत: "भी" लगाना आवश्यक हो गया। यदि हम अपेक्षा बताते जावें तो "ही" लगाना अनिवार्य हो जायेगा, अन्यथा भाव स्पष्ट न होगा, कथन में दृढता नहीं आयेगी, जैसे-हाथी का पैर खम्भे के समान ही है, कान सूप के समान ही हैं, और पेट दीवाल के समान ही है। __ उकत कथन अंश के बारे में पूर्ण सत्य है, अत: "ही" लगाना आवश्यक है तथा पूर्ण के बारे में आंशिक सत्य है, अत: "भी" लगाना जरुरी है। जहाँ "स्यात्" पद का प्रयोग न भी हो तो भी विवेकी जनों को यह समझना चाहिए कि वह अनुक्त (साइलेन्ट) है। कसायपाहुड में इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है : "स्यात्" शब्द के प्रयोग का अभिप्राय रखने वाला वक्ता यदि स्यात् शब्द का प्रयोग न करे तो भी उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। अतएव स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं करने पर भी कोई दोष नहीं है। कहा भी है-स्यात् शब्द के प्रयोग की प्रतिज्ञा का अभिप्राय रखने से "स्यात्' शब्द का अप्रयोग देखा जाता है।" यद्यपि प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म-युगलों का पिण्ड है तथापि वस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते है, असम्भाव्य नहीं। अन्यथा आत्मा में नित्यत्व-अनित्यत्वादि के समान चेतन-अचेतन धर्मों की सम्भावना का प्रसंग आयेगा। इस बात को "धवला" में इस प्रकार स्पष्ट किया है।: "प्रश्न- जिन धर्मो का एक आत्मा में एक साथ रहने का विरोध नहीं है, वे रहें, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मा में रह नहीं सकते? उत्तर- कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मो का एक साथ आत्मा में रहना सम्भव है? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यव्य आदि धर्मो का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए, किन्तु जिन धर्मो का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।" अनेकान्त और स्याद्राद का प्रयोग करते समय यह सावधानी रखना बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में सम्भावित है भी या नहीं, अन्यथा कहीं हम ऐसा न कहने लगे कि कथंचित् जीव चेतन है व कथंचित् अचेतन भी। अचेतनत्व की जीव में सम्भावना नहीं है, अत: यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्ति-नास्ति के रुप में घटाना चाहिए। जैसे-जीव चेतन (ज्ञान-दर्शन स्वरुप) ही है, अचेतन नहीं। __वस्तुत: चेतन और अचेतन तो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, है नहीं। उनकी सत्ता एक द्रव्य में एक साथ पाई जाती है। अनेकान्त परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मो का प्रकाशन करता है। २२६ मानव जब परास्त होता है, हारता है, तब भी अपना दोष देखने जितना निर्मल-पवित्र नही बन सकता। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र भगवान का स्याद्वादरुपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धार वाला है। इसे अत्यन्त सावधानी से चलानी चाहिए, अन्यथा धारण करनेवाले का ही मस्तक भंग हो सकता है। इसे चलाने के पूर्व नयचक्र चलाने में चतूर गुरुओं की शरण लेना चाहिए उनके मार्गदर्शन में जिनवाणी का कर्म समझाना चाहिए। __ अनेकान्त और स्याद्वाद सिध्दान्त इतनागूढ व गम्भीर है कि इसे गहराई से और सूक्ष्मता से समझे बिना इसकी तह तक पहुँचना असम्भव है, क्योंकि ऊपर-ऊपर से देखने पर यह एकदम गलत सा प्रतीत होता है। इस सम्बधं में हिन्दु विश्वविद्यालय, काशी के दर्शन-शास्त्र के भूतपूर्व प्रधानाध्यापक श्री फणिभूषण अधिकारी ने लिखा है: "जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है, उतना किसी अन्य सिध्दान्त को नहीं। यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुकत नहीं है, उन्होंने भी इस सिध्दान्त के प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सक्ती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मै भारत के इस महान विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहुँगा, यद्यपि मै इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की। हिन्दी के प्रसिद्ध समासोचक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं "प्राचीन दर्जे के हिन्दु धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि योनियों का स्यावाद किस चिडिया का नाम है।" श्री महामहोपाध्याय सत्य सम्प्रदायाचार्य पं. स्वामी राममिश्रजी शास्त्री, प्रोफेसर संस्कृत कालेज, वाराणसी लिखते है: "में कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यां ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खंडन किया है वह ऐसा किया है जिसे सुन-देख हँसी आती है, स्याद्राद यह जैन धर्म का अभेद्य किल्ला है, उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामयी गोले नहीं प्रवेश कर सकते। जैनधर्म के सिध्दान्त प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" संस्कृत के उद्भट विद्वान डॉ. गंगानाथ झा के विचार भी द्रष्टव्य है:"जब से मैने शंकराचार्य द्वारा जैन सिध्दान्त का खंडन पढा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिध्दान्त में बहुत कुछ है। जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा और जो कुछ अब तक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा द्रढ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।" "स्यात्" पद का ठीक-ठीक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसके सम्बंध में बहुत भ्रम प्रचलित है-कोई स्यात् का अर्थ संशय करते हैं, कोई शायद तो कोई सम्भावना। इस तरह से स्याद्वाद को शायदवाद, संशयवाद बना देते हैं। "स्यात" शब्द तिडन्त न होकर "निपात" है। वह संदेह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है। "स्यात" शब्द को स्पष्ट करते हुए सार्किक पूरामणि आचार्य समन्तभद्र लिखते है: वाक्येष्वनेकान्तधोती गम्यं प्रति विशेषणं।। स्यानिपातोऽर्थयोगित्वाद् लवकेवलिनामपि ।।१०३।। देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं। २२७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "स्यात् शब्द निपात है।" वाक्यों में प्रमुख यह शब्द अनेकान्त का द्योतक वस्तुस्वरुप का विशेषण है। शायद, संशय और सम्भावना में एक अनिश्चय है, अनिश्चय अज्ञान का सूचक है। स्याद्वाद में कहीं भी अज्ञान की झलक नहीं है। वह जो कुछ कहता है, दृढता के साथ कहता है, वह कल्पना नहीं करता, सम्भावनाएँ व्यक्त नहीं करता। श्री प्रो. आनन्द शंकर बाबूभाई ध्रुव लिखते हैं:"महावीर के सिध्दान्त में बताए गये स्याद्राद को कितने ही लोग संशयवाद कहते है, इसे मैं नहीं मानता। स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, किन्तु वह एक दृष्टि-बिन्दु हमको उपलब्ध कर देता है। विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिए यह हमें सिखाता है। यह निश्चय है कि विविध दृष्टि-बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरुप में आ नहीं सकती। स्याद्वाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना यह अनुचित है।" आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान के समान सर्वतत्व प्रकाशक माना है। भेद मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का है। __ अनेकान्त और स्यादाद का सिध्दान्त वस्तु-स्वरुप के सही रुप का दिग्दर्शन करने वाला होने से आत्म-शान्ति के साथ-साथ विश्व-शान्ति का भी प्रतिष्ठापक सिध्दान्त है। इस संबंध में सुप्रसिध्द ऐतिहासिक विद्वान एवं राष्ट्रकवि रामधारीसिंह "दिनकर" लिखते है: "इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।" डॉ. हुकमचंद भारिल्ल पं. येडरमल स्मारक ट्रस्ट ओ-४ बापूनगर जयपुर-३०२०१५ कोई भी विद्या साधना के बिना प्राप्त ननही होता और इसके उपलब्ध हो जाने पर ददि साधक आपनी विद्या का उपयोग स्वार्थवश करता है तो जीवन अभिशप्त हो जाता है: २२८ धर्म हो सचा मार्ग-पाथेय है। यह पाथेय जिसके अंत:करण में है उसका तो अकल्याण कभी नहीं होता। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा : वर्तमान युग में । -माणकचन्द कटारिया मनुष्य के साथ और इस पूरी सृष्टि के साथ अहिंसा इस तरह जुड़ी है कि उसे आप बाँट नहीं सकते। अभी युग अहिंसा का चल रहा है और कल हिंसा का युग आने वाला है या हिंसा का युग बीत गया और अब अहिंसा की बारी आई है, ऐसा कैसे कहेंगे? क्रिकेट के खेल की तरह कभी हिंसा की इनिंग (पारी) और कभी अहिंसा की इनिंग नहीं चलती। अहिंस, मुनष्य के जीवन की तर्ज है, जो उसके रक्त में बिंधी है। अपने उन्माद में आदमी बहुत भड़ककर अपनी और सामने वाले की तबाही करके भी जब सहज होता है तो शान्ति की खोज करने लगता है। उसके भीतर करुणा के, प्रेम के, संवेदना के, अंकुर फिर-फिर उग आते हैं। यही मनुष्य के जीवन का मर्म है। बल्कि, बहुत ध्यान से आप देखें तो पूरी सृष्टि में जीवन के तार करुणा से जुड़े हैं, संवेदना से जुड़े हैं। फिर भी कुछ ऐसा तो हो ही गया है कि हमें अहिंसा पाने के लिए, जीवन में उसे प्रतिष्ठित करने के लिए और हमारे चारों ओर समाज में धधक रही हिंसा को बुझाने के लिए लगातार साधना करनी पड़ रही है। अहिंसावालों का एक अलग खेमा है। वे जीव-दया वाले हैं। फूंक-फूंक कर जीवन जी रहे हैं। रात में नहीं खाते। मांस, मछली; अण्डा तो दूर, बहुत-सी तरकारियाँ भी नहीं छूते। कई चीजें छोड़ दी हैं। बहुत से ड्र-नाट्स-नहीं करने के बन्धन स्वीकारते हैं। धीरे-धीरे अहिंसा के बारे में हमारा ऐसा ख्याल बना कि काया को हिंसा से बचाओ। काया हिंसा से बच गई तो अहिंसा सध जायगी। इस एक मामले से हम अहिंसावाले बहुत लम्बा रास्ता नाप गये। खूब चले हैं। लेकिन लगता है कि केवल ऊपर-ऊपर ही चलते रहे हैं। नतीजा यह है कि हमारे हाथ जो अहिंसा आई वह केवल 'सतही अहिंसा' है। एकदम ऊपर की अहेसा। मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में निहत्था होता जा रहा है। उसके हाथ से तलवार छूट गई है और उसकी पीठ पर से तरकश उतर गया है। उसके मुँह का कौर निरामिष बनता जा रहा है। जिनका नहीं बन पाया है वे भी धीरे-धीरे निरामिष हो जायेंगे। मनुष्य की सभ्यता ने आपस के व्यवहार में मिठास घोली है। हम अपने विवाद आपसी बातचीत, समझाइश, तर्क-चर्चा के धरातल पर ले आये हैं। बहुत गुस्सा होकर भी पिस्तौल नहीं तानते। हत्याओं का प्रतिशत इतना नगण्य है कि मनुष्य अहिंसक होने का दावा कर सकता है। पैराडाक्स-विरोधाभास लेकिन यह एक परत है-बहुत पतली झिल्ली जो हमें अहिंसक होने का आभास दे रही है। भीतर तो सारा व्यापार हिंसा का चल रहा है। बल्कि हिंसा बहुत खुलकर खेल रही है। मनुष्य की तृष्णा बढ़ी है, ईर्ष्या पैनी हुई है, स्पर्धा ने घेरा है उसे, स्वार्थ ने नए आयाम पाये हैं, सत्ता-धन-यश के त्रिभुज पर हमारी आँखें टिक गई हैं। एक ऐसी हायरआरकी-श्रेणीबद्धता में हम उलझ गये हैं कि शोषण, अन्याय और अहंकार की श्रृंखला टूटती ही नहीं। मनुष्य भयभीत है। वह इस दुविधा में पड़ा है कि इस पटरी से उतर कर कहाँ जाय। जरा चूका कि मानव समाज के बहुत ही निचले धरातल पर फेंक दिया जायगा। इसलिए कोई चूकना नहीं चाहता-जैसे भी हो अपने लिए समाज का ऊँचा धरातल बनाये रखना चाहता है। वस्तुओं के बाहुल्य ने और बाहुल्य के साथ जुड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा ने मनुष्य को बहुत ध्यान की मस्ती जगत के सर्वश्रेष्ठ सुख से, सौदर्य से और मजा मौज से विशिष्ठ व अलौकिक होती है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोड़ा है। हम टूट कर दो समानान्तर पटरियों पर दौड़ लगा रहे हैं। एक पटरी पर दौड़कर संग्रह कर रहे हैं और दूसरी पटरी पर चलकर उसमें से थोड़ा बाँट आते हैं, ताकि करुणा को, त्याग को, संयम को और जिसे हमने 'धर्म' नाम दे रखा है उसे थोड़ा समाधान मिल जाय। यह बहुत साफ है कि आदमी अपने स्वधर्म पर नहीं हैं। उसने अपने समाज जीवन में जिन प्रतिष्ठा प्रतिमानों को आत्मसात् किया है वही उसका सेकण्ड नेचर-संस्कारित धर्म बन गया है और इसे ही दोनों हाथों से वह थामे हुए है। इसलिए आज हम मनुष्य के चेहरे पर जो अहिंसा देख रहे हैं वह बहुत ऊपर-ऊपर है-एकदम सतह पर है। यों हिंसा को समर्थन नहीं है। कोई उसकी पैरवी नहीं करता। मारकाट,दंगा-फसाद, जोर-जबर्दस्ती, हत्या, 'युद्ध मनुष्य की लाचारी भले ही हो, उसके जीवन का मान्य रास्ता नहीं है। वह हिंसा । बचना चाहता है। समाज व्यवस्था के प्रत्येक बिन्दु पर हम इसी बात की चौकीदारी में लगे हैं कि हिंसा कहीं से फूट न पड़े। पंचायतों और जनपदों से लेकर संयुक्तराष्ट्रसंघ तक जितनी व्यवस्थाएँ मनुष्य ने अपने-अपने दायरों में खड़ी की हैं, वे सब इसी उधेड़बुन में हैं कि समाज में शान्ति कायम रहे और आदमी आदमी बना रहे। बल्कि इसी अमनोअमानके लिए हमारे पास पुलिस और फौज की व्यवस्था है। इतनी ज्यादा है कि मनुष्य की सर्वाधिक ताकत इसी में खर्च हो रही है। फिर भी हिंसा जहाँ-तहाँ फूट पड़ती है और यदि सारे संसार के पुलिस थानों के रोजनामचे एकत्र किए जायें तो हम काँप जायेंगे। कबीर को हरिगुण का वर्णन करने के लिए सात समंदर की मसि चाहिए थी, लेकिन पूरे विश्व के चप्पे-चप्पे पर चल रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण की कहानी लिखने के लिए सात समंदर की मसि से कुछ नहीं होगा। ये दो चीजें एक साथ कैसे चलेंगी? हिंसा के जितने ब्रीडिंग ग्राउण्ड-उपज स्थान हैं वे कायम रहेंगे, बल्कि दिन-दूने रात-चौगुने बढ़ते जायेंगे और अधिकाअधिक पुष्ट होते जाएँगे, साथ ही हम अपने चेहरे, अपनी संस्कृति, अपने सारे धर्म-ग्रन्थ, अपने सम्पूर्ण नीति वचन अहिंसा के चरणों में न्यौछावर करते जायेंगे-तो ये दोनों बातें एकसाथ कैसे चलेंगी? इसलिए मैं कहता हूँ कि आज का मनुष्य एक ब्रोकन मैन-टूटा हुआ मनुष्य है। एक ही मनुष्य का एक हिस्सा जमकर हिंसा में जी रहा है और उसी का एक हिस्सा अहिंसा का गीत गा रहा है। जब वह अपने-आप में होता है तो उसकी संवेदना पिघलती है, उसकी तृष्णा गलती है, उसकी करुणा सक्रिय होती है। उसे बाहुल्य नहीं चाहिए। वह अपना कौर किसी भूखे के मुँह में देकर संतुष्ट होता है। लेकिन जब वही समाज के बीच होता है, व्यापार-व्यवसाय में होता है, राज-सत्ता में होता है, किसी पद पर आसीन है, किसी मान-मर्यादा में लिप्त है तब वह एकदम बदला हुआ मनुष्य है-तब उसे चाहिए ही चाहिए। जितना पाया है वह कम है। जैसी भी हो चाहिए-एक से एक बढ़िया वस्तु चाहिए। वह समाज के जिस धरातल पर है उससे भी अधिक ऊँचा धरातल उसे चाहिए। इस तरह मनुष्य ने अपनी डबल परसनालिटी-दोहरा व्यक्तित्व रच लिया है। वह अपने-आप में कुछ और है तथा अपने आसपास के संसार में कुछ दूसरा ही आदमी है। हिंसा का काम इस कारण अहिंसा एक मुकाम पर आकर ठिठक गई है। वह इतना ही चल पाई कि काया खुद की हिंसा से बची रह जाय। अहिंसा को रसोईघर में स्थापित करके हम बहुत प्रसन्न २३० संसार में काम-राग के भक्त अधिक होते है, त्याग के आकाश में पहुंचने वाले विरल होते हैं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं कि हमसे अहिंसा निभ गई। हमारा ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि जिस सभ्यता को हम जी रहे हैं, जिस बाहुल्य को हम भोग रहे हैं, वस्तुओं के एक विशाल सागर में तैर रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय और समाज-व्यवस्था का जो आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक ढाँचा हमने खड़ा कर लिया है तथा मनुष्यों के बीच आपस में जितना भेद-जाति का, सम्प्रदाय का, रंग का, धर्म का, धन का, सत्ता का और संस्कृति का खड़ा कर लिया है-इस सबने मनुष्य को पारे की तरह बिखेर दिया है। ऐसा टूटा हुआ मनुष्य कौन-सी अहिंसा जीयेगा? वह तो अपनी ही चिंता में पड़ा है। उसे अब अपने सिवाय कुछ दूसरा सूझता ही नहीं। लेकिन अहिंसा का तो एक अलग क्षेत्र है। वह संवेदना और सह-अस्तित्व के रथपर चढ़कर ही आयेगी। आप प्यार करते हैं तो मेरा क्रोध गलता है। आप कुछ छोड़ रहे हैं तो मेरा स्वार्थ भी टूटता है, मैं आपकी सहनशीलता के आगे परास्त हूँ। अहिंसा को अपरिग्रह का, त्याग का, संयम का, प्रेम का, करुणा का, परिश्रम का, और निज की तृष्णा को समेटलेने का कड़ा धरातल चाहिए। लेकिन इन्सान अपनी आधुनिक सभ्यता को इस धरातल पर खड़ा नहीं रख सका। उसने जो पटरियाँ बिछाई हैं वे स्वार्थ की और अहंकार की है-इन पटरियों पर अहिंसा की रेल कैसे दौड़ेगी? दूसरी ओर, हमारी वस्तु-निष्ठा ने और आरामदेह जिन्दगी की चाह ने वस्तुओं का एक महासागर रच लिया है। वस्तु, सम्पदा और धन को अपना आराध्य देव घोषित करके मनुष्य ने जिस हिंसा को जन्म दिया है वह बहुत विषैली है। धीरे-धीरे उसने पूरी सृष्टि पर अपना विष फैलाया है। वैज्ञानिकों को चिंता हुई है कि यदि इसी रफ्तार से मनुष्य अपने उपभोग के लिए, धरती की सम्पदा को लूटता रहा तथा अपनी आरामदेह जिन्दगी के लिए अनन्त वस्तुओं की उत्पादन प्रक्रिया में इस पूरे जगत को अनेकानेक प्रदूषणों से ढंकता रहा तो जीवन टूट जायगा। आदमी के रहन-सहन की आधुनिक सभ्यता के साथ जुड़ी हिंसा हमारी धमनियों में इस कहर प्रवाहित हुई है कि इसे रोकने के लिए एक महा-पुरुषार्थ की जरुरत है। एक आदमी के लिए यह बहुत आसान है कि वह अपनी थाली से मांस का टुकड़ा अलग कर दे और अपने पैर के नीचे दबकर मर जाने वाली चींटी को बचा ले जाय। लेकिन बेशुमार हिंसा को जन्म देने वाली हमारी उत्पादन प्रक्रिया का क्या होगा? वह तो वस्तु के गर्भ में जाकर बैठ गई है। जिस यंत्रीकरण पर मनुष्य को नाज है, अपनी विज्ञान प्रगति पर उसे गर्व है और बिजली की सहायता से उसने अपने ही लिए उपभोग की वस्तुओं का जो जाल बुना है-इन सबने व्यापक हिंसा को जन्म दिया है। क्या-क्या छोड़ेंगे आप? यह संभव नहीं रह गया है कि हम वल्कल पर उतर आयें और पाषाण-युग की सभ्यता को स्वीकार लें। बात बहुत साफ है मित्रों, कि हमसे अपनी एफ्लूएन्सी-अपना बाहुल्य छोड़ते नहीं बनेगा। उपभोग की जिस ऊँचाई पर हम जा खड़े हुए है वहाँ से बहुत नीचे उतरते भी नहीं बनेगा। एक अजीब आकांक्षा हमें घेरे हुए है-जो हमें मिल गया है उसे छोड़ देने का तो सवाल ही नहीं, पर जो नहीं मिल पाया है उसे प्राप्त करने की धुन में हम लगे हैं। और अपने घर में, समाज में, क्षेत्र में ऐसा जीवन जी रहे हैं जो अहिंसा से बहुत दूर चला गया है। फिर भी अहिंसा हमसे फेंकी नहीं जायगी-वह तो मनुष्य के जीवन की तर्ज है। उसके रक्त में बिंधी है। एक अजीब उलझन में आज का मनुष्य पड़ गया है। अहिंसा छोड़ नहीं सकता और हिंसा स्वीकार नहीं सकता। साथ ही साथ जीवन उसका टिक गया है हिंसा के उपकरणों विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो वह हैं मन को वश में करना। २३१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर और बाहर समाज में अहिंसा के उपकरण उससे छए नहीं जा रहे हैं। इसलिए हम अपनी-अपनी अहिंसा लेकर, रसोईघर में चले गये हैं या मन्दिर में जा बैठे हैं और उधर जीवन को खुले हाट-बाजार में होड़, स्पर्धा, स्वार्थ, अहंकार, शोषण, आपाधापी, भय, अन्याय और क्रूरता के हवाले कर दिया है। ये सब हिंसा के ब्रीडिंग ग्राउण्ड-उपज स्थान है। बात यह है कि जिन बातों को समाज में हमने प्रतिष्ठित किया है, उनसे हिंसा उपज रही है। हमारे सामाजिक प्रतिष्ठा-प्रतिमान अहिंसा से मेल नहीं खाते। वस्तुओं के कारण, सत्ता के कारण, धन के कारण जो शरीर-सुख, सन्तुष्टि और सम्मान हमें समाज में प्राप्त होता है वही हमारा सिरमौर बन गया है। दोनों हाथ लड्डू-आरामदेह जिन्दगी भी और यश भी। लेकिन इसी आरामदेह प्रतिष्ठित जिन्दगी के लिए जिन उपकरणों का सहारा हम ले रहे हैं वे हिंसा की एक अटूट श्रृंखला अपने साथ ले आये हैं और मनुष्य खुद ही आगे बढ़कर हिंसा के विषम-चक्र में फँस गया है। __ इस अर्थ में जितनी अहिंसा मनुष्य के हाथ लगी वह बहुत छोटी साबित हो रही है। हमारी रसोई घर की अहिंसा सफल होकर इतना ही तो कर पायगी कि मनुष्य की पूरी की पूरी जमात शाकाहारी बन जाय और जीव-दया पालने लगे। दूसरी और, सम्पूर्ण क्रूरताओं, अन्यायों, अत्याचारों के वैसा ही चलने देकर हम एक ऐसा मानव समाज रच लेंगे जो अपने-आप में शाकाहारी हिंसक समाज कहलायेगा। इस तरह अहिंसा नही उगेगी। अहिंसा की दृष्टि से आज का युग बहुत नाजुक और चुनौती भरा है। अनजाने ही हम हिंसा के एक बड़े आरबिट-घेरे में दुलक गये हैं, तथा रोज गहरे धैंसते जा रहे हैं। प्रश्न यह पैदा हुआ है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सम्बन्ध अहिंसा आधारित कैसे हों? बहुत अजीब प्रश्न है-मनुष्य को सर्वप्रथम आपस में ही अहिंसा जीनी है और अहिंसा सिद्ध करनी है। सृष्टि का सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी अपने आपसी सम्बन्धों में एक प्रश्न चिन्ह बन गया है। समाजबोध __ अब हमें समाजबोध की जरुरत है। आत्मबोध अकेला काम नहीं देगा। मनुष्य ने अच्छी तरह समझा है कि यदि वह हारता है तो अपनी ही तृष्णा से हारता है, उसका वैर ही उसको पछाड़ता है। मेरा पशुबल आपके आत्मबल के आगे हिम्मत हार जायगा। भारत ने यह करिश्मा करके दिखलाया है-नंगी खुली छातियों पर अंग्रेजी हुकूमत की गोलियाँ बेमाने हो गयी थीं। यह जो दिलेरी से कष्ट सह जाने की और वीरता के साथ अन्याय के मुकाबले डटकर खड़ा हो जाने की भीतरी ताकत है उसके आगे बन्दूक की कोई हस्ती ही नहीं। मनुष्य के पास प्रेम की, करुणा की, संवेदना की, क्षमा की, त्याग की और कष्ट-सहन की जो ताकत है वह अनन्त गुनी है और उसके सामने शरीर का पशुबल कोई अर्थ नहीं रखता। इतो अनत्तगुनी शक्ति का मालिक मनुष्य समाज-जीवन में बहुत पंगु बन गया है। वह अपना आत्मबल आजमा ही नहीं पाया। अहिंसा जीनी है तो अब समाज के रोजमर्रा के प्रतिपल-प्रतिक्षण के जीवन में जीनी होगी। देवालयों में तो हमने बहुत अहिंसा साधली और रसोईघर की अहिंसा के लिए भी हम बहुत सजाग हैं, पर समाज जीवन में हमने धन की सत्ता स्वीकार ली है, व्यापार-व्यवसाय के शोषण-अन्याय-अत्याचार के साथ समझौता कर लिया है, हुकूमत की मनमानी के आगे घुटने टेक दिए हैं-इस कारण मनुष्य की दिशा ही बदल गई है। उसका सामाजिक जीवन हिंसा आधारित हो गया है। २३२ उस भूमि को नमन करो जिस स्थान पर गर्व का खंडन हुआ हो, ज्ञान की ज्योति प्रगटी हो, वह स्थल ही तो सचा तीर्थ है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा इस मुकाम पर ठिठकी खड़ी है। उसका दायरा फैलना चाहिए। जब तक वह मानव समाज के सम्पूर्ण जीवन को नहीं छूती-उसके व्यापार-व्यवसाय में, हाट-बाजार में, राजनीति में, कल-कारखाने में नहीं, उतरती तब तक पंगु ही बनी रहेगी। आज के अहिंसा-धर्मी के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। उसे यह देखना होगा कि किन किन बातों ने मनुष्य को तोड़ा है, उसकी संवेदनशीलता को फीका किया है, करुणा को क्रूरता में बदला है, प्रेम का स्थान बैर ने लिया है और अपने ही समुदाय में आदमी भयभीत होकर दीनता का शिकार बना है। अहिंसा के क्षेत्र में मनुष्य के सामने यह एक महा-भागीरथ कार्य है। वह इसे नहीं छूएगा तो उसका सारा आत्मबोध जो उसने इतना चलकर प्राप्त किया है, अर्थहीन हो जायगा। भले ही वह अपने व्रत-उपवासों में और भोजन की थालियों में अहिंसा पालता रहे और मुँह से अहिंसा का जयघोष करता रहे-वर्तमान युग में बढ़ रही समाज जीवन की हिंसा उसे ढंक लेगी। यह सम्भाव नहीं है कि हमारे कदम हिंसा के डग भरते रहें और हम अहिंसा की वाणियाँ उच्चारते रहें। हमारे चारों ओर कांस की तरह उग रही हिंसा का मुकाबिला किये बिना अहिंसा हाथ नहीं आयगी। पहले अपरिग्रह फिर अहिंसा अहिंसा के पंगु हो जाने का जो एक बुनियादी कारण है, वह यह है कि हमने अहिंसा की आधारशिला-बैकबौन को पकड़ा ही नहीं। अहिंसा की पीठ पर महावीर ने लिख दिया था 'अपरिह'। यह अहिंसा का बैकबौन-भेरूदण्ड है। पर आज सादा-सरल जीवन प्रतिष्ठित नहीं है। मेहनत से कमाई सूखी रोटी लाचारी है, समाधान नहीं। वस्तुहीन मनुष्य पर वस्तु न होने की चिन्ता का अधिक बोझ लदा है। हमारा सारा प्यार, सम्मान, नेह और आदर 'त्याग' के पक्ष में पहुँचना चाहिए था, पर वह बटोरनेवालेकी गोद में जा रहा है। मनुष्य की आँखें वहीं टिकी हैं, जहाँ वैभव है, अधिकार है। उपभोग की अन्धाधुन्ध दौड़ने मनुष्य को तो खण्ड-खण्ड किया ही है, प्रकृति को भी तोड़ा है। इकॉलाजी (परिस्थिति-विज्ञान) ने खतरे की घण्टी बजाना शुरू कर दिया है। जीवन-स्तर की कभी न बुझने वाली चाह के कारण इन्सान ने प्रकृति को इतना दुहा है कि उसके सारे भण्डार ची बोल रहे हैं। मनुष्य के उपभोग का सामान प्रकृति से मिल पायेगा या नहीं, यह खतरा सामने है। जीवन के लिए प्रकृति, प्राणी जगत् और मनुष्य के बीच गहरे विवेकशील सामजस्य की जरुरत है। हमें अपना उपभोग सीमित करना होगा। जितनी जरूरत है, उतना ही लेना होगा और बदले में प्रकृति को वह सब लौटाना होगा जो उसे तोड़े नहीं, बल्कि पुष्ट करे। हमने प्रकृति को बेशुमार जहरीली गैस, गन्दगी, नाशक दवाइयाँ, केमिकल्स, दूषित वायुमण्डल दिया है। यदि उपभोग की वस्तुएँ सीमित नहीं हुई और हमारे कल-कारखाने वे सब सामान उगलते रहे जो एक ओर तो मनुष्य को तोड़ रहे हैं ओर दूसरी ओर प्रकृति का विनाश कर रहे हैं तो अनचाहे हम हिंसा का ही वरण कर रह हैं और करते जायेंगे। ऐसी स्थिति में हमारी यह परम्परागत देवालयी और रसोईघर की अहिंसा हमारा कितना साथ देगी? अहिंसा तभी जीवन में उतरेगी जबकि मनुष्य उसकी आधारशिला-बैकबौन-अपरिग्रह को भी जीवन में लायेगा और प्रतिष्ठित करेगा आज के युग की अहिंसा का सीधा मुकाबला परिग्रह से है, वस्तुओं के अम्बारसे है, उपभोग की असीम चाह से है और अपने लिए अधिकाधिक पा लेने या बटोर लेने की आकांक्षा से है। एक ऐसा युद्ध, जो हमें एक नई जिन्दगी जीने के लिए ललकार रहा है। मनुष्य को अपना पूरा जीवन बदलना होगा-बाहर से भी और भीतर से भी। प्रत्येक आत्मा के पास दो बल होते है, आत्मबल और देहबल। २३३ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन, गीता और धम्मपद : एक तुलना ले. उदयचन्द्र शास्त्री शास्त्राचार्य चिन्तनशील व्यक्तियों के विचारों का आधार देश-काल की परिस्थिति पर निर्भर रहता है। भारतीय चिन्तकों की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक रही है। यद्यपि संस्कृति और सभ्यता का समय-समय पर हरास हुआ है, फिर भी सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में सत्य का अंश किसी न किसी रूप में मौजूद रहा है। वैदिककाल से लेकर आधुनिक युग तक वही धारा, वही विचार तथा वही द्रष्टि दिखाई पड़ती है। वैदिक विचारों का कथन करने वाली गीता जन-मन के विचारों को उस ओर मोड़ लेती है, जिस ओर कर्मयोगी श्रीकृष्ण का उपदेश होता है। उत्तराध्ययन उत्तमोत्तम प्रकरणों द्वारा आत्मा को पवित्र बनाने के साथ-साथ महावीर के सिद्धान्तों का रहस्य प्रकट करता है। धम्मपद एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें नैतिक सदाचार, दु:खमय संसार से छुटकारा पाने के उपाय बताये गये है तथा बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित चार आर्यसत्य, आर्याष्टाङ्गिक मार्ग का उद्बोधन भली-भाँति प्राप्त हो जाता है। - भारतीय संस्कृति की रूपरेखा का कथन अन्य बहुत से ग्रन्थों में भी है, पर प्राकृत-साहित्य में उत्तराध्ययन का कई दृष्टियों से अधिक महत्व है। इसमें समस्त तत्त्वज्ञान को अनेकों उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत कर दिया है। भद्रबाहु स्वामी द्वारा कथित यह गाथा विचारणीय है जे किर भवसिद्धिया, परित्त संसारिआ य भविआ य । ते किर पढ़ति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्झयणे ॥ अर्थात् जो भवसिद्धिक जीव शीघ्र ही मुक्ति पाने वाले हैं, जिनका संसार-भ्रमण बहुत थोड़ा रह गया है, ऐसे भव्य आत्मा ही छत्तीस अध्ययनों वाले उत्तराध्ययन को भावपूर्वक पढ़ते हैं। गीत का महत्व महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में दिया है गीता सगीता कर्त्तव्या किमन्यैशास्त्रविस्तरैः अर्थात श्री गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्त:करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है। __धम्मपद बौद्धधर्म के सिद्धान्तों एवं साधनामार्ग को स्पष्ट करने वाली कृति है। इसमें नैतिक दृष्टि को अधिक महत्व दिया गया है। ये तीनों ग्रन्थ किसी न किसी उद्देश्य का कथन करने वाले हैं। गीता यदि महाभारत का अंश है, तो, 'धम्मपद' खुद्दकनिकाय का एक अंश है। इसकी स्वतन्त्र रचना नहीं है। फिर भी सभी का अपना-अपना प्रतिपाद्य विषय है। उत्तराध्ययन ज्ञान, कर्म के साथ तत्त्वज्ञान को अधिक महत्व देता है। श्रीमद्-भगवदगीता ज्ञान, कर्म और भक्ति को तथा 'धम्मपद' केवल कर्म को, वह भी सत्कर्म को। इन तीनों का पृथक-पृथक मूल्यांकन करना अत्यन्त आवश्यक है। समस्त भारतीय दर्शनों का एकमात्र उद्देश्य दु:ख से निवृत्ति और परमपद की प्राप्ति रहा है। और परमात्मपद आध्यात्मिक साधनों द्वारा ही संभव है। इसलिए भारतीय चिंतकों ने आध्यात्मिकता को अधिक महत्व दिया है। उत्तराध्ययन सूत्र में विविध तत्वज्ञान का सरल रूप में प्रतिपादन किया गया है। कुछ स्थलों पर कथानकों द्वारा वैराग्य भाव को बतलाया गया है। जिसका अध्ययन, मनन-चिंतन एवं भली प्रकार से श्रवणकर आत्मानुभूति को समझ सकता है। आत्मा ही परमात्मरूप है। जबकि गीता २३४ मोह और प्रेम में बडा फर्क है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा को परमात्मरूप स्वीकार कर परमात्मा में लीन होने को कहती है। जो परमात्मा में लीन हो जाता है, परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययन में प्रथम विनयश्रुत में आत्मार्थी के लिए (मुक्ति के साधक के लिए) कर्तव्यों की ओर प्रेरित किया गया है। __ आणाणिद्देसकरे गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति च ॥ गीता और धम्मपद भी कर्तव्यों का बोध कराते हैं। गीता का प्रथम-द्वितीय अध्याय बोध को संकेत करते हैं। जिस समय अर्जुन शोकयुक्त हो जाता है तब उसे अपनी आत्मा का बोध कराया जाता है कि हे अर्जुन! आत्मा का कभी वध नहीं किया जा सकता है। इसलिए सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने के योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं हैं। आगे कर्मफल का निषेध किया है। कर्म करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, फल की इच्छा का नहीं। कर्मफल आसक्ति का कारण होता है। "कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा।"३ अर्थात् कर्मों के सम्बन्ध से मूढ़ प्राणी दु:खी और अत्यन्त वेदना को पाते हैं। धम्मपद के पण्डितवर्ग में व्यक्ति को क्या करना चाहिए, क्या नहीं? इसका उल्लेख बहुत ही मार्मिक रुप से प्रस्तुत किया है। निधीनं व पवत्तारं यं पस्से वचदस्सिनं । निग्गय्हवादि मेधाविं तादिसं पण्डितं भजे ॥ तादिसं भजमानस्य सेय्यो होति न पापियो ।।१।। अर्थात् जो निधियों के बतलाने के समान वर्जनीय बातों को बतलाने वाला है, जो निगृह्यवादी और मेधावी है-ऐसे, इस प्रकार के बुद्धिमान का साथ करना चाहिए। ऐसे मनुष्य का साथ करने वाले को पुण्य मिलता है, पाप नहीं। तथा 'धम्मपीती सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा' अर्थात् धर्म का पालन करनेवाला प्रसन्नचित्त होकर सुख से सोता है। उत्तराध्ययन में धर्म के आश्रय रहने वाले को सुखदायक और महान् निर्वाण गुणों की प्राप्ति होती है। "सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेज निव्वाणगुणावहं महं।" २०६६।। और कर्मों में आसक्त जीव के लिए कहा है कि जो अति आसक्त होता है वह जंगल के तालाब के ठंडे पानी में पड़े हुए और मकर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है।' दु:ख और दु:ख के कारण-सभी जीव सुख चाहते हैं, तथा दु:ख से डरते हैं। पर दुःख से बचने का उपाय नहीं जानते। इसलिए जन्मजन्मांतर से इस संसार में जन्म-मरणरुप दु:ख को भोग रहे हैं। इसका मूल कारण अज्ञान दशा है। अज्ञान के कारण ही भौतिक पदार्थों की ओर सुख मानकर दौड़ता रहता है। इसकी इस तृष्णा का कहीं अंत नहीं। अज्ञानी सोचता है कि "जणेण सद्धिं होक्खामि, इह बाले पगठभइ।" अर्थात् जो दूसरों का हाल होगा वह मेरा भी होगा" इस प्रकार सोचने वाले "लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए।" अनंत संसार में ही भटकते रहते हैं। उनके द:खों का अन्त करने वाली संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हैं। यदा च पचति पापं अथ बालो दुक्खं निगच्छति। बालवग्ग-१०॥ अर्थात् जब पापकर्म का परिपाक होता है, तब वह मूर्ख मनुष्य दु:ख को प्राप्त होता है। धम्मपद में एक उदाहरण है कि "बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है और मनुष्य थोड़ा-थोड़ा भी संचय करते हुए पाप का घड़ा भर काल कब अट्टाहास करेगा और कब एक ही फुक में सब कुछ अदृष्य कर देगा. इस सत्य की किसी को भी अल्प मात्र खबर नहीं होती। २३५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेता है । ६ तब वह पापरूप दुःख से कैसे मुक्त हो सकेगा ? जब तक बाह्य वस्तुओं के प्रति मोह रहेगा, तब तक दुःख रहेगा। गीता में लिखा है ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते |५|२२|| दुःख अर्थात् जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले हैं सब भोग ये नि:संदेह के कारण हैं। बुद्धवग्ग में दुःख को चार भागों में बाँट दिया है(२) दुःख की उत्पत्ति (४) दुःखनिवृत्ति के उपाय (१) दु:ख (३) दुःखनिवृत्ति ये चार आर्य सत्य भी कहे जाते हैं। दुःख जन्म, जरा, मरण, शोक-परिदेव, दौर्मनस्य, ( रोना पीटना दुःख है, पीड़ित होना दुःख है), चिन्तित होना दुःख है, परेशान होना दुःख है, इच्छा की पूर्ति न होना दुःख है, ये सब दुःख हैं और सब दुःखों का कारण तृष्णा है। इसलिए तृष्णा को जड़ से खोदने का उपदेश दिया है गीता में दुःख के कारण को एक पंक्ति में कह दिया तं वो वदामि भद्दं वो यावन्तेत्थ समागता । तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो व वीरणं ॥ "जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।" गीता - अ. ० १३८ उत्तराध्ययन में इसी भाव को इस रूप में व्यक्त किया है कि जन्म दुःखरूप है, बुढ़ापा दुःखरूप है, रोग और मृत्यु ये सभी दु:खरुप हैं आश्चर्य है कि सारा संसार दुःखरूप है ।८ दुःख का मूलभूत कारण तृष्णा है । ९ तीनों दृष्टिकोणों से दुःख के कारणों को उपस्थित कर दुःख बतलाया, पर दुःख से छूटने का उपाय क्या है ? इससे पूर्व दुःख-सुख की वास्तविकता को समझ लेना आवश्यक होगा। "यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेष्यं दुःखमिहेष्यते " - जो कुछ हमें इष्ट प्रतीत होता है, वही सुख है और जिससे हम द्वेष करते हैं अर्थात् जो हमें रुचिकर नहीं, वह दुःख है । दुःख संसार का कारण है और सुख आत्मानंद का कारण । आत्मानंद से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जब तक व्यक्ति राग-द्वेष की समाप्ति नहीं कर देता, तब तक वह सुख को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसलिए राग-द्वेष का नाश करें | १० यही सुख का साधन है। परन्तु जो मनुष्य दूसरों को दुःख देने से अपने सुख की इच्छा करता है, वह वैर के संसर्ग में पड़ा हुआ वैर से नहीं छूटता। ऐसा मनुष्य जो कर्तव्य है उसे छोड़ देता है, और अकर्तव्य को करने लगता है ।११ "गीता रहस्य में तिलक ने सुख-दुख के विषय में लिखा है " चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय लगे अथवा अप्रिय, परन्तु जो कार्य जिस समय जैसे आ पडे, उसे उसी समय मन को निराश न करते हुए ( कर्तव्य को न छोड़ते हुए ) करते जाओ।.... संसार में अनेक कर्तव्य ऐसे हैं, जिन्हें दुःख सहकर भी करना पडता है । १२" " न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् | ५|२०| सुख पाकर हर्षित नहीं होना चाहीए और दुःख से खिन्न नहीं होना चाहीए। क्योंकि आत्मा ही सुख-दुःख को उत्पन्न करने वाली और यही दुःख को क्षय कर अनंतसुख को प्राप्त करने वाली है। श्रेष्ठ आचार वाली आत्मा मित्र और दुराचार वाली आत्मा शत्रु है । १३ (तुममेव मित्तं तुममेव सत्तु ) इसीलिए दुःख के जो मूलभूत कारण है, उन्हें नाश कर देना ही सुख का साधन है। बुध्धने पापवग्ग में उपदेश दिया है कि "मनुष्य कल्याणकारी कार्य करने के लिए ऐसे कारणों को जुटाये जिससे सुख की उपलब्धि हो सके और दुःखरुप संसार से शीघ्र ही मुक्त हो सके २३६ अनशन महान तप हैं। यह तप केवल अन्न जल के त्याग में ही समाप्त नहीं होता। For Private Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह दुःख संसार में नाना गतीयों में भटकता रहता है।१४ ऐसे कार्य करना सरल है जो बुरे हैं और अपने लिए अहितकर है। जो हितकारी और अच्छे हैं, उनमें हमारी बुद्धि ही नहीं जाती। क्योंकि उनका करना अत्यन्त कठिन होता है "न तं अरी कंठछेता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा।" अर्थात "दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनिष्ट करता है, उतना अनर्थ गला काटने वाला शत्र भी नहीं करता।" मनुष्य का जन्म अशाश्वत और दु:खों का घर है तथा यह संसार अनित्य और सुख रहित है।..... सुख कोई सचा पदार्थ नहीं है फलत: सब तृष्णाओं, कर्मो को छोडे बिना शांति नहीं मिल सकती।१५।। मोक्ष और मोक्षोपाय अज्ञान रुप दु:ख की निवृत्ति का नाम मोक्ष है। जैनदर्शन में आत्मा की विशुद्ध एवं स्वाभाविक (कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:) तथा सम्पूर्ण कर्मो की समाप्ति का नाम मोक्ष माना है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को (निव्वानं परमं वदन्ति बुद्धा-धम्मपद-गा०१८४) मोक्ष कहा है। आत्यन्तिक दु:ख की निवृत्ति ही 'निर्वाण' है। 'निर्वाण' ज्ञान के उदय से होता है। गीता में नैष्कर्म्य, निस्वैगुण्य, कैवल्य, ब्रह्मभाव, ब्राह्मी स्थिति, ब्रह्मनिर्वाण को मोक्ष कहा है। वेदों के पढने में यज्ञों में और दानों में फल निश्चित हैं, पर ब्रह्मज्ञानी उस सबको उल्लंघन कर जाता है और वह सनातन परमपद को प्राप्त कर लेता है।१६ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की योग्यता को जब व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो वह मोक्षपथ या मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है। उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्ययन में मोक्षमार्ग का भली प्रकार से चित्रण किया गया है। तथा कहा है: नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। - चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ। अर्थात मोक्षार्थी ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्मास्त्रव को रोकता है और तप से विशेष शुद्धि करता है। २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४ में अध्ययनों क्रमश: आत्मोत्थानकारी प्रश्नोत्तर, तपश्चर्या का स्वरुप और विधि चारित्र की संक्षिप्त विधि प्रमाद की व्याख्या और उससे बचकर मोक्ष प्राप्त करने का उपाय, कर्मो के भेद-प्रभेद, गति, स्थिति आदि छ: लेश्याओं का स्वरुप, फल, गति, स्थिति आदि और ३५ वें अध्ययन में नियम-उपनियम बतलाये गये है। गीता के सोलहवें अध्याय में परमात्म-साक्षात्कार के हेतुओं का विवेचन किया है। यद्यपि दैवी सम्पदा है। "ज्ञानयोग व्यवस्थिति" में स्थित व्यक्ति सच्चिदानन्द को प्राप्त कर लेता है। दैवी सम्पदाएँ मोक्ष का कारण है और आसुरी सम्पदा संसाररुप एवं बन्धन का कारण मानी गई है।१७ मुक्ति अथवा मोक्ष सर्वोपरि आत्मा के साथ संयुक्त हो जाने का नाम है। डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन में लिखा है कि मुक्त व्यक्ति समस्त पुण्य-पाप से परे है। पुण्य भी पूर्णता के रुप में परिणत हो जाता है। मुक्त पुरुष जिवन के केवल नैतिक नियम से ऊपर उठकर प्रकाश, महत्ता और अध्यात्मिक जीवन की शक्ति को पहंचता है।१८ डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने जैनदर्शन में मुक्ति मूल का साधन 'स्वपर-विवेकज्ञान' कहा है। अत: यह सिद्ध है कि आत्यन्तिक दु:ख की निवृत्ति और तत्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। बौद्धधर्म का साधना पक्ष आष्टांगिक मार्गरुप है—(१) सम्यक्दृष्टि, (२) सम्यक्संकल्प, (३) सम्यक्वचन, (४) सम्यक्व्यवहार, (५) सम्यक्आजीव, (६) सम्यक्व्यायाम, (७) सम्यक्स्मृति, (८) सम्यक्समाधि। ये दु:ख-निरोध के कारण है। पण्डितवग्ग में निर्वाण के विषय में लिखा है "खीणासवा जुतीमंतो ते लोक परिनिब्बुता"| अर्थात जिनके चित का मैल नष्ट हो गया है, जो दीप्तिमान सिंह का चर्म धारण करने से ही सिंह नहीं बना जा सकता। २३७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं ऐसे मनुष्य संसार में निर्वाण को प्राप्त करते हैं। क्योंकि जिसका मार्ग समाप्त हो चुका है, जो शोकरहित है, तथा सर्वथा विमुक्त है, सब ग्रंथियों से छूट चुका है, उसके कोई संताप नहीं है।१९ एवं "रहदो व अपेतकद्दमो संसारा न भवन्ति तादिनो।" अर्थात जलाशय के समान कीचड से रहित मनुष्य को संसार नहीं होता। "यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते" (गीता) अपितु विपरीत बुद्धिवाला, आलसी, अज्ञानी और मूर्ख जीव श्लेष्म में लिपटी हुई मधुमक्खियों की तरह संसार में फंसते जाते है, काम-भोगों का त्याग करने वाला "जे तरंति अतरं वणिया व" अर्थात व्यापारी के जहाज की तरह तिर जाते हैं। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त-कर्म या पुनर्जन्म का सिद्धान्त शाश्वत नियम पर आधारित है। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार ही कर्मफल की प्राप्ति होती है। शुभकर्म के कारण अच्छा फल मिलेगा और अशुभ कर्म के कारण बुरा फल। उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययनो में कर्म की बात का स्पष्टीकरण किया गया है। यह जीव संसार में नाना प्रकार के कर्म करके अनेक गोत्र वाली जातीयों में होकर व्याप्त हुआ है। कर्मों के अनुसार यह जीव कभी देवलोक में और कभी असुर की पर्याय को तो कभी क्षत्रिय, चाण्डाल, आदि की पर्याय को प्राप्त होता रहा और अनेक पर्यायो में अपने ही कारण से भटकता रहा, मनुष्य जन्म को पाकर भी अज्ञानता के कारण यत्र-तत्र भ्रमण करता रहा। ग्यारहवें अध्ययन में मनुष्य जन्म की सार्थकता को बतलाया है। जिन कर्मों के कारण संसार में भटक रहा है उसका विवेचन तेंतीसवें अध्ययन में भेद-प्रभेद के साथ किया गया है और अन्त में यह उपदेश दिया गया है, कि हे भव्य पुरुष! कर्मो के विपाक को जानकर इनको क्षय करने का प्रयत्न करें। चौंतीसवें अध्ययन में लेश्या द्वारा मनुष्य के भावों को समझाया तथा कहा है कि जो पुरुष जिस रुप का विचार करता, वह कृष्ण, नील, कापोत, पीत-पद्म और शंख इन छ: रुप को धारण कर लेता और कभी इन्हीं काषायिक भावों के द्वारा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों को प्राप्त करता रहता है। जो अपने आत्मस्वरुप को समझने लगता और जिसकी दृष्टि राग-द्वेष एवं मोह से रहित हो जाती है वह कर्म से मुक्त हो जाता है और उसका जन्म मरण रुप रोग मिट जाता है। जो सार से सार को तथा असार से असार को जानते हैं। सम्यक् संकल्पो को देखने वाले वे लोग सार को प्राप्त करते है।२१ इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्दमोहेन भारत |२२ अर्थात संसार में इच्छा-द्वेष का उत्पन्न होना अज्ञानता का कारण है। रागद्वेषवियुक्त:२३ राग-द्वेष से विमुक्त कर्मों से मुक्त हो जाते है। राग-द्वेष से युक्त मनुष्य शास्त्र के अर्थ को भी विपरीत मान लेता है। राग-द्वेष दोनों ही वैरी है।२४ शंकरभाष्य में कर्म के विषय में स्पष्ट कथन किया है कि कर्म आरम्भ किये बिना जन्म-जन्मान्तर के संचित पापों का नाश नहीं हो सकता। पाप-कर्मो का नाश होने पर मनुष्यों के अन्त:करण में ज्ञान प्रकट होता है। इसलिए ही नियतकर्म का आचरण श्रेष्ठ कहा है, उसके प्रति आसक्ति नहीं, क्योंकि कर्मफलआसक्ति कर्मबंधन का कारण है।२५ गीता का केवल तीसरा अध्याय ही नही, अपितु इसके सभी अध्याय निष्काम कर्मयोग की शिक्षा देते है, जो परमात्म या परब्रह्म के साक्षात का कारण है। जैनदर्शन की तत्वदृष्टि प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण कर देती है। जीव-अजीव इन तत्वो के आधार पर विश्व का सही सही ज्ञान हो जाता है। पर समझना है कर्म के कारणों को। आस्त्रव द्वारा कर्मो कर आना होता है और बन्ध में कर्म आकर इस तरह बँध जाते हैं जैसे २३८ रुप की कामना-इच्छा सिर्फ भोगी, विलास प्रिय पूरूषों के अंत:करण में ही रमण करती रहती है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूध में पानी उसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता। बंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं और ये बंध के कारण अपनी-अपनी कर्मशक्ति के अनुसार बँधते हैं। इनके अभाव होने से व्यक्ति कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। तब कर्म-संस्कार आत्मा पर नहीं पड़ते ।२६ डॉ. रामनाथ शर्मा ने लिखा है कि "संसार एक रंगमंच के समान है जिस पर सभी को अपने कर्मानुसार निश्चित पार्ट अदा करना पड़ता है।.......... कर्म के सिद्धान्त के साथ पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी लगा हुआ है। कर्म के बंधनों के कारण आत्मा को बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। मोक्ष होने पर ही पुनर्जन्म से छुटकारा मिलता है।२७ धम्मपद के यमवर्ग में पुनर्जन्म का एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया है "सारे कार्यों का आरम्भ मन से होता है। मन श्रेष्ठ है। सारे कार्य मनोमय होते हैं। मनुष्य यदि दुष्ट मन से बोलता है तो दु:ख इसका पीछा करता है जैसे कि चक्र बैल के पैर का पीछा करता है।"२८ जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म निश्चित होता है। कर्म नियमानुसार ही कर्मफल को भोगना पड़ता है। समस्त कर्मफल को एक साथ नहीं भोगा जा सकता। जिस क्रम से कर्मफल को भोगता है, उसी क्रम से कर्मफल का अन्त भी होता है। गीता में आत्मा की शाश्वतता के बतलाने के बाद कहा वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृद्दद्दाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण कर लेती है। अत: जन्म-मरण का चक्र अनादि से चला आया है। जो जन्म-मरण का अन्त कर देता है वही परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। आत्मा "न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व न भूयः।" गीतार/२० तथा धम्मपद के आत्मवर्ग में स्वयं को उदबोधन किया गया है "अत्ताहि अत्तनो नाथो..... और गीता के छठे अध्याय के पाँचवें-छठवें श्लोक में भी इसी प्रकार का कथन किया नैतिक समन्वयात्मक दृष्टि-तीनों नीतिपरक रचनायें हैं। सदाचार, सत्कर्म एवं ज्ञान को विशेष महत्व दिया गया है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में गुरु-शिष्य की विशेषताओं को बतलाया गया है। शिष्य को उपदेशित किया है कि गुरु के निकट रहकर गुरु की आज्ञा-पालन करे, जो आज्ञा को नहीं मानता वह तत्त्वमान को नहीं समझ सकता। इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए।२९ चौथे अध्ययन में साधु के गुणों का विवेचन किया है कि साधु विवेक को बन्द करके लुभाने वाले विषयों में मन नहीं लगावे, क्रोध को शान्त करे, मान को हटावे, माया का सेवन नहीं करे और लोभ का त्याग करे।३० उत्तराध्ययन की तरह गीता में अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के अधीन एवं दूसरों की निन्दा करने वाला, भगवत् विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष को न इहलोक है और न परलोक है और न सुख ही।३१ आलसी और वीर्यहीन रहकर सौ वर्ष तक जीवित रहना निरर्थक है, पर वीर्ययुक्त और दृढ़तापूर्ण रहकर एक दिन का जीवित रहना श्रेष्ठ है। सदाचारी और संयत, बुद्धिमाने मन की पंखुड़ियाँ जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। २३९ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ध्यानी इत्यादि अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत कर यह बतलाया गया है कि जीव को अपने जीवन का महत्व समझना चाहिए। ज्ञानी पुरुष दुर्लभ है। वह सब जगह पैदा नहीं होता |३२ ऐसे अनेकों नीतियुक्त वचनों का कथन तीनों ग्रन्थों में मिल जाता है। इन तीनों की समन्वयात्मक द्दष्टि है। उत्तराध्ययन स्याद्वाद एवं अनेकान्तदृष्टि से वस्तुतत्व को समझने के लिए प्रेरणा देता है। केवल यही बात नहीं है, अपितु उन विभिन्न आदर्शों को तर्क-वितर्क एवं उपदेशात्मक शैली से बतला दिया कि जिसे सर्वसाधारण पढ़कर या गम्भीर रूप से सुनकर आत्म-कल्याण की भावना को पैदा कर लें। गीता कर्मयोग की शिक्षा अन्त तक देती है, और व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का बोध कराती है। धम्मपद सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है "न हि वेरन वेरानि सम्मन्तीध कुदा:चन।" वाली युक्ति मानव कर्तव्य का बोध दिलाती है। गीता "स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरः।" और उत्तराध्ययन "अप्पणा सच्चमेसेच्चा, मित्तिं भूएहिं कप्पये।" अत: तीनों का प्रतिपाद्य विषय आत्मकर्तव्य ही है। प्रत्येक मानव का लक्ष्य कर्तव्य को जानना है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १ गीता अ० २/३०-३१ देही नित्यभवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमहंसि। स्वधर्ममपि चावेश्य न विकम्पितुमर्हसि। धाद्धि युद्धाच्छे योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते। २ वही अ०२/४७-४८ ३ उत्तराध्ययन ३/६ • पल-पल जो जागृत रहे, वह साधू। निद्रा में भी जो जागृत हो वह साधु जब संसार के अनेक प्राणी सुख-दु:ख की अनन्त कल्पनाओं के बीच थककर सो गये होते है तब साधू-जन सभी प्रकार के सुख-दुःख की विभूति लगा कर आत्म-सचेत दशा में विचरण करता रहता है। इनकी निद्रा शरीर की थकावट उतरने हेतु नही, मात्र कायस्वभाव होती है। २४० मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साधना का रहस्य जमनालाल जैन, साधना वह वैचारिक प्रक्रिया तथा सामाजिक आचरण अथवा धार्मिक अनुशासन है जिसके अभ्यास द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सार्थक करना चाहते हैं। व्यक्तित्व की सार्थकता का सर्वप्रथम एवं मूलभूत आधार हमारा शरीर है। हम शास्त्रों का मत-मतांतरों का, परम्पराओं का, आध्यात्मिक जागृति का अभ्यास एवं प्रयास करें या न करें, हमें जो शरीर प्राप्त है उसको टिकाए रखने, उसे सक्षम बनाने एवं उससे काम लेने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उसे साधा जाय। जाने-अनजाने हमारा शरीर जन्म के क्षण से ही सक्रिय रहता है। प्रवृत्ति इसमें सहायक होती है। माता-पिता का या परिवार का वातावरण सहायक होता है। शरीर-विकास के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मानसिक विकास होता है, बौद्धिक क्षमता बढ़ती है, त्यों-त्यों हमारी प्रक्रियाएँ एवं प्रवृत्तियाँ भी नए-नए रूप ग्रहण करती हैं। और यह क्रम एक-दो वर्ष तक या दस-बीस वर्ष तक ही नहीं चलता, बल्कि मृत्यु के क्षण तक चलता रहता है। यह एक प्रकार की साधना ही है। जीवन निरन्तर गतिशील है और हमारी आवश्यकताएँ इस गतिशीलता के आधार पर घटती-बढ़ती रहती हैं। प्रारम्भ में यानी बाल्यकाल में हमें इस जीवन की गतिशीलता का ज्ञान नहीं रहता, इसलिए आवश्यकताएँ भी सीमित होती हैं। जैसे-जैसे मनुष्य अपनी गतिशीलता अथवा व्यक्तित्व को समझने लगता है वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ भी व्यापक एवं वीराट रूप लेती जाती हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, सोने-जागने, पहनने-ओढ़ने जैसी सामान्य प्रतीत होने वाली बातों में भी मनुष्य आगे चलकर काफी सावधान एवं जागरूक होने लगता है और इस बातों की भी आचार-संहिता उसके मानस पर छा जाती हैं। परम्परा, संस्कार, सामाजिक व्यवहार, नागरिक शिष्टाचार एवं कानून के सन्दर्भ में विकासमान् मनुष्य अपने जीवन का, उसकी गतिशीलता का मूल्यांकन करता है एवं उसे सार्थक सिद्ध करने के लिए अपनी सहज क्रियाओं को वैधानिक जामा पहना देता है। __ पशु-पक्षियों की इन्ही सहज प्रवृत्तियों को हम साधना नहीं कहते, क्योंकि उनकी इस सहज प्रवृत्तियों या कार्य-कलापों मे कभी कोई विकास नहीं हुआ। सरकस में काम करने वाले या विशिष्ट संस्थानों में प्रयोजनवश प्रशिक्षित पशुओं के व्यवहार-विशेष को साधना अवश्य कह सकते हैं। किन्तु इसकी भी एक मर्यादा है। मनुष्य की ऐसी कोई मर्यादा नहीं है, सीमा नहीं है। ___ मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक कर्म एवं प्रत्येक भावना के साथ विकासशील रहा है और इसी प्रकार वह ज्ञान-विज्ञान का अतुल्य, अकूत कोष अपने में समाहित करता गया है। __ संसार के अनेक धर्मोने मानवीय क्षमता के विकास को ध्यान में रखकर, अपने-अपने समय में व्यक्तित्व की सार्थकता के कई आयाम उद्घाटित किये। खान-पान तथा चलने-फिरने से लेकर आत्मसिद्धि या परमात्म-प्राप्ति तक, समग्र जीवन को समेटने वाली हजारों-हजार क्रियाओं पर धर्म-प्रवर्तकों ने या अनुभवी महापुरुषों ने अपने विचार प्रकट किये है। छोटी से छोटी क्रिया को भी उन्होंने साधना का स्वरूप दिया। प्रत्येक क्रिया को धर्ममय कहकर उन्होंने क्रिया की प्राण-प्रतिष्ठा की। इससे क्रियाओं की गरिमा बढ़ी, उनके प्रति सजगता बढ़ी और पारस्परिक व्यवहार में चेतनता का प्रवेश हुआ। जैसे कलाकार पाषाप के कण-कण में विराट सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए जो अपने अंत:करण से यह मानता है कि मुझसे पाप हुआ है, वह पवित्र और निर्मल है। वे सर्वदा वंदना के पात्र है। २४१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति का निर्माण करके अपनी सम्पूर्ण चेतना-ऊर्जा उसमें उड़ेल देता है और वह मूर्ति हमारे समक्ष जीवन्त हो उठती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की सहज मानी जाने वाली क्रियाओं अथवा प्रवृत्तियों में सम्पूर्ण विश्व की आत्म-भावना का उन्मेष करने का महान प्रयास किया गया है। यह साधारण घटना नहीं है जबकि अर्जुन श्रीकृष्ण से या गणधर गौतम महावीर से साधारणसी प्रतीत होने वाली उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने आदि क्रियाओं के विषयों में मार्गदर्शन चाहते हैं। वस्तुत: देखा जाय तो सम्पूर्ण मानव-जीवन ही साधनामय है। जीवन अपने में साधना ही है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अद्वितीय होता है, अतुल्य होता है, वैसे ही साधना भी अनन्तरूपिणी है। सामान्यत: समान प्रतीत होने वाली एक छोटी-सी दैनिक क्रिया भी प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न होती है और एक व्यक्ति की भी वह दैनिक क्रिया प्रतिदिन एक-सी नहीं रह पाती है। ऐसा न हो तो मनुष्य जड़ हो जायेगा, उसके ज्ञान का स्रोत सूख जायेगा, उसका आत्मदीपक बुझ जायेगा। फिर भी साधना को भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक इन तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। इन्हें हम व्यक्तिपरक, समष्टिपरक एवं आत्मपरक भी कह सकते हैं। भौतिक साधना में वे सब चीजें ली जा सकती हैं जो शरीर संरचना से लेकर जीवन-संरक्षण तक आती हैं। इनमें किसी सीमा तक शरीर-शुद्धि को भी जोड़ा जा सकता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एवं उपभोग के लिए किया जाने वाला प्रयास इसमें आ जाता है। नैतिक साधना का क्षेत्र व्यक्ति से ऊपर उठकर समाज तक बढ़ जाता है। व्यक्ति को समाज में, सबके साथ रहना है, समाज के प्रति उसके अनेक कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अपने सम्पर्क में आनेवालों के प्रति उदारता, मदता, विनयशीलता का बर्ताव करना पड़ता है। इन सबके लिए उसे सामाजिक नियमों का पालन करना पड़ता है। सामाजिक धरातल पर व्यक्ति जब अपने जीवन को तोलता है, तब उसका आचार नैतिक नियमों के अनुसार होता है। नैतिक नियमों के पालन में व्यक्ति को अपने परिवार, पास-पड़ोस, गाँव तथा राज्य-राष्ट्र के लिए त्याग भी करना पड़ता है, क्योंकि उसके जीवनका विकास भी समाज के अनेकमुखी त्याग पर निर्भर करता है। अहिंसा आदि पांच व्रत, मैत्री-प्रमोद आदि भावनाएँ, परस्पर उपग्रह आदि नैतिक साधना के साधन हैं। तीसरी भूमिका आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक साधना में व्यक्ति शरीर एवं सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर उठ कर ऐसी भूमिका में प्रवेश करता है जहाँ आसक्ति और आकुलता नाम की कोई चीज नहीं रह जाती। धीरे-धीरे वह शरीर-शुद्धि करते हुए आत्म-शुद्धिकी स्थिति को उपलब्ध करना अपना लक्ष्य बना लेता है। मानसिक एवं शारीरिक विकारों को दूर करने के लिए वह आसन, ध्यान, प्राणायाम आदि के प्रयोग करता है और अपने अस्तित्व का चिंतन करता है। धार्मिक शब्दावली में ऐसे व्यक्ति साधु-संन्यासी या श्रमण कहे जाते हैं। इसकी आचार-संहिता बिलकुल अलग प्रकार की होती है। सम्पूर्ण जीवसृष्टि एवं प्रकृति के साथ आत्म-भाव स्थापित करने की दिशा में उनकी हर क्रिया इतनी सावधानीपूर्वक होती है कि कभी-कभी अबोध मन को ये सब बातें हास्यास्पद भी लगती हैं। अपने शरीर के प्रति अनासक्त या उदासीन होकर समस्त जीवों के शरीरों में अपने को और अपने में सृष्टि-विग्रह को समाहित करने की यह साधना इतनी सूक्ष्म एवं कठिन होती है कि निरन्तर अभ्यास के बावजूद भी फिसलने का डर रहता है। २४२ सत्य कभी कडवा नहीं होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नहीं होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक साधना को प्राय: सभी धर्मो ने महत्व दिया है। सबके अपने-अपने मार्ग है, विधियाँ है और आचारगत विशेषताएं है। जब साध्य ओझल हो जाता है और साधन ही प्रमुख बन जाता है, तब आचार में जड़ता आ जाती है। इस जड़ता के निवारण के लिए भी प्रयास करना पड़ता है। भारतीय धर्मो में वैदिक, जैन और बौद्ध अपनी विशेषता एवं महत्ता रखते है। वैदिक धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वतन्त्र चिंतकों के कारण उसमें युगानुकूल प्रवृत्तियों का समावेश होता गया और व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता रही कि चाहे जिस मार्ग को अपना कर कल्याण-साधना करे। जैनधर्म की साधना-पद्धति मूल में एक प्रकार की रही, उसके साधनों में यदाकदा कछ हेरफेर होता रहा। जैन साधना का मौलिक आधार दार्शनिक विचार रहा जो वैदिक धर्म से सर्वथा भिन्न है।। वैदिक धर्म ने जहाँ कर्म, भक्ति और ज्ञान पर साधना का भवन निर्मित किया वहाँ जैनधर्म ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता पर बल दिया। जैन साधना का लक्ष्य रहा परमात्म-पद की प्राप्ति जबकी वैदिक साधनाका लक्ष्य रहा है परमात्मा मे लीनता इसीलिए हम देखते है कि जैन मनीषियों ने वैदिक धर्म के क्रियाकाण्डों में आ रही जडता का पूरी शक्ति के साथ विरोध किया। जटा बढाना, नदी में स्नान करना, श्राद्ध करना, तर्पण करना, सूर्यादि ग्रहण के समय व्रत-दान करना, यज्ञोपवीत धारण करना, आदि सैकडो क्रियाओं को साधना का अंग मानने से इनकार करके साधना के क्षेत्र में महान क्रान्ति की थी, इसमें संदेह नही। जैन-साधना की गति वीतरागता की ओर है। भौतिक सुख-सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का जीवन में कोई महत्व यहाँ स्वीकार नहीं किया गया । जो यह मानता है कि में सुखी-दुखी हूँ, राजा-रंक हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूँ, सम्पन्न-विपन्न हूँ, वह जैनधर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है। बहिरात्मा वह है, जो मोहासत है, मिथ्यात्व में जीता है। और जिसे अपने अस्तित्व कि यथार्थता का पता नहीं है। ऐसे व्यक्ति को जैनधर्म बेहोश कहता है। वह मोह की महावारुणी पिये हुए है। वह जानकर भी नहीं जानता, देखकर भी नहीं देखता। तब गुरु-प्रसाद से बहिरात्मा को अपने अस्तित्व का, अपने जीवन के मूल्य का ज्ञान होता है और संसार की नश्वरता का दर्शन खुली आँखों से करता है, तो वह इन सबसे विरक्त होकर अंतर्मुख हो जाता है। तब उसे सारा बाह्म वैभव, माया और छलावा लगने लगता है। वह तब निर्ग्रन्थ हो जाता है। समस्त ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है। सारे बाह्य सौन्दर्य में उसे विरुपता दिखाई देने लगती है। एक जाज्वल्यमान आत्मा का स्मरण वह करता है। भेद-विज्ञान उसमें जाग जाता है और वह स्वयं अपना ही दीपक बन जाता है। जैन-साधना की कुछ, पद्धति तो है, पर पद्धति का उपयोग साधन के तौर पर ही किया जाता है। अन्तत: तो सब पद्धतियों से परे होने पर ही साध्य की उपलब्धि होती है। पद्धतियाँ तो फिसलन से, भटकाव से बचने के लिए संकेत मात्र है। पद्दतियाँ तो अनुभवियों के प्रयोग है जिनसे सबक लेकर साधक को अपना मार्ग तय करना है। प्रश्न यह है कि क्या भौतिकता को अध्यात्म में परिणत किया जा सकता है ? भौतिकता की निन्दा करना और उसे छोडकर जंगल का रास्ता अपना लेना कठिन नहीं है, किन्तु इसमें साधना का सूत्र हाथ से छूट जाता है। पंचेन्द्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपायों का उल्लेख मिलता है और यह भी कि घर छोडकर अनगार बन जाना चाहिए। अनेक साधक मुनिवेश धारण करके विचरण भी करते है। प्रारम्मिक अभ्यास की दृष्टि मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संत का सानिध्य तो परम औषधि रुप होता है। २४३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से इसका महत्व अवश्य है, किन्तु बाद में यह सब बातें गौण हो जाती है। सम्यक् साधना में व्यक्ति कहीं किसी से पलायन नहीं करता और न यह अभिव्यक्त होने देता है कि वह किसी प्रकार से असामान्य या विशिष्ट है। भौतिक सामग्री या वैभव को सच्चा साधक आत्मभाव से देखता है और उसका उपयोग आध्यात्मिक दृष्टि से करता है। यहाँ फिर वही बात दोहराने को जी करता है कि कलाकार के लिए पत्थर का छोटा-सा कण भी उसकी विशाल एवं व्यापक भगवत् - भावना का अंश है। अपने कर्म को व्यक्ति जब सर्वात्मभाव से सम्पन्न करता है और उसमें उसका स्वार्थ तिरोहित हो जाता है, तब वह केवल कर्म नहीं रह जाता वह अकर्म ही हो जाता है। योगीन्द्रदेव ने लिखा है जहिं भावइ तहि जाहि जिय जं भावइ करि तं जि । केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चितहं सुद्धि णं जं जि ॥ - हे जीव जहां खुशी हो जाओ, और जो मर्जी हो हो तब तक मोक्ष नहीं भिलेगा। जैन श्रमण परम्परा की यह अनोखी विशेषता रही है कि गृहस्थवर्ग से निरंतर सम्पर्क रखते हुए भी, उनसे प्रतिदिन आहारादि प्राप्त करते हुए भी श्रमण आकांक्षाओं से परे रहते है, और भ्रामरीवृत्ति से विचरण करते है। फूल से अपनी आवश्यकता भर पराग ग्रहण करने वाले भ्रमर का जीवन जैन श्रमणों की चर्या के लिए उत्तम द्रष्टान्त रुप में प्रस्तुत किया जाता है। जैनधर्म या दर्शन का अपना कर्म सिद्धान्त है। उसका भाग्य या कर्त्तव्य से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। यह कर्म सिद्धान्त दार्शनिक निष्पत्ति है जिसके अनुसार व्यक्ति सम्यग् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के समन्वित मार्ग पर सन्तुलनपूर्वक साधना करता हुआ अपने साध्य को प्राप्त करता है। वह त्यागने के लिए कुछ नहीं त्यागता, ग्रहण करने के लिए कुछ ग्रहण नही करता । उसका लक्ष्य होता है-अपनी चेतना में से सब प्रकार की जडता अजीवता को समाप्त करना अथवा निर्जीवता मात्र को अपनी चेतना या स्फूर्ति द्वारा सजीव बनाकर उसके प्रति समभाव स्थापित करना । - ( परमात्म प्रकाश, २, ७०) करो, किंतु जब तक चित्त शुद्ध नहीं जैनाचार्यों ने व्यर्थ साधनाओं को कोई महत्व नहीं दिया। भौतिकता में रचे-पचे लोगों के लिए ऐसी साधनाएं है जो आकर्षण का कारण बन सकती है और जिनमें किसी अनोखी चमत्कृति का दर्शन होता है। वे जन-पूज्य भी बन जाते है। पानी पर चलना, दिवाल को चला देना, दिन में तारे उगा देना, मनचाही वस्तु को निमिष मात्र में उपस्थित कर देना, भविष्यवाणी करना, दूसरे के मन की बात जान लेना, में कूद पडना, शूली पर लेट जाना, या शस्त्र क्रिया द्वारा अंग-भंग करना, आदि सैकडों प्रकार की साधनाओं में लोग वर्षो तक लगे रहते है। लेकिन जैनधर्म ने इन प्रक्रियाओं को लोकैषणा कहा है, कषाय कहा है। साधना तो वही उपादेय है जो राग-द्वेष से विरत करे। पंडित दोलतराम जी ने स्पष्ट कहा है २४४ सारांश यह कि समस्त चराचर जगत् के प्रति समताभाव रखने की साधना सर्वोपरि साधना है । सापेक्ष अथवा साकांक्ष साधना से योगैश्वर्य प्राप्त हो सकता है, स्वर्ग तक मिल सकता है, और तो और कल्पनातीत अनुत्तर विमान का सुख भी मिल सकता है। किन्तु निराकुल सुख की प्राप्ति तो साम्यावस्था में ही उपलब्ध हो सकती है। मोक्ष भी अन्ततः अपनी आकांक्षाओं यह राग आग है सदा तातें शमामृत सेइये । चिर भजे विषय कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये || (छहढाला) कर्तव्य के प्रति जहाँ निष्ठा दृढ होती हैं, वहाँ मन में उत्साह की और में नेराश्य आता ही नहीं है। For Private Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुक्त होना ही है। छहढालाकार ने निष्कर्ष रुप में लाख टके की बात कही है लाख बात की बात यहै निश्चय उर लाओ। छोड सकल जग दंद-फंद निज आतम ध्याओ॥ अपनी आत्मा का ध्यान या चिंतन स्वार्थ नहीं है। क्योंकि आत्मा की शक्ति परिमित नहीं है और उसकी ज्योति ब्रह्माण्डव्यापी है। एक आत्मा में सर्वशक्ति का निवास है, इसलिए वह विश्व-कल्याण से विपरीत स्थिति नहीं है। भगवान महावीर ने सूत्र रुप में कहा है-जो एक को जानता है वह सबको जानता है। हम सर्वप्रथम अपने को पहचान ले, विश्व तो तब जाना हुआ ही समझो। लेकिन वास्तविकता यह है कि मनुष्य नाना वेश या रुप धारण करके भी अपने को नही जान पाता। उसकी आँखे निरन्तर अपने से बाहर, दूर विश्व के मंच -पर परिवर्तनशील द्रष्यों को देखने में लगी रहती है, जो कि अपने में एक माया है, ग्रन्थि है। माया के यथार्थ स्वरुप को जानने के लिए भी अपने को जानना नितांत आवश्यक है। जैनआगम ग्रन्थों में जो कथाएँ मिलती है, उनका कलागत मूल्यांकन करना, साहित्य मनीषियों का कार्य भले हो, उन कथाओं के भीतर एक शाश्वत सत्य आलोकित है कि मुक्ति की साधना के पथ पर चलने में यात्री बार-बार फिसलता है, खाई-खंदक में गिरता है, जन्म-जन्मांतर के अपार दु:ख-सागर में डूबता है, कभी-कमी सुख स्वर्ग में भी भोगैश्वर्य सम्पदा प्राप्त करता है। परन्तु यह सब तो पथ के अवरोध है, शूल-काँटे है। इससे उत्तीर्ण होने पर ही सिद्धि हाथ लगती है। जब व्यक्ति 'मैं' से मुक्त होकर 'सर्व' का हो जाता है, अपने को शून्य कर देता है-अपने में से कर्ताभाव को समाप्त कर देता है, तभी नश्वरता से अविनश्वता के भवन में चरण धरता है। जैन-साधना व्यवहार और निश्चय के रुप में द्विविध है। यह द्विविध साधना भी श्रावकधर्म एवं श्रमण-धर्म के रुप में द्विविध है। श्रावक की साधना व्यवहार-प्रधान होते हुए भी उसकी द्रष्टि निश्चयमूलक साध्य पर होती है। श्रावक की साधना निश्चय का पूरक होती है, तभी वह एक समय समस्त बाह्यताओं से निवृत्त होकर श्रमण मार्ग की और प्रवृत्त होता है अन्तुर्मुख होता है। श्रावक धीरे धीरे एकादश सोपानों पर चढता है यह ठीक है कि उसकी यह व्यवहार साधना खान-पान तथा स्थूल व्रतों कर सीमित होती है, उसका समूचा व्यवहार परस्पर-सापेक्ष होता है, एवं सांसारिक समस्याओं से आबद्ध भी होता है, किन्तु अनादिकालीन मोहनीय संस्कारों एवं मिथ्यात्वों से ग्रसित जीवन को एक नई दिशा देते समय ऐसा नैतिक चरित्र भी बड़ा क्रान्तिकारी होता है। श्रावकधर्म की जो आचार-संहिता जैन धर्म में प्रतिपादित है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। बाहर से वह नैतिक दिखती है जरूर लेकिन उसके बीज बहुत गहरे गये होते है और उनमें विशाल वृक्ष बनने की क्षमता होती है। सामाजिक शिष्टाचार के लिए या राष्ट्रिय चरित्र की एकरुपता के लिए नैतिक उपदेशो से भरी हुई आचार-संहिता मुनष्य को उपर-ऊपर से आकर्षित करती है और उसे भी नैतिकता का मुखौटा लगाने की सुविधा मिल जाती है, किन्तु इतने से वह आत्म -विकास की ओर जाने में समर्थ नहीं हो जाता बल्कि आत्मवंचक ही अधिक होता है। जैन आचार-संहिता ने कभी शिष्टाचार का नैतिक उपदेश नहीं दिया। श्रावक के वतों की विशेषता यह है कि इन व्रतों को स्वीकार करने के उपरांत -इनमें से किसी एक व्रत को भी किसी भी अंश में स्वीकार करने के उपरांत - मनुष्य में बदलाव प्रारम्भ हो जाता है, क्योंकि यह व्रत-स्वीकृति आत्मशोधन एवं आत्मशद्धि के लिए होती है। किसी भी छोटे-बडे मंत्र की आराधना में सिद्धि तन, मन और प्राण की एकाग्रता के बिना होती की नहीं। २४५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब श्रावक की साधना आत्मशोधन के एक बिन्दु पर पहुँच जाती है तो वहाँ उसकी समग्र चेतना प्रकृतिस्थ हो जाती है। वह परम (निर्ग्रन्थ) हो जाता है। निर्ग्रन्थ केवल रुढ नग्रता के अर्थ में नहीं, बल्कि सम्पूर्णमना वह दिशाओं के विराट् वस्त्र को ओढलेता है। संसार मे रहकर भी वह संसार का नहीं रह जाता। श्रमण के लिए जैन ग्रन्थों में सत्ताइस मूलगुणों के पालन का विधान है। वे निरन्तर बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते है। श्रमण दश धर्मो का पालन करते है। मन-वचन-काय का गोपन करते हैं करते हैं और चलने, बोलने, खाने-पीने आदि के रूप में पाँच समितियों का सावधानीपूर्वक आचरण करते है। इस प्रकार की साधना का प्रतिपादन अन्यत्र दुर्लभ है। इस साधना में एक ऐसा तत्व-दर्शन अन्तर्भूत है जो साधक को साध्य से विमुख नहीं होने देता। नौ व सात तत्त्व एव छ: द्रव्यमूलक सृष्टि-व्यवस्था का निदर्शन जैन-दर्शन की अपनी मौलिक देन है। इस तत्त्वज्ञान की आधारशिला पर ही समग्र साधना की इमारत खड़ी है। कहने का तात्पर्य यह है कि केवल नैतिक उपदेशों या कर्मकाण्डों के आधार पर की गई साधना मनुष्य को तपस्वी तो बना सकती है, उसमें सहिष्णुता भी आ सकती है, किन्तु साध्य अस्पष्ट ही रहता है। जैनधर्म के अनुसार साधक के समक्ष साध्य का चित्र स्पष्ट रहता है और उसी के चतुर्दिक उसकी साधना का चंक्रमण होता है। जैन साधक तप भी करता है। जैन साधक के लिए बारह प्रकार के तपों का विधान है। छ: तप बाह्य हैं और छ: आभ्यन्तर। बाह्य तपों के द्वारा साधक कभी अनशन करके, कभी भूख से कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण करके, कभी किसी रस को तज करके, और कभी शरीर को नियन्त्रित करके वासनाओं पर अंकुश लगाता है, अभिलाषाओं को संकोचता है। आन्तरिक तप के द्वारा वह ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन-चिंतन में निरत रहता है। तप के ये प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बड़े मूल्यवान है। इनमें बाहरी तपन नहीं है। लोगों को चमत्कृत करके प्रसिद्धि प्राप्त करने की अभीप्सा नहीं है और व्यर्थता भी नहीं है। शरीर को सताने की अपेक्षा उसे हल्का-फुल्का एवं विकार-विवर्जित बनाने में जो तपस्या सहायक हो, वही करने का इंगित इन तपों में है। ये तप बाहर से दीखते भी नहीं है, साधक इन्हें प्रदर्शित भी नहीं करता। सूर्य जैसे अपनी किरणों से संसार को प्रकाश के साथ-साथ जीवन देता है, वैसे ही इन द्वादश तपों से साधक अपने में तेज का अनुभव करता है और इस तेज से वातावरण को आलोक मिलता है। ये तप साधक के शरीर-दीप को प्रज्वलित रखते है। तपोमय शरीर का दीपक बुझता नहीं हैं, उसका उत्सर्ग होता है, जो समूचे वातावरण में एक प्रकाश-किरण छोड़ जाता है। जैन-साधना में आयु की मर्यादा का कोई प्रावधान नहीं है। जिस मानव-चेतना में ज्ञान-किरण का उदय हो जाता है, वैराग्य की उर्मि तरंगायमान होने लगती है, वह साधना के पथ पर आरोहण कर जाता है। अनेक उदाहरणों में हम देखते ही हैं कि अल्पवय में ही अनेक पुरुष ज्ञानी एवं संत हो गये हैं। ज्ञान आत्मिक ऊर्जा है, वह पोथी-पुस्तकों की चीज नहीं है। कबीर तो कह ही गये है कि पोथी पढ़-पढ़ कर तो संसार मर ही गया, कोई पण्डित नहीं हुआ। एक तरुण भी श्रमण हो सकता है और एक वृद्ध भी माया-जाल में उलझा रह जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनाथी मुनि की एक ऐसी ही प्रतीक-कथा है। जैन आगमों में अनेक तरुण तपस्वियों की गाथाएँ अंकित है जो माता-पिता को घर में छोड़कर वन की ओर प्रस्थान कर २४६ कर्म की सलाह (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पड़ी हैं? Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये। मूल बात यह है कि आश्रय -व्यवस्था निर्माण करके मनुष्य जीवन को चार खंडों में विभाजित करने की कल्पना ज्ञान अथवा साधना के मार्ग में सहायक नहीं होती। वह तो एक सामान्य एवं स्थूल विधान मात्र है जिसके पीछे मानवीय ज्ञान-शक्ति की अवहेलना है। प्रारम्भ के २५ वर्षों तक ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का विधान मनुष्य को आगे भोग में ले जाता है। जबकि जैन-साधना के अन्तर्गत ब्रह्मचर्यव्रत का विधान एक बार स्वीकार करने बाद अत्याज्य है और इसी कारण वह मनुष को 'योग' की ओर ले जाता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संकेत किया है कि 'जीवन एक अमर जवानी है, उसे उस आयु से नफरत है जो इसकी गति में बाधक हो, जो दीपक की छाया की तरह जीवन का पीछा करती है। हमारा जीवन नदी की धारा की लहरों की तरह अपने तट से छूता है, इसलिए नहीं कि वह अपनी सीमाओं का बन्धन अनुभव करे, बल्कि इसलिए कि वह प्रतिक्षण यह अनुभूति लेता रहे कि उसका अनन्त मार्ग समुद्र की ओर खुला है। जीवन ऐसी कविता है जो छन्दों के कठोर अनुशासन में चुप नहीं होती, बल्कि इससे अपनी आंतरिक स्वतन्त्रता और समता को और भी अधिक प्रकट करती है।" _ -(साधना, पृष्ठ ६२-६३) साधना का क्षेत्र-विस्तार असीम है, अनन्त आकाश की भांति। किसी भी एक क्षेत्र या विषय में साधना की ओर बढ़ने पर प्रत्येक जागरूक व्यक्ति अपने को नितान्त अल्प या शून्य ही पाता है। जीवन भर डुबकियाँ लगाने पर भी अन्तत: लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी स्पर्श नहीं हुआ है। बोलने को तो हम रात-दिन बोलते रहते हैं, लेकिन यथार्थत: बोलने की विशेषताओं या गरिमा से हम अन्त तक अपरिचित ही रह जाते हैं। सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांग सूत्र में साधु की आहारचर्या विषयक निर्देशों को देखने से ज्ञात होता है कि साधु के लिए आहार प्राप्त करना अहिंसा की दृष्टि से एक साधना ही है। पांचों इन्द्रियों से तथा विभिन्न शारीरिक अवयवों से निरन्तर काम लेते हुए भी और यह जानते हुए भी कि इनका क्या उपयोग एवं लाभ है, हम इनके प्रति कितने अनजान रह जाते है? साँस के बिना जीवन पलभर भी नहीं चल सकता, किन्तु क्या हम श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं अथवा विधियों से परिचित रहते है? यह जानना ही तो साधना है। साधना की दिशा में कदम रखने का अर्थ है संकल्प करना, एकाग्र होना, अपनी समस्त शक्तीयों को केन्द्रित करना ताकि उपलब्धि का बीज अंकुरित हो सके, वह कठोर अवरोध को भेदकर ऊपर उठ सके और विशाल वृक्ष बन सके। संकल्पपूर्वक सिद्धि ही साधना फल है। यही बीज की स्वतन्त्रता है। हमारे शरीर में परिव्याप्त चेतना विश्वव्यापिनी शक्ति समाहित किये हुए है; वह विश्व से तुच्छ या लघु नहीं है। उसमें सम्पूर्ण विश्व समाहित है। बूँद छोटी अवश्य है, पर सागर से भिन्न नहीं है। किसी भी प्रकार की साधना का मूल आधार शरीर होता है। शरीर की सहायता से ही साधना फलवती होती है। साधना से शरीर सक्षम बनता है और शरीर की क्षमता से चेतना में तेजस्विता आती है। जब आत्मा तेजस्वी होती है तो यह तन परमात्मा का मंगलधाम बन जाता है। शरीर के प्रति आसक्ति न रखना आवश्यक है, लेकिन उसके प्रति शत्रुता भी अनुचित है। जो लोग शरीर को सताने में साधना देखते है, वे केवल बोझ ही ढोते है। विशिष्ट अवस्था, विशेष आसन, विशिष्ट प्रकार का आहार-विहार, रहन-सहन, वेश, व्यायाम, प्रायश्चित की अग्नि से जो विशुद्ध बन जाता है, वह ही महामानव परम शुद्ध परमात्मा (वीतराग) बन जाता है। २४७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणायाम, जप-जाप, स्नान-ध्यान, अथवा प्रयास को प्राय: साधना कहा जाता है। अमुक परिस्थितियों में इस प्रकार की विशिष्टताएँ भले ही उपयोगी हों; किन्तु इस प्रकार मनुष्य सहजता से टूटता जाता है और परिणामत: विश्व-प्रकृति से एकरूप नहीं हो पाता। संत कबीर ने 'सहज समाधि' की बात कहा है। लगता तो यह है कि जीवन में सहज होना ही अत्यन्त कठिन है। असामान्य या कठिन मार्ग अपनाना अपेक्षाकृत आसान प्रतीत होता है। कोरी स्लेट पर बिल्कुल सीधी रेखा खींचना ही कठिन है। जंगल में सीधे बिरवा बहुत कम होते हैं। हमारा जीवन भी अनेक वक्रताओं का घर है। वक्रताओं को मिटाने का नाम ही सहजता है। मंदिर में जाकर मूर्ति के आगे साष्टांग नमन करना हमारे लिए कठिन नहीं है। पर शयन की सहज क्रिया को ही प्रभु-नमन मानना बड़ा कठिन है। विश्व के साथ तादात्म्य स्थापित करने या विश्व में अपने को लीन करने के लिए हमारी भूमिका नदी के प्रवाह की भांति होनी चाहिए कि वह सागर की ओर सहज बही चली जाती है। अंकुर सहज वृक्ष बनता चला जाता है। साधना का भार ढोने पर तो हम श्रमिक ही रह जाते हैं, श्रमण नहीं बन पाते। शरीर के अंग अपना कार्य कितनी सहजता से करते हैं कि उनके लिए हमें सोचना भी नहीं पड़ता। हम बालक से तरूण और तरुण से प्रौढ वृद्ध होते जाते हैं; परन्तु पता नहीं चलता कि यह सब कैसे घटित हो जाता है। तो साधना हमें करनी है सहजता की, ऋजुता की, भार-विहीन होने की, और तभी हमारा यह तन आत्म-दीपक से ज्योतिर्मान होकर हमें वहाँ पहुँचा सकता है जहां आत्मा की अन्तिम परिणा है। अन्त में मैं अपनी बात विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इन शब्दों के साथ समाप्त करूंगा कि "प्रश्न यह है कि हम जगत को, जो आनन्द का पूर्ण उपहार है, किस रीति से स्वीकार करते हैं। क्या हम इसे अपने उस हृदयमन्दिर में स्थान देते हैं जहाँ हम अपने अमर देवताओं का प्रतिष्ठान करते हैं। साधारणतया हम विश्व की शक्तियों का प्रयोग करके अधिक-से-अधिक शक्ति संग्रह करने में व्यग्र रहते हैं। विश्व के अक्षय भंडार से हम यथाशक्ति अधिकाधिक पाने की प्रतियोगिता में लड़ते-झगड़ते जीवन बीता देते हैं। क्या यही हमारे जीवन का ध्येय है? हमारा मन केवल जगत् का उपभोग करने की चिन्ता में व्यस्त रहता है-इसी से हम इसका सचा मूल्य नहीं पहचान पाते, हम अपनी भोग-कामनाएँ और विलासी चेष्टाओं से इसे सस्ता बना देते हैं और अंत में हम इसे केवल अपनी पूर्ति का साधन मान बैठते हैं और उस नादान बालक की तरह जो पुस्तकों के पन्ने फाड़-फाड़ कर रखते हुए आनन्दित होता है, प्रकृति की उधेड़बुन में ही जीवन का आनन्द समझ बैठते हैं। उसका असली मूल्य हमारे लिए उसी तरह रहस्य बना रहता है, जिस तरह उसके पन्नों से खेलने वाले बच्चे के लिए पुस्तक का ज्ञान।". • मनुष्य ही नहीं, पशु जाति-वानर सेना के सम्मुख भी उस की वैज्ञानिक शक्ति, उसके भयानक अस्त्र-शस्त्र और उसकी पाशविक-दानविक शक्ति भी तनिक कार्य नही साध सकी। २४८ प्रभू के दरबार में अकिंचन यात्रालुओं का अपूर्व स्वागत सत्कार होता है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशास्त्र और मंत्रविद्या ले. राममूर्ति त्रिपाठी भारतीय धर्म-साधना में अधिकार भेदभाव के अनुसार प्रस्थान-भेद है। श्रमण प्रस्थान का 'शासन', 'अनुशासन' या 'शंसन' करनेवाला शास्त्र भिन्न है और ब्राहमण प्रस्थान का भिन्न। श्रमण प्रस्थान में भी दो धाराएं हैं - बौद्धधारा और जैनधारा। जैनधारा में भी साधकों के संस्कार-भेद से अवान्तर धाराएं मिलती हैं इसी लिए उनका मूल शास्त्र आगम अपना है। इनके मूलभूत पवित्र ग्रन्थ दो प्रकार के हैं - चतुर्दशपूर्व और ग्यारह अंग। दिगम्बर माने हैं कि 'पूर्व संज्ञक मूल आगम विलुप्त हो गए हैं तथा विलुप्त १४ पुर्व के अवशिष्ट अंगों को दिवाय नामक बारहवें अंग में संकलित किया गया था - पर इस मान्यता पर दिगम्बर लोग आस्था नहीं रखते। जो हो - उनके मूल ग्रन्थ ये ही हैं। इनके सिद्धान्तों की संख्या ४६ हैं जिनमे ११ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, ६ छेदसूत्र, ४ मूलग्रन्थ तथा २ स्वतंत्र ग्रन्थ हैं। उमास्वाति को दोनों ही सम्प्रदाय के लोग सम्मान से देखते हैं। तत्वार्थ सूत्र उनका प्रामाणिक और सम्प्रदाय में समादरणीय ग्रन्थ है। सम्यक, ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यकू चारित्र - ये सम्मिलित रुप से मोक्ष के मार्ग माने जाते हैं। मोक्ष में सम्यक् श्रद्धा, श्रद्धापूर्वक उनका ज्ञान और आचरण में उनका उतर आना - तीनों ही सम्मिलित होकर उपादेय है। इस जैनशास्त्र का माहात्म्य बताते हुए 'समयसार' में कहा गया निहचै में रुप एक विवहार में अनेक, याही ते विरोध में जगत भरमाया है। जग के विवाद नासिवे कों जिन आगम है जामै स्थाद्राद नाम लच्छन सुहायो है। वरसन मोह जाको गयो है सहज रुप, आगम प्रमान ताके हिरेदे में आया है। अने सौं अखंडित अनूतन अनन्त तेज, ऐसौं पद पूरन तुरन्त तिनि पायौं है।५५|| जहाँ तक इस महनीय जैनशास्त्र में 'मंत्र' का सम्बन्ध है - सबसे पहली बात है - उसका स्वरुप निरुपण। तदनन्तर उसके विविध पक्षों पर विवेचन। जहां तक मंत्र के स्वरुप का सम्बन्ध है - मंत्र एक नाम है - जिसका अपास्य नाभी से सम्बन्ध है। 'नाम' (मंत्र) का दार्शनिक वैज्ञानिक विवेचन करते हुए माना गया है कि मंत्र, नाम और शब्द - किसी बिन्दु पर ये परस्पर पर्याय हैं। यह नाम या शब्द - दो प्रकार का है - निरतिशय और सातिशय (Pure and Approximate) इसी को प्रकृत और विकृत भी कह सकते हैं। बात यह है कि जो शब्द हम सुनतें हैं वह स्थूल है अर्थात् सातिशय है। कुछ शब्द ऐसे है जिन्हे हम मंत्र की सहायता से सुन सकते हैं - निश्चय ही वह शब्द स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म है। सूक्ष्म शब्दि संघातात्मक भी हो सकता है और परमाण्वात्मक भी। पूर्ववर्ती "दो रुप संमिश्र है और परवर्ती" एक अमिश्र। 'बृहद् द्रव्य संग्रह का कहना है सद्दो बंधो सुहुमौं थूलो संठाण मेदतम छाया। उज्जोदादवसहिया भुग्गलदव्वस्स पज्जाया।। त्याग, यही तो साधूता का लक्षण हैं, इसके बिना साधू होता ही नहीं है फिर चाहे जैसी पदवी प्राप्त हो जाय उसे। २४९ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द, बंध, साक्षम्य, स्थौल्य, संस्तानभेद, तमश्छाया, आतप, उधीत सहित - ये सभी पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। शब्द दो प्रकार के हैं - भाषात्मक और अभाषात्मक। भाषात्मक भी दो प्रकार का है - उदारात्मक तथा अनदारात्मक। अदारात्मक के भी संस्कृत प्राकृत आदि अनेक प्रकार हैं। अनदारात्मक भेद भी द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों में तथा सवै की दिव्यध्वनि में हैं। अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिकृतथा वैत्रसिक भेद से दो प्रकार हैं। इस प्रकार मंत्र जिन शब्दों या मातृकाओं से घटित होता है - उनके सम्बन्ध में यह स्थिर हुआ कि भाषा वर्गणा का घटक परमाणु रुप और संघात रुप-द्विविध मातृकाएं होती हैं - अर्थात् उनके सूक्ष्म और स्थूल - दो रुप होते हैं। ब्राह्मण दर्शनों या तंत्र ग्रन्थों में कहा गया है - 'वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे' वाक् से ही सारी सृष्टि हुई है और यह वाक् ही प्रजापति है। निश्चय ही जो सबका कारण है - वह किसी से अपनी उत्पत्ति की अपेक्षा नहीं करता - अर्थात् वह मूल तत्व है। वह शब्द जिसकी उत्पत्ति और ज्ञाप्ति में तमाम कारणों की अपेक्षा है - वह स्थूल शब्द है - श्रीत्रग्राह्य है। यह सातिशय है। यही योगज शक्ति ग्राह्य अवस्था में सूक्ष्म है। बात यह है कि स्थूल संघातात्मक शब्द श्रोत्रग्राह्य है - पर परमाणु रुप नहीं - दो परमाणुओं से निर्मित संघातात्मक शब्द के स्पन्दन से जो ध्वनि बनती है (वह भी शब्द द्रव्य ही है) वह सामान्य श्रीन्द्रिय से ग्राह्य नही होगी। कारण, विज्ञान बताता है कि स्पन्दन आवृत्ति की दो सीमाएं हैं - कम से कम और ज्यादा से ज्यादा (Lower Limit and Upper Limit) दोनों सीमाओं का अतिक्रमण करने पर हमारी श्रोत्रंन्द्रिय की शक्ति उसे ग्रहण नहीं कर सकती। पर श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति से ग्रहण नहीं होने का तात्पर्य यह नहीं कि स्पन्दन से ध्वनि होती ही नहीं - अवश्य होती है। समाधि द्वारा हमारी बढ़ी हुई योगजशक्ति से उसका साक्षात्कार हो सकता है। ये दोनों प्रकार के शब्द सातिशय हैं। यदि भाषा वर्गणा के घटक परमाणु पुद्गलों में स्पन्दनजनित ध्वनि है - तो वह निरतिशय है। इसकी ग्रहण शक्ति हमारी निरतिशय शक्ति है - प्रजापति शक्ति है - निर्मात्री शक्ति है - वह शब्द 'तन्मात्र' है। सृष्टि में जो कुछ भी प्रवाहनित्य रुप से बनता-बिगड़ता रहता है - आकर्षण-विकर्षण के कारण और यह आकर्षण-विकर्षण एक गति के ही कारण होता है। वैसे तो सृष्टि ही गति है पर निर्माण के अनुरुप जो आकर्षण-विकर्षण रुप गति है-वह भाषा वर्गणा के घटकपुद्गलात्मक शब्द परमाणुओं में है। इसीलिए उनसे घटित मंत्रो में इतनी 'शक्ति' होती है कि उससे सभी वांछित कार्यो की निष्पत्ति हो जाती है। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में कहा गया है __ अकारादिक्षकारान्ता वर्णा प्रोषतास्तु मातृकाः। सष्टि न्यासस्थिति न्याससंहति न्यासस्त्रिधा ।।३७६॥ अर्थात् अकार से अकार (क+व+ज) पर्यन्त मातका वर्ण कहलाते हैं। इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम। ___ मंत्री में मंत्रराज णमोकार मंत्र है - आत्मशक्ति की पुन: प्राप्ति इसी मंत्र की साधना से होती है। यों तो शान्ति और पुष्टि के निमित्त भी मंत्रीका स्वरुप तथा विधान है इसीलिए मंत्रो की क्रिया निरुपणा है आत्मशक्ति की अभिव्यक्ति के निमित्त और सांसारिक उपलब्धियों के निमित्त। जैनशास्त्रों में दोनों प्रकार के मंत्रो का सांगोपांग निरुपण है। स्वयं णमोकार मंत्र में सब प्रकार ऐहिक और आमुष्मिक - की सिद्धि प्रदान करने की क्षमता है। उक्त श्लोक इस सन्दर्भ में नितान्त महत्वपूर्ण है। णमोकार मंत्र में मातका ध्वनियोंका तीनों प्रकार का क्रम २५० मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान है। संहारक्रम कर्मविनाश का तथा सष्टि और स्थिति क्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्यदय का साधक है। इस मंत्र के द्वारा मातका ध्वनियों के तीनों प्रकारों के मंत्री की उत्पत्ति बताई गई है। प्रत्येक मंत्र में बीजाक्षार होते हैं। इन बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है हलो बीजानि चोक्तानि स्वरा: शक्तय ईरिता: ।।३७७।। अर्थात् ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजन बीज संज्ञक है और अकारादि स्वर शक्ति रुप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। तंत्र-मंत्र के ग्रन्थो में विस्तार के साथ वर्णमातृका की शक्तियों और फलों का उल्लेख मिलता है। मेरी धारणा है कि जब जैनशास्त्र वर्णमातृका में सब प्रकार की शक्तियों का उल्लेख है और शास्त्रोक्त होने से प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता को मान लेने पर यह स्पष्ट है कि ऊपर जिस शब्दशक्तिगत सर्जना की बात की गई है वह युक्तिसंगत और शास्त्रसंगत हो। माना कि जैनशास्त्र के अनुसार सृष्टि नित्य है - पर प्रवाहनित्य ही कहना पड़ेगा, कारण परिणाम तो होता ही रहता है - अत: वह कूटस्थ नित्य नहीं है। प्रवाहनित्य में बनना-बिगड़ना चलता है - वही तो परिणाम है। बनना-बिगड़ना - दोनों में शक्ति की आवश्यकता है और शक्ति वर्णमातृका में है - इसीलिए जनयित्री का धर्म होने से उन्हें मातृका कहा जाता है। __ जब यह तथ्य शास्त्रसंगत और युक्तिसंगत है - तब इसकी विश्वसनीयता और बोधगम्यता के निमित्त अपेक्षित उपत्ति देनी ही पड़ेगी! यदि यह मान लिया जाय कि प्रत्येक वर्ण में तत्-तथ ऐहिक-आमुष्मिक उपलब्धि की क्षमता है तो वर्ण सबको माम ही हैं - शक्तिलाभ सभी को क्यों नहीं हो जाता? लगता है तदर्थ एक साधना की विशिष्ट प्रक्रिया है - उस प्रक्रिया से मंत्र जप किया जाय - तभी उसमें निहित शक्ति का स्वायत्तीकरण होता है - वह शक्ति अदिव्यध्यनि में नहीं - दिव्यध्वनि में है जिसका साक्षात्कार सर्वज्ञ मुनि को होता है। यह दिव्यध्वनि क्या 'तन्मात्र' या 'निरतिशय' शब्द की ही तो नहीं है? पर उसका साक्षात्कारपूर्व वांछित उपलब्धि में विनियोग कैसे हो? साक्षात्कार या स्वायत्तीकार कैसे हो? जप ही उपाय है - जो वाचिक, उपांशु और मानस - तीन प्रकार का है और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट है। यह सातिशय या स्थूल शब्द उस मातृकाभूत शब्द के साक्षात्कार का माध्यम है। समस्त बीजाक्षरोंकी उत्पत्ति णमोकार मंत्र से ही हुई है। कारण, सर्वमातृका ध्वनि इसी मंत्र से उद्भूत है। इन सबमें प्रधान 'ॐ' बीज है। यह आत्मवाचक है। पातंजल सूत्र भी है - "तस्य वाचक: प्रणवः" 'प्र' 'नव' - जो बराबर नया रहे - बासी हो ही नहीं। सर्जनात्मिका शक्ति का यही तो परिचय है। ऊँकार को तेजोबीज, कामबीज और भावबीज मानते हैं। प्रणववाचक या परमेष्ठीवाचक - एक ही बात है। ऊँ समस्त मंत्रों का सारतत्व है। जो वर्ण जिस तत्व का वाचक है - उससे उसके अर्थका तादात्म्य है। मंत्र को शक्तिशाली करनेवाले अन्तिम ध्वनि में स्वाहा, वषट्, फट्, स्वधा तथा नम: लगा रहता है। णमोकार मंत्र से ही सभी बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई है। अरिहंत (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि-इनके पहले अक्षरों को लेकर सन्ध्य क्षर ऊँ बना है। बीजाक्षर मंत्र एकाक्षर हैं - ऊँ, हीं, श्री, क्लीं/- इत्यादि। वैसे युग्माक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुरक्षरी, पंचाक्षरी से लेकर सत्ताइस और उसमें भी अधिक अक्षरी मंत्र (ऋषिमण्डल) हैं। श्री णमोकार मंत्र पंचत्रिंशत्यक्षरी है। आनंद यह बाहर का विषय परन्तु अंतर की वस्तु है। २५१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं। णमो उवज्झामाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।। मंत्र का सेद्धान्तिक और प्रायोगिक विवेचन 'शक्ति' सिद्धान्त के स्वीकार से ही सम्भव है - जैसा कि ऊपर देखा जा चुका है। यह शक्ति साधना से जागृत होती है - जो मंत्रों में निहित है। जैनशास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में णमोकार मंत्र की सर्वाधिक प्रमुखता दी ही गई है - शान्तिक और पौष्टिक कर्मो के निमित्त अन्य तमाम मंत्रों का भी साधनविधि के साथ विस्तार से विवरण मिलता है। मंत्र-जप से पूर्व रक्षामंत्र का जप-विधान है। जो लोग रक्षामंत्र का जप किये बिना ही मंत्रसिद्ध करने बैठते हैं वे लोग या तो व्यन्तरों आदि की विक्रिया से डरकर मंत्र जपना छोड़ देते है या पागल हो जाते हैं। यह रक्षामंत्र भी कर्म प्रकार का है - विशेषत: चार प्रकार का। यह रक्षा मंत्र जपसिद्धि में आने वाली विघ्न-बाधाओं के निवारणार्थ होता है। एक मंत्र है जिसे पढ़कर साधक अंगुली से वज्रमय कोट की रेखा खींचता है और उसके ऊपर चारों तरफ चुटक पढ़कर साधक अंगुली से वज्रमय कोट की रेखा खींचता है और उसके ऊपर चारों तरफ चुटकी बजाता है। इसका आशय यह होगा कि उपद्रवकारी 'वले जाये, साधक वजशिला पर आसीन है। __ अन्त में एक बात और ध्यान दिलाना चाहता हूं कि मंत्र की शक्ति का भौतिक उपलब्धियों के निमित्त उपयोग अपनी साधना और मंत्र की शाक्तियों का दुरुपयोग है। उससे प्रदर्शन की भावना और सर्वधाती अहंकार बढ़ता है। अत: सात्विक साधक को चाहिए कि वह आत्मशक्ति - स्वभावशक्ति की पुन: प्राप्ति के लिये। मंत्र साधना करे और प्रदर्शन की भावना से मुक्त होकर आत्महित की ओर प्रवृत्त हो। उज्जे (म.प.) • अभिमान के झूले में झकोले लेने वाला रावण महाज्ञानी, प्रतिज्ञानी था किंतु इतना होते हुए भी वह अपने श्रेय-हित का भी विचार नही कर सका। न होने वाले अशुभ कर्मो के उदयकाल से भटककर संपूर्ण जाति, कुल वंश, वैभव और देश के विनाश का स्वयं कारण बना। २५२ मानवता के विकास से हो देवत्व, साधुत्व, आचार्यत्व, विद्धवत्व का सृजन-विकास हो सकता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में तत्व-विवेचना लेखक :- रमेश मुनि शास्त्री जैन दर्शन में तत्व का आधारभूत और महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जीवन का तत्व से और तत्व का जीवन से परस्पर एवं प्रगाढ सम्बन्ध रहा है। तत्व लोक सापेक्ष भी है और उस का परलौकिक क्षेत्र में भी विशेष रुप से महत्त्व है। दार्शनिक चिन्तन एवं वैज्ञानिक विचारणा का मूलभूत केन्द्र-बिन्दु तत्व शब्द द्वारा अभिधेय कोई न कोई वस्तु है। यह एक सत्य और तथ्य है। तत्व एक शब्द है। प्रत्येक शब्द का प्रयोग निष्प्रयोजन नहीं होता है। उस का कुछ न कुछ अर्थ होता है। यह अर्थ वस्तु में विद्यमान किसी गुणधर्ग या किसी न किसी क्रिया का परिज्ञान अवश्य कराता है। इसलिये शब्दशास्त्र की दृष्टि से "तत्व" शब्द का अर्थ है-जो पदार्थ जिस रुप में विद्यमान है, उस का उस रुप में होना, यही उक्त शब्द का अर्थ है। शब्दशास्त्र के-अनुसार प्रत्येक सद्भुत वस्तु को "तत्व" शब्द से सम्बोधित किया जाता है। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि लौकिक दृष्टि से तत्व शब्द के अर्थ है- वास्तविक स्थिति, यथार्थता, साखस्तु सारांश! और सारांश! दार्शनिक दृष्टि से तत्व शब्द के अर्थ है परमार्थ द्रव्य स्वभाव, पर-अपर शुद्ध परम ये शब्द तत्व के पयार्यवाची है। "तत्" शब्द से भाव अर्थ में "त्व" प्रत्यय लग कर तत्व शब्द निष्पन्न हुआ है। जिस का स्पष्टत: अर्थ उस का भाव! वस्तु के स्वरुप को तत्व कहा गया है। "तत्" सर्वनाम शब्द है, जो अवश्य ही किसी संज्ञा अर्थात् वस्तु की ओर इंगित करते है। उस वस्तु का ही तत्व में महत्त्व है। जो पदार्थ अथवा वस्तु अपने जिस रुप में है, उस का उस रूप में होना ही तत्व है। प्रत्येक पदार्थ, जो है अर्थात जिस का अस्तित्व स्वीकार्य है। वह तत्व के अन्तर्गत परिगणित हो जाती है। किन्तु दर्शन में इन में से कतिपय को ही अपने अर्थ में तत्व रुप में स्वीकार किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से तत्व की व्याख्या और भी अधिक सूक्ष्म है, वह इस प्रकार है-तत्व का लक्षण सत् है अथवा सत्र ही तत्व है। अतएवं वे स्वभाव से सिद्ध है। जगत में जो है वह तत्व है और जो नहीं है। वह तत्व नहीं है, इतना स्वीकार कर लेना प्रत्येक अवस्था में सर्वथा निरापद एवं यथार्थ सन्निक्त है। होना तत्व है और नहीं होना तत्व नहीं है। तत् का लक्षण "सत" है। सत् का विनाश नहीं होता है। और सत् स्वयं सिद्ध है उस का आदि भी नहीं है, मध्य भी नहीं और अन्त भी नही है वह भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्य काल इन तीनों में स्थित रहता है। जैन दर्शन में सत् तत्व, तत्वार्थ, अर्थ पदार्थ, और द्रव इन शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। जो सत् है, वही द्रव्य है और जो द्रव्य है. वही सतः है। स्वरुप की प्राप्ति ही जीवमात्र का एकमात्र लक्ष्य है। एकमात्र साध्य है। इसलिये स्वरुप की साधना दृष्टि से सर्वप्रथम चैतन्य और जड़ का भेद विज्ञान नितान्त आवश्यक है। इस के साथ ही चैतन्य और जड़के संयोग-वियोग का १. बृहनय चक्र-४, २. पंचाध्यायी पूर्वार्दू श्लोक-८, ३. भगवती सूत्र-८, ९. प्रभू के दरबार में यकिंचन यालुओं का पूर्व स्वागत सत्कार होता है। २५३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिज्ञान होना अति अपेक्षित है। अतएवं साधक को आत्मा की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था के कारणों का परिबोध होना अत्याधिक आवश्यक है। वे कारण जो कि साधना के प्रमुख हेतु है, तत्व कहे जाते है। तत्व का लक्षण परिज्ञात होने पर यह प्रश्न होता है कि तत्व किसे कहते है उन की संख्या कितनी है ? उक्त प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक और दार्शनिक इन दोनों दृष्टियों से दिया गया है। प्रथम शैली के अनुसार तत्व दों है, वे इस प्रकार है। १. जीव तत्व ! २. अजीव तत्व ! द्वितीय शैली के अनुसार तत्व सात है उन के नाम इस प्रकार है। १ जीव तत्व २ अजीव तत्व ३ आश्रव तत्व मोक्षतत्व तृतीय शैली के अनुसार तत्व की संख्या नौ है उन के नाम इस प्रकार है। १ जीव तत्व ! ५ आश्रव तत्व ! २ अजीव तत्व ! ४ बन्ध तत्व ५ संवर तत्वा ६ निर्जरा तत्व ६ बन्ध तत्व ! ७ संवर तत्व ! ८ निर्जरा तत्व ! ९ मोक्ष तत्व पुण्य और पाप इन दो तत्वों को आश्रव और बन्ध इन दो तत्वों में से आश्रव या बन्ध में समावेश कर लेने पर सात तत्व कहलाते है। पुण्य पाप को आश्रव और बन्ध से अलग कर के कहने से नौ तत्व कहलाते है। इस दृष्टि से तत्व की संख्या नौ बतलाई गयी है। उक्त सात या नव तत्वों में से जीव और अजीव ये दो तत्व तो धर्मी है। अर्थात आश्रव आदि अन्य तत्वों के आधार है और अवशेष आश्रव आदि उन के धर्म हैं। दूसरे रुप में इन का वर्गीकरण करते हैं तो जीव और अजीव ज्ञेय हैं जानने योग्य हैं संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन तत्व उपादेय ग्रहण करने योग्य हैं। शेष आश्रव, बन्ध, पुण्य और पाप ये चार तत्व हे अर्थात् त्याग करने योग्य हैं। उक्त नव तत्वों का संक्षेप में स्वरुप इस प्रकार हैं। १ - जीव तत्व जो द्रव्य प्राणों और भावप्राणों से जीता है। वह जीव है। जीव उपयोगमय वह संसारस्थ है। कर्म है कर्ता है, भोका है, अमूर्त है। स्व और स्वदेह परिमाण है मुक्त जीव सिद्ध है जीव स्वभाव तः ६ उर्ध्वगामी है उपयोग यह जीव का लक्षण है। पदार्थ के स्वरुप को जानने के लिये जीव की जो शक्ति प्रवृत्ति होती है उसे "उपयोग" कहते है। उपयोग के दो भेद है- ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग! जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है प्रत्येक वस्तु सामान्य और विशेष ये दो धर्म पाये जाते है उपयोग जीव का असाधारण, धर्म है! जीव अविनाशी है, ७ अवस्थित है। जीवतत्व ४. तत्वार्थ सूत्र - अध्ययन १ सूत्र ४, ५. क स्थानांग सूत्र स्थान ९ सूत्र - ६६५. ख- उत्तराध्यदन सूत्र अध्ययन २८ गाथा - १४, ६. क स्थानांग सूत्र - ५ / ३ / ५३. ख-भगवती सूत्र - १३/४/४८. ग- उत्तराध्ययेन सूत्र २८१० य तत्त्वार्थसूत्र २/८, ७ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र- १/५. २५४ ३ पुण्य तत्व ! ४ पाप तत्व ! विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मौलिक विचारधारा जो कि अपने आप में एक विलक्षण है, परिपूर्ण रुप से सत्यमय एवं श्रदेय रुप है। विशुद्ध चैतन्य यह जीव का स्वभाव है। इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि जीव का शरीर के साथ तादाम्य सम्बन्ध है। वह शरीर से सर्वथाअभिन्न नहीं है। क्यों कि शरीर के नाश के साथ उस का विनाश नहीं होता है। कर्मोपाधि से उन्मुक्त हो जाने के कारण मुक्त जीवों के कोई भेद प्रभेद नहीं है। किन्तु कर्म सहित होने से संसारी जीवों के मुख्य दो भेद है - स्थावर और त्रस! ये दोनों भेद संसारी जीव की अपेक्षा से किये गये है! इन दो भेदों में संसारस्थ अनन्त जीवों का समग्र भावसे २- अजीवतत्व-जीवतत्व का-प्रतिपक्षी अजीव तत्व है। अर्थात जीव के विपरीत "अजीव" है। जिस में चेतना नहीं है, जो सुख और दुःख की अनुमति भी नहीं कर सकता है। वह अजीव है। अजीव को जड अचेतन भी कहते है। अजीव तत्व के पाँच भेद हैं। उन के नाम ये हैं। १धर्मास्तिकाय। ३ आकाशास्त्रिकाय। २ अधर्मास्तिकाय। ४ काल। ५ पुदगलास्तिकाय! उक्त पांच मे दों मे, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये चार अजीव तत्व अमूर्त है और पुदगल मूर्त है। अमूर्त के लिये अरुपी और मूर्त के लिये रुपी शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस में, रुप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं। और जिस में ये चारों गुण नहीं पाये जाते है, उन्हें क्रमश मूर्त और अमूर्त कहते हैं। १-धर्मास्तिकाय-यह गति सहायक तत्व है। जिस प्रकार मछली को गमन करने में जल सहकारी निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को धर्मास्तिकाय द्रव्य गमन करने में सहकारी कारण माना गया हैं। २-अधर्मास्तिकाय-यह स्थिति सहायक तत्व है। जीव और पुदगल इन दोनों को ठहराने में उसी प्रकार सहायक है, जैसे ८-स्थानांग सूत्र २/१/५७ ! ९-उत्तराध्ययन सूत्र-२८/७ ! १०- उत्तराध्ययन सूत्र-२८/९! वृक्ष की शीतल छाया पधिक को ठहराने में सहायक है। यह धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य जीव - पुद्गल द्रव्यों को न तो बलात् चलाते हैं और न ठहराते है। किन्तु विभिन्न रुप से उनके लिये सहायक बनते हैं। ३-आकाशास्तिकाय-जो सब११ द्रव्य को अवकाश देता है। वह आकाश है। जीव, अजीव आदि धर्मास्तिकाय- क्रमशं मूर्त अस्पा ये चारों ग ८-स्थानांग सूत्र, २/१/५७. ९-उत्तराध्ययन सूत्र-२८/७. १०. उत्तराध्ययन सूत्र - २८/९. ११. तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन-५ सूत्र-१८. अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। २५५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब द्रव्य आकाश में अवस्थित है। आकाश के दो भेद है-लोकाकाश और अलोका-काश! जितने क्षेत्र में रहेते है, वह लोकाकाश है। शेष सब अलोकाकाश है। ४-काल-जो द्रव्यों की नवीन-पुरातन आदि अवस्थाओं को बदलने में निमित्त रुप से सहायता करता है। वह काल द्रव्य है। ५-पुद्गलास्तिकाय- "पुद्गल" यह जैन दर्शन का पारिमाषिक शब्द है। उक्त शब्द पारिभाषित होते हुए रुद नहीं, किन्तु व्यौत्पत्तिक है। पूर्ण स्वभाव से पुत और गलन स्वभाव से गल इन दो अवयवों के मेल से पुद्गल शब्द बना है, यानी पूरण और गलन को प्राप्त होने से पुदगल अन्वर्थ संज्ञक है। "पुदगल' शब्द को विशेष अर्थ है। जो पुद + गल इन दो शब्दों के मिलने से बनता है। विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ है, वे मिल-मिल के बिछुडते हैं और बिछुड-बिछुड कर फिर मिलते है। जुड/जुड़ कर टूटते हैं और टूट-टूट कर फिर जुडते है। इसीलिये उन्हें पुद्गल कहा है। "पुद्गल' में वर्ण गन्ध रस१२ और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते है। अतएव वह मूर्त है। गलन और मिलन स्वभाव को इस प्रकार समझा जा सकता है स्कन्धों में से कितने ही परमष्णु दूर होते है। और कितने ही नवोन परमाणु जुडते है। मिलते है। जब कि परमाणु में से कितनी ही वर्णा दि पर्यायें विलग हो जाती है। हट ११- चत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन-५ सूत्र - १८! जाती हैं। और कितनी आकर मिल जाती हैं। इसीलीये सभी स्कन्धों और परमाणुओं को पुदगल कहते है। और उन के लिये "पुद्गल" कहना सार्थक, अन्वर्थक है। पुद्गल के३ उस सूक्ष्मतम अंश को परमाणु कहा जाता है। परमाणु स्कन्ध का वह विभाग है। जो विभाजित हो ही नहीं सकता! जब तक वह स्कन्धगत है, तब तक वह स्कन्ध प्रदेश कहलाता है। और अपनी पृथक् अवस्था में परमाणु पुद्गल अविभाज्य है अच्छेद्य है, अभेद्य है, अदाहय है, और अग्राहय है। किसी भी उपाय, उपचार और उपाधि से उस का विभाजन नहीं हो सकता! परमाणु पुद्गल अनर्ध हैं अमध्य है, अप्रदेशी है। उस की न लम्बाई है, न चौडाई है। न उंचाई है, न गहराई है। यदि वह है तो स्वयं इकाई है। सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं ही आदि, मध्य और अन्त है। निष्कर्ष रुप में यह भी कह सकते है कि सब द्रव्यों मे जिस की अपेक्षा अन्य कोई अनुत्तर न हो, परम अत्यन्त अणुत्व हो, उसी को परमाणु काहा जाता है। यह सुस्पष्ट तथ्य परमाणु-परमाणु के बीच ऐसी कोई भेद रेखा नहीं है। कि एक परमाणु दूसरे परमाणु रुप न हो सके! कोई भी परमाणु कालान्तर में किसी भी परमाणु के सदृश-विसदृश हो सकता १२- क हरिवंश पुराण ७/३६ ! ख- न्याय कोष पृष्ठ-५०२! ग-तत्वार्थवृत्ति -५/१! घ-तत्वार्थ सूत्र- ५/२३! ड-तत्वार्थ वृर्तिक-५/१/२८! १३-सर्वार्थ सिद्धि टीका -सूत्र ५/२५! २५६ दुष्ट-दुर्जन व्यक्ति मरते समय भी, अंतिम क्षण तक अपनी दुष्टता नहीं छोडते। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। परमाणु जड अचेतन होता हुआ भी गतिधर्म वाला है। उस की गति पुद्गक प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी है। वह सर्वदा गतिमान रहता हो गति करता रहता हो, ऐसी भी बात नहीं है। किन्तु कभी करता है और कभी नहीं करता है। यह अगतिमान निष्क्रिय परमाणु कब-गति करेगा। यह अनिश्चित है। इसी प्रकार सक्रिय परमाणु कब गति और कब क्रिया बन्द कर देगा, यह भी अनियत है। परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है। पुद्गल के दो भेद है- परमाणु और स्कन्ध! स्वभाव पुद्गल और विभाव पुद्गल! पुद्गल के चार प्रकार भी है वे नाम इस प्रकार है। १-स्कन्ध! ३-स्कन्ध प्रदेश! २-स्कन्ध देश। ४- परमाणु! १-स्कन्ध- दो से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं का एक पिण्ड रुप होना "स्कन्ध" है। कम से कम दो परमाणु ओं का स्कन्ध होता है। जो द्विप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है। कभी-कभी अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। इस महास्कन्ध की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य सर्वगत है। २-स्कन्ध देश- स्कन्ध एक इकाई है। उस ईकाई का बुद्धि कल्पित एक भाग स्कन्ध देश कहलाता है। ३- स्कन्ध प्रदेश- प्रत्येक स्कन्ध की मूलभूत मित्ति "परमाणु' है। जब तक वह परमाणु स्कन्धगत है। तब तक वह स्कन्ध प्रदेश कहलाता है। ४- परमाणु- पुद्गल का सब से सूक्ष्मतम अंश, अविभाज्य अंश "परमाणु" है। जब तक वह स्कन्धगत है, तब तक वह प्रदेश है और स्कन्ध से अलग होने पर वह परमाणु कहलाता निष्कर्ष रुप में यही कहा जा सकता है कि जो जीव संसारस्थ है, वह कर्म बद्ध है, उस जीव का पुदगल के अवश्य सान्ध रहा है। अत: जीव को पुद्गल१४ भी कहा है। ३-४-पुण्य और पाप = जो आत्मा को पवित्र करता है, वह पुण्य है और जो आत्मा को अपवित्र करता है। वह पाप है। पुण्य शुभ कर्म है, पाप अशुभ कर्म है।१५ आत्मा की वृत्तियाँ अगणित है। इसलिये पुण्य-पाप के कारण भी अगणित हैं।- प्रत्येक प्रवृत्ति यदि शुभ रुप है तो पुण्य का कारण बनती है। और प्रवृत्ति यदि अशुभ रुप है तो पाप का कारण बन जाती है। फिर भी त्या व्यावहारिक दृष्टि से उन में से कुछ एक कारणों का१६ संकेत किया जा रहा हैं। पुण्य के नौ भेद है। उन के नाम ये है। १- अन्न पुण्य! ९ नमस्कार पुण्यास्त्र पुण्य ! २- पान पुण्य १ ६- मन पुण्य! ३- लधन पुण्य! ७-वचन पुण्य! ४- शयन पुण्य! ८- काय पुण्य! अशुभ कर्म और उदय में आये हुए अशुभकर्म पुद्गल को पाप कहते है। पाप के कारण भी असंख्य है। फिर भी संक्षेप दृष्टि से पाप के अठारह भेद है। उन के नाम इस प्रकार है। १४-भगवती सूत्र-८/१०/३६१!, १५-भगवती सूत्र-८/३,४!, १६-स्थानांग सूत्र स्थान-९ उहे ३! संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है तो वह है मात्र धर्म। २५७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - प्राणातिपात! २ - मृषावाद ३ - अदत्तादान! ४ - मैथुन! ५ - परिग्रह! ६ - क्रोध! ७ - मान! ८- माया! ९- लोभ! १० - राग! ११ - द्वेष! १२ - कलह! १३ - अभ्याख्यान १४ - पैशुण्य १५ - परनिन्दा! १६ - रति - अरति! १७ - माया मृषावाद! १८ - मिथ्यादर्शन! आध्यात्मिक दृष्टि से पुण्य और पाप ये दोनों बन्धन रुप है। अतएव मोक्ष - साधना के लिये दोनों हेय हैं। पुण्य सोने की बेड़ी के समान है, और पाप लोहे की बेड़ी के समान है। पूर्ण मुक्त होने के लिये और वीतरागता प्राप्त करने के लिये पुण्य और पाप इन दोनों से मुक्त होना होगा। ५ - आश्रव - पुण्य-पाप रुप कर्मों के आने के द्वार "आश्रव' है। आश्रव द्वारा ही आत्मा कर्मों को ग्रहण करती है। मन, वचन और काया के क्रिया रुप योग आश्रव है। जैसे एक तालाब है। उस में नाली से आकर जल भरता है। उसी प्रकार आत्मा रुपी तालाब में हिंसा, झूठ आदि पाप कार्यरुप नाली द्वारा कर्म रुप जल भरता है। अर्थात् आत्मा में कर्म के आने का मार्ग आश्रव हैं। आत्मा में कर्म के आने के द्वार रुप आश्रव के पांच भेद हैं। १- मिथ्यात्त्व। २ - अविरति। ३ - प्रमाद। ४ - कषाय। ५- योग। अध्यात्म साधना के समुत्कर्ष के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि आत्मविकास के बाधक तत्त्व के स्वरूप का परिज्ञान करके उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करे। आश्रव जीवका विभाव में रमण करने का कारण होता है। इसलिये विभाव और स्वभावको समझ कर स्वभाव में स्थित होना ही - १७क - सर्वार्धसिद्धि ६/२! ख - सूयकृतांग शीलांक वृत्ति २/५-१७! ग - अध्यात्मसार १८/१३१! घ- आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति, मल-हेम-हि.प्र. ८४ २५८ अंतर की प्रार्थना कमी निष्फल नहीं होती और नि:स्वार्थ भाव से परकल्याण हेतु की गयी प्रार्थना तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकती। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रय एवं संसार से मुक्त होना है। ६ संवर कर्म आने के द्वार को रोकना संवर है। संवर आश्रव का विरोधी तत्त्व है। आश्रव कर्म रूप जल के आने की नाली के समान है। और उसी नाली को रोक कर कर्मरुप जल के आने का मार्ग बन्द कर लेना या उस मार्गको अवरूद्ध कर देना संवरका कार्य है। संवर आश्रव निरोध की प्रक्रिया है । १८ उससे नवीन कर्मोंका आगमन नहीं होता है। संवरके दो भेद १९ हैं। द्रव्य संवर और भाव संवर। इन में कर्म पुद्गल के ग्रहण का छेदन या निरोध करना द्रव्य संवर है और संसार वृद्धि में कारणभूत क्रियाओं का त्याग करना, आत्माका शुद्ध उपयोग अर्थात् समिति, गुप्ति आदि भाव संवर है संवरकी सिद्धि गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्रसे होती है। संवर के मुख्य भेद पांच हैं। उन के नाम इस प्रकार प्रतिपादित हैं । - - १ २ व्रत ! ये पांच भेद आश्रव के विरोधी है, संवर के च - पंचास्तिकाय २/१४२, अमृतचन्द्र वृत्ति ! पंचास्तिकाय २ / १४२, जयसेन वृत्ति ! - - छ २० क तत्त्वार्थसूत्र ९ /१९-२० / - ख - उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ३४ /३० / ७ २१ क प्रकृतिस्थित्यनु भाग प्रदेशास्तद्विधयः तत्त्वार्थ सूत्र ८ / ४ ! ख प्रकृतिस्थित्यनुभाग भेदाब चतुर्धा ! षट्दर्शन समुचय पृ. २७७ / वन प्रकार भी है। - सम्यक्त्व ! ७ निर्जरा तत्त्व आत्मा पर जो कर्मावरण है। उसे तप आदि के द्वारा क्षय किया जाता है। कर्म क्षय का हेतु होने से तप को भी निर्जरा कहते हैं। तप के बारह भेद होने से निर्जरा के भी बारह प्रकार हैं।२० उन के नाम इस प्रकार हैं। ७ प्रायश्चित्त! ८ विनय ९ - १० १ - अनशन ! २ - ऊबो दरी ! ३- मिक्षाचरी! ४ रस परित्याग ! - - - ५- अयोस - अप्रमाद ! ४ अकषाय ! विस्तार से बीस भेद और सत्ता - १८ क १९ क ग योगशास्त्र ७९८० घ - २०. क तत्त्वार्थसूत्र ९ / १९-२० - - - ५ कामक्लेश ! ११ ध्यान ! ६ - प्रति संलीनता ! १२ - कायोत्सर्ग ! संवर नवीन आनेवाले कर्मों का निरोध है, परन्तु अकेला संवर मुक्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। नौका में छिद्रों द्वारा जल का आना 'आश्रव है छिद्र बन्द कर के पानी रोक देना "संवर" है परन्तु जो पानी आ चुका है, उस का क्या हो ? उसे धीरे-धीरे उचीलना ही पडेगा, बस, यही निर्जरा है । निर्जरा का अर्थ है -जर्जरित कर देना ! तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन ९ सूत्र १, ख - ९ सूत्र - १, ख - योगशास्त्र - ७६ पृष्ठ - ४ स्थानांग सूत्र टीका १/१४ ख सप्ततत्त्वप्रकरण ११२ ! !, सर्वार्थसिद्धि ९/१, ङ द्रव्य संग्रह - २ / ३४ ! ख उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ३४ /३० / ७ आस-पास के संसार को भूले बिना, तन्मयता मिलती ही नहीं और तन्मयता बिना कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं कर सकता। - वैयावृत्य ! - स्वाध्याय ! - - २५९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाड देना, पृथक् कर देना "निर्जरा" तत्त्व है। इस का आत्म-शुद्धि की दृष्टिसे अत्याधिक महत्त्व रहा है। ८ - बन्ध तत्त्व - आत्मा के साथ क्षीर - नीर की भांति कौका मिल जाना बन्ध है। बन्ध एक वस्तु का नहीं होता, दो वस्तुओं का सम्बन्ध होता है, उसे बन्ध कहते हैं। काषायिक - परिणामों से कर्म के योग्य पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। जीव अपने काषायिक-परिणामों से अनन्त-अनन्त कर्म योग्य पुद्गलों का बन्ध करता रहता है। आत्मा और कमों का यह बन्ध दूध और पानी, अग्नि और लोह पिण्ड जैसा है। बन्ध तत्त्व के चार भेद हैं।२१ वे ये हैं - १- प्रकृति बन्ध! ३ - अनुभाग बन्ध! . २ - स्थिति बन्ध! ४ - प्रदेश बन्ध! बन्ध के शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार हैं। प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं। १-ज्ञानावरण! ५ - आयुष्य। २ - दर्शनावरण! ६- नाम! ३ - वेदनीय! ७- गोत्र! ४ - मोहनीय! ८- अन्तराय! जीव जब तक कर्म-जाल से बद्ध है तब तक वह संसार - कानन में भ्रमण करता है। ९ - मोक्षतत्त्व - नवतत्त्व में अन्तिम-तत्त्व "मोक्ष" है। मोक्ष ही जीव मात्रका चरम और परम लक्ष्य है। मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार है - २३ समस्त कर्मों से मुक्ति और राग-द्वेष का सम्पूर्ण क्षय। बन्ध के कारणों और संचित कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की अनिवार्य आवश्यकता है। ये मोक्ष मार्ग है। तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि यही सम्यग्दर्शन हैं।२४ "जिन" की वाणी में, जिन के उपदेश में जिस को दृढ निष्ठा है, वही सम्यग्दृष्टि है।२५ नय और प्रमाण से होने वाला जीव आदि तत्वोंका यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव की निवृत्ति हो कर जो स्वरूप -रमण होता है। वही सम्यक्-चारित्र है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों साधन जब परिपूर्ण रूप में प्राप्त होते हैं। तभी सम्पूर्ण मोक्ष संभव है। अन्यथा नहीं। एक भी साधन जब तक अपूर्ण रहेगा! तब तक मोक्ष - प्राप्त नहीं हो सकता हैं। सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि नवतत्त्व की जो तात्त्विक व्यवस्था है, वह यथार्थ अर्थ में मोक्षमार्ग परक है। और वह विशिष्ट व्यवस्ता आत्मा को कर्म बन्धन से उन्मुक्त होने का पुरुषार्थ करने और मोक्ष -प्राप्त करने के लिये विशेषत: प्रेरित करती है इसी में तत्त्वज्ञान की सार्थकता है, और यही तत्त्व-विचारणा है। २१. क-प्रकृतिस्थित्यनु भाग प्रदेशास्तद्विधय: तत्त्वार्थ सूत्र ८/४. ख-प्रकृतिस्थित्यनुभागभेदाच चतुर्थ. षट्दर्शनसमुच्चय पृ. २७७. २२ - ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीया यु नाम गोमान्तराय रूपम् ! यशो विजय कृत टीका - कर्मप्रकृतिगा -१२३ - कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन १० सू ३ २४ क -स्थानांगसूत्र स्थान - ९! ख - उत्तराध्ययन सूत्र २८/१५!, ग - तत्त्वार्थ सूत्र अ-१ सू-२! २५ - तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं आचारांग सूत्र ५, १६३ ! २६० जिस दिन मानव अहंकार त्याग, सद्ज्ञान का पुजारी बन जाता है बस उस दिन से वह स्व और पर काउद्वारक हो जाता है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के सिध्धान्तों की आज के युग में उपयोगिता रीना जारोली एम.एस.सी. (रसायन) कालजयी महावीर ने विचारों का ऊर्ध्वारोहण कर वस्तु, व्यक्ति एवम् जगत् की मौलिक सत्ता को साक्षात् कर लिया था। अपने केवलज्ञान (पूर्णज्ञान) से साक्षात् किये गये सत्य एवं तथ्य वास्तविक, जीवन-परक एवं निरन्तर गति प्रगतिशील है। इस द्रष्टि से गत ढाई हजार वर्षों की दीर्घ अवधि में महामानव महावीर ही अविकल्प एवं नित्य आधुनिक व्यक्ति है। उनके सिद्धान्त 'मोर्डन' रैडिकल: 'डायनैमिक' एवं अपटूडेट' है। शताब्दियों की शोध-यात्रा भी उनके सिद्धांतो को धूमिल, प्राचीन एवं शिथिल नहीं कर सकती। वस्तुत: हम प्रयत्न करते हैं महावीर को अपने से जोडनें की, नकि जुड़ना चाहते हैं महावीर से। केवलज्ञान (Absolute Knowledge) का अर्थ है पूर्ण ज्ञान की अवस्था। निरन्तर ज्ञानात्मक भाव में जीना ही केवलज्ञानी के लिए अनिवार्य है। महावीर सजगता एवं अप्रमाद की प्रतिमूर्ति थे जो हर क्षण अपने भीतर उठ रहे भाव, रूप, विचार, क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रति सचेत रहे तथा अन्य वस्तु, व्यक्ति एवं जगत् में घटित हो रहे भावों, विचारों, रुपों के प्रति भी सचेत रहे। अन्य शब्दों में निज स्वरूप एवं वस्तु स्वरुप के प्रति जागरूक महावीर के सिद्धान्त सार्वजनिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक हैं। महावीर का ज्ञान सतही नहीं था। उन्होंने ऐन्द्रिक-मानसिक अवबोधन (Perception) से परे एकाग्र एवं आत्मानुभव-मूलक ज्ञान से यथार्थ को जाना। केवली घेने की साधना ही 'माडर्निटी', को सही रुप में जीने की साधना है। महावीर के सिद्धान्तों की इसी कारण आज के युग में तत्कालीन युग से भी अधिक उपयोगिता है। आधुनिक युग तनाव, टकराव, अशांति, शीतयुध्ध, दमित जीवनमूल्य, अस्थिरता, संघर्ष एवं विषमता का युग है। व्यक्ति स्वयं में भीड़ व भीड़ में अकेला है। क्रान्तदर्शी महावीर ने समाज की ज़ड़ता, अन्धश्रद्धा, खोखलेपन पर चोट की तो व्यक्ति को प्रमाद एवं विकार से मुक्त करने के लिए झंझोड़ा भी। आइये। हम महावीर के सिद्धान्तों को वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में देखें-परखें। अहिंसा की बांसुरी:- विश्व शांति के स्वर निस्संदेह दो विश्वयुद्धों के परिणाम देख कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता परन्तु एक दूसरे पर अतिक्रमण का भय और विध्वंसक शस्त्रों का निर्माण अशांतिका मूल कारण बना हुआ है। "लीग ऑफ नेशन्स" एवं तदनन्तर "संयुक्त राष्ट्र संघ" के प्रयासों के बावजूद भी स्थिति आशाप्रद नहीं है। असुरक्षा की अनुभूति के कारण शीतयुद्ध की दीर्घ अवधि से हमें गुजरना पड़ रहा है। हिंसा, टकराव, तनाव से मुक्ति हम पा सकते हैं अहिंसा से मात्र अहिंसा से। महावीर के सिद्धान्तों में अहिंसा मूल सिद्धान्त है। श्रावक के अणुव्रतों एवं साधक (श्रमण) के महाव्रतों में इसका प्रथम स्थान है। किसी भी जीव को मारना, सताना, किसी का शोषण करना, किसी की स्वतंत्रता का हनन करना हिंसा है। वर्तमान युग में श्रमिकों के प्रति सहानुभूति रखने पर जोर है तो महावीर ने 'अईभार' (अतिभार) एवं 'मत्तपाण विच्छेए' (भोजन-पानी से दूर करना) जैसे अतिचारों में इन्हें हिंसा ही माना है। 'एगे आया अर्थात् स्वरुप द्रष्टि से आत्मा एक है कहकर महावीर ने विश्वबन्धुत्व पर जोर दिया है। 'स्व' का इतना विस्तार करना कि __ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संत का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। २६१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पर' का लोप हो जाय यही अहिंसा है। अहिंसा रुपी शाश्वत धर्म की व्याख्या करते हुए महावीर ने कहा "सव्वे पाणा ण हन्तव्वा, ण अजावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, व उद्देवेतव्वा, एस धम्मे धुवे, णिइए, सासए।" अर्थात् प्राणियों का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर अपनी सत्ता न लादनी चाहिए, उन्हे पीडित, परितप्त तथा उदिन भी नहीं करना चाहिए। यहीं शाश्वत धर्म, ध्रुव धर्म है। प्रतिक्रमण करते समय 'खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु में' कहकर सभी जीवों के प्रति क्षमा भाव रखते हुए सभी से क्षमा मांगी जाती है। ज्ञान-अज्ञान में किसी भी जीव के प्रति अप्रिय कार्य के लिए क्षमा मांगने का यही तात्पर्य है कि हमारा सभी के प्रति मैत्री भाव बना है। "मित्ती में सव्व भूएस, वैर मञ्झं ण केवइ।" स्पष्ट ही हम अपनी सुरक्षा चाहते है और सुख-शांति चाहते है तो अन्य जीव भी यही चाहते है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। "सव्वे जीवा विइच्छति, जीविइं न मरिजिई' -दशवै सूत्र अ. ७, गा. ११. अहिंसा को परिभाषित करने से पूर्व महावीर ने जीवों का सूक्ष्म विवेचन किया। अपने दिव्य ज्ञान से उन्होंने अव्यवहार राशि, व्यवहार राशि (निगोद), पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं वनस्पति में जीव का अस्तित्व देखा। पेड पौधौ में भी सचेतनता विज्ञान के लिए भले ही एक शताब्दी पुराना विचार हो, परन्तु महावीर ने उनके सुख-दु:खो को कितने सूक्ष्म रुप में जाना, वह आगमों में गुम्फित है। सर जगदीशचन्द्र बोस के वैज्ञानिक प्रयोगो एव बेकस्टर द्वारा निर्मित गालवेनोमीटर से हमें पेड पौधौ में संवेदनशीलता का ज्ञान होता है। परन्तु उस समय कहां भी प्रयोगशालाएं? अपनी आत्माही महावीर के लिए प्रयोग-स्थल था-अन्तर्मुखी होकर उन्होंने अनुभव-रत्न हमें दिये हैं। अहिंसा की भावना का विकास तभी संभव है जब हर व्यक्ति इकाई रुप में ज्ञानचेता होकर स्वाभाविकता के धरातल पर वस्तुओं के साथ एवं अन्य प्राणियों के साथ सम्वादी (हारमोनियस) संबंध में जिये। अन्य शब्दों में अहिंसा का अर्थ है। स्वयं अपने स्वभाव में अभंग (अनडिस्टर्ड) रहें और दूसरों को भी अपने स्वभाव में अभंग रहने दें। इस विचार से विश्व में शांति व सुख का साम्राज्य स्थापित होने में किसी प्रकार के सन्देह को स्थान नहीं है। अपरिग्रह एवं विश्व-कल्याण 'दशवैकालिक सूत्र' में परिग्रह को परिभाषित करते हुए महावीर ने कहा है-'मूच्छा परिग्गहो वुत्तो' अर्थात् मूच्छा ममत्व ही परिग्रह है। आज विश्व में अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति से जमाखोरी, कालाबाजारी एवं भ्रष्टाचार पनप रहे हैं। धन, मकान, वैभव के प्रति अटकाव से भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। आज महावीर के अपरिग्रवाद की नितान्त आवश्क ता है। जीवन में अपनी अधिकतम आवश्यकताओं वस्तुओं के प्रति ममत्व त्यागना तो अपरिग्रह साधु, साधक या सज्जन व्यक्ति को वैर मास नहीं रखना चाहिए। २६२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ही, अपने पास जो भी वस्तुएं है उनके प्रति भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए। अपरिग्रह का प्रश्न सम्पत्ति के स्वामित्व से जुडा हुआ है। स्वामित्व की भावना छोडना ही अपरिग्रह है। चूंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम ) है, अंत: सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती है। तृष्णा के कारण ही संग्रह वृत्ति का उदय होता है। और यह संग्रह वृत्ति आसक्ति के रुप में बदल जाती है। आर्थिक वैषम्य, भोगवृत्ति और शोषण की समाप्ति के लिए महावीर द्वारा अनुभूत सत्य आज भी उतना ही यथार्थ है जितना कि उस युग में था । अपरिग्रह का अर्थ है कि वस्तु की स्वतंत्र सत्ता पर अपना अधिकार न जमाओ और न उसके मोह में अपने स्वभाव को मूर्च्छित, ग्रस्त, अधिकृत होने दो । स्वयं अपने भाव में रहते हुए अन्य को अपने भाव में रहने दें, यह अपरिग्रह है। अपने पल-पल परिवर्तित होते भाव। पर्याय के साथ ही दूसरे के पल-पल परिवर्तित भाव पर्याय को जाने, देखे तो परिग्रह की भावना जाग्रत ही नहीं होगी। जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय में, भोक्ता और भोग्य में निरन्तर नवनूतन भाव, पदार्थ, स्थिति का परिनमन है, वहां किसी विशेष रुप, आकार, भाव सुगन्ध, स्पर्श, ध्वनि पर रूक जाना, आसक्त हो रहना कैसे संभव है । जिस रूप या भाव पर चित्त आसक्त हो गया है, वह रुप या भाव तो उसी क्षण व्यतीत हो चुका, वहां नया भाव या रूप आ चुका। तब व्यक्ति या पदार्थ की परिणत स्थिति से हमारी आसक्ति को मनचाही तृप्ति नहीं मिल सकती। स्व. और पर का, व्यक्ति और वस्तु का, जीवन और जगत का सम्यक्-बोध होने पर अपरिग्रह स्वतः अवतरित हो जाता है। यदि विश्व को नया रूप देना है तो महावीर का अपरिग्रह रामबाण औषधि है। व्यक्ति स्वयं को जानकर समग्र विश्व को जान सकता है परन्तु तरतमता होने पर ही । इसी की ओर इंगित कर कहा गया है 'जे एगं जाणई, से सव्वं जाणई ।, जे सव्वं जाणई, से एगं जाणई । ' अर्थात् जो व्यक्ति इस प्रकार से अपनी आत्मा के सुख-दुःख को जान लेता है वह दूसरे सभी जीवों के सुख - दुःख भी समझ लेता है। जिसने 'पर' में 'स्व' का दर्शन कर लिया वह न किसी को दुःख पहुँचा सकता है और न किसी के सुख में बाधक ही बन सकता है। वर्गविहीन समाज: नई दिशा भेदपरक दीवारों से उठकर महावीर ने वर्ग विहीन समाज का स्वप्न स्पष्ट किया कि न जन्मगत जाति होती है और न बाह्य चिन्ह भाषा, वर्ण, लिंग की उजागर किया था। उन्होंने धर्म के प्रतीक कम्मुणो बंनणो होइ, कम्मुणो होई खत्तिओ । कम्णो वइसो घेइ, सुदो हवई कम्मुणा ॥ अर्थात् व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता। निर्णय करते है । न वि मुंडिएण समणो, न औंकारेण बंभणो । न मुणी रण्ण वासेणं, कुस चीरेण न तावसो | अर्थात् सिर मुंडित कर लेने से कोई श्रमण नही होता, न ओंकार का जाप करने से वैर भाव के जंगल में भटकने वाले को कहीं भी शांति नहीं मीलती । - उत्तरा. सूत्र २५/३१ उसके कर्म ही यह For Private Personal Use Only २६३ 1 1 1 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण । अरण्यवासी होने मात्र से ही कोई मुनि नहीं होता और वल्कल चीर धारण करने मात्र से कोइ तपस्वी नहीं होता । आज के जातीय विदेष, वर्णसंघर्ष एवं पारस्परिक घृणा से बचने के लिए स्नेह, सद्भाव एवं करूणा की आवश्यकता है। यदि लक्ष्मी के लाड़ले अपने को ट्रस्टी मात्र ही मानें तो शोषण की भावना समाप्त हो जाती है। कार्ल मार्क्स ने काफी हद तक इस दिशा में सोचा परन्तु जीवन के धरातल पर जब सिध्धांत को मूर्तरुप दिया गया तो हठाग्रह के कारण हिंसा उभर आई। उनके भीतर वस्तु स्वभाव की शुद्ध क्रिया आंशिक रूप से झलकी थी परन्तु वे वस्तु की निरन्तर प्रगतिशीलता के साथ तदाकार नहीं रह सके। द्रव्य के उत्पाद और व्यय को तो उन्होंने पकड़ा था परन्तु ध्रौव्य उनकी दृष्टि से ओझल रह गया । ऐन्द्रिक - बौद्धिक ज्ञान की सीमाओं से उनका दर्शन अवरुद्ध हो गया। नये समाज की परिकल्पना से पूर्व महावीर ने यह संदेश दिया कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता 'अप्पाकत्ता विकत्ताय, सुहाण य दुहाण य' है अर्थात् उसके कर्म ही उसे ऊंचा उठा सकते है या नीचा गिरा सकते हैं। ईश्वर को जगत्कर्ता न मानने की मौलिक मान्यता से व्यक्ति की गरिमा बढी । साथ ही सिद्ध हो गया कि व्यक्ति स्वयं स्वतंत्र, मुक्त निर्लेप और निर्विकार ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। ईश्वरत्व को प्राप्त करने के साधनों पर किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं हैं। मन की शुद्धता व आचरण की पवित्रता के बल पर कोई भी इसे प्राप्त कर सकता है। अनेकांतवादः वादों का अन्त अनेकान्त या स्यादवाद बौद्धिक दृष्टिकोण की नयी दिशा है जो अहिंसा का ही व्यापक रुप है। रागद्वेष जनित संस्कारो के वशीभूत न होकर दूसरों के दृष्टिकोण को ठीक से समझना अनेकांतवाद है। जबवस्तु या ज्ञेय बहु-आयामी, बहु-पर्यायी है तो किसी भी मत, वाद या सिद्धान्त को पूर्णरुप से सत्य नहीं कहा जा सकता । पूर्ण ज्ञान की स्थिति में ही किसी वस्तु के सभी पर्यायों देखा या जाना जा सकता है। महावीर कहते हैं कि वस्तु जो इस क्षण है, वही अगले क्षण नहीं है और फिर भी अपने तात्विक रुप में सदा वही है। अर्थात् इस जगत् में प्रतिक्षण कुछ व्यतीत हो रहा है, कुछ नया उत्पन्न हो रहा है तो यह दम्भ कोई नहीं कर सकता कि उसने सबकुछ जानलिया, पूर्ण रुप से जान लिया। अतः अपना 'ही' छोडकर हम दूसरों के 'भी' को भी मानें, ऐसी समन्वय की उदारद्दष्टि अनेकान्त है। महावीर ने अनेकान्त के सिद्धान्त को तार्किक रूप देकर स्याद्वाद नाम दिया। किसी बात के सात पहलुओं पर विचारकर उन्होंने सिद्ध किया कि उसका अस्तित्व है। नहीं है। अवक्तव्य है आदि (स्यात अस्ति, स्यात नास्ति, त्यात आस्ति नास्ति, स्यात अवकव्य, स्यात अस्ति अवक्तव्य, स्यात नास्ति अवक्तव्य, स्यात अस्ति नास्ति अवक्तव्य ) । आज इस विचार से व्यक्ति, समाज, विश्व के तनाव, संघर्ष और वैमनस्य को समाप्त किया जा सकता है। द्दष्टि के बदलते ही सृष्टि भी परिवर्तित हो जाएगी। खुल सकेंगे मुक्तदार, जिनके पार असीम सुख एवं आनन्द है । सम्प्रदायातीत धर्म - स्वभाव में स्थिर होना राजमहलों के सुखों में लिप्त न रहकर महावीर ने आत्मधर्म का संदेश दिया। उनको चाह नहीं थी कि अपना कोई धर्म चलाएं। उन्होंने तो सत्य मार्ग बतलाया कि वस्तु का स्वभाव पाप का उदयकाल होता है तब पुण्य भी स्तंभित हो जाता है। For Private Personal Use Only २६४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही धर्म है। वस्तु अपने आप में ठीक जैसी है, ठीक वैसी ही देखना, जानना धर्म है। जो कुछ भी ज्ञान का विषय है, ज्ञेय है और तत्वत: वस्तु 'ऑब्जेक्ट है। अर्थात् हम स्वयं निज स्वरूप में रहते हुए, द्रव्य के नित परिणमनशील रुप से संचेतना के साथ जुड़े रहें, यही धर्म धर्म जो जीवन का पाथेय एवं आत्मा का प्राण है, आज बाड़ो। दीवारों। सम्प्रदायों में सिमटता जा रहा है। कहीं क्रिया की प्रधानता है तो कहीं ज्ञान की आवश्यकता है। वस्तु के स्वरूप-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को सम्यक् रूप से समझने की। धर्म जीवन से जुड़ने पर ही वास्तविक बन सकता है। यही कारण है कि महावीर ने 'है और 'होना चाहिए' का अन्तर न मानकर यथार्थ वस्तुस्थिति में जीना ही आदर्श माना और आदर्श तथा यथार्थ को अलग नहीं स्वीकारा. मानोविकारों पर विजय: आत्मानुशासन इस युग में स्वास्थ्य का हास होता जा रहा है। भयंकर एवं असाध्य रोग मानव को जकडे हुए है। आज अधिकांश रोग मन से जुड़े हैं, तन की पूर्ण आरोग्यता नहीं। कुंठा, भय, लोभ, असंतोष जैसे मनोरोग शरीर में स्नायु तन्तु को प्रभावित करते हैं जिससे रक्तसंचार एवं अंगोंपांगों पर प्रभाव पड़ता है। मन के विकारों पर नियंत्रण से ही वर्तमान युग में व्याप्त हिंसा, अपराधवृति एवं भ्रष्टाचार पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यदि हमें वास्तविक सुख प्राप्त करना है तो आत्मा के मूल स्वभाव-सरलता, समता, निर्वेर, निर्लोभ दशा में रमण करना होगा। मनोविज्ञान एवं औषधिविज्ञान ने आज सिद्ध कर दिया है कि क्रोध से पेप्टिक अल्सर, निराशा से मन्दाग्नि, चिंता से हृदयरोग व उच्चरक्तचाप जैसे रोग पैदा हो जाते है। मानसिक चिंता विषाद से अपचन, हिस्टीरिया आदि रोग उत्पन्न होते हैं। यदि विष्लेषणका देखा जाय तो आज अधिकांश रोगों की जड़ मन में है और वे असंयम, कुत्सित इच्छाओं एवं दुर्वासनाओं से पोषित है। आज के चिकित्साशास्त्री बाह्य कारणों से उत्पन्न रोग-कीटाणुओं के विनाश के लिए तो प्रयत्नशील है। लेकिन मनोभूमिका में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, अहंकार, स्वार्थपरता, कुटिलता, भय, अतृप्ति आदि विकारों से उत्पन्न रोग-कीटाणुओं के विनाश की ओर उनका ध्यान नहीं है। ऐसी स्थिति में महावीर के सिद्धान्त प्रभावक हैं। यदि हमें जीवन में सर्वांगीण विकास करना है तो आत्मधर्म के लिए सतत गतिशील रहना होगा। कुश के अग्रभाग पर ठहरी ओसबिन्दु से मानव जीवन की तुलनाकर महावीर ने 'समय गोमय मा पमायए' का संदेश दिया है। अर्थात् समय मात्र (एक परमाणु की गतिका समय) भी प्रमाद मत करो। परिवर्तित जीवन मूल्यों के युग में भी आज आत्मधर्म की उपयोगिता कम नहीं हुई हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि महावीर के सिद्धान्तों की आज के युग में उपयोगिता असंदिग्ध है। विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरे कर्म सिद्धान्त, गुणसूत्र, संस्कार-सूत्र सिद्धान्त, परमाणु सिद्धान्त, भाषा विषयक मान्यताएँ हमें प्रेरणा देते हैं कि हम महावीर की वाणी से जुड़े। अपने दिव्य ज्ञान से महावीर ने जो अमृत हमें दिया है, उसका रसास्वादन कर हम जीवन को संस्कारित कर सके यही अपेक्षा है। युगों पूर्व धर्म दर्शन के क्षेत्र में किया गया महावीर का उद्दघोष आज भी प्रासंगिक और उपादेय है। पुण्य के उदयकाल में पाप स्तंभित नही होती। २६५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य एक दृष्टि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया एम.ए.,पी.-एच.डी.,डी.लिट् प्राणधारियों में मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है। इसकी श्रेष्ठता का आधार है अन्य प्रणियोंकी अपेक्षा ज्ञान की प्रकृष्टता। ज्ञान से उत्पन्न शक्ति - विवेक अथवा भेद विज्ञान उत्कृष्ट प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। मनुष्य में विवेक जागृत होने पर उसकी जीवन-यात्रा उन्मार्ग से हटकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख होती है। ब्रह्मचर्य विवेकवान मनुष्य द्वारा अनुपालन किया जाता है। मन से, वचन से और काय-कर्म से समस्त इन्द्रियों का संयम करने का नाम वस्तुत: ब्रह्मचर्य है। गुप्ति पूर्वक इन्द्रिय संयम होने पर आत्मिक गुण ब्रह्मचर्य मुखर हो उठता है। किसी एक के साथ संयम बरतने से ब्रह्मचर्य की पूरर्तता सम्भव नहीं। इसके लिए इन्द्रियों के विषय में सावधानी पूर्वक विचार करना आवश्यक है। इन्द्रिय शब्द के मूल में शब्दांश है इन्द्र। इन्द्र शब्द के अनेक अर्थ हैं। इन्द्र शब्द का एक अर्थ है आत्मा। जो आत्मा के परिचायक हैं उन्हें कहते हैं - इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा आत्मा के अस्तित्व का अवबोध किया जाता है। इन्द्रियोंका परिवार पाँच रूपों में विभक्त है - कर्ण, चक्षु, नासिका, जिवा तथा स्पर्श। यह विभाजन अन्त: और बाह्य दो प्रभेदों में बाँटा गया है। इन भेदों का उपयोग मन के माध्यम से किया जाता है। मन इन्द्रिय वस्तुत: मनुष्य की अतिरिक्त इन्द्रिय है। इस प्रकार एकादश इन्द्रियों का धारी मनुष्य भव-भ्रमण और भव-मुक्ति में से किसी एक का निर्वाचन करता है। जब वह भव-भ्रमण में रुचि रखता है तब काम और अर्थ पुरुषार्थों का सम्पादन होता है। भव-मुक्ति के लिए धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ सम्पन्न करना होता है। इसके लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक है। पुरुषार्थों काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष के सम्पादन के लिए "मैथुन' शब्द की भूमिका वस्तुत: उल्लेखनीय है। काल और क्षेत्र के आधार पर किसी शब्द का अर्थ-अभिप्राय में यथेच्छ परिवर्तन होता रहता है। 'मैथुन' शब्द का अर्थ भी गिर गया है। मैथुन शब्द का आज आम अर्थ भोग-सम्भोग के लिए किया जाता है, जबकि मैथुन शब्दका मूलत: अर्थ है - युग्म, जोड़ा, किसी दो का योग। मैथुन शब्द का यह अर्थ-साधना और आराधना के सन्दर्भ में मान्य है। और है वासना के प्रसंग में भी गृहीत। उपादान और निमित्त युग्म है। यह दो श मैथुन/युग्म है। अगर ये दोनों शब्द नहीं जगे तो साधना सम्पन्न नहीं हो पाती। मैथुन आवश्यक __ आत्मा और इन्द्रियों का जब बहिरंग प्रयोग सम्पन्न होता है तब इन्द्रियों के बाहरी द्वार खुलते हैं तभी संभोग प्रक्रिया का प्रवर्तन होता है। इन्द्रियों के बाह्य व्यापार प्राणी को शाश्वत तृप्ति प्रदान नहीं करते। इस योजना में तृप्ति की शक्ति ही नहीं है। जब आत्मा इन्द्रियों के 'अंतरंग प्रयोग में प्रतिष्ठित होता है तब वस्तुत: योग का जन्म होता है और तब उत्तरोत्तर उपयोग जगा करता है। उपयोग ब्रह्मचर्य का पहला चरण है। अगर उपयोग नहीं जगा, तो डिग्री २६६ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और मानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकती है, स्वरूपाचरण के दर्शन नहीं हो सकते। उपयोग, शुभ उपयोग में परिणत होगा, शुभ शुद्ध में परिणत होगा, ब्रह्मचर्य तब चरितार्थ हो जाएगा। उपयोग जागरण के लिए जीवन में श्रम साधना की आवश्यकता असंदिग्ध है। शरीर के साथ किया गया श्रम मजूरी को जन्म देता है, बुद्धि के साथ किया गया श्रम कारीगरी को उत्पन्न करता है और हृदय के साथ किया गया श्रम कला का प्रवर्तन करता है। जीवन जीना एक कला है। यही कला जीवन को बनाने की कला है। इसी का अपर नाम है. आचार, चरित्र। चरित्र अर्थात् नैतिक शक्ति, यदि नैतिक शक्ति का विकास होता है तो वह आत्मा का विकास है, जीवन का विकास है। ब्रह्मचारी सदा स्वावलम्बी होता है उसके लिए जागतिक पर पदार्थों के आकर्षण निरर्थक हो जाते हैं। उसकी आत्मा में सौन्दर्य का जागरण होता है। तब उसे सारा जगत सौन्दर्यमय दिखाई देता है। उसके लिए विनाशीक औदारिक शरीर का कोई मूल्य नहीं है और इसका कारण है उसमें शील का उजागरण। शीलजागरण प्राणी में समत्व को जगा देता है। फलस्वरुप वह यशस्वी बनता है, वर्चस्वी बनता है, और बनता है तेजस्वी। जैन शास्त्रों में उत्तराध्ययन सूत्र का विशेष महत्व है। इस ग्रंथ में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जो नियम-उपनियम निर्धारित किए हैं वे उल्लेखनीय हैं। किसी खेत में खड़ी खेती की रक्षा के लिए 'बार्ड' की आवश्यकता असंदिग्ध है, उसी प्रकार शील संरक्षण के लिए कतिपय नियमों का अनुपालन आवश्यक है। यथा १- ब्रह्मचारी स्त्री पशु एवं नपुंसक - सहित मकान उपयोग नहीं करता। २ - स्त्री-कथा नही करता है। ३ - स्त्री के आसन एवं शय्या पर नहीं बैठता है। ४- स्त्री के अंग एवं उपांगो का अवलोकन नहीं करता है। - स्त्री के हास्य एवं विलास के शब्दों को नहीं सुनता है। - पूर्व सेवित काम - क्रीडा का स्मरण नहीं करता है ७ - नित्य प्रति सरस भोजन नहीं करता है। ८ - अतिमात्रा में भोजन नहीं करता है। ९ - विभूषा एवं भंगार नहीं करता है। १० - शब्द, रुप, गंध, रस और स्पर्श का अनुपाती नहीं होता है। यदि इन सभी बातों का कोई साधक उपयोग संकल्पपूर्वक करता है तो वह अपने में ब्रह्मचर्य धर्म लक्षण को जगा सकता है। शीलवान को अपनी इन्द्रियों पर अपने मन पर और अपनी बुद्धि पर संयम रखना आवश्यक हो जाता है। एक जीवनवृत्त का स्मरण होना हुआ है। आदिवासियों की बस्ती में मेरा जाना हुआ। उनका आधा शरीर नंगा रहता है। महिलाएँ कुछ विशेष वस्त्र धारती हैं। अधो अंगो को पत्तो से, बलों से वे ढक लेती है, शेष नग्न शरीर रहती है। शिष्ट मण्डल के सभी सदस्य सम्भ्रान्त थे। उनमें से एक नेता तन से साफ थे, सुथरे थे किन्तु मन से मैले थे। मनचले थे। आदिवासियों ने अभ्यर्थना में नाना प्रकार के आयोजन किए। वे सभी आकर्षक थे। कलापूर्ण थे। कला जागे, संसार के छोटे-बड़े प्रत्येक व्यक्ति आशा और कल्पना के जाल में फंस कर भव भ्रमण करते रहते है। २६७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वे अच्छे लगें। मेरे मन में उन्हें साधुवाद दिया। संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ। आदिवासियों की एक युवती थी, ताजी तरुणी। उसके अंग-प्रत्यंग उभरे थे। नेताजी का मन उस पर चलवाया। चंचल था, सधा नहीं, वैसे वे सदयात्री थे। वह व्यक्ति उस युवती के पास जाता है और उसके उन्नत पयोधरों को देखकर उससे पूछता है ये क्या है? और यह जानकर आपको आश्चर्य होगा, नेताजी की आँखे तो खुल ही गईं। वह आदिवासिनी कहती है दूधदानी हैं। बच्चों को दूध पिलाने की मशीन है। धन्य है वह साध्वी जिसने अपने अंग-प्रत्यंग के उपयोग पर ध्यान दिया। आज सभ्य कहलानेवाले महापुरुष अपने अंगो के उपयोग में भी अनुपस्थित है। आत्मिक उपयोग की बात हम करते हैं। मेरी भावनाएँ कितनी कुत्सित हैं, भ्रष्ट हैं। उस निरक्षर वन वासिनी से सीख लें, जिसका उपयोग पक्ष कितना सजग है जिसका उपयोग पक्ष कितना विवेकवान है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दटूठं ववस्से समणे तवस्सी। अथति तपस्वी श्रमण (साधक) स्त्रियों के रुप लावण्य, विलास, हास-परिहास, भाषण-संभाषण स्नेह, चेष्टा अथवा कटाक्षयुक्त द्दष्टि को अपने मन में स्थान नहीं देता तथा उसे देखने तक का प्रयास नहीं करता है। जिस आदमी का जीवन ब्रह्मचर्य से व्याप्त हो जाता है, वह आदमी दूसरों के लिए नहीं, अपितु अपने लिए भला आदमी बनता हैं। और उसका अन्तरंग अखण्ड आनन्द से आलावित हो उठता है। उसके हर चरण में विनम्रता, प्रामाणिकता, शील और सौजन्य की सुगंध विकीर्ण होती हैं। वह चरण सदाचरण में परिणत होता है तब जीवन में अन्तत: मंगलाचरण का प्रवर्तन होता है। गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्यका अनुपालन आंशिक रुप से करने का विधान है जबकि श्रमण - साधु उसका पूर्ण रुप से अनुपालन कर संयम; खलु जीवन को चरितार्थ करते है। अणुव्रती होकर हम अपनी चर्या को यथाशक्ति संयमित कर आदर्श की स्थापना कर सकते हैं। आज का जन-जीवन प्राय: नियमों-उपनियमों की अवहेलना करता हुआ दु:ख संधातों से जूझ रहा है। जीवन में सुख और शान्ति का संचरण होने के लिए हमें हमारी चर्या में शीलता, समता और कर्मण्यता के संस्कार जगाने होंगे। इस प्रकार ब्रह्मचर्य आत्मिक गुणों में से एक गुण/लक्षण है। इसके प्रकट होने से उसकी सुरक्षा होनेसे जीवन में अद्भूत शक्ति, ओज और आभा का संचरण होता है और होता है शारीरिक अंगो में लावण्यता और कार्यशीलता में अभिबर्द्धन। २६८ मानव महान हो तो भी, अज्ञान की गुलामी से, सत्य का निरीक्षण नही कर पाता। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधि-मुक्ति, शक्ति-प्राप्ति का उपाय - स्वादविजय मुनिश्री धर्मचन्द जी "पीयूष" आहार प्राणी की प्रथम अनिवार्यता है। आहार के बिना न कोई प्राण धारी जीवित रह सकता है और न सक्षम ही! शरीर को सक्रिय बनाये रखने के लिए भोजन की अनिवार्यता को कोई भी समझदार नकार नहीं, सकता। जो वस्तु जितनी अनिवार्य होती है, आदमी उसके प्रति उतना ही लापरवाह रहता है, सब जानते हैं, जीवन के लिए पानी और हवा कितने अनिवार्य हैं किन्तु उन दोनों के प्रति लोग उतने ही लापरवाह और गैर जवाबदार नजर आते हैं। वह लापरवाही व्यक्ति को ले डूबती है। आहार के प्रति लापरवाही व स्वाद का आकर्षण, चाहे-अन चाहे आदमी को रोगी बना देता है यूनान की कहावत है - "तलवार उतने लोगों को नहीं मारती, जितने स्वाद वश अधिक खाकर मरते हैं" रोमन व ग्रीक सभ्यताओं के विकास काल में नियम जैसा था कि स्वास्थ्य व मानसिक शांति चाहनेवाले मनुष्यों को दिन में एक बार भोजन करना चाहिये। सिकन्दर जब भारत आया, तब उसके सैनिक शाम को ५ बजे एक बार सादा भोजन करते फिर भी लम्बे चौड़े तंदुरुस्त व बाण चलाने में प्रवीण थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। कन्नड़ भाषा में सूक्त है - "वप्पतु उष्णुव योगियु" - एक बार भोजन करने वाला योगी, होता है। दीर्घ जीवन का रहस्य है-हल्का, सुवाच्य, मिताहार अधिक भोगी रोगों को बुलाते हैं, अतिथ्य करते हैं और अपने घर में बसा लेते हैं। अंग्रेजी में यौवन के तीन शत्रु हरी, वरी एण्ड करी बताये गये हैं-हरी (HURRY) का मतलब है जल्दबाजी-उतावलापन, वरी (WORRY) चिन्ता, घबराहट, करी (CURRY). अधिक मिर्च मसालेवाला भोजन, ये तीनों जवानी के दुश्मन हैं। भोजन में उतावल कभी नहीं करनी चाहिये। अधिक मिर्च मसालों से जीभ जलती है, फलत: बिना चबाये जल्दी गले के नीचे उतर जाता है तब दांत का काम आंत को करना पड़ता है। कुदरत द्वारा निर्मित तीन रक्षा कवच है, पहला जीभ, जो पथ्य-अपथ्य का विवेक करती है, दूसरा दांत, जो चबाते है, तीसरा गला, जो खाद्य पदार्थ को आमाशय तक पहुंचाता है। न पथ्यापथ्य को विवेक, न चबाना, फलत: सब काम आमाशय को करना पड़ता है। जिसमें आतडियां कमजोर पड़ जाती हैं। पाचन तंत्र धीरे-धीरे बिगड जाता है। भूख खुल कर नहीं लगती। भोजन के अत्यावश्यक तीन अंग-नमक, चिकनाई, तथा चीनी, इनके कारण अनेक रोग होते हैं। वैसे तो नमक के १४००० (चौदह हजार) उपयोग बताये हैं। उनमें भोजन में उपयोग एक है, जो स्वाद व रुचि उत्पन्न करता है, जितने लवण की शरीर को जरुरत होती है, वह फल साग तरकारी आदि से मिल जाता है। साग में बहुत सारे खनिज लवण होते है। वे ही शरीर में जज्ब (आत्म सात) होते हैं, कृत्रिम लवण शरीर में जज्ब नहीं हो सकता, उसे शरीर से बाहर निकालने के लिए गुर्दो को काफी श्रम करना पड़ता है। नमक का अति उपयोग विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो वह हैं मन को वश में करना। २६९ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंजापन लाता है, रक्त के लिए हानिकारक व त्वचा रोगकारक बनता है यही कारण है चटपटे मसालेदार पदार्थ या अधिक नमक का प्रयोग न करने की समझदार लोग सलाह देते हैं। मिर्च मसालों से जायकेदार बने गरिष्ठ पदार्थो व तली-भुनी चीजों से अमाशय की कुछ रसग्रन्थियां सूख जाती है, इन्सुलिन जैसा उपयोगी तत्व बनना बन्द हो जाता है व मधुमेह बीमारी का कारण बनता है। चिकनाई भोजन में आवश्यक तत्व है, जिनका भोजन सुखा होता है, उनका जीवन भी सुखा- नीरस देखा जाता है उनके व्यवहार में स्नेहका स्वोत सूख जाता है किन्तु यह भी सच है अधिक चिकनाई, चर्बी व मोटापा वर्धक बनकर रोग जननी बन जाती है। 1 प्रो. लूयंग चेह द्वारा जापान, मलेशिया, सिंगापुर व हांगकांग में किये गए परिक्षणों से मालूम हुआ कि अत्याधिक चीनी खाने से विशेषतः १० से २२ वर्ष की आयु में निगाह कमजोर हो जाती है। उन्होंने बताया चीनी, मछली या चावल लेने से विटामिन (VITAMIN-B-1.) बी-१ तथा (B-2) बी-२ की कमी होती है, जिनसे आंखे कमजोर हो जाती है, अतः अति चीनी खाना खराब है केलिफोर्निया विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक खोज के नतीजे में बताया शकर युक्त अधिक मीठा आहार हड्डियों के निर्माण में कैलसियम की क्रिया को बाधा पहुंचाता है। अतः हड्डियां व दांत कमजोर हो सकते हैं हड्डियों दांतों की मजबूती चूने की पर्याप्त मात्रा पर निर्भर करती है। चीनी चूने को चाट जाती है। दूध के केल्सियम को कम कर देती है। स्वयं साफ है और खाने वाले के स्वास्थ्य व सौंदर्य को साफ कर देती हैं प्राकृतिक चिकित्सा में सफेद चीनी को सफेद जहर (White Posion) बताया जाता है। न उसमें विटामिन है, न खनिज तत्व ही, कार्बोहाइड्रेट्स के सिवा कोई पोषक तत्व नहीं है। मात्र स्नायु व्यवस्था को उत्तेजना मिलती है शरीर में इन्सुलिन काफी मात्रा में तैयार नहीं होता बिना इन्सुलिन के चीनी लाभप्रद नहीं होती लन्डन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. प्लीमनरने चीनी को कैन्सर, प्रदर, मधुमेह जैसे भयंकर रोगों को उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी ठहराया है। जलते दीप का धुंआं काजल बन कर पोतता है पानी, पशु-पक्षी व आदमियों आग विद्युत ने जहां विकास के द्वार भोजन शक्ति प्रदायक भी है तो रोग संग्राहक भी आंख को रोशनी देता है और दीवार पर का लिख भी को जीवन प्रदान करता है तो बाढ बनकर विनाश भी खोल दिये है, वहां विनाश के भी प्रयोक्ता पर आधारित है कि वह किस प्रकार उसका प्रयोग करता है शरीर को स्वस्थ व साधनाक्षम बनाये रखने के लिए भोजन करना होता है। कब, कितना, कैसा, क्यों और क्या आदि प्रश्नों के परिपार्श्व मे प्राप्त होने वाला भोजन विवेक स्वास्थ्य एवं साधना की दृष्टि से अत्यन्त अपेक्षित है। चूंकि आध्यात्मिक स्वास्थ्य, साधक का मूल लक्ष्य होता है। आचारंग में बताया गया है महावीर पूर्ण स्वस्थ थे फिर भी अल्प आहार ग्रहण करते थे। भक्त के घर प्रचुर स्वादिष्ट पदार्थ - विविध मिष्ठान्न व व्यंजन थे पर स्वामी रामकृष्ण परहंस अत्यन्त अस्वाद वृत्ति से थोडी मात्रा में खा कर रह गये पार्श्ववर्ती लोग स्वाद ले लेकर खूब खा रहे थे और कह रहे थे, चीजे बहुत स्वादिष्ट हैं, भर पेट खाइये, उत्तर में परमहंस ने कहा- इन्द्रियां दुष्ट घोडे के समान होती हैं, संयम की लगाम को मजबूती से हाथ में थाम कसौटी पर कसे जाने का भाग्य कुंदन को ही मिलता है, कथिर को नहीं। २७० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न रखूं तो न जाने ये कौन से गहरे गर्त में गिरा दे । कृत्रिम रस बहुतगरीष्ठ और तला-भुना दुष्पाच्य भोजन, दुस्साध्य बीमारीयों तथा मानसिक विकृतियों को जन्म देता है। अपनी शीतल छांव में पालता - पोषता है। दोष, अन्न को नहीं, मानव की रस लोलुपता को जाता है। उसे जीतना कठिनतम कार्य है। कहा है "अक्खाण रसणी, कम्माण मोहणी, तह वयाण बंभवयुं । गुत्ती, व्यमण गुत्ती, चउरो दुक्खेण, जिप्पति" " इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, अष्ठकर्मों में मोह कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य तथा गुप्तियों में मन गुप्ति पर विजय पाना कठिनतम कार्य है। रसलोलुपता को जीत लेने पर ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा, प्राण का ऊर्ध्वगमन और चित्त वृत्तियों की निर्मलता घटित होती है। इसीलिए महावीर ने कहा- साधना का प्रारम्भ, आहार शुद्धि से होता है। बहिरंग तपोयोग के चार भेद, आहार शुद्धि से जुडे हुए हैं। उनमें प्रथम है- अनशन - भोजन का सर्वथा परिहार, दूसरा- ऊणोदरी भूख से कम या एक साथ पदार्थ खाना । यह साधना के साथ शरीर के लिए भी उपयोगी है। कम खाने वाला अपने पाचन तंत्र को बहुत राहत पहुंचाता है। गहरी भूख लगने पर पाचक रसों का स्त्राव होने लगता है। जितना स्त्राव होगा, उतना ही पचेगा, शेष व्यर्थ जाता है। तीसरा रस परित्याग रस मृत गरिष्ठ भोजन का परिहार | रस परिहार का उत्कृष्ट तप-आयंबिल, अनेक सिद्धि प्रदायक ही नहीं, व्याधि-विनाशक भी होता है।" आहार और अध्यात्म" नामक पुस्तक में प्रेक्षा पुरुष युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजीने बताया है- " आयंबिल में कोरा एक धान्य और पानी चलता है। यह एक तपस्या का प्रयोग है पर पक्षाघात जैसी भयंकर बीमारियां आयंबिल से नष्ट होती हैं। इन पंक्तियों को पढ़ ही रहा था कि इस सच्चाई का जीता-जागता प्रसंग सामने आ गया। मूलतः वारणी ( राजस्थान) निवासी, वर्तमान में बेगलोर प्रवासी श्री घमण्डीरामजी सुराणा वर्षों पूर्व पक्षाघात के जबरदस्त आक्रमण से पीड़ित हो गये थे। प्रत्यक्षदर्शी उस दयनीय हालत की स्मृति मात्र से रोमांचित हो उठते हैं किन्तु आयंबिल सदृश प्रयोग से काफी स्वस्थ हो गए। पूरा प्रसंग, मेरी सद्य: प्रकाशित "शब्द की चोट" नामक पुस्तक में देखे। आयंबिल तप व नवपद की आराधना से श्रीपाल कुष्ठ मुक्त हो गये। जैनों में प्रसिद्ध कथा है। व्याधियां ही नहीं, लब्धियां - सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। तेजोलब्धि उत्पन्न होने के प्रसंग में बताया गया है कि साधक छः मास तक दो-दो दिन के उपवास करता है, पारणें में मात्र उड़द के बाकुले व दो फुसली पानी लेता हुआ सूर्य के सामने खड़ा खड़ा आतपना लेता है । इस प्रकार छ: मास करने से तेजो लब्धि प्राप्त होती है, जिससे निग्रह - अनुग्रह की शक्ति मिलती है। कुछ वर्ष पूर्व लाडनू में एक व्यक्ति आया, जो जमीन में कहां कूआ खोदने पर पानी निकलेगा बताता था । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजीने उससे पूछा कि आपने क्या प्रयोग किया? जिससे भूगर्भ का ज्ञान हो सका ? उसने कहा- मेरे गुरुने एक प्रयोग बताया था - छ: महीने तक एक अनाज खाया जाए व केवल पानी पीया जाए तो भूगर्भ में छिपी वस्तुओं का ज्ञान हो सकता है। आग का छोटे से छोटा तिनका भी भयंकर ज्वाला निर्मित कर सकता है। For Private Personal Use Only २७१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैने प्रयोग किया, वह ताकत पैदा हो गई। बड़ोदा के पास अड़ास गांव के पिनाकिन भाई पटेल काफी शक्तियां रखते हैं। स्वर-विज्ञान, ज्योतिष-विज्ञान, मंत्र-तंत्र, जड़ी-बुटियों की विशिष्ट अवगति के साथ दैवी उपासना में संलग्न है। ८ मई १९९० की रात को हम उनके निवास स्थान पर रहे, लम्बे समय तक चली बातचीत में उन्होंने बताया-विशिष्ट शक्तियों को प्राप्त करना, सरल नहीं होता, बड़ा संयम-विशेषत: आहार पर पूरा नियंत्रण रखना पड़ता है, मैं महीनों तक केवल चपाती-भाजी खाकर रहा हूँ। अभी भी बहुत हल्का एक चपाती भर भोजन करता हैं। इन घटनाओं से पता चलता है कि रस विजय बिना लौकिक-पारलौकिक कोई भी शक्तियां प्राप्त नहीं हो सकती है। यह ठीक है कि प्रयोक्ता भौतिक आकांक्षा से ग्रसित न हो चूंकि आकांक्षा मूल पूंजी-अक्षय आनन्द से बंचित कर देती है। तथापि बहुत सारी व्याधियां मिटती हैं, सिद्धियां प्राप्त होती है। इस प्रासंगिक फल को नजर-अंदाज भी नहीं किया जा सकता। युग प्रधान आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में-स्वाद के लिए खाना-अज्ञान है। जीवन के लिए आवश्यक और संयम के लिए खाना, साधना है। "हंगर इज द बेस्ट सोस स्वाद के अनुसार गहरी भूख लगने पर परिमित-सात्विक भोजन साधक के लिए उपयुक्त बताया जाता है। समय - समय पर रस-परिहार व निराहार रहना भी स्वीकार्य है। तामसिक व राजसिक भोजन, जिससे वासना, क्रोध, लालच, हिंसा आदि के भाव उग्र होते हैं जागते हैं, हेय है सात्विक भोजन, जिससे नाभि के ऊपर के केन्द्र सक्रिय होते हों, पदम लेश्या के प्रकम्पन्न और शुक्त लेश्या के विचार जागते हों, साधना के क्षेत्र में उपादेय है। साधना में सफल होना है तो स्वाद विजय बहुत आवश्यक है। नीरोगता, स्वस्थ दीर्घायु और ऊर्जस्वल व्यक्तित्व उसका प्रासंगिक फल है। • आग का छोटे से छोटा तिनका भी भयंकर ज्वाला निर्मित कर सकता है। इसी प्रकार अंतर में ईर्ष्या का तिनका जहाँ पड़ जाता है उसी पल अंतर को नष्ट करने वाली अदृश्य अग्नि भभकने लगती है और यह अद्दश्य आग अन्य का सर्वनाश करने से पूर्व उसी के सत्यानाश का सृजन करती है। २७२ मानव बनो, मानवता के विकास में हु साधुत्व, देवत्व और सिद्धत्व का सृजन हो सकता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह -नीरज जैन, एक व्यक्ति मकान बनवाना चाहता था। उसने वास्तुकार से अपने मन का नक्शा तैयार करवाया। नक्शा सचमुच बहुत अच्छा बना था। उसके साथ निर्माण के लिये तकनीकी परामर्श (वर्किंग डिजाइन्स) भी साथ में दी गई थीं। इस सब के लिये धन्यवाद देते हुए वास्तुकार से प्रश्न किया गया - "कभी-कभी नये मकान में भी पानी टपकने लगता है। आप इतनी कृपा और करें कि इस नक्शे में उन स्थलों पर निशान दें जहाँ पानी टपकने की हालत में मरम्मत करानी चाहिए। प्रश्न सुनकर वास्तुकार चकित था। अपने व्यावसायिक जीवन में पहली बार ऐसे प्रश्न से उसका सामना हुआ था। उसने कहा - 'बन्धु! यदि मेरी डिझाइन के अनुसार निर्माण होगा तो मकान में पानी टपकने का कोई प्रश्न ही नहीं है। परन्तु, यदि किसी कारण से, कभी, मकान टपकने ही लगे तो उस समय कहाँ मरम्मत करानी होगी, यह आज इस नक्शे में कैसे रेखांकित किया जा सकता है? जब पानी टपके तभी आप देख लें कि पानी कहाँ से टपकता है, बस वहीं मरम्मत करानी होगी। भगवान महावीर ने हमें अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिये भी एक ऐसा नक्शा दिया था जिससे एक छिद्र-रहित भवन हम बना सकते थे। उन्होंने जीवन-निर्माण के लिए कुछ ऐसे तकनीकी परामर्श दिये थे जिन पर यदि अमल किया जाता तो एक निष्पाप और निष्कलंक व्यक्तित्व बन सकता था। हमारे जीवन में पाँच का प्रवेश हो ही नहीं सकता था। परन्तु हम चूक गये। अपने व्यक्तित्व का प्रासाद खड़ा करते समय हमने महावीर के निर्देशों का पालन नहीं किया। इसी का फल है कि हमारे जीवन में पाँच पापों का प्रवेश हो रहा है। यदि हमारा जीवन महावीर की बताई हुई पद्धति पर गढा जाता तो उसमें पाप का पानी टपकने का कोई प्रश्न ही नहीं था। अब हमारे सामने समस्या यही है कि अपने सछिद्र व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने के लिये हम क्या उपचार करें? हमारे जीवन में जगह-जगह पाप का मलिन जल टपक रहा है, किस तरफ से उस चुअन को रोकने का प्रयास करें? पाप-प्रवृत्तियों से बचने के लिये महावीर का यही परामर्श है कि निरन्तर आत्म-अवलोकन हम करते रहें और जिस आचरण के माध्यम से हमारे जीवन में पाप का प्रवेश होता दिखे, उस आचरण को पूरी सतर्कता के साथ अनुशासित करने का प्रयत्न करें। पाप की जड़ : परिग्रह : पाप तो पाँच होते हैं - हिंसा, झठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। परन्तु इन पाँचों पापों को हमारे जीवन में प्रवेश करने के लिए अलग-अलग रास्ते नहीं ढूंढने पड़ते। देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार कोई एक पाप हमारे जीवन में आता है और फिर, उसी के माध्यम से, धीरे-धीरे अन्य चार पाप भी प्रवेश पा जाते हैं। हो सकता हैं कोई ऐसा देश-काल रहा हो जब मनुष्य के आचरण हिंसा प्रधान रहें हों। हिंसा के माध्यम से ही शेष पाप उसके जीवन में आते हों। हो सकता हैं किसी समाज रचना में झूठ, चोरी, अथवा व्यभिचार की प्रधानता रही हो, और वही अन्य पापों के आने मानव बनो। मानवता के विकास में ही साधुत्व, देवत्व और सिद्धत्व का सृजन हो सकता है। २७३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का द्वार रहा हो। परन्तु आज ऐसा नहीं है। हिंसा का आनन्द उठाने के लिए, हम में से कोई हिंसा नहीं करता। झूठ का मजा लेने के लिये कोई व्यक्ति अवसर तलाश कर झूठ बोलता ही हो, ऐसा भी नहीं है। इसी प्रकार चोरी और व्यभिचार की प्रधानता आज हमारे समाज में नहीं पाई जाती। ये चार पाप किये बिना कोई अपने आप को अधूरा मानता हो, या दुखी समझता हो, ऐसा भी प्राय: देखने में नहीं आता। परन्तु यह जो पाँचवां पाप है उसे करते हम सब अपने आप को आनन्दित मानते हैं। आज की समाज व्यवस्था में परिग्रह ही शेष चार पापों का द्वार खोलनेवाली व्याधि बनकर हमारे मन-मष्तिष्क पर छाया हुआ है। जीवन में प्रवेश करती हुई पाप-धारा को रोकने के लिये हमें सबसे पहले अपनी परिग्रह-प्रियता पर अंकुश लगाना होगा। हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील से घृणा करते हुए भी हम परिग्रह से कभी स्वप्न में भी घृणा नहीं कर पाते। उल्टे उसके सान्निध्य में अपने को सुखी और भाग्यवान समझने लगे है। यह परिग्रह-प्रियता हमें भीतर तक जकड़ लेती है, और हमारे हित-अहित का विवेक भी हमसे छीन लेती है। आज परिग्रह के पीछे मनुष्य ऐसा दीवाना हो रहा है कि उसके अर्जन और संरक्षण के लिये वह, करणीय और अकरणीय, सब कुछ करने को तैयार है आज का मनुष्य हिंसक नहीं होना चाहता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितनी भी हिंसा करनी पड़े वह करता है। आज का मनुष्य झूठ और चोरी में अपनी प्रतिष्ठा नहीं मानता। उनसे अपने आप को सुखी भी नहीं मानता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितना झूठ बोलना पडे, वह बोलता है, जिस-जिस प्रकार की चोरियां करना पड़े, वह करता है। आज हमारी जीवन पद्धति में व्यभिचार और कुशील निन्दनीय माने जाते हैं। कोई कुशील को अपने जीवन में समाविष्ट नहीं करना चाहता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितना कुशील-मय व्यवहार करना पडे, हम में से प्रायः सब, उसे करने के लिये तैयार बैठे 4 परिग्रह को लेकर कहीं अनुज अपने अग्रज के सामने आँखे तरेर कर खड़ा है। उसकी अवमानना और अपमान कर रहा है। कहीं अग्रज अपने अनजको कोर्ट-कचहरी तक घसीट रहा है। परिग्रह को लेकर ऐसे तनाव प्रगट हो रहे हैं कि बहिन की राखी भाई की कलाई तक नहीं पहुंच पाती। परिग्रह के पीछे पति-पत्नी के बीच अन-बन हो रही है और मित्रों में मन-मुटाव पैदा हो रहे है। एक व्यक्ति चरित्र-हीनता के कारण जिस पत्नी को छोड़ रहा है, दूसरा उसी पर मोहित हुआ, उसे पाने के लिये अपनी सती-साध्वी, सुन्दर पत्नी की उपेक्षा कर रहा है। ये होने के पहले ही टूटते हुए रिश्ते, ये चरमराते हुए दाम्पत्य, परित्यक्त पत्नियों की ये सुलगती हुई समस्याएं, और दहेज की वेदी पर झुलसती-जलती ये कोमल-कलियाँ, हिंसा, झूठ और चोरी का परिणाम नहीं है। ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रही हैं। मानवता के मुख पर कालिख मलने वाले, और समाज में सड़ांध पैदा करने वाले ये सारे दुष्कृत्य, हमारी परिग्रह-प्रियता का ही कु फल हैं। गहराई में जाकर देखें तो इनमें से अधिकांश घटनाओं २७४ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पीछे हमारा लोभ, हमारी लालच और भौतिकता के लिये हमारी अतृप्त-आकांक्षाएं ही खडी दिखाई देगी। जैन आचार-संहिता में परिग्रह की लोलुपता को सभी पापों की जड़ बताते हुए कहा गया - "मनुष्य परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है। संग्रह के निमित्त ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है। कुशील भी व्यक्ति के जीवन में लोलुपता के माध्यम से ही आता है। इस प्रकार परिग्रह प्रथम-पाप है। उसी के माध्यम से शेष चार पाप जीवन में प्रवेश पाते हैं। संग णिमित्तं माई, भणई अलीकं, करेन चोरिकं, सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपरिमाणो कुणदि जीवो। समणसुत्त पूज्यपाद स्वामी ने धन-वृद्धि की कामना करने वाले पुरुषों पर व्यंग्य करते हुए कहा है - 'आपकी परिग्रह-प्रियता अनोखी है। जैसे जैसे काल बीतता जाता है, वैसे ही वैसे ब्याज आदि के द्वारा आपकी धन-वृद्धि हो रही है जो आपको अत्यन्त प्रिय है। इस तृष्णा में आप यह भी भूल जाते हैं कि ज्यों-ज्यों काल व्यतीत, होता है, त्यों त्यों आपकी सम्पत्ति भले ही बद रही हो, परन्तु उसी अनुपात में आपकी आयु क्षीण हो रही है। इसके बाद भी आप अपनी प्रति-क्षण खिरती हुई आयु का कोई सार्थक उपयोग नहीं करना चाहते, यह जानते हुए भी धन की ही आकांक्षा में लगे हए हैं। इससे सिद्ध होता है कि आप धन सम्पदा को अपने प्राणों से भी अधिक चाहते है।" __ आयुवृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं, कलस्य निर्गमम् वांच्छतां धनिनामिष्ट, जीवितात्सतरां धनम् ।। इष्टोपदेश/१५ वास्तव में हमारे आर्थिक चिन्तन में कहीं न कहीं कोई भूल अवश्य हो रही है। लगता है कि हम अपने जीवन का कोई मूल्य उसके साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए कोई एक मकान बन रहा है। उसके लिये हमारे पास पूरा तखमीना तैयार है। भूमि के मूल्य से लगाकर ईट, सीमेंट, और वह सब कुछ, जो भवन के निर्माण में लगने वाला है, उस सब की कीमत जोड़कर हमने पूरे मकान की लागत का अनुमान कर लिया है। परन्तु उसे बनवाते समय हमारे जीवन के जो अनमोल वर्ष, या महीने व्यय होने वाले हैं, उसका कोई अनुमानित मूल्य हमारी लागत में शामिल नहीं है। मकान बनते समय, यदि कई कारीगर मिलकर बनायें तब भी, जब तक एक ईट रखी जाती है, उतनी देर में हमारी एक श्वांस भी निकल जाती है। इस श्वांस का मूल्य किस खाते में जोड़ा गया है? कभी विचार करें कि एक-एक ईट के साथ व्यय होती हुई श्वांसों की भी एक निश्चित सीमा है। जब भवन की आखिरी ईट के निकलने वाली सांस ही यदि हमारे जीवन की आखिरी सांस हो तो उस मकान की लागत क्या होगी? संसार में अपना गुजारा करने के लिये परिग्रह जोड़ना और उसका संरक्षण करना आवश्वयक है। परन्तु उसके जाल में उलझ कर, संग्रह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेना, कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। इच्छाओं की सीमा निर्धारित करके, आकांक्षाओं की असीमता पर अंकुश लगाकर, सज्ञान के बिना सिद्धी नहीं। २७५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सम्पत्ति के साथ साता, सुख और संतोष का भी अर्जन कर सकते हैं। ___ यही बात कबीरदास ने अपने शब्दों में कही - "गाय-बैल, हाथी-घोड़े और मणि-माणिक्य, ये सब धन होंगे परन्तु एक इनसे भी बड़ा धन है। वह "संतोष-धन" जब उपलब्ध होता है तो ये सारे धन महत्व हीन हो जाते हैं।" गो धन, गज धन, बाजि-धन, और रतन धन खान, जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। क्या दिया है परिग्रह ने? आज परिग्रह की मूर्छा में से उपजा असंतोष मनुष्य को अनेक वर्जित दिशाओं में ले जा रहा है। कामनाओं से तृषित पत्नी अपने पति से संतुष्ट नहीं है। धन के मद में नित-नई चाह रखनेवाला पति अपनी पत्नी में कोई नवीनता नहीं देख पाता। उसकी दृष्टि कहीं अन्यत्र है। जहाँ व्यभिचार के अवसर नहीं है वहाँ भी मानसिक व्यभिचार निरंतर चल रहा है। जीवन तनावों में कसा हुआ नरक बन रहा है। जिसके पास जो कुछ है, वह उससे संतुष्ट नहीं है। एक कोयल का बच्चा रो रहा था। उसे अपने काले-कलूटे पंखों पर चिढ़ आ रही थी। अभी-अभी उसने मयूर की पीठ पर सुन्दर सतरंगे पंख देखे थे। उसे भी ऐसे ही लुभावने पंख चाहिये। कोयल जब अपने नन्हें-मुन्ने को समझाते-समझाते थक गई तब उसे लेकर मयूरी के पास चली। शायद उसके गिरे-पड़े पंख पाकर ही बच्चा बहल जाये। पर वहाँ दूसरा ही तमाशा हो रहा था। मयूर का बच्चा मचल-मचल कर रो रहा था। उसे अपनी भोंड़ी आवाज एकदम नापसन्द थी। उसे कोयल की तरह मीठी और सुरीली आवाज चाहिये। हमारे साथ भी क्या ऐसा ही नहीं हो रहा? जिसके पास जो है, उसमें उसे कोई सुख, कोई संतोष नहीं मिल रहा। परन्तु जो उसके पास नहीं है, और दूसरों के पास है, उसका अभाव उसे निरंतर दुखी किये हुए है। संसार के किसी भी पदार्थ को ले लें, किसी भी उपलब्धि की बात सोच कर देख लें। जिसे वह प्राप्त नहीं है वह उसे पाने के लिये दुखी है, परन्तु जिसे वह प्राप्त है, वह भी सुखी नहीं वह तो किसी और पदार्थ के लिये, किसी दूसरी उपलब्धि के लिये अपने मन में लालसा पाल रहा है। उसी लालसा में दिन-रात दुखी हो रहा है। भिखारी बना दिया है लालसा ने __ हम अनुभव कर सकते हैं कि आज परिग्रह के प्रति यह अंधी लालसा, सारे पापों और अनीतियों का कारण बनकर हमारे जीवन को प्रदूषित और मलिन कर रही है। यदि इस प्रदूषण से बचकर जीवन को उसकी स्वाभाविक चमक और पवित्रता प्रदान करनी है, तो हमें अपनी परिग्रह-प्रियता पर विचार करना ही होगा। इसका कोई अन्य मार्ग नहीं है। तृष्णा का दंश बहुत विषहरा होता है। उसकी लहर में मन की प्यास बढ़ती जाती है। चित्त में क्षोभ बना रहता और मनुष्य एक विशेष प्रकार की रुग्ण मानसिकता का शिकार हो जाता है। दो पंक्तियाँ मुझे याद आती हैं २७६ सद्ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं। सद्ज्ञान के बिना अनन्त सुख की भी उपलब्धि नहीं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह पराधीन हैं, सबसे बड़ा भिखारी है, जिसमें अनन्त अभिलाषा है, संतोष नहीं। राजा या रंक किसी बादशाह का लश्कर जा रहा था। किसी पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई की तैयारी थी। हाथी-घोडों, रथ और प्यादों के बीच में एक सजे-धजे हाथी के हौदे पर बादशाह सीना तान कर बैठा था। अकस्मात एक ओर से एक रुपया सन्नाता हुआ आया और सीधा शहनशाह की नाक पर लगा। वे पीड़ा से तिलमिला उठे। उन्हें हौदे से उतारा गया। कुछ लोग उनके उपचार में जुट गये और कुछ इस तलाश में निकल पड़े कि यह रुपया उन पर किसने फेका। थोड़ी ही देर में वे एक सन्त को पकड़ कर लाये"यही वह गुनहगार है जिसने हुजूर को चोट पहुंचाई है।" शहंशाह तो अपनी चोट की पीड़ा भोग रहे थे परन्तु उनका सेनापति क्रोध से उबल रहा था। बहुत दर्द भरे स्वर में उसने सन्त से प्रश्न किया-"बादशाह पर हमला करने की तुम्हें हिम्मत कैसे हुई?" "मैने शहंशाह को चोट पहुंचाने वाला कोई काम नहीं किया। किसी भक्त ने मुझे एक रुपया दिया था। मैने वह रूपया अपने गुरु की नज़र किया। उन्होने रूपया मुझे लौटा दिया और कहा - "फकीर कभी रूपया पैसा अपने पास नहीं रखते। इसे किसी जरूरतमन्द को दे देना। रात भर यह रूपया मेरी झोली में था, लेकिन इसका बोझ मेरे मन पर बना हुआ था। इसके होने का अहसास बराबर मेरी रूह को बेचैन किये हुए था। वह मुझे चुभ रहा था। सुबह से मैं इसी तलाश में इस सड़क के किनारे बैठा हूं कि कोई जरूरतमन्द नज़र आवे और उसे यह रूपया सौंप कर मैं अपना बोझ हलका करूं।" फकीर ने बादशाह की ओर मुखातिब होकर नम्रता से कहा-"आप दिखे, लेकिन आप इतनी ऊंचाई पर बैठे हुए थे कि मुझे यह रूपया निशाना साध कर आपकी ओर उछालना पड़ा। जरूरतमन्द को इतना ऊंचा नहीं बैठना चाहिए कि किसी मददगार का हाथ ही उस तक न पहुंच सके। फिर आपके हाथ में कोई कटोरा भी न था, इसीलिए रूपया आपके चेहरे पर गिरा। मैं सिर्फ आपकी मदद करना चाहता था। आपको चोट पहुंचाना मेरा मकसद नहीं था।" दर्द के बीच भी फकीर की बातों पर बादशाह को हंसी आ गई। "तुमने मुझे जरूरतमंद और रूपये का मोहताज समझ लिया यह तुम्हारी बुद्धि की बलिहारी है।" फकीर ने मुस्कुराते पूछा हुए कहा - "जहाँपनाह! मैं तो आपको पहिचानता भी नहीं था। मैने आपके सिपहसालारों से ही पूछा। मुझे बताया गया कि आप पड़ोस की रियासत पर चढ़ाई करके उसे अपनी सल्तनत में शामिल करने की गरज से घर से निकले हैं। मैने अपनी जिन्दगी में बहुत से जरूरतमन्द लोग देखें हैं, लेकिन उनकी जरूरतें बहुत छोटी, बहुत मामूली किस्म की हुआ करती थीं। आप जैसा बड़ा और रौब-दाब वाला जरूरतमंद आज पहलीबार अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। २७७ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैने देखा। मुझे लगा इससे बड़ा भिखारी शायद तलाशने पर भी मुझे नहीं मिलेगा। बस, यही सोचकर मैने अपनी झोली का रूपया आपके पास तक पहुंचाने की कोशिश की। जो अपनी ख्वाहिश के लिये दूसरे को नेस्त-नाबूत करने चल पड़ा हो, जो उस मकसद पर अपने चहेतों की जिन्दगी तक कुरबान करने पर तुला हो, उससे बड़ा और सच्चा "जरूरतमन्द" और कौन होगा?" लोभ और तृष्णा इसी तरह राजा को भी रंक और भिखारी बना देती है। जो आशा और तृष्णा के गुलाम हो गये, वे सारी दुनिया के गुलाम हो जाते हैं, परन्तु आशा को जिन्होंने वश में कर लिया, सारा संसार उनके वश में हो जाता है। वे लोक-विजयी होकर मानवता के मार्ग-दर्शक बन जाते हैं। यही बात एक नीतिकार ने कही आशाया ये दासाः, ते दासा सर्वलोकस्य। आशा येषां दासी, तेषां दासायते लोक: तब हमें अपनी चिर-पोषित अतप्त आकांक्षाओं को, और अनावश्यक आवश्यक्ताओं को, क्या बार-बार परखते नहीं रहना चाहिए? क्या उन पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं करना चाहिए? देहात के किसी स्कूल में एक दिन दो विद्यार्थी देर से पहुँचे। अध्यापक ने दोनों से विलम्ब का कारण पूछा। पहले विद्यार्थी ने उत्तर दिया "मेरे पास एक रूपया था जो मार्ग में ही कहीं गिर गया। उसे ढूंढ़ने में मुझे देर हुई। रूपया भी नहीं मिला और कक्षा भी गई। "कहते-कहते विद्यार्थी की आँखों से आँसु झरने लगे। दूसरे विद्यार्थी ने दण्ड के भय से सकपकाते हुए कहा - "इसका जो रूपया खोया था उसे मैं ही अपने पाँव के नीचे दबाकर खड़ा था। बहुत देर तक यह वहाँ से हटा ही नहीं, मैं कैसे वह रूपया उठाता और कैसे वहाँ से चलता। बस, इसी कारण मुझे देर हुई।" यहाँ घटना की दृष्टि से देखें तो दानों विद्यार्थियों की भूमिका में अन्तर है। एक ने कुछ खोया है, जबकि दूसरे ने कुछ पाया है। परन्तु प्रतिफल की दृष्टि से देखा जाये तो दोनों ही दुखी हुए हैं। अपने कर्तव्य पालन में दोनों को ही विलम्ब हुआ है। उसके लिये दोनों ही दण्ड के भागीदार बने हैं। जिसका कुछ खो गया उसे खोने की पीड़ा है, और जिसे कुछ मिला है उसे छिन जाने का भय त्रस्त कर रहा है। उसे प्राप्ति को अपने पैर के नीचे दबाये रखने की चिन्ता है। और अधिक पाने की लालसा है। यही तो कारण है कि संसार में सब दुखी ही हैं। जिसके पास कुछ नहीं है वह सम्पत्ति के अभाव की यातना से दुखी है। जिसके पास कुछ है वह परिग्रह के सद्भाव में होने वाले तरह-तरह के दु:खों से दुखी हो रहा है। दुखों को जन्म देने वाली आकांक्षाएं और आकुलताएं सबके मन में हैं, लेकिन सुख को उत्पन्न करने वाली निराकुलता, सहिष्णुता और संतोष यहाँ किसी के पास नहीं है। संतोष और अनाकाँक्षा के बिना सुख की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? जार्ज बनार्ड शॉ ने लिखा है - "हमारे जीवन में दो दुखद घटनाएं घटती हैं। पहली यह कि हमें अपनी मनचाही वस्तुए मिलती नहीं हैं। दूसरा यह कि वे हमें मिल जाती हैं। २७८ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "There are two tragedies in life. One is not to get your heart's desire. The other is to get it." George Bernard Shaw बात खोने की हो या पाने की इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दोनों ही परिस्थितियों में मनुष्य के मन में संक्लेश ही उपजते हैं। उन्हीं संक्लेशों की पीड़ा उसे भोगना पड़ती है। वह जितना सम्पत्तिशाली होता जाता है, उसकी यह पीड़ा उसी अनुपात से बढ़ती जाती है।। जैनाचार्य गुणभद्रस्वामी ने अपने ग्रंथ में लिखा है - "संसार में हर प्राणी के भीतर तृष्णा का इतना बड़ा गड्ढा है कि यदि उसमें विश्व की सारी सम्पदा डाल दी जाय, तब भी वह भरेगा नहीं, खाली ही रहेगा। ऐसी स्थिति में किसे, क्या देकर संतुष्ट किया जा सकता है? विषयों की आशा और तृष्णा सदैव उन्हें दुखी ही करती रहेंगी। तष्णागत: प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य किं कियदायाति, वृथा वो विषयैषिता। -आचार्य गुणभद्र/आत्मानुशासन भोग आकांक्षाओं की तृप्ति के लिये विचारकों ने तीनों लोकों की सम्पत्ति को भी अपर्याप्त माना है। अन्त में संतोष रूपी अमृत का पान करने पर ही ज्ञान के आनन्द की उपलब्धि स्वीकार की गई है। भोगन की अभिलाष हरन कौं त्रिजग सम्पदा थोरी, या ज्ञानानन्द "दौल' अब पियौ पियूष कटोरी। -दौलतराम अध्यात्म पदावली तथा गीता में भी कर्म-बन्ध से बचनेका उपाय बताते हुए यही कहा गया कि - "जो कुछ सहजता से प्राप्त हो जाय उसमें संतुष्ट रहनेवाला, हर्ष और शोक आदि द्वन्दों से रहित तथा ईर्ष्या से रहित ऐसा साधक जो अपने अभिप्राय की सिद्धि और असिद्धि में समता-भाव धारण करता है, वह कर्मो को करता हुआ भी कर्म-बन्ध नहीं करता" यद्दच्छालाभ संतुष्टो द्वन्द्वातीत: विमत्सर: सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते। -गीता/४-२२ वर्तमान समाज व्यवस्था में धन-सम्पत्ति को बहत अधिक महत्व प्राप्त हो गया है। आज का समाज-दर्शन तो यह हो गया है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है। वही विद्वान् है और वही गुणवान् है। धनवान ही कुशल वक्ता है और वही दर्शनीय, भव्य व्यक्तित्व वाला है, क्यों कि सारे गुण धन के आश्रय से ही रहते हैं यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन:, स पण्डितः, स श्रुतवान् गुणज्ञः, स एव वक्ता, स च दर्शनीय, सर्वे गुणा: कांचनमाश्रियन्ति। फिर जहाँ ऐसी ही सामाजिक स्वीकृति धन को मिली हो, वहाँ उसके उपार्जन के लिये एक पागलपन भरी दौड़ यदि समाज के सभी वर्गों में चल रही हो तो यह अस्वाभाविक तो विश्व में, तीनों लोकों में ददि कोई महामंत्र है तो वह है मन को वश में करना। २७९ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। दो हजार वर्ष पूर्व जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने धन के संचय की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए कहा था - "यदि जीवन में पाप का निरोध हो गया हो तो वह निष्पाप-जीवन ही सबसे बड़ी सम्पदा है। फिर अन्य किसी सम्पदा का कोई अर्थ नहीं है। और यदि जीवन में पाप का आस्रव हो रहा हो, हमारा आचरण पापमय हो, तो किसी भी सम्पदा से हमारे जीवन का उत्कर्ष होने वाला नहीं है। पाप के साथ आने वाली सम्पत्ति हमें दुर्गति के गर्त में ही ले जायेगी। ऐसी स्थिति में सम्पदा से क्या प्रयोजन? " यदि पाप-निरोधीऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम्। यदि पापासवोऽस्ल्य सम्पदा किं प्रयोजनम्। रत्नकरण्ड श्रावकाचार/२७ धन से जहाँ तक हमारी आवश्यक्ताओं की पूर्ति होती हो उसी हद तक वह हमारे लिये उपयोगी है। जो धन आवश्यक्ता की पूर्ति नहीं कर पा रहा हो वह निरर्थक है। इसी प्रकार आवश्यक्ता से अधिक धन का भी कोई उपयोग नहीं है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उतनी ही सम्पत्ति संकलित करने को उचित ठहराया है जितने से हमारे सांसारिक दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह हो सके। परिग्रह-परिमाण नामके पाँचवें अणुव्रत को "इच्छा-परिमाणवत" कहकर जैनाचार्यों ने भी यही कहा है कि व्यक्ति को अपनी इच्छाएं सीमित करके, उनकी पूर्ति के अनुरूप परिग्रह रखना चाहिये। उसके अधिक सम्पत्ति के प्रति उसे कोई व्यामोह या आकाँक्षा नहीं रखनी चाहिये। सामान्य गृहस्थ के लिये सुखी जीवन बिताने का एक ही उपाय कहा गया है कि वह अपनी आय के भीतर व्यय का संयोजन करके उसी में अपना काम चलाने का संकल्प ले। यदि आय से अधिक व्यय की आदत होगी तो नियम से जीवन में अशांति और असंतुलन रहेगा। आय से अधिक व्यय न हो, उसके भीतर ही जीवन यापन किया जा सके यह एक कला है। इसके माध्यम से जीवन में आनन्द का विस्तार होता है और पूरा परिवार शांति का अनुभव करता है। नीतिकारों ने इसी कला को पाण्डित्य कहा है, इसी को वचन-कौशल कहा है। इतना भर नहीं, उन्होंने गृहस्थ के लिये इसे सबसे बड़ा धर्म कहकर इस कला की सराहना की है इदमेव हि पाण्डित्वं, इयमेव विदग्धता, अयमेव परोधर्मः यदायानाधिको व्यवः । -नीतिवाक्यामृत/१०८ रहीमने भी अपने खुदा से यही याचना तो की थी कि - "जितने में मेरे परिवार का पेट भर जाय, अतिथि का सत्कार कर सकू और मुझे भी भूखा नहीं सोना पड़े, ओ खुदा! बस, मेरे लिये इतना ही पर्याप्त है। यही मेरी आरजू है।" साई इतना दीजिये, जामें कुटुंब समाय, मैं भी भुखा ना रहूं, साधु न भुखा जाय। -रहीम २८० संसार में ऐसे भी पुरुष है जो आपत्ति के आंधी-तूफान का पान कर लेते है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस व्यक्ति के जीवन में इतना घटित हो जाए, वही निर्भीक होकर सम्मान-पूर्ण जीवन जी सकता है। कबीर ने कहा - "वांछा समाप्त होते ही सारी चिन्तायें नष्ट हो गई। मन निश्चिन्त हो गया। ठीक ही तो है, जिन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिये वे तो शाहों के भी शाह हैं।" चाह गई, चिन्ता मिटी, मनुवा बे-परवाह, जिनकौं कछु न चाहिये, सो साहन पति साह। -कबीर परिग्रह की लालसा पर अंकुश लगाने का एक मात्र उपाय है संतोष। जब तक हम अपनी इच्छाओं और आवश्यक्ताओं की सीमा निर्धारित नहीं करेंगे, और जब तक हम प्राप्त सामग्री में संतुष्ट और सुखी रहने की कला नहीं सीख लेंगे, तब तक तृष्णा की दाहक ज्वालाओं में हमें जलना ही होगा। परिग्रह से मोह बढ़ेगा और उससे तृष्णा की ज्वालायें और ऊंची होती जायेंगी। एक पद की दो पंक्तियां हैं रे मन कर सदा संतोष, जातें मिटत सब दुख-दोष बदें परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिस्ना होत, बहुत इंधन जरत जैसें, अगिनि ऊंची जोत। -दौलतराम/अध्यात्म पदावली समस्या यह है कि संतोष प्राप्त कैसे हो? सारा जीवन तो भौतिक उपलब्धियों की स्पर्धा की दौड़ बनकर रह गया है। कोई वस्तु जब तक मिलती नहीं है तब तक उसकी प्राप्ति में ही सुख और संतोष दिखाई देता है। जब वह मिल जाती है तब वस्तु तो हम सहेज लेते हैं, परन्तु उसमें सुख या संतोष कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। तब तक हमारी द्रष्टि किसी अन्य अप्राप्त वस्तु पर लग जाती है। उसके बिना सब कुछ फीका लगने लगता ऋषियों के उपदेशों पर चलकर मनुष्य तम से प्रकाश की ओर बढ़ा हो या नहीं, उसने मृत्यु से अमरत्व की ओर पग बढ़ाये हों या नहीं, परन्तु अपनी परिग्रह-प्रियता से प्रेरित वह भौतिकता के क्षेत्र में उपलब्ध से अनुपलब्ध की ओर निरतंर बड़ी तेजी से दौड़ रहा है। विचार करना चाहिये हमें कि हमारी इस लक्ष्य हीन और थकाने-भरमाने वाली दौड़ का अंत कब होगा? कहाँ होगा? और कैसे होगा? जहां प्रेम, करुणा, वात्सल्य आहर साधुत्व है उसी की जय होगी। २८१ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा. रज्जनकुमार संसारी जीव को भोजन या आहार की आवश्यकता पड़ती है। आहार जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक जीवधारी को भूख लगती है और उसे शांत करने के लिए आहार अनिवार्य है। मुख्य रूपसे आहार क्षुद्या शांति हेतु ग्रहण किया जाता है, परंतु अपरोक्ष रूप में यह जीव शरीर के पोषण के लिए अनिवार्य है। प्रायः यह देखा गया है कि किसीभी जीवधारी को अगर दीर्घ काल तक आहार नहीं दिया जाता है तो धीरे-धीरे उसका शरीर कमजोर होता जाता है और अंत में नष्ट हो जाता है। अर्थात् आहार शरीर टिकाए रखने के लिए आवश्यक है । शरीर रक्षा के साथ साथ आहार जीवधारियों को ऊर्जा प्रदान करता है जिसकी सहायता से सभी प्रकार के कार्यों का संचालन कुशलतापूर्वक होता है। जैन आहार प्रक्रिया और आधुनिक विज्ञान जीवधारियों का शरीर रेल के इंजिन, मोटर इंजिन के समान ही है। जिस प्रकार एक इंजिन को चलाने के लिए उसे ऊर्जा प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जो उसे कोयला जलाकर पानी को भाप में बदलकर अथवा डीजल, पेट्रोल या विद्युत आदि के रूप में दी जाती है, उसी प्रकार जन्तुओं के लिए भी उनके कार्य करने के लिए ऊर्जा प्रदान करना परमावश्यक है। किसी भी शारीरिक कार्य को करने में ऊर्जा का क्षय होता है। इस क्षय हुई ऊर्जा की पूर्ति के लिए शरीर के तत्त्व ईंधन का काम करते हैं। अत: शारीरिक कार्य करने में प्रत्येक जीवधारी के शरीर के तत्त्वों का क्षय बराबर होता रहता है। यदि जीव इन क्षय हुए तत्त्वों को पुनः शरीर को प्रदान कर उनकी कमी को पूरा न करता रहे तो धीरे-धीरे उसका शरीर दुर्बल होता जाएगा और अंत में बिलकुल नष्ट हो जाएगा। आहार इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । प्रतिदिन के उपयोग के लिए संचालन शक्ति प्रदान करने के अतिरिक्त जीवों के शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो की वृद्धि के लिए जिन-जिन तत्त्वों की आवश्यकता होती है उन सबकी पूर्ति आहार द्वारा ही होती है। आहार के इस महत्त्व का प्रतिपादन जैन ग्रंथों में हुआ है। जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं में आहार के लक्षण, विभेद कौनसे आहार लेने योग्य हैं, कौन से आहार अयोग्य हैं आदि कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने आहार लेने की प्रक्रियाओं का भी उल्लेख किया है। प्रस्तुत निबंध में जैनों की आहार प्रक्रियाओं का विवेचन आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में किया जा रहा है। जैन ग्रंथों में तीन प्रकार की आहार प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है १. ओजाहार २. लोमाहार और ३. प्रक्षेपाहार । आहार प्रक्रिया से तत्पर्य जीवों द्वारा आहार ग्रहण करने की विधिसे है। २८२ १. ओजाहार अपने उत्पत्ति स्थान में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है वह 'ओज' कहलाता है और इसे जब आहार रूप में ग्रहण किया जाता है तो वह ओजाहार कहलाता है। जन्म के पूर्व शिशु द्वारा माता के गर्भ में सर्वप्रथम जो आहार शरीर पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह ओजाहार है। सामान्य तथा ओजाहार जीव के शरीर द्वारा ग्रहण - धोखेबाज, दगाबाज कभी भी विजय प्राप्त नहीं करते। वे तो सर्व विनाश को ही प्राप्त होते हैं। For Private Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता है। माँ के गर्भ में पल रहा शिशु योजनली (Placenta) द्वारा आहार ग्रहण करता है। शिशु जब गर्भ में विकास कर रहा होता है तब उसे यह ज्ञान नहीं होता है कि किस प्रकार से आहार लिया जाए इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने हेतु कोई निश्चित अंग भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पाता है। लेकिन जीव को अपनी जीवन-रक्षा के लिए आहार तो लेना ही पड़ता है। अत: शिशु को नाभिनाल या योजनाली निकल आती है और इसीके माध्यम से उसे आहार की आपूर्ति होती रहती है। आहार के रुप में शिशु माता के रजांश का ही उपभोग करता है और यह रजांश उसके उत्पत्ति स्थान को चारों तरफ से घेरे रहता है। जीव वैज्ञानिको ने अमीबा नामक जीव को भी ओजाहारी ही कहा है। यह एक अत्यंत सूक्ष्म जीव है और मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श से युक्त होता है। परंतु हमें यहाँ यह भी जानना होगा कि अमीबा जैन ग्रंथों में प्रतिपादित एकेन्द्रिय से बिलकुल अलग है। क्योंकि जैनाचार्योंने जिन एकेन्द्रिय की व्याख्या की है वह स्थावर है जबकि अमीबा एकेन्द्रिय होते हए भी त्रस अर्थात गतिशील है। अमीबा जिस वस्तु का आहार करना चाहता है उसे चारों तरफ से घेर लेता है। इस हेतु वह स्यूडोपोडिया (Psuedopodia) का निर्माण करता है जो उसके शरीर से निर्मित होते है। जब वह आहार कर लेता है तो उसका स्यूडोपोडिया समाप्त हो जाता है। ओजाहार के संबंधमें यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शरीर द्वारा अर्थात् त्वचा की सहायता से होता है। जीव विज्ञान में कुछ ऐसे भी जीवों का उल्लेख किया गया है जो दूसरे जीवों के शरीर में उत्पन्न होते हैं, वहीं निवास करते हैं, वहीं संतानोत्पति करते हैं, जीवन की संपूर्ण क्रियाओं का सम्पादन करते हैं और मृत्यु को भी प्राप्त करते है। उन्हें परजीवी (Parasites) कहा जाता है। ये सभी परजीवी ओजाहारी होते हैं। मलेरिया, फाइलेरिया जैसे रोगों का कारण ये परजीवी ही हैं। ये मच्छर मनुष्य, पशु के शरीर में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हैं। प्रक्रिया इस प्रकार चलती है मच्छर (मादा) जब मनुष्य को काटती है तब उसके शरीर में पल रहा परजीवी मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह मनुष्य के शरीर में पहले यकृत (Liver) में पलता है तत्पश्चात् वहाँ से लाल रक्त में चला आता है। यहाँ यह लाल रक्त कणों को अपना आहार बनाता है। अब जब मच्छर पुन: प्रभावित व्यक्ति को काटता है (खून चूसता है) तो वह परजीवी मच्छर के शरीर में चला आता है और इस तरह से यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। चूंकि ये परजीवी अपने उत्पत्तिस्थान में स्थित पुद्गल (लहू के कण) का ही आहार करते हैं और यह ओजाहार के रूप में ही लिया जा सकता है और यही कारण है कि मलेरिया आदि जैसे रोगों को फैलानेवाले परजीवी ओजाहारी कहे गए हैं। वनस्पति को भी एकेन्द्रिय और स्थावर जीव माना गया है। ये भी 'ओजाहारी ही होते हैं। आहार की इस प्रक्रिया में वनस्पति या पौधे अपनी पत्तियों, शाखाओं, शरीर के समस्त हरे भाग (पर्णशाद) द्वारा वायुमंडल से कार्बनडायइक्साइड गैस को सोखते हैं। फिर वे शोषित पदार्थ जड़ों से आए भोजन के जलीय भाग में धुल जाते हैं। तत्पश्चात् प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया द्वारा इसमें रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिससे शक्कर बनता है। इसी शक्कर का कुछ ममता यदि ज्ञान पूर्ण हो तो वह सांसारिकों के लिए उत्तम है। २८३ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग स्टार्च, कुछ कार्बोहाइड्रेट, कुछ प्रोटीन आदि में बदल जाता है। मेंढक, छिपकली आदि कुछ ऐसे जन्तु है जो अपने शरीर का तापक्रम बाह्य तापक्रम के घट-बढ़ के अनुसार बदल नहीं पाते हैं। विशेषकर मेंढक तो ताप के मामले में अत्यंत संवेदनशील प्राणी है। जीव-वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके शरीर का तापक्रम बाह्य तापक्रम के समान हो जाता है अर्थात् अगर वातावरण का तापक्रम 00 हो जाए तो इसके शरीर का तापक्रम भी 0°c हो जाएगा तात्पर्य यह है कि इसका शरीर बर्फ का गोला बन सकता है बर्फ 0.c सेंटीग्रेड पर बनता है) और ऐसी स्थिति में उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसी प्रकार जब बाह्य वातावरण का तापक्रम अधिक होता है तब उसके शरीर का भी तापक्रम अधिक हो जाता है और ऐसी स्थिति में भी उसकी मृत्यु हो जाएगी। क्योंकि अधिक तापक्रम हो जाने पर उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग जल सकते हैं। अत: इन दोनों ही स्थिति से बचने के लिए मेंढक शीत और ग्रीष्म निष्क्रियता (Cold and Summer Hibernation) की स्थिति में आ जाता है। निष्क्रियता की इन दोनों ही स्थिति में मेंढक अपने शरीर को जमीन के नीचे छिपा लेता है और शांत होकर पड़ा रहता है। इस स्थिति में वह बाह्य वातावरण से भोजन नहीं ले पाता है। लेकिन जीवन रक्षण के लिए उसे आहार की आवश्यकता होती अवश्य है, इसकी पूर्ति यकृत में संग्रहीत वसा तत्त्व करता है। यह वसा तत्व धीरे-धीरे धुलता जाता है और मेंढक के शरीर रक्षण हेतु आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता रहता है। अत: यह प्रक्रिया भी ओजाहार ग्रहण करने का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। २. रोमाहार - जो आहार त्वचा या रोमकूप द्वारा ग्रहण किया जाता है उसे रोमाहार कहा जाता है। इसे लोमाहार भी कहा जाता है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में कहा गया है कि शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद जो प्राणी बाहर की त्वचा या रोम छिद्रों द्वारा आहार ग्रहण करते हैं, उनका वह आहार लोमाहार है। त्वचा द्वारा जब भी आहार किया जाएगा तो आहार का स्पर्श अवश्य होगा क्योंकि त्वचा स्पर्शेन्द्रिय है और स्पर्श की अनुभूति (यथा चिकना, रुक्षादि) करना इसका स्वभाव है। अत: रोमाहार के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि त्वचा या रोमों द्वारा स्पर्शपूर्वक लिया जानेवाला आहार रोमाहार है। जीव वैज्ञानिकों की यह धारणा है कि बहुत से छोटे - बड़े जीव रोमाहार प्रक्रिया द्वारा ही आहार लेते हैं। मनुष्य, पशु श्वास-प्रश्वास के रूप में गैसों का जो आदान प्रदान करते हैं वह वस्तुत: रोमाहार का ही एक रूप है। छोटे-छोटे जीव जो त्वचा की सहायता से ही अपने आहार को सोख कर ग्रहण करते हैं वे भी रोमाहारी ही हैं। श्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त भी मनुष्य, पशु निरंतर वायुमंडल से वायु का शोषण करते रहते हैं और उसकी इस प्रक्रिया में उसके असंख्य रोम कूप सहायक होते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि मनुष्य अपनी त्वचा को जल तथा अन्य कई विधियों से स्वच्छ रखने का प्रयास करता है। इन सबका मुख्य प्रयोजन बन्द रोमकूपों का खोलना है। पशु भी नदी आदि मे तैरकर स्वयं अपने शरीर को साफ रखते है तथा उन्हें पालने वाले व्यक्ति भी उनकी सफाई का ध्यान रखते हैं। इन्हें साफ रखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इन्हीं छिद्रो द्वारा शरीर के अंदर की गर्मी तथा अन्य २८४ अनशन महान तप हैं। यह तप केवल अन्न जल के त्याग में ही समाप्त नहीं होता। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृत पदार्थ बाहर निकलते हैं तथा बाहर की शुद्ध वायु भी शरीर के अंदर जाती है। इन प्रक्रियाओं से व्यक्ति या पशु स्वस्थ तथा प्रसन्न रहता है। यद्यपि यह प्रक्रिया उस रूप में आहार ग्रहण करने के समान नदी है जिस रूप में आहार ग्रहण करना समझा जाता है। लेकिन फिर भी इसे आहार का एक रूप तो माना ही जा सकता है। शीत, ग्रीष्म निष्क्रियता के समय मेंढक भी रोमाहार प्रक्रिया द्वारा ही आहार ग्रहण करता है। क्योंकि इस परिस्थिति में मेंढक त्वचा के द्वारा ही श्वसनादि की क्रिया संपन्न करता है। जैन ग्रंथों में यह स्पष्ट रुप से लिखा है कि रोमाहार त्वचा द्वारा होता है। वनस्पति भी रोमाहारी होते है। पौधों कि जडें रोमों की सहायता से भूमि से खनिज पदार्थों से युक्त जलीय घोल सोखते है और यही घोल पौधों की पत्तियों शाखाओं द्वारा शोषित गैसों से मिलते है। इन दोनों के परस्पर मिलने से ग्लूकोज, स्टार्च प्रोटीन जैसे जटिल तत्वों का निर्माण होता है और ये तत्त्व ही पौधों के शरीर (पत्तियाँ, शाखा तना आदि भागों) के निर्माण में सहायक होते है। ३. प्रक्षेपाहार-ग्रास या कौर रुप में जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे प्रक्षेपाहार कहा जाता है। इसे कवलाहारके भी नाम से जाना जाता है। मनुष्य, पशु अपना आहार कवलाहार रुप में ही ग्रहण करते है। वैज्ञानिकों की भी मान्यता कवलाहार के संबंध में जैनाचार्यों के समान ही है। आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया कि इस व्याख्या के पश्चात हमारे समक्ष यह प्रश्न उठ खडा होता है कि कौन से जीव को ओजाहारी माना जाए. किसे रोमाहारी या प्रक्षेपाहारी माना जाए। क्योंकि उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि कोई जीव अगर ओजाहारी है तो वह रोमाहार प्रक्रिया द्वारा भी आहार ग्रहण कर रहा है। कोई एक अवस्था में मात्र ओज को ही आहार रुप में ले रहा है तो किसी अन्य अवस्था में वह रोमाहारी भी है और कभी-कभी प्रक्षेपाहारी भी! कहने का अर्थ यह है कि किस प्रकार हम यह स्पष्ट रुप से जान ले कि वह जीव मात्र ओजाहारी है, या रोमाहारी है या कवलाहारी है या तीनों में से किसी दो विधि से या तीनों ही विधि से आहार लेता है। इस समस्या का समाधान करते हुए सूत्तकृतांग नियुक्ति में लिखा गया है कि "सभी अपर्याप्त जीव ओजाहारी है। इसके अतिरिक्त जब तक औदारिक रुप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, तब तक तैजस और कार्मण शरीर तथा मिश्र शरीरों द्वारा भी 'ओज' को ही आहार रुप में ग्रहण किया जाता है। इसके साथ-साथ औदारिक शरीर की उत्पत्ति होने के बाद भी जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा, मन की उत्पत्ति नहीं होती तब तक प्राणी ओजाहार विधि से ही आहार लेते है। अर्थात् पर्याप्त अवस्था पाने के पूर्व जीव ओजाहारी ही होता है। अपर्याप्त जीव जब पूर्ण विकसीत हो जाते है तो अपना आहार लोमाहार प्रक्रिया द्वारा भी लेते है। क्योंकि विकसित जीव की इन्द्रियाँ विकास की अवस्था को प्राप्त कर लेती है और अपनी कोई भी वस्तु हो तो गर्व होना सहज ही हैं किंतु यह सर्व नाश का कारण भी है। २८५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वचादिके माध्यम से भी आहार ग्रहण करने लगती है। यही कारण है कि गर्भ में पल रहा शिशु शीतलता आदि संवेदनाओं को ग्रहण करता है और उसीके अनुरुप अपने मनोभावों को भी व्यक्त करता है। अर्थात अगर यह शीतलता उसके अनुरुप है तो वह प्रसन्न होता है और विपरीत होने पर अप्रसन्न होता है। अर्थात् वह लोमाहार क्रिया द्वारा आहार ग्रहण करता है। लेकिन हम यह भी जानते है कि यही विकसित शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो अपना आहार कवलाहार के रुप में भी लेता है। अर्थात गर्भस्थ शिशु जब अपर्याप्त अवस्था में रहता है तो ओजाहारी होता है विकास की अवस्था में आ जाने के बाद ओजाहारी और लोमाहारी दोनों प्रक्रियाओं से आहार लेता है। जब वह गर्भ से बाहर निकल आता है उस समय वह लोमाहारी एवं कवलाहारी दोनों ही विधि से आहार लेता है। तात्पर्य यह है कि पशु या मानव तीनों ही विधियों से आहार लेते है। वनस्पति ओजाहार एवं लोमाहार के रुप में जीवन पर्यंत आहार लेते है । क्योंकि वनस्पति जड से जलीय घोल को सोखते है तथा पत्तियों, तनाओं आदि के द्वारा गैसो का शोषण करते है ये क्रमश: लोमाहार एवं ओजाहार विधि द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार होता है । अत: यह स्पष्ट हो गया कि अपर्याप्त जीव ओजाहारी है । विकसीत जीव ओजाहारी, लोमाहारी तथा लोमाहारी कवलाहारी है। वनस्पति लोमाहारी एवं ओजाहारी है । जैन दर्शन में प्रतिपादित नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चतुर्गतियों का निर्धारण किया गया है । इनमें से देवता और नारकी कवलाहारी नहीं है तथा तिर्यंच और मनुष्य कवलाहारी हैं बिना कवलाहार लिए इनका शरीर नहीं टिक सकता है क्योंकि ये औदारिक शरीरी है और औदारिक शरीर को टिकाए रखने के लिए कवलाहार आवश्यक है । पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी कवलाहारी नहीं हो सकते क्योंकि इन्हें मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श की होती है और यह स्पर्श त्वचा के द्वारा ही होता है । त्वचा के द्वारा लोमाहार ही संभव है । अत: ये या तो ओजाहारी हो सकते है या लोमाहारी या दोनों। वनस्पति के बारे में तो यह पूर्व में ही बता दिया गया है कि ये ओजाहारी एवं लोमाहारी साथ साथ है । जैसा कि विज्ञान का मत है कि जीव जो भी आहार लेता है उसका पाचन होता है और इस क्रिया के फलस्वरुप जो पाचन रस बनते है उन सबका शोषण त्वचा द्वारा ही होता है । अत: इस रुप में तो प्रत्येक जीव लोमाहारी ही है । प्रत्येक जीव के लिए श्वसन क्रिया एक आवश्यक प्रक्रिया है और यह निरंतर चलता रहता है तथा यह वायु के रुप में हमारे चारों तरफ है उपस्थित है । इस वायु का ग्रहण त्वचा के तथा नासिका द्वारा होता है । त्वचा के द्वारा होने पर यह लोमाहार है । लेकिन जीव की उत्पति-स्थान के चारों तरफ जो वायु फैली है वह 'ओज' हुई और जीव निरंतर इस ओज का उपयोग करता है । अत: वह ओजाहारी भी हुआ । कहने का अर्थ यह हुआ कि सामान्य रुप से सभी जीव ओजाहारी एवं लोमाहारी है । कुछ भिन्नता है तो वह कवलाहार को लेकर लेकिन इसे भी स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि औदारिक शरीर धारी जीव अपना आहार कवलाहार के रुप में लेते है और इस कोटिमें तिथंच और मनुष्य आ जाते है। २८६ वेदना या दु:ख का पान करने वाले अन्य को वेदना या दुःख दे ही नहीं सकते। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ : १. भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे । सूत्रकृतांग निर्युक्ति, १७० लोमाहारा पक्खेवाहारा ओयाहारा पज्ञापना पद २८/८, ९ सरीरेणोयाहारो तयाइ फासेण लोम आहारो 2. 3. 4. 5. पक्खेवाहारो पुण कवलिओ होइ नायव्वो । कर्मग्रंथ (भाग-४), गा. टी. ७ Amoeba captures and engulfs its prey by means of the Psuedopodia. Psuedopodia are formed at the points, Where the food comes in contact with the surface of the body-Modern Text Book of zoology : Invertebrate Kotpal, P.65 Malarial Parasites are sucked up by female anopheles Mosquito and are later on injected into the human blood by the female anopheles. Invertebrate zoology, Dr T.C. Majupuria PP. 126, 128-134 Photosynthesis consists in the building up of simple carbohydrates such as sugars in the green leaf of the chloroplasts in the presence of sunlight (as a source of energy) from carbon dioxide and water absorbed from the air and the soil respectively. Botany for degree students, A. C. Dutta, P.312. Frog is cold blooded or poikilothermal or ectothermal animal as its body temperature does not remain constant but fluctuates with that of environment. It digs down into the damp earth at the bottom of ponds to pass the adverse conditions of winter and rest. This going of under ground is known as winter sleep or hibernation. During hibernation period lung breathing is stopped, while skin breathing continues. Moreover it does not feed but to keep up its vital activites it consumes the reserve food stored in the form of fat bodies. Similarly during the summer it once again goes underground and this is called summer sleep -chordate zoology and animal Physiology, Jordan and verma, P. 235 ६ सरीरेणोयाहारा तयाय फासेण लोमआहारो पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्यो । सूत्रकृतांग निर्युक्ति. १७१ ७. सूत्रकृतांग नियुक्ति, १७२, एवं भगवती सूत्र, प्रथम भाग (बेचरदासजी), पृ. ९४ " ८. ओज आहारा सव्वे जीवा आहारणा अपझत्ता आगम उद्धृत सूत्रकृतांग, हिश्रु. मुनिश्री हेमचंद्रजी, पृ. २१८ ९. तेएण कम्मएणं आहरेइ अनंतरं जीवे तेणं परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निप्पत्ति । उद्धृत वही. पृ. २१८ १० सूत्रकृतांग, हि श्रु हेमचंद्रजी महाराज, पृ. २१९, श्री सूत्रकृतांगम् हि श्रु पं. अम्बिकादत्त ओम्ता, पृ. २०१ सद्ज्ञान के बिना सिद्धि नहीं । २८७ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा और विश्व शान्ति क्षमा: युग की मांग ले. सुन्दरलाल बी. मल्हारी आज व्यक्ति व्यक्ति में तनाव है, समाज समाज में उंचनीच की भावनाएं है, धर्म धर्म में भेदभाव है, वैमनस्य है राष्ट्र-राष्ट्र में स्पर्धा है, परस्पर द्वेष है, प्रतिशोध की भावना है। चारों ओर अशान्ति है, प्रतिहिंसा की भावना, है, विनाशकारी शस्त्रों की होड लगी हुई है। अधिकांश देश आन्तरिक संघर्षों से परेशान है। आये दिन वहाँ कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी जाति के नाम पर तो कभी किसी पार्टी के नाम पर लडाइयाँ छिड जाती है. लोग मरने मारने पर उतारु हो जाते है रक्तपात हो जाता है देश की विशाल सम्पति देखते ही देखते नष्ट कर दी जाती है। हजारों लाखों लोग बेघर बेसहारा हो जाते है और दयनीय जीवन बिताने के लिये विवश हो जाते है। पिछले दिनों में श्रीलंका में क्या हुआ? आजकल पाकिस्तान में क्या हो रहा है कुवेत में क्या हो रहा है? ऐसा और भी कई देशों में हो रहा है। भारत भी अपवाद नहीं है। आसाम आज भी अशान्त है, पंजाब का तनाव भी समाप्त नहीं हुआ है। सच पूछा जाय तो आज सम्पूर्ण विश्व ही तनाव ग्रस्त है, बुरी तरह से अशान्त है, हिंसा से परेशान है। ऐसी अवस्था में यदि आज विश्व को सम्पूर्ण मानवता को सबसे ज्यादा किसी बात की आवश्यकता है तो वह है क्षमाशीलता की, हृदय की विशालता की, परस्पर सद्भावना की। जिस प्रकार क्रोध से क्रोध नही मिट सकता, घृणा से घृणा नही मिट सकती, द्वेष से द्वेष नही मिट सकता। ठिक इसी प्रकार युद्ध से युद्ध नही मिटाये जा सकते हिंसा से हिंसा नही मिटायी जा सकती। क्षमा है अन्तस की उदारता क्षमा का अर्थ है माफ करना, दूसरों के द्वारा पहुँचाये गये कष्टों को सहन करना, उनपर क्रोध न करना, क्रोध आ भी जाए तो उसें संयमित करना इतना ही नहीं अपितु कष्ट देने वाले के अपराध को बिसराकर उसके प्रति मंगल कामना करना व उसके हित के लिये प्रभु से प्रार्थना करना सही अर्थों में क्षमा है। क्षमा का अर्थ है अन्त: करण की विशालता, मन की निर्मलता आचरण की शुद्धता क्षमा का अर्थ है करुणा सहनशीलता, अहिंसा, विनम्रता, सरलता पवित्रता असीम उदारता। जो समस्त प्राणियों में एकही आत्मा के दर्शन कराता है, दूसरों के दुख देख कर जिसकी आत्मा पिघल जाती है वही सच्चा क्षमादान है। महात्मा गांधी ने नाथूराम गोडसे की पिस्तौल की गोलियाँ हँसते-हँसते अपने सीने पर झेंली और उसे क्षमा करने के बाद ही अपने प्राण छोडे। इसे कहते है आदर्श क्षमा। आज ऐसी ही क्षमाशीलता की मानवता के कल्याण के लिये विश्व शान्ति के लिये आवश्यकता है। जैन दर्शन में क्षमा - आज से ढाई हजार वर्ष पहले भगवान महावीर ने मानवता को क्षमा का सन्देश दिया। उन्होंने बताया की जिस प्रकार ठंडा लोहा गरम लोहे को देखते ही देखते काट डालता है ठीक इसी प्रकार प्राणी उफनते हुए क्रोध को क्षमा के शीतल जल से क्षण भर में शान्त कर देता है। महावीर स्वयम क्षमा की मूर्ति थे। उन्होने स्वयम अनेक मरणान्तक पीडा पहुंचाने परिसह शान्त भाव से सहे चंडकौशिक नाम के भयानक विषधर ने उनके पैरो को दंश मार मार कर छलनी बना डाला फिर भी उन्होंने वह सब शान्त भाव से सहते हुए उसे जीवन का सही मार्ग सिखाया। यह सोचकर कि बैल महावीर ने ही चुराये है एक ग्वाले ने तो आवेश २८८ जगत में जिस प्रकार बालक निर्दोष होता है, वैसे संत-साधु भी निर्मल होते हैं। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आकर उनके कानों में खीले ठोक दिये फिर भी वे अपने ध्यान में लिन रहे। क्रोध करना तो दुर रहा, उन्होने उस वाले के लिये कल्याण कामना की। संगम नामक देव ने तो महावीर को ६ महीने तक भारी कष्ट पहुँचाये। उनपर उसने हाथी छोडे, सांप और बिच्छू से उन्हें बार बार कटवाया, उनकी तपस्या भंग करने के लिये कई अप्सराएं भेजी फिर भी वे तिलमात्र भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अन्ते पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए संगत से करुणापूर्ण स्वरों में कहा- "संगम, तुमने मुझे कष्ट पहुंचाकर मेरी आत्मा को तो अधिक उज्ज्वल बना दिया है परन्तु मुझे उन पापों के कारण वेदना हो रही है जो तुमने मुझे कष्ट दे देकर अर्जित कर डाले है। प्रभु तेरा कल्याण करे।" गोशालक स्वयंम महावीर का ही शिष्य था परन्तु अपनी ही हवंवारिता से वह उनका कट्टर विरोधी बन गया। अपनी सिद्धियों के बलपर उसने महावीर को अपने प्रचंड क्रोध की ज्वाला मे भस्म करने का पूरा पूरा प्रयत्न किया फिर भी वे एकदम शान्त रहे। इसी प्रकार भगवान महावीर ने सैकड़ों परिसह सहन कर उन्होंने न केवल अपने विरोधियों के हृदय जीते और समाज में सद्भावना सौजन्यशीलता तथा उदारता की भावनाएं फैलायी अपितु उन्होंने अपनी आत्मा को भी अधिक निरवारा। क्षमा व्यक्ति और समाज दोनों के लिये हितकर यह सच है कि क्षमा के अमृत से अपराधी का दृष्य बदल जाता है, उसका अहंकार चूर चूर हो जाता है ऊपर ऊपर से दिखायी देने वाली जीत हार में बदल जाती है। वह पश्चाताप की आग मे जलकर अपने पापों का प्रशासन करने लग जाता है और एक सुन्दर जीवन का प्रारम्भ करता है। इससे पूरे समाज मे एक नयी जागृति एक नयी प्रेरणा जन्म लेती है, जिससे पूरा समाज लाभन्वित होता है। महात्मा गांधी ने अपनी क्षमा से अंग्रेजो के हृदय बदल डाले। उन्हें अन्तमें गांधीजी के सामने झुकना पड़ा और भारत को आजादी देनी पडी। सचमुच भारत की आजादी क्षमा की एक अभूतपूर्व विजय है। पर क्षमा से केवल समाज में सहिष्णुता का प्रसार होता है ऐसा नहीं है क्षमा से क्षमा प्रदान करने वाले का हृदय भी निर्मल होता है उसकी आत्मा भी विकास करती है, उसके विचारों में उदारता और उसके आचरण में सौम्यता आती है। इस प्रकार क्षमा निर्मल जल व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी होता है। यह हमारे आन्तरिक और बाहरी दोनों विश्वों को सुमधुकर और प्रसादपूर्ण बना देती है। इसीलिये तो पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कहा है "बिना क्षमा का जीवन रेगिस्तान क्षमा मानवता का श्रृंगार है क्षमा मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ आभूषण है। यह मानवता की अमूल्य निधि है। इसीलिये समस्त धर्मो ने इसे अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया है। श्रीकृष्ण ने तो क्षमा को परमेश्वर का रुप ही कहा है। उन्होंने जरा नामके उस पारधी को भी क्षमा कर दिया जिसके बाण से उनके शरीर का अन्त हो गया था। हजरत महम्मद ने कहा है-जो गुस्सा पी जाते है और लोगों को माफ करते है उन्हें अल्लाह प्यार करता है। उन्होंने उस स्त्री को माफ कर उसके लिये कल्याण कामना की, जो रोजाना प्रात: उनपर कूडा कचरा डाल देती थी। इसा मसीह ने कहा है "तुम अपने भाईयों को क्षमा करो तो ईश्वर तुम्हे भी क्षमा कर देगा। उन्होंने अपने हत्यारों को, जिन्होंने उन्हें क्रूस पर लटकाकर मूत्युदण्ड दिया था यह कह कर क्षमा किया"- हे ईश्वर तू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये यह नहीं जानते कि ये क्या कर रहे है।" महात्मा बुद्ध पाप का उदयकाल होता हैं तब पुण्य भी स्तंभित हो जाता है। पुण्य के उदयकाल में पाप स्तंभित हो जाता है। २८९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भी अपने शिष्यों को क्षमा का उपदेश दिया। उन्होंने उन सभी को नया जीवन दिया, जो उन्हे कष्ट पहुँचाते थे। उनका अपमान करते थे। इस प्रकार हम देखते है कि विश्व के सभी महापुरुषों ने क्षमा का महत्व बताया है और सभी धर्मो ने क्षमा को धर्म का द्वार बताया है। बिना क्षमा धर्म में प्रवेश नहीं किया जा सकता। जहाँ क्षमा वहाँ शान्ति आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है युद्ध के भयानक बादल मंडरा रहे है। प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज, प्रत्येक देश बेचैन है। दूसरे महायुद्ध का विकराल रुप मानव देख चुका है। उसे यह भली भांति ज्ञात है कि यदि तीसरा महायुद्ध छिड़ गया तो उसकी विनाशकारी लपटों से कोई भी प्राणी जिन्दा न बचेगा। यहाँ तक कि वनस्पती भी नहीं। सब कुछ मिट जाएगा, शुन्य हो यु. एन. ओ. इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि युद्ध बीज रुप में पहले मनुष्य के मन में जन्म लेता है फिर उसी का स्फोट महायुद्ध के रुपमें होता है। प्रश्न है कि मनुष्य के मन में युद्ध के बीज जन्म कैसे लेते है? हमारे छोटे छोटे तनाव, द्वेष के छोटे छोटे कण, अहंकार के क्रोध के छोटे छोटे स्फलिंग ही हमारे मन को दूषित बना देते है और यह दूषित मन युद्ध के किटाणूओं को जन्म देता है। अत: यह जरुरी है कि हमारे मन की भूमि स्वच्छ रहे, पर तनाव, द्वेष, अहंकार, क्रोध से दूषित न हो इसके लिये क्षमा जल की आवश्यकता है। क्षमाजल बडा शक्ति शाली है वह हमारे मन के सारे दूषण को पलभर में साफ कर सकता है। आग कितनी ही प्रचंड हो पानी से शान्त हो ही जाती है। अंधेरा कितना ही गहरा क्यों न हो सूर्य के सामने नहीं टिक सकता। क्षमा के सामने अहंकार, क्रोध, द्वेष, तनाव सभी भाग खड़े होते है। जहाँ क्षमा है वहाँ शान्ति का अपने आप आगमन होता है। क्षमा ज्ञान का सार है भगवान महावीर ने कहा है क्षमा रुपी वृक्ष पर ही ज्ञान के फल लगते है। क्षमा के बिना ज्ञान सम्भव नहीं। ज्ञान की उपलब्धि के लिये चाहिये नम्रता, विनयशीलता, सरलता और इन सभी का क्षमा के साथ ही आगमन होता है। अहंकारी को ज्ञान प्राप्त नही हो सकता। अहंकार का भाई है क्रोध/क्रोध और अहंकार मिलकर जीवन को दुषित तो करते ही है पर साथ ही वे ज्ञान के मार्ग को भी अवरुद्ध कर देते है। व्यक्ति ने धार्मिक शास्त्र रट लिये, धर्म पर बडे बडे प्रभाव शाली भाषण दे डाले, बडे बडे ग्रन्थ लिख डाले, फिर भी उसमे यदि क्षमा शीलता नहीं तो वह ज्ञान अर्थहीन है। इसी प्रकार एक साधक ने यदि लम्बे लम्बे उपवास किये, अनेक कठिन व्रत पच्छखाण किये, फिर भी यदि उसने क्षमा नही धारण की तो उसका सारा तप दो कौडी का है ऐसा महावीर ने साफ साफ कहा है। अन्य महापुरुषों ने भी क्षमा को बहुत उँचा स्थान दिया है। अत: ज्ञान के आराधकों के लिये क्षमा धारण करना अनिवार्य है। . क्षमा का आगमन कैसे हो? अब प्रश्न यह उठता है की, क्षमा का आगमन कैसे हो? क्षमा कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे हम बाजार में खरीद सकते हों। क्षमा लायी नही जा सकती। इसका तो आगमन तब होता है जब हम सृष्टि के प्रत्येक प्राणि को गहराई से प्रेम करते है, उसके अन्तर में हम अपनी ही आत्मा का दर्शन करते है। जब हम अपने पराये की सारी दीवारें गिरा देते है। उँच-नीच, जाति-पाति, पंथ-सम्प्रदाय, देश-विदेश के समस्त भेद भाव समाप्त कर देते है और २९० संपूर्ण सुख में रहने वाला मानव जब दुःख के दावानल के बीच फंस जाता है तब वह दुःख का मुकाबला कर नहीं सकता। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक प्राणी का चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या देश का ही सम्मान करते है, उसे अपने जैसा ही समझते है, उनके सुख-दुख को अपना सुख दुख समझते है। उनका हृदय और हमारा हृदय एक हो जाता है सारी दूरियाँ तिरोहित हो जाती है। क्षमा के आगमन के साथ ही हमारा पूरा जीवन ही धन्य हो उठता है मधुर हो उठता है। तब "जीओ और जीने दो' हमारा जीवन मंत्र हो जाता है हम परस्पर सहयोग देते है और एक दूसरे के लिये कल्याण कामना करते है। क्षमा एक राम बाण औषधी ज्यादा आवश्यकता है क्योंकि संस्कृतियाँ है और आये दिन कोई भी प्रान्त इनसे अछूता 1 आज हमारे देश में राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता की सबसे हमारे देशमें अनेक धर्म और सम्प्रदाय है, जातियाँ है भाषाएँ है, इन्हे लेकर परस्पर कलह, संघर्ष, खुन खराबी होती रहती है। नही है। कभी कभी तो ये झगड़े इतने उग्र रुप धारण कर लेते है की उन्हें मिटाना बडा मुश्किल हो जाता है यदि परस्पर संघर्ष का यही दौर चलता रहेगा तो देश को भविष्य में एक सार्व भीम सत्ता के रूप में टिके रहना मुश्किल हो जाएगा। अतः देश की एकता के लिये और व उज्ज्वल भविष्य के लिये भारत के प्रत्येक नागरिक का यह सर्व प्रथम कर्तव्य है कि वह अधिक सहनशील बने, संयम से काम ले सहिष्णुता पूर्ण व्यवहार करें और इसके लिये एक ही रामबाण दवा है "क्षमाशीलता" यही क्षमा भावना हमें एक दूसरे से जोड़ देगी हमारे हृदयों को परस्पर एक कर देगी और हम विश्वास के साथ भगवान महावीर की वाणीमें कह सकेगें खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्सुमे । मिती मे सव्वे भूएतु बेर मज्झं न केणई ॥ (मैं सभी से क्षमा याचना करता हूँ सभी मुझे क्षमा करें। मेरी सभी प्राणियों से मित्रता है, किसी से भी मेरा वैर नही। • ज्ञान विज्ञान और अतुल शक्ति का स्वामी कहलाने वाला रावण जिस समय शुभ कर्मों के उदयकाल में था, उस समय कैलाश जैसे महान् गिरीराज को उठा लिया था इन्द्र के सम्पूर्ण शस्त्रों को भी नाकामयाब कर दिया, इन्द्र को रावण के चरणों में मस्तक झुकाना पडा वायु, अग्नि, वरुण और अन्यान्य ग्रह भी रावण के दासानुदास बन गये। ध्यान की मस्ती जगत के सर्वश्रेष्ठ सुख से, सौदर्य से और मजा मौज से विशिष्ठ व अलौकिक होती है। २९१ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "निवृत्तिवाद- आधुनिक संदर्भ में" डॉ. जया पाठक मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी होने के साथ ही आनन्दकामी भी है, क्योंकि प्रतिकूलता की स्थिति उसकी सहज चेतना को स्वीकार्य नहीं। प्रतिकूलता किसी भी स्तर पर आनंदानुभुति में बाधक हो सकती हैं। अति भोगवाद से सर्वस्व त्याग तक की यात्रा एवं भारतीय संस्कृति के दोनों पक्ष-निवृत्ति एवं प्रवृत्ति आनन्द तक पहुँचने के ही विभिन्न पथ हैं। जैसा कि हम देखते हैं वैदिक ऋषि की कल्पनाएँ प्राकृतिक शक्तियों पर विजय तथा भोग की प्राप्य उच्चतम सामग्री तक ही सीमित नहीं थी। मात्र तात्कालिक सुख उसके आनन्द को स्थाई रुप नहीं दे सके थे, उसकी बृहत्तर जिज्ञासा सुखी जीने के साथ-साथ सार्थक जीने की प्रेरणा भी देती थी। यही कारण था यज्ञों द्वारा प्राप्त भौतिक सुखों पर प्रश्न चिन्ह लगाने का। यहीं से आनंदकामी ऋषि की विराट कल्पनाएँ आनन्द के नवीन पक्ष के अनुसंधान में लग जाती हैं। फलस्वरुप "तेन त्यक्तेन भुजीघा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् अर्थात् तू त्याग भाव से अपना पालन कर, किसी के धन की इच्छा न कर" की त्यागमयी प्रेरणा निवृत्ति को जीवन का अनिवार्य तत्त्व घोषित करती है। नचिकेता द्वारा मृत्यु देवता के सम्मुख भौतिक सुखों की उपेक्षा तथा मृत्यु रहस्य जानने की जिज्ञासा भी भोग परक दृष्टिकोण पर आत्मपरक दृष्टि की विजय ही है। जो दु:खमयता के बीच से आनन्द का मार्ग प्रशस्त करती है। अर्थ की उपासना स्वार्थमयी प्रवृति की जननी है। जो समाज के परस्पर सौख्य विकास में बाधक है। इसी स्वार्थ परता से उपर उठकर देखा जाय तो 'स्यादवाद' की महनीयता भी स्पष्ट हो जाती है। सामाजिक शांति का प्रश्न पुरातन होने के साथ ही चिर नवीन भी है जो समाज के प्रति व्यक्ति की निष्ठा तथा परस्पर सौहार्द भाव पर आधारित है। व्यक्ति के अहिंसा, सत्य अस्तेय अपरिग्रह, दया, करुणा, क्षमा, औदार्य आदि मानवीय गुण, सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र के विकार की पृष्ठ भूमि है। जिस पर नचिकेता की जिज्ञासा, मैत्रयों द्वारा प्रतिपादित धन की नि:सारता गौतम तथा महावीर की त्याग तपस्या, शंकराचार्य की योग साधना, कबीर व विवेकानन्द के उद्घोषों के स्वर आनन्द की किरणें प्रस्त्रवित कर रहे वर्तमान में निवृत्ति या त्याग के स्वरुप को लेकर, विवाद भी हो सकते हैं। आज कितना छोड़ा हैं? उसे प्राय: अधिक महत्त्व दिया जाता है? उस भौतिक त्याग के पश्चात् प्राप्य आध्यात्मिक उपलब्धियों से समाज को कितना प्राप्त हुआ ? उसकी गणना प्राय नहीं हो पाती। यही कारण है कि साधक प्राय: 'त्याग' को ही लक्ष्य समझकर साधना से विरत हो जाते हैं। और यह प्रश्न रह ही जाता है कि अमर जीवन मूल्यों की आत्मगत अनुभुति पाकर उन शाश्वत मूल्यों से समाज को परिचित कराने वाले 'साधक की अत्यन्त आवश्यकता है? या मात्र एन्द्रिय अनुभवो द्वारा खोखली मान्यताओं प्रतिस्थापित करने वाले तथाकथित साधकों का कहना न होगा कि भारतीय चिंतको ने इन्द्रिय महत्ता को नहीं स्वीकारा। बुद्धि से भी सूक्ष्म आत्मा को महत्त्व देने वाले इन चिंतकों ने कठिन आत्म निग्रह द्वारा यह सिद्ध किया कि विषयों के अधिन बुद्धि नहीं, बुद्धि के अधिन विषय हैं तथा समाज में रहकर भी उससे अनासक्त रहा जा सकता हैं। विदेहराज जनक की व्यवस्था, गौतम एवं महावीर का जनपदों से सम्पर्क, दयानंद व विवेकानन्द २९२ रोना संसारी को होता है त्यागी को नहीं। त्यागी तो जटिल परिस्थितियों में भी आत्मानंद भाव से सुशोमित रहता हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की धार्मिक क्रांतियां तथा गांधी की राजनैतिक गतिविधियां, उस साधना के विभिन्न रुप है जो साधक के साथ-साथ समाज को भी सही दिशा में अग्रसर करते हैं। यहाँ साधक के भटकने का तो प्रश्न ही नहीं है क्यों कि वे पूर्णता को प्राप्त कर जीवन की ओर लौटे हैं। उक्त साधनामय जीवन पद्धति का मूल वह निवृत्ति हैं जो तपस्या द्वारा शुद्ध तथा ज्ञान द्वारा मुखरित होता हैं। इसे उत्तम प्रकार से समझाते हुएं महावीर स्वामी ने एक स्थान पर कहा हैं - "जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठि कुव्वइ। साहीणे चयइ भोये, से हु चाइ तिवुचई।" अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी जो मनुष्य सुन्दर तथा प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी उनकी ओर पीठ करता हैं अर्थात् उन भोगों में अलिप्त रहता है; इतना ही नहीं अपने अधिन होने वाले मोगों को भी जो छोड़ता है, वही सचा त्यागी है। वस्तुत: त्याग के लिए आवश्यक हैं-ज्ञान पूर्वक वस्तु प्रहाण। यह ममता के पूर्ण परित्याग तथा पूर्ण वैराग्य होने पर ही संभव है। आज समाज में चारों ओर अशांति के तांडव की जड़ में हमारी सांसारिक एषणाओं के प्रति प्रवृत्ति ही हैं। दृष्टि एवं विचारों के संकुचन से हम दूसरे के महत्त्व को स्वीकार करने जैसे मानसिक तप से विरक्त हो गये हैं। हमारी अस्मिता हमें, आत्मालोचन करने नहीं देती। जीवन के समस्त क्षेत्र हमारी महत्ता एवं बड़प्पन के प्रदर्शन - स्थल बन गये हैं। हम अपनी संपुर्ण शक्ति को राजनीति समाज विज्ञान के आविष्कारों, साहित्य के वादों यहाँ तक कि धर्म, संगीत या अन्य ललित की प्रभंजन वेगशाली प्रतिस्पर्धाओं में आँख मूंदकर झोंक रहे हैं। जिनसे दृष्टि को चौंधिया देने वाला प्रकाश तो मिल रहा है परन्तु शांति दायिनी शीतल चन्द्रिका का सर्वथा अभाव है। यही कारण है कि अतिशय भौतिक उपलब्धियों के होते हुए भी हम मानवता के आत्मिक विकास की दशा में कोसों पीछे हैं। विकास के नाम पर मानव के -हास की कथा कितनी व्यथा पूर्ण है - कहने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है अतीत के पुन: मूल्यांकन द्वारा सही दिशा बोध की। क्योंकि विकास के अनादि क्रम में हम मात्र कर्म की दृष्टि से ही नहीं, अपने दर्शन, चिंतन, आस्था आदि की दृष्टि से भी उस स्वर्णिम ,खला की कड़ी हैं जिसका एक छोर भविष्य में अलक्ष्य है। इस क्रम बद्धता के अभाव में हमारा मुल्यांकन परिचय संभव नहीं। हमें कर्म के चुनाव की शक्ति प्राप्त है अत: परंपरा के सचेतन संग्राहक होने के नाते निवृत्ति - पथ के प्रति संकुचित या कुंठित मनोवृत्ति त्याग कर विराट् दृष्टिकोण अपनाना होगा। आज की व्यापक जटिलताओं के बीच में भी समन्वय सह अस्तित्व एवं सहिष्णुता का अवमूल्यन नहीं हुआ है। क्योंकि समन्वय एवं सह अस्तित्व शारीरिक धरातल पर अहिंसा के ही दूसरे रुप हैं। तथा सहिष्णुता मानसिक धरातल पर अनेकांत के। "योग:कर्म सु कौशलम।" का उपदेश कुरुक्षेत्र के अर्जुन के लिए जितना उपयोगी था, बीसवी सदी के मानव समूह के लिए भी उतना ही प्रेरणादायी है। अत: अलौकिकता के आग्रह से मुक्त, लोक जीवन के धरातल पर प्रजातंत्र एवं मानवीय मूल्यों की उर्वर भूमि में वपित कर्मशीलता तथा विश्व बंधुता के बीज अनंत शांति को पल्लवित तथा अनंत ज्ञान और अखंडानंद के रस - सौरभ को फलित पुष्पित कर सकेंगे। दोडों का स्वयं निरीक्षण करे, निरीक्षण करने बाद उसका संशोधन कें, यह कोई छोटी बात नहीं। २९३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक तुलनात्मक अध्ययन "भारतीय दर्शन एवं जैन दर्शन" लेखक :- वैद्य मुरलीधर श्रीमाली "साधक" मत मतान्तरों का यह जनक संसार सभ्यता की स्पर्धा में धावक की भांति गतिमान होता दिखलाई दे रहा है। इसका निर्णायक चिन्ह या बिन्दु अथवा स्थान कहां है? कोई नहीं जानता। फिर भी सर्वोपरि या शक्ति के प्रदर्शन के विवाद में उलझने के लिये स्वयं को तनाव अशान्ति, आशंका, भय, क्लेश, के बन्धन में ही एक क्षणिक सुख की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है। बढ़ती हुई अनाधिकार चेष्टाएँ व भौतिक धुन्ध में आध्यात्मिक प्रज्ञा का ग्रास होता जा रहा है। इसी कारण आध्यात्मिक मार्ग दर्शन का महत्त्व घटता जा रहा है। धर्म और कर्तव्य लगातार और अधिकांश दूर होता दिखाई दे रहा है या फिर पाखण्डियों के चंगुल में जा रहा है। इस संभावित दुर्दशामें दर्शन कहीं उपहास बन कर न रह जाय? इसके मर्म को समझने के लिये अधिकांश लोगों के पास समय ही नहीं है। हिंसक प्रवृत्तियां दूषित राजनिति का यह बढ़ता हुआ ताण्डव कब तक चलेगा? कहना कठिन है। यह निश्चित है कि विनाश के कगार से पुन: लौटने के लिये प्रयास आज भी हमारा दर्शन कर रहा है, प्रेरणा दे रहा है। ऋषि-मुनियों के द्वारा प्रशस्त सुखद मार्ग के लिये आज भी पश्चिमी जगत आशा लगाये हुआ है। अपने अन्तर्मन को शान्ति एवं सन्तोष का प्रश्न देने के लिये इस और देख रहे है। परन्तु झुठे स्वाभिमान की चट्टान बाधा बनी हुई है। आज वे ही दुर्गुण पूर्वो जगत में संक्रमण होते जा रहे है। विडम्बना की मृग मरीचिका के भ्रम में भटकता हुआ मानव सन्तोष या आनन्द के छोर से अनभिज्ञ होकर मरुभूमि के शुष्क वातावरण में दूर दूर तक आशा की दृष्टि लगाये बैठा है। राग द्वेष लोभ मोह के कुहरा में विवेक रुपी नाव भटकने लगी है। इस अन्धकार में दर्शन रुपी दिपक को जो ओझल सा हो गया है, पुन: प्रकाशमान होने की क्षमता पैदा करनी होगी। भ्रमित को सही दिशा देने की क्षमता मात्र हिन्दु (भारतीय) दर्शन में ही है। चौंकिये मत, हिन्दु दर्शन किसी जाति या धर्म विशेष का नहीं है। वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करने वाला, जिसका मूल मंत्र है - सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु, निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दु:खभाग् भवेत्।। सुभाषित। ऐसा महान आदर्श रखनेवाला हिन्दु समाज संकीर्णता से ऊपर उठकर जन जन के कल्याण की भावना संजोये रखता है। अपनी इस सुसंस्कृती के कारण ही अपने देश भारत को जगद-गुरु के पद पर पहुंचाने में सक्षम रहा है। परन्तु आज इसका गुरुत्व सोया हुआ कैसे? पूर्व की संचित शक्ति आज भी विद्यमान है। इसकी अनेकों ही किरणे (वेदवेदान्तसांख्य,न्याय जैन, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शन) चारों ही दिशाओं को देदीप्यमान करने की क्षमता रखती है। आज आवश्यकता है इस बढ़ते हुओ भौतिक अन्धकार को चीरने की। हमें इस बात का गर्व है कि वर्तमान में हमारे सन्त, महात्मा, मुनितपोनिष्ट धर्माचार्य इस प्रकाश का लाभ सतत व सर्वत्र पहूंचाने का प्रयास कर रहे है। काल की कराल गति समझें कि राग द्वेष के वशीभूत होकर हमारे मूलभूत दर्शन को अलग अलग द्रष्टि से देखे २९४ अतंरतमम् यदि साधु न बना तो वेश बदलने से क्या लाभ। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने लगा। एक ही वृक्ष की शाखाओं पर फलोंको खट्टे मीठे तथा विष-अमृत का भ्रम उत्पन्न कर दिया। जो आज के समय में विपरीत ही नहीं बल्कि विनाशकारी सिद्ध हो सकते है। आज आवश्यकता है कि हम अपने कुछ निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वस्थ मार्ग को प्रशस्त करें। इसी संदर्भ मे मैंने पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजय जी के अभिनन्दन ग्रन्थ में एक श्रद्धा सुमन के रुप में इस उपरोक्त विषय को अर्पित करने का लघुप्रयास किया है। भारतीय दर्शन इतना व्यापक है कि इसमें नास्तिक-अस्तिक के साथ ही अनेकों ही वाद को स्थान मिल सकता है। सामान्यत: कहीं कहीं विरोधाभास अवश्य द्रष्टि गोचर होगा। जिसे हम एक प्रबुद्ध विचारक या चिन्तक का स्वभाविक गुण समझ सकते है। लेकिन प्राय: मूलत: सिद्धान्तों में किसी न किसी रूप में एक्य भाव देख सकते है। चार्वाक दर्शन सम्मान का स्थान न पाने के कारण ही सुशिक्षित चार्वाक के रुप में उभर कर सामने आना हुआ। यहां शेष सिद्धान्त के साथ जैन दर्शन को लेकर एक तुलनात्मक अध्ययन पर ही प्रकाश डालेगें। अपने विषय के प्रारम्भ से पूर्व मुनि सुशीलकुमार के विचारों पर प्रकाश डालना प्रासंगिक समझता हूं। इन्होंने अपनी जैन हिन्दू-एक सामाजिक दृष्टिकोण "पुस्तक में जिज्ञासा" उल्लेख किया है, साथ ही भारतीय संस्कृति और अपने आपको हिन्दू होने का जो प्रमाण प्रस्तुत किया है, युक्ति संगत है। उसमें भारतीय दर्शन और जैन दर्शन का समन्वय रुप उभर कर आता है, वे कुछ बिन्दु इस प्रकार से है। देवमूर्ति का सम्मान करता हूं, पूर्वजन्म को स्वीकार करता हूं, उससे मुक्त होने के प्रति सचेष्ट हूं, सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को ग्रहण करता हूं, अहिंसा को धर्मभूत में मानता हूं, तथा गो सेवा में निष्ठा रखता है, इत्यादि। स्वामी कर पात्रीजी ने लिखा है गोपु भक्ति में वे थस्य, प्रणवे च द्रढ़ा मतिः । पुनर्जन्मानि विश्वास: सर्वे हिन्दू रितिस्मृतः ।। गोमाता एवं ओंकार में जिसकी भक्ति होत तथा पूर्वजन्म में विश्वास हो वह हिन्दू है। पुस्तक अष्टाचार्य गौरव गंगा, लेखक मुनिज्ञान, के पृष्ठ ८६-८७, सन्त श्री लालजी अपने प्रभाव से मुसलमानों द्वारा रेवाड़ी में गायें कटवानी बन्द करवा दी तथा गुड़ गांव में तीनहजार गायें कटवाने से बचाली। इस प्रकार जैन दर्शन की पृष्ठ भूमी में विविध भारतीय प्राचीन दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। जैन मंदिरों में ब्राह्मण का पुजारी होना, पूजाकी विधि वैष्णव पद्धति के अनुसार, गणेशपूजा, शुभकार्य में स्वस्तिक, ओंकार का महत्त्व, जैनाचार्य महासेना सूरिका "सिया चरित्र' ग्रन्थ व आचार्य श्रीतुलसी के खण्ड काव्य की निम्न पंक्तियांओं जय सितामाता, तेरे बिन न कोई जरादाबे त्राता। ओं जय सितामाता। जै. हिन्दू। कविवार श्रीमान् सूर्य मुनिजी महाराज द्वारा रचित जैन रामायण में श्री हनुमामनजी का यशोगान उल्लेखनीय है। जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरी जो एक ब्राह्मण परिवार से थे। भीनमाल में कई विदेशियों को जैन अथवा हिन्दू समाज में दीक्षित करने का प्रशंसनीय कार्य का उल्लेख मिलता है। राज इति. प्र.भा. द्वि.सं.ले.डा. गोपीनाथशर्मा पृ.२६।। इसके मूलमें जो कि भारतीय या हिन्दू दर्शन है, इसे भिन्न मानना संकीर्णता ही नहीं बल्कि हमारी नैतिक व ऐतिहासिक भूल होगी। क्योंकि हमारे चौबीस तीर्थंकर का अवतरण जिसके पास सत्य, अहिंसा, मैत्री, सहिष्णुता आदि अमोष अस्त्र-शस्त्र है, वह ही त्रिलोकजयी हो सकता हैं। २९५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी भारत देश और हिन्दू समाज में हुआ है। अनेक आचार्य भी चार वर्ण व्यवस्था की शाखाओं में से आकर ही जैन दर्शन का प्रतिपादन किया है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव का उपाख्यानन भागवत के पंचम स्कन्द में मिलता है। मुण्डकोपनिषद के चतुर्थ अनुबढक में वेदोंमें ऋषभ (श्रेष्ठ या प्रधान) और सर्वरुप लिखा है-यशछन्द सा-मृषभो विश्वरुपा।।१।। जबात्पु पनिषद में जीव ही पशु है-उसका पति " पशुपति" है। शब्दार्थ के रुप में ऋषभ-सांड भी आता है। इसके देव को भगवान पशुपति के रुप में शृद्धाकी प्राचीन परम्परा चली आ रही है। हमारे भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि इसमें चिन्तन की भिन्नता सदैव से चली आ रही है। भारत में जितने दर्शन है उतने संभवतया इससे बाहर नहीं है। यहां वेदान्त मीमांसा, योग, सांख्य, न्याय और वैशेषिक इन बड़दर्शन के अतिरिक्त चार्वाक, जैन और बौद्ध ये सभी भारतीय दर्शन के अन्तर्गत है। इनमें चार्वाक के अतिरिक्त दर्शन में प्राय: अणुपरमाणुवाद, कर्मवाद और पूर्वजन्म का विवेचन अधिकतर समानता लिये हुए ही है। इन पर पाठकों की जानकारी के लिये यहां संक्षिप्त रुप से प्रकाश डाल देना उचित समझता हूं। आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन ने स्पष्ट किया है कि यह बन्धन से मुक्त होने पर अनन्तज्ञान और सर्वज्ञ है। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक गुणरत्न ने आत्मा को शरीर क्रियाओं का परिचालक कहा है। कठोपनिषद की व्याख्या का संकेत मिलता है - आत्मान रथिनं विद्धि शरीर रथभ वेतु। बुद्धि तु सारथि विद्धि मन: प्रग्रह मेवच॥ अ.१ व ३ श्लो. ३॥ अर्थात तूं आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ बुद्धि को सारथि और मन को लगाम समझ। वहीं स्व संवेद्यो पनिषद आत्मा को मोक्ष और नरक से भिन्न रखा है। आत्म बोधो पनिषद का सिद्धान्त है-एकोऽहम विकलोऽहं निर्मल निर्वाण मूर्ति रेवाहम्। निरवयवो 5 हम जो हं केवत सन्मात्र सारभूतो ऽ हम्॥ द्वि.अ. ६|| अर्थात मैं एक हूं, मैं परिपूर्ण हूं और निर्वाण मूर्ति हूं, मैं अवयवों से रहित हूं, मै अजन्मा हूं और केवलमात्र संन्त स्वरुप में सर्व का सार रुप हूं। चार्वाक के अनुसार "चैतन्य विशिष्ठ शरीर ही आत्मा है। बौद्ध दर्शन सबसे भिन्न है कि वह अनात्मवाद का ही पक्षधर है। वहीं बौद्ध दर्शन सबसे भिन्न है कि वह अनात्मवाद का ही पक्षधर है। वहीं बौद्ध की महापान शाखा ने पारमार्थिक आत्मा या महात्मा को मिथ्या नहीं माना है। नव्य नैयायिक कहते है कि मन का आत्मा से सम्बन्ध है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा एक नित्य, स्वप्रकाश चैतन्य है। आत्मा न तो ज्ञाता है न ज्ञेय है न 'अम' ही है। विशिष्टाद्वैत-वैदान्तब्दे अनुसार "ज्ञाता अहमर्थ एवात्मा" इसे ज्ञाता और अहम् कह सकते है, ऐसा कहा है। वैशेषिक दर्शन ने आत्मा को नित्य और सर्वव्यापि द्रव्य जिसे चैतन्य का आधार माना है। इसे जिवात्मा और परमात्मा, दो स्वरुप किये है। भिन्न भिन्न शरीर में भिन्न भिन्न जीवात्मा कहा है। सांख्य का एक तत्व प्रकृति दूसरा तत्व पुरुष (आत्मा)। आत्मा का अस्तित्वनिर्विवाद कहा है। योग की द्रष्टि से जब चित्र किसी वृत्ति में परिणत हो जाती है तब उस पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है और वह आत्मसात् हो जाता है। इसलिये ऐसा भासित होता है कि पुरुष (आत्मा) ही सब कुछ सोचता है और करता है। भारतीय दर्शन के अनेक मतमतान्तर में आत्मा के सम्बन्ध में फिर जैन दर्शन पर आते है। जहां आत्मा का माप शरीर के बराबर कहा २९६ जिस जीव की धर्म के प्रति सची भावना हैं उसे धर्म-चर्चा में आनंद ही आनंद दिखाई देता हैं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जीवात्मा और सिद्धात्मा के दो भेद बताये है। चैतन्य द्रव्य को जीवया आत्मा कहते है जो सब समय वर्तमान रहता है। सिद्धात्माओं का स्थान सबसे ऊंचा है। सिद्ध वे है जो कर्मोपर विजयपात्मेते है और पूर्णज्ञानी हो जाते है। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि भारतीय दर्शन के अन्तर्गत आत्मा का सिद्धान्त चार्वाक, बौद्ध महायात शाखा वैशेषिक दर्शन और अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त जैन दर्शन में किसी न किसी रूप में सामंजस्य द्रष्टि गोचर होता है। अगला बिन्दु "बन्धन" है। भारत के प्राय: सभी दर्शनों के अनुसार बन्धन का अर्थ है जन्मग्रहण। जैन मतानुसार जीव को ही बन्धन के दु:ख भोगने पड़ते है। जीव अपने कर्मो या संस्कारो के वश ही शरीर धारण करता है पूर्व जन्मो के कारण अर्थात पूर्वजन्म के विचार वचन तथा कर्म के कारण जीव में वासनाओं की उत्पत्ति होती है, वे वासनाएं तृप्त होना चाहती है। फल यह होता है कि ये पुद्गल को अपनी ओर आकृष्ट करती है। जिससे विशेष प्रकार का शरीर बनता है। कर्म के अनुसार यह निश्चित हो जाता है कि किस व्यक्ति का जन्म किस वंश या परिवार में होगा। क्रोध, मान, माया, लोभ ही हमारी कुप्रवृत्तियां है जो हमें बंधन में डालती है। इन्हें 'कषाय' कहते है। कषायों के कारण कर्मानुसार जीव या पुद्गन के आक्रान्त हो जाना ही बन्धन है। क्यूंकि दूषित मनोभाव ही बन्धन का मुल कारण है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत में आत्मा का बन्धन कर्म का परिणाम है। यद्यपि आत्मा अणुरुप है जो चैतन्यशरीर और इन्द्रियों से बद्ध हो जाता है। यहां जैन और विशिष्टाद्वैत दोनोंमें कर्म की प्रधानता है। मोक्ष के सम्बन्ध में श्रीरामनुज ने लिखा है कि कर्म और ज्ञान द्वारा भक्तिका उदय होता है जिससे मुक्ति मिलती है। इस प्रकार का निष्काम कर्म पूर्वजन्मार्जित उन संस्कारों को दूर कर देता है जो ज्ञान की प्राप्ति में बाधा स्वरुप होते है। श्रीरामानुज का मानना है कि मुक्ति केवल अध्ययन या तर्क से नही होती कीन्तु ईश्वर की करुणा से होती है। उपनिषदोंने भी कहा है कि ज्ञान से मुक्ति मिलती है। आत्माका परमात्मा में लीन होना इसका तात्पर्य यही होना चाहिये कि प्रज्ञा की प्राप्ति ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना है। नैयायिकों के अनुसार मोक्ष दुःखके पूर्ण निरोध की अवस्था है। मोक्षपाने के लिये धर्मग्रन्थों के मनन के द्वारा, निदिध्यासन (योग) के द्वारा आत्मा का निरन्तर ध्यान करना चाहिये। संचित कर्म भोग लेने पर फिर वह जन्मग्रहण के चक्र में नहीं पड़ता। राह पुनर्जन्म का अन्त ही बन्धनों और दुःखों का अन्त है। यही मोक्ष या अपवर्ग है। सांख्यका मत है कि यदि किसी जीव के लिये दु:ख केशों से प्राण पाना संभव भी हो तो जरा और मृत्यु से छुटकारा पाना असंभव है। आध्यात्मिक, आदि भौतिक, और अधि दैविक इन तीनों दु:खों से एक बारगी छुटकारा पाना असंभव है। सुखवाद का आदर्श त्यागकर युक्ति संगत ध्येय दु:खो से निवृत्ति से सन्तोष करें। सभी दु:खोंका सदा प्रभू के दरबार में अकिंचन यात्रालुओं का अपूर्व स्वागत-सत्कार होता है। २९७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये निवारण जिसकी पुनरावृत्ति नहीं हो सके यही मुक्ति, अपवर्ग या पुरुषार्थ है। वेदान्त कहता है- "अहं ब्रहतास्मि" इससे जीव और ब्रह्म का मिथ्या भेद हट जाता है तब बन्धन कटकर मोक्ष का साक्षात अनुभव होता है। इसके सिद्धान्त में विशेषता यह है कि मोक्ष के बाद भी शरीर रह सकता है क्योंकि यह प्रारब्ध कर्मों का फल है परन्तु मुकात्मा पुनः कभी अपने को वह शरीर नहीं समझता। संसार के मिथ्या प्रपंच में वह फिर ठगा नहीं जाता। शंकरका परवर्ती वेदान्त साहित्य में 'जीवन मुक्ति के नाम से विख्यात है भारतीय दर्शन की समानता में यह भी है कि तत्त्वज्ञान के अभाव में बन्धन और दुःख होता है। आत्माका तत्व ज्ञान हो जाने पर मुक्ति या सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिये निदिध्यासन और आत्म संयम की आवश्यकता बतलाई है। · अब हम जैन दर्शन की मान्यता की और ध्यान देते है। इन का कहना है कि जीव और पुद्गल के संजोग को बन्धन कहते है और इनका वियोग होता हि मोक्ष है। पुद्गल का वियोग तब ही होता है जब नये पुद्गल का आस्रव बन्द हो और जो जीव में पहले से ही प्रवीष्ट है वह जीर्ण हो जाय। पहले को संवर और दूसरे को निर्जर कहा है जीव में पुद्गल का आस्रव जीव के अन्तर्निहित कषायों के कारण होता है। इन कषायों का कारण अज्ञान है। अज्ञान का नाश, ज्ञान की प्राप्ति से हो सकता है। इसके लिये सम्यग्ज्ञान या तत्त्वज्ञान का अधिक महत्व है। जो पूर्णज्ञान तीर्थंकरो या अन्यमुक्त महात्माओं के उपदेश के मनन से होता है। इनके उपदेश इसलिये लाभदायक होते है कि वे स्वयं मोक्ष पाकर उपदेश देते है। त्रिरत्न का महत्व समझना आवश्यक है तत्वार्थोधिगम सूत्रमें ही उमास्वामी ने कहा है "सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्राणी मोक्ष मार्ग; ।" जैन दर्शन में यह विशेषता है कि सम्यग्ज्ञान का होना है। परन्तु तीर्थंकरों के उपदेश का आंख मूंद कर मान है- जैन दर्शन युक्ति हीन नहीं वरं युक्तिप्रधान है। उनका कहना है कि न मेरा महावीर के प्रति कोई पक्ष पात है और न कपिल या अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष में युक्ति संगत वचन को मानता हूं। नये कर्मों को रोकने व पुराने कर्मों को नष्ट करने के लिये जैन में पंचमहाव्रत के पालन का विधान है। सतर्कता (संयम ) का अवलम्बन, मनवचन तथा कर्म में गुप्ति या संयम का अभ्यास, दसप्रकार के (क्षमा, मार्दक, आर्जष, सत्य, शौच, सयंम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्राह्मचर्य) धर्मोका आचरण जीव और संसार के यथार्थ तत्व के सम्बन्ध में भावना रखनी चाहिये। जीव और संसार के यथार्थ तत्व के सम्बन्ध में भावना रखनी चाहिये। भूख प्यास शीत उष्ण के कष्ट या उद्वेग को सहना समता, निर्मलता, निर्लोभिता और सचारित्रता प्राप्त करनी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि का पालन से नये कर्म से मुक्त होना है। जीव और पुद्गल का संयोग छूट जाता है। अर्थ - यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा लेना नहीं है। मणिभद्र कहते निष्कर्ष के रूप में त्रिरत्न व पंच महाव्रत और जो सनातन धर्म व हिन्दु दर्शन में धर्म के निम्न लक्षण है २९८ - सत्यं दानं तथा शौचं सन्तोषो ही क्षमारजयम् । ज्ञानं शमो दया ध्यानं, मेषां धर्म सनातनः ॥ विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यच कृति क्षमा दमोड क्षमों 5 स्तेयं, शौच मिन्द्रिय निग्रह। धीर विद्या सत्यम क्रोधो, दशकं धर्म लक्षणं॥ अर्थात - सत्य, धैर्य, क्षमा, इन्द्रियों को अपराध प्रवृति से रोकना, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों को साधना में केन्द्रित करना, दुर्व्यसन का त्यागना, अविद्या को मिटाना, क्रोध न करना तथा सन्तोष रखना इत्यादि जो उल्लेख है। इनमें प्राय: परस्पर सिद्धान्त: एकरुपता ही प्रतीत होती है। भारतीय दर्शन (उपनिषद, विशिष्टाद्वैत, न्याय, सांख्य व जैन) में कर्म संचित कर्म का जीर्ण करना, सुखवाद का त्याग, तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, इनमें मूल सिद्धान्तों की प्राप्ति में एक मत सा है। हो सकता है इन्हें रुप देने में भिन्नता प्रतीत हो। मोक्ष प्राप्त पुनर्जन्म से मुक्ति पाना ही है। पूर्वजन्मकी मान्यता ही पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर विश्वास उत्पन्न करता है। बौद्ध दर्शन में कर्म के भेद व दूसरे भेद में पुनर्जन्म का उल्लेख किया है। वहीं निर्वाण के प्रथम लाभ में पुनर्जन्म का वर्णन है। न्याय ने कहा है - संचित कर्म भोग लेने पर फिर वह जन्मग्रहण के चक्र में नहीं पड़ता। यह पुनर्जन्म से मुक्ति ही है। वेदान्त में संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण या संचीयमान ये तीन प्रकार के कर्म है। तत्त्वज्ञान से संचित कर्म का क्षय तथा क्रियमाण कर्म का निवारण होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म के बंधन से छुटकारा मिल जाता है जैन दर्शनने भी पुनजन्म को माना है। न्याय और वेदान्त ने संचित कर्म का समर्थन करते हुए लिखा है कि संचित कर्म के कारण जन्म-पुर्नजन्म के चक्र में पड़ने से अनेक शरीर धारण करना पड़ता है। प्राय: समस्त भारतीय दर्शन में सामंजस्यता किसी न किसी रूप में विद्यमान है। अणु-परमाणुवाद के रुप में भी ऐसा ही विवेचन है। कठोपनिषद में आत्मा का निवास अणु से भी अणुतर और महान से भी महत्ता बतलाया है। न्याय वैशेषिक के अनुसार मन को अणु कहा है। जड़जगत को चार प्रकार के परमाणुओं से बना हुआ कहा है। परमाणु नित्य एवं अपरिवर्तन शीत होते है। वैशेषिक की दृष्टि से संसार के सभी कार्य द्रव्य चार प्रकार के परमाणुओं (पृथ्वी, जल, तेज और वायु) से बनते है। इसी लिये वैशेषिक मत को परमाणु बाद (Atomism) भी कहते है। कणाद का परमाणुवाद पाश्चात्य से भिन्न है। दो परमाणुओ का प्रथम संयोग "द्रयणुक" है। तीन द्रयणुक का संयोग त्र्युणुक या त्रसरेणु कहलाता है। परमाणुओं की गति या कर्म के फलस्वरुप उनके संयोग होते है। जैन दर्शन - पुद्गल के सबसे छोटे भाग को जिसका और विभाग नहीं हो सकता उसे अणु कहता है। यहां न्याय वैशेषिक का परमाणु से जड़जगत का सम्बन्ध पुद्गल के अणु से मिलता जुलता है। द्रयणुक का वह भाग जो सूक्ष्माति सूक्ष्म है, जिसका भाग होना संभव नहीं है। __भारतीय दर्शन में जैन काल भी अति प्राचिन है। इसमें रुपान्तर या सम्प्रदाय भेद समयानुसार होता रहा है। एक दूसरे दर्शन के विचार लेना या छोड़ना अथवा नये ढंग से प्रतिपादन करने की परंपरा का क्रम चलता आ रहा है। यह विशेषता प्राय: यहां के सभी दर्शन में देखने को मिलेगी। इतना भी निश्चय है कि धर्म में विज्ञान का समावेष भी देखने को मिलता है। जैन धर्म में भी जीओ और जीने दो के लिये पंच महाव्रत का पालन सहायक है। सन्यासोपनिषद् विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो वह हैं मन को वश में करना। २९९ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चित्रशुद्धि व आशा ईर्ष्या तथा अहंकार को त्यागने वाला सन्यासी है। आहार के लिये सम्यक चरित्र में भिक्षा आदि ग्रहण करने में जो सीमित सतर्कता का उदाहरण है। उसी द्रष्टि से 'भिक्षुकोपनिषद में आठपास भोजन का विधान है। गीता ६ अ.१७ वां श्लो. में लिखा है - युक्राहार विहारस्य, युक्त चेष्टसय कर्मसु। युक्त स्वप्ना व बोधस्य, योगोभवति दुःस्वहा।। अर्थात दु:खो का नाशकरने वाला योग युक्तिपूर्वक आहार-विहार करना, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा तथा यथा योग्यशयन व जागने वाला ही सिद्ध होता है। जानामि धर्म न च मे प्रवृति, जानाम्य धर्म न च मे निवृति| पंचदशी ६.१७६॥ तृष्णाओं तथा नीच प्रवृतियों में रहना धर्म नहीं। उनकी निवृत्ति ही धर्म है। साधारणत: हमारे कर्म राग द्वेष से उत्पन्न होते है। हमारी ज्ञानेन्द्रिय इन्हीं के अनुसार कार्य कहती है। पंचयम - अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य और लोभ न करना। पंचनियम-पवित्रता, सन्तोष तय, स्वाध्यय, तथा प्रणिघात। ये भारतीय दर्शन में जैन दर्शन की एक रुपता का द्योतक है। इस लेख की इति श्री से पूर्व जैन दर्शन का स्यादवाद की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। क्योंकि स्यादवाद में उदारता दिखाई देती है। वे अन्यान्य दार्शनिक विचारोंको नगण्य नहीं समझते या किसी दर्शन की हठोक्ति को नहीं मानते कि केवल उसी के विचार सत्य है। ऐसी हठोक्ति में एकान्त वाद का दोष रहता है। इसलिये दृष्टि का साम्य होना आवश्यक है। अनेक मतों के प्रति समादरभाव के कारण अनेकांत वाद तथा स्यादवाद है। अनेकांतवाद के अनुसार वस्तु में अनेक प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। स्यादवाद के अनुसार कोई भी विचार निरपेक्ष्य सत्य नहीं होता। एक ही वस्तुके सम्बन्ध में दृष्टि अवस्थी आदि भेदोंके कारण भिन्नभिन्न विचार सत्य हो सकते है। दर्शन विषय के इस विशीलतम मंथनामृतमें से समय और शक्ति के अनुसार यद किन्चित अंश के रुप में यहां प्रस्तुत करने का यथा संभव प्रयास किया है। वैद्य मुरलीधर श्रीमाली "साधक" नगरपरिषद भण्डार के पास, राजनेर रोड वीकानेर (राजस्थान) - ३३४००१ • अपने आप सम्मान सहिक सन्मार्ग पर जो आता है उसके अंत:करण में आत्मकल्याण, आत्मदर्शन और आत्मवैभव का प्रकाश प्रस्फुटित हो अद्वितीय उज्ज्वलता प्रदान करता है। ३०० मन की पखडियां जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती हैं तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहं हो सकते। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म -मीमांसा उथल-प्रथल, ऊहापोह, आपाधापी, उठक-पठक लूट-पाट, मार-धाड अर्थात हिंसा के विविध आयामों में सम्यक्त वर्तमान जीवन आशा-निराशा, पल्पना - यथार्थता, स्थिरता चंचलता, धीरता - अधीरता, क्रुरता - करुणा, शोषणता - पोषणता, समता - विषमता, स्वाधीनता - पराधीनता, जडता - चिन्मयता, कुटीलता - सरलता आदि विभिन्न उलझनों से भुकत्यर्थ आत्मिक शान्ति आनन्द - विलास की खोज में सतत संघर्ष रत है, अस्तु त्रस्त्र संत्रस्त्र है। ऐसी दीन-हीन स्थिति में अर्थात मानसिक अशान्तिजन्य अवस्था में "कर्म - सिद्धान्त" जीवन के लक्ष्य को स्थिर आलोकित करने में अर्थात सत-चित-आनन्द स्वरुप को उदघाटित करने में निमित्त नैमितिक का कार्य करते है। देशी विदेशी दर्शनों वेदान्त, गीता, जैन, बौद्ध न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य पोग, अद्वेय विशिष्टा द्वेत, द्वेताद्वेत द्वेत, शुद्धाद्वैत, इस्लाम काइस्ट कन्फ्यूशस में कर्म विवेचना अपने अपने ढंग से निरुपित है वास्तव में ये कर्म सिद्धान्त लौकिक-अलौकिक जीवन में प्रवलशक्ति स्फुर्ति का संचार करते हैं। जीवन में इनकी उपयोगिता उपादेयता निश्चयही असन्दिग्ध है। - "क्रियते ततः कर्म दुकंञ- करणे" धातु से निष्पन्न " कर्म" शब्द कर्मकारक किया तथा जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुदगल स्कन्ध, आदि अनेक रूपों में प्रयुक्त है। इसका सामान्य अर्थ "काम" से लिया जाता है किन्तु व्याकरण के क्षेत्र में यह कर्मकारक के रूप में गृहीत है। दर्शनिक क्षेत्र में भारतीय जैनेतर दर्शन, मन, वचन, व कर्म से किए गये 'काम' को 'कर्म' की संज्ञा देते है। अर्थात क्रिया और तज्जन्य संस्कार कर्म कहलाते हैं किन्तु जैन दर्शन में कर्म अपने विशिष्ट अर्थ में प्रतिष्ठित है। यहाँ जीव के साथ जुडनेवाला पुद्गल स्कन्ध 'कर्म' कहलाता है अर्थात जीव से सम्बद्ध मूर्तिक द्रव्य और निमित्त से होने वाले राग द्वेष रुप भाव कर्म कहे जाते हैं। - राजीव प्रचंडिया एडवोकेट — भारतीय दर्शन में प्रतिष्ठित कर्म 'सिद्धान्त' जिसमें शरीर रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्त्व तक का तथा बन्धन से मुक्ति तक की महायात्रा का विशद चिन्तन-विश्लेषण अंकित है संसारी जीव को जो आत्मस्वरुप की दृष्टि से समान होते हुए भी विविध अवस्थाओं-स्थितियों, विभिन्न गतियों--योनियों में तथा जीव के पुनर्जन्न सम्बन्धी घटनाओं का अर्थात जीव को विभिन्न सांसारिक परिणतियों अवस्थाओं में होना मानता है। वास्तव में कर्मों से लिप्त यह जीव अनादिकालसे, अनेक भवो में तथा विभिन्न रूपों, कभी धनिक तो कभी निर्धन, कभी पंडित तो कभी ज्ञानवंत, कभी रुपवान तो कभी कुरुपी, कभी सबल तो कभी निर्बल, कभी रोगी तो कभी निरोगी, कभी भाग्यवान तो कभी दुर्भाग्यशाली, आदि में चारों गतियों, देव, मुनष्य, तिर्थञ्य, नरक तथा चौरासी लाख योनियों में सुख दुःख की अनुभूति करता हुआ जन्म-मरण के चक्र में फँसा हुआ है। इस प्रकार कर्म - श्रृंखला जन्म-जन्मान्तर से सम्बद्ध और अत्यन्त मजबूत मानी गई है जिसमें जीव अपने कृत कर्मों को भोगता हुआ नवीन कर्मो का उपार्जन करता है। मानवजीवन पर कर्मों का प्रभाव अत्यन्त व्यापक है। यदि किसी व्यक्ति को यह मालूम पडे कि मुझको जो कुछ भोगना पडता है वह मेरे पूर्व जन्म कृत कार्यों का ही फल है तो वह पुराने अथवा पूर्व भव में किए हुए कर्मों को सहज शान्त व समभावी / समदर्शी होकर क्षय करने का पुरुषार्थ करेगा जिससे नवीन कर्मो का आगमन रुकेगा और उसके अन्दर सहनशक्ति / सहिष्णुता की भावना मन की पंखुडियां जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। For Private Personal Use Only ३०१ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भूत होगी। यह निश्चित है मनुष्य जब कोई कार्य करता है तो उसके आस-पास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों और उपस्थित कर्म शक्ति युक्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणु अर्थात कर्म आत्मा की और आकर्षित होते है इन परमाणुओं का आत्मा की और आकर्षित होना आष्व, आत्मा के साथ क्षेत्रावगाह (एक ही स्थान में रहने वाला) सम्बन्ध 'बन्ध' इन परमाणुओं को आत्मा की ओर आकृष्ट न होने देने की प्रक्रिया 'सवर' तथा इन परमाणुओं से छुटने का विधि-विधान 'निर्जरा' और आत्मा का समस्त कर्म परमाणुओं से मुक्त होना वस्तुत: 'मोक्ष' कहलाता है। वास्तव में जीव के शरीर की संरचना भी तभी तक रहती है जबतक आत्मा कर्मों से जकडी हुई है। कर्म-बद्ध आत्मा ही कर्म पुद्गल से सम्बन्ध स्थापित करती है और इस प्रकार ये कर्म पुद्गल अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, वर्तमान या पूर्वजन्म के हों, जीव के साथ सदा विद्यमान रहते है और परिपक्व होने पर उदित होते है। नि: सन्देह संसारी जीव के साथ रहने वाले ये कर्म उसके मन में उठने वाले विचारों भावों संकल्पो और प्रवृत्तियों को शुद्ध पवित्र रखने की प्रेरणा प्रदान करते है तथा जीव में हेय-उपादेय, हित अहित, सुख दु:ख, अर्थ अनर्थ आदि का भेद विज्ञान भी कराते है। लौकिक-अलौकिक कोई भी कार्य करते समय यदि जीव की भावना शुद्ध तथा राग-द्वेष अर्थात क्रोध, मान,माया लोभ, कषायों से निर्लिप्त, वीतरागी है तो उस समय शारीरिक कार्य करते हुए भी किसी भी प्रकार का कर्म वन्ध उस जीव में नही होता है। प्राय: यह देखा-सुना जाता है कि विभिन्न व्यक्तीयो द्वारा एक ही प्रकार के कार्य करने पर भी उनमे भिन्न भिन्न प्रकार का कर्म बन्ध होता है इसका मूल कारण है कि एक ही प्रकार के कार्य करते समय इन व्यक्तीयों के भाव सर्वथा भिन्न प्रकार के होते है। फलस्वरुप उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-बन्ध होता है । जैन दर्शन में तो कर्म की दस अवस्थाएँ निरुपित है यथा-वंध, उत्कर्ष, अपरर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, सक्रमण, उपराम, निष्पति और नि:काचना। कर्म की इन दस अवस्थाओं में प्रारम्भिक अवस्था 'बन्ध की मानी गई है, क्यों कि बीना उस अवस्था के अन्यशेष अवस्थाएँ नहीं हो सकती है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के आधार पर बंध को चार भागों में बाँटा जा सकता है। जो बन्ध कर्मों की प्रकृतिस्वभाव को स्थिर करता है प्रकृति बन्ध, जो कर्म फल की अवधि के निश्चित करे "स्थिति बन्ध" जो कर्म फल की तीव्र या मन्द शक्ति की निश्चितता करे "अनुभाग बन्ध" तथा जो कर्मों की संख्या शक्ति को प्रकट करे "प्रदेश बन्ध" कहलाता है। स्थिति और अनुभाग के बढने को उत्कर्षण, स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहा जाता है। कर्म के बंध होने पर और उनके फलोदय होने के बीच कर्म आत्म में विद्यमान रहते है जिसे "सत्ता" कहा जाता है तथा कर्म के फल देने को उदय तथा नियतकाल के पहले कर्म के फल देने को उदीरणा कहते है। यह उदय दो प्रकार का होता है - एक फलोदय और दूसरा प्रदेशोदय। जब कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाता है तो वह फलोदय तथा जब कर्म बिना फल दिऐ ही नष्ट हो जाता है तो ऊसे प्रदेशोदय कहा जाता है। एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्म में रुपान्तरित हो जाना संक्रमण तथा कर्म का उदय में आ सकने के अयोग्य हो जाना 'उपराम' अवस्था है। उपराम मोहनीय कर्म कि प्रकृतियों में ही होता है। कर्मों का संक्रमण और उदय न हो सकना निष्पति तथा उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण संक्रमण और उदीरणा ३०२ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का न होना नि:काचना कहलाता है। कर्म भी इन दस अवस्थाओं का सम्यक् ज्ञान कर लेने के उपरान्त यह सहज में कहा जा सकता है कि ये कर्म, जीव के भाग्य-विधाता है। वास्तव में कर्मबंध व उदय से मिलने वाला फल ही भाग्य कहलाता है। उदीरणा संक्रमण उत्कर्षण, और अपकर्षण द्वारा किए हुए कर्म परिवर्तित तथा नष्ट किए जा सकते है। इस प्रकार इन कर्म सिद्धान्तों के द्वारा यह सत्य उद्घाटित होता है कि प्रत्येक जीव अपनी स्थिति का सृष्टी अपने भाग्य का विधाता स्वंय ही है। स्वय ही बन्धन एवं मोक्ष का कर्ता है। इससे जीव में पुरुषार्थ का सही-सही उपयोग करने की क्षमता प्रकट होती है सुप्तचेतना जागृत विकसित होती है। कर्म संरचना के विज्ञान को समझने के लिए जैन दर्शन में कर्म को मूलत: दो भागों में विभाजित किया गया है। एक द्रव्य कर्म तथा दूसरा भावकर्म। कामणि जातिका पुदगल अर्थात जड तत्त्व विशेष जो कि आत्मा के साथ मिलकर कर्म के रुप में परिवर्तित होता है, द्रव्य कर्म कहलाता है जब कि राग द्वेषात्मक परिणाम को भाव कर्म कहते है। किन्तु घात-आघात के आधार पर कार्य दो भागों में विभक्त हैं। एक तो वे कर्म जो आत्मा के वास्तविक स्वरुप का घात करते है, घाति कर्म कहलाते है जिसके अन्तर्गत ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय कर्म आते है तथा दूसरे वे कर्म जिसके द्वारा आत्मा के वास्तकि स्वरुप के आधात की अपेक्षा जीव की विभिन्न योनियों अवस्थाएँ तथा परिस्थितियाँ निर्धारित हुआ करती है अघाति कर्म कहलाते है इनमे नाम, गोत्र आयु और वेदनीप कर्म समाविष्ट है। ज्ञानावरणीय कर्म कामणि वर्गणा कर्म परमाणुओं का वह समूह जिससे आत्मा का ज्ञानगुण प्रछन्न रहता है, ज्ञानावरणीय कर्म कहलता है। इस कर्म के प्रभाव में आत्मा के अन्दर व्याप्त ज्ञान राशि क्षीर्ण होती जाती है। फलस्वरुप जीव रुढि क्रिया काण्डों में ही अथवा सम्पूर्ण जीवन नष्ट करता है। इस कर्म के क्षप के लिए सतत स्वध्याय करना जैनागम में निर्दिष्ट है। दर्शनावरणीय कर्म कर्म शक्ति पुक्त परमाणुओं का वह समूह जिसके द्वारा आत्मा का अनन्त दर्शन स्वरुप अप्रकट रहता है, दर्शनावरवीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के द्वारा आत्मा अपने सचे स्वरुप को पहिचानने में सर्वथा असमर्थ रहता है। फलस्वरुप वह मिथ्यात्व का आश्रय लेता है। मोहनीय कर्म इस कर्म के अन्तर्गत वे कामणिवर्गणाएँ आती हैं जिसके द्वारा जीव मे मोह उत्पन्न होता है। पद कर्म आत्मा के शान्ति सुख आनन्द स्वभाव को विकृत करता है। मोह के वशीभूत जीव स्व-पर का भेद विज्ञान भूल जाता है समाज में व्याप्त संघर्ष इसी के कारण है। अन्तराय कर्म! आत्मा के व्याप्त ज्ञान-दर्शन-आनन्द स्वरुप के अतिरिक्त अन्य सामर्थ्य-शक्ति को प्रकट करने में जो कर्म-परमाणु बाधा उत्पन्न करते है वे सभी अन्तराय कर्म के अन्तर्गत आते है। इस कर्म के कारण ही आत्मा में व्याप्त अनन्त शक्ति का -हास होने लगता है। आत्म-विश्वास की भावना संकल्प शक्ति तथा साहस-वीरता आदि मानवीय गुण प्राय प्रच्छन्न रहते है। नामकर्म __इस कर्म के द्वारा जीव एक भव से दूसरे भव में जन्म लेता है तथा उसके शरीरादि विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार-मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है। ३०३ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्माण भी इसके द्वारा हआ करता है। गौत्र कर्म! कर्म परमाणुओं का वह समूह जिनके द्वारा यह निर्धारित होता है कि जीव किस गोत्र, कुटुम्ब वंश, कुल जाति तथा देश आदिमें जन्म ले गोत्र कर्म कहलाता है। ये कर्म परमाणु जीव में अपने जन्म की स्थिति के प्रति मान स्वाभिमान तथा उँच हीन भाव आदि का बोध कराते आयुकर्म: इस कर्म के द्वारा जीव की आयु निश्चित हुआ करती है। स्वर्ग-मनुष्य-तिर्थञ्च नरक गति में कौन सी गति जीव को प्राप्त हो यह इसी कर्म पर निर्भर करता है। वेदनीय कर्म इस कर्म के द्वारा जीव को सुख दु:ख की वेदना का अनुभव हुआ करता है। उपरोक्त कर्मो के भेद प्रभेदो से यह स्पष्ट है कि घाति-अघाति कर्म आत्मा के स्वभाव को आच्छादित कर जीव में ज्ञान, दर्शन व सामर्थ्य शक्ती को क्षीर्ण करते है तथा ये कर्म जीव पर भिन्न-भिन्न प्रकार से अपना प्रभाव डालते है जिसके फलस्वरुप जीव सुख-दु:ख के घेरे में घिरता हुआ स्वतन्त्रता के मार्ग से च्युत होकर पराधीनता का मार्ग अपना लेता है। अर्पकित अष्ट कर्मो के अतिरिक्त 'नो कर्म' का भी उल्लेख जैनागम में मिलता है। कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक, शरीरादि रुप पुद्गल परमाणु जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है वस्तुत: 'नो कर्म' कहलाता है। ये दो प्रकार के होते है एक 'बद्ध नो कर्म और दुसरा 'अबद्ध नो कर्म'। शरीर आत्मा में बँधा होने के कारण बद्ध नो कर्म है। आत्मा का एक शरीर को छोडते समय और दूसरे शरीर में प्रवेश करते समय मध्य के समय में भी जिसे विग्रह-गति कहा जाता है, तैजस ओर रामणि शरीर आत्मा के साथ उपस्थित रहते हैं। अस्तु शरीर संसारी आत्मा के साथ प्रत्येक क्षण बद्ध है। अबद्ध नो कर्म वे कर्म है जो शरीर की तरह प्रत्येक समय आत्मा के साथ सम्यक्त नहीं रहते। उनमें साथ रहने का कोई भी निश्चय नहीं होता। उदाहरणार्थ धन, मकान, परिवार, आदि का साथ-साथ रहना संदिग्ध ही है। ये नो कर्म भी संसारी जीव पर अन्य कर्मों की भाँति अपना पभाव डाला करते है। संसारी प्राणी कर्मों के स्वरुप-शक्ति की महिमा से जब परिचित होता है तो निश्चय ही वह इन कर्म-झमेलों से मुक्तिपर्य अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध अर्थात प्रशस्त्र शुभ की ओर अपना उपयोग लगाता है। वास्तव में कर्म सिद्धान्तों के द्वारा संसारी जीव में वीतराग-वितानता की प्राप्ति के शुभभाव जाग्रत होते है। यह वीतरागता सम्यक दर्शन-ज्ञान चारित्र रुपी रत्नलय थी समन्वित साधनासे उपलब्ध होती है। वस्तुत श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का मिलाजुला पथ जीव को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। क्यों कि ज्ञान से भावों (पदार्थों का सम्यक बोध), दर्शन से श्रद्धा तथा चारित्र से कर्मों का निरोध होता है। जब जीव सम्यक दर्शन-ज्ञान चारित्र से युक्त होता है तब आश्रव से रहित होता है जिसके कारण सर्वप्रथम नवीन कर्म कटते-छुटते है फिर पूर्व बद्ध संचित कर्म क्षय होने लगते है। कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रुप से नष्ट हो जाते है तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरणीय, और दर्शनावरणीय तीन कर्म भी एक साथ पूर्व रुपे नष्ट हो जाते है इसके उपरान्त शेष चार अधाति कर्म भी नष्ट हो जाते है। इस ३०४ उस भूमि को नमन करो जिस स्थान पर गर्व का खंडन हुआ हो, ज्ञान की ज्योति प्रगटी हो, वह स्थल ही तो सचा तीर्थ है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार समस्त कर्मों का क्षय पर जीव निर्वाण मोक्ष को प्राप्त होता है। कर्म फल के विषय में जैनदर्शन का दृष्टिकोण बडा व्यापक है। इसके अनुसार प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है। आत्मा स्वयं अपने हि कर्मो की उदीरणा करता है स्वयं अपने द्वारा ही उनकी गर्हा-आलोचना करता है और अपने कर्मों के द्वारा कर्मों का सकंर-प्रास्तव का विरोध भी करता है यह निश्चित है कि जैसा व्यक्ति कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगता पडता है। ऐसा कदापी नही होता कि कर्म कोई करे और उसका फल अन्य कोई भोगे। कर्म-फल प्रदाता कोई अन्य विशेष चेतन व्यक्ति अथवा ईश्वर नहीं है, अपितु प्राणी अपने अपने कर्मानुसार स्वयं कर्ता और उसका भोक्ता है इसलिए समस्त आत्माएँ समान तथा अपने आप में स्वतन्त्र तथा महत्वपूर्ण है। वे रिती अखण्ड सत्ता का 'अंश रुप नहीं हैं। निश्चय ही ये कर्म-सिद्धांत व्यक्ती में स्वतन्त्रता की भावना जागृत करते है। स्वतन्त्रता से जीव में मौलिकता, स्वाभिमान आदि सद्गुण मंडित रहते है। स्वतन्त्रता के द्रमाही जीवन मिथ्यात्व काषायिक भावनाओं अर्थात क्रोधादि मानसिक आवेगों तथा अविरति अर्थात हिंसा, झूठ, प्रमाद आदि मनोविकारों से मुक्त होता हुआ आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर रहता है अर्थात् भोग से हटकर योग की दिशा में प्रविष्ट होता है? उपर्यंकित विवेचना से यह स्पष्ट है कि विश्व की समस्त घटनाएँ-दुर्घटनाएँ, जगत में व्याप्त अनेक विषयताएँ विचित्रताएँ कर्म जन्य है। जीवन में दूषण-प्रदूषण अर्थात अपराधिक दुष्प्रवृतियाँ कर्म-विपाक के अधीन हैं। इसलिए एक अध्यात्मयोगी कर्म के इस भयंकर दल-दल में फंसने की अपेक्षा कर्म-मुक्ति की साधना अर्थात मोक्ष मार्ग की ओर सदा प्रवृत्त रहता है। वह सबसे पहले उन दरवाजों को टटोलता है जहाँ से कर्मो का आगमन होता है क्योंकि उनके जाने बिना कर्म द्वार बन्द नही किए जासकते है। ये कर्म द्वार है १. योग २. मिश्यादर्शन ३. अविरति ४. प्रमाद ५. कषाय कर्म द्वार बन्द हो इसलिए साधक अपने भावों का सदा शुद्ध रखने का प्रयत्न करता है जिसके लिए वह हर क्षण निम्म पाँच बातो का चिन्तन-अनुचिंतन करता है १. गुत्री २. समिति ३. धर्म ४. द्वादश अनुप्रेक्षाएँ ५. परिषह १.गुत्री: - इसमें मन, वचन काय की पवति को बहिर्मखी से अन्तर्मखी बनाना होता है। साधक को अपनी साधनामें सदा लीन रहना होता है अर्थात मन, वचन व काय प्रवृत्ति का निरोध करके मात्र नाता दृष्टाभाव से निश्चय समाधि धरना होता है। यह गुत्री तीन प्रकार की होती है पहली कायगुत्री दूसरी वचनगुत्री और तीसरी मनोगुप्ती। राग द्वेष मन का परावृत्र होना, जो अपने अंत:करण से यह मानता है की मुझसे पाप हुआ, वह पवित्र निर्मल भी है। वे सर्वय वंदना के पात्र हैं। ३०५ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति समस्त असत्य भीषणादि का परिहार अर्थात, मौनधारणा वचन गुप्ति औदारिकादि शरीर की क्रियाओ से निवृति काय गुप्ति कहलाती है इन गुप्तियों के बल से ही संसारिक कारणों से आत्मा का गोपन होता है। २-समिति जीवन की समस्त कियाओं को विवेक पूर्वक सम्यक प्रकार से पवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति कहलाती है अर्थात समस्त रागादि भावों के त्याग के द्वारा आत्मा में लीन होना आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदि रुप से जो गमन अर्थात परिषमन होना समिति कहलाता है। समिति का व्यवहार सयंम शुद्धि अर्थात मन की प्रशस्त्र एकाग्रता का कारण बनता है, जो व्यक्ति में जागरण लाता है जिसके अभाव में कोई भी जीव मोक्ष मार्ग में प्रवृत नही होता है। जैनागम में समिति के पाँच भेद निरुपित है। १- ईर्या समिति २- भाषा समिति ३ - एषणा समिति ४ - आदान - निक्षेपण समिति ५ - प्रतिष्ठापन्न समिति। ईर्या समिति में जीवों की रक्षार्थ सावधानी पूर्वक चलना-फिरना भाषा समिति में हित-मित-मधुर और सत्य से अनुप्राणित भाषा का बोलना, एषणा समिति में निर्दोष एवं शुद्ध आहार ग्रहण करना, आदान निक्षेपण समिति में वस्तुओं को सावधानी पूर्वक उठाना रखना, प्रतिष्ठापना समिति में मूल-भूत को ऐसे स्थान पर जहाँ जीवों का घात न हो, विसर्जित करना होता है, इनके परिपालन से असंयम रूप-परिणामों के निमित्त से जो कर्मो का आद्रव होता है, उसका संवर होता है। ३ - धर्म व्यक्ति और समष्टि की शक्ति के लिए धर्मजीवन का आवश्यक अंग है। व्यक्ति के भीतर अनन्त शक्तियाँ विद्यमान हैं किन्तु वे सबकी सब सुप्त-प्रसुप्त हैं, उन्हें यदि जगाना है, प्रकट करना है तो हमे धर्म की शरण में जाना ही पडेगा। आध्यात्मिक उन्नतिके लिए, सुख-शान्ति के लिए तथा बार-बार जन्म - मरण से मुक्त्यिर्थ धर्म ही एक मात्र साधन और उपाय है जिसे क्षमा मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंञ्चन्य और ब्रह्मचर्य रूपमें व्यक्त किया जाता है। वास्तव में धर्म का परम एवं चरम लक्ष्य मोक्ष है। धर्म ही नवीन कर्मो के बन्धनों को रोक कर पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा में प्रमुख कारण होता है। इस लिए वह मोक्ष का साक्षात कारण/साधन/निमित्त बनता है। यह व्यक्ति को भोग से योग, संसार से मोक्ष की ओर ले जाने में प्रेरणास्फूर्ति प्रदान करता हैं। ४ - द्वादश-अनुप्रेक्षाएँ साधना में मन को साधा जाता है। उसे संसार की क्षणभगुरता का बोध कराया जाता है। रंग-बिरंगे आकर्षणों से पूर्णत: विरक्ति हेतु जैनागम में अनुप्रेक्षाओं का विधान बताया गया है जिनके बार-बार चिन्तवनसे कषाप-कलापों में लीन चित्त-वृत्तियाँ वीतरागता की ओर प्रेरित होती है। वास्तव में इन भावनाओं के आनेसे व्यक्ति शरीर व भोगोंसे निर्विण्ण होकर साम्यभाव में स्थिति पा सकता है। ये अनुप्रेक्षाएँ बारह प्रकार की होती हैं - अनित्य, अशरव, संसार, एकत्व, अन्यत्व, आशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मभावना। अनित्य भावना में संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, ऐसा विचार, अशरण भावना में ३०६ सत्य कमी कडवा नहीं होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नही होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते हैं। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्ट-मरण में तथा आपत्तियों - विपत्तियों में अपनी आत्मा के अतिरिक्त कोई भी रक्षा नहीं करता, ऐसा विचार, संसार-भावना में यह संसार यहाँ दु:खों का भण्डार है, ऐसा चित्तवन, एकत्व भावना में जीव संसार में अकेला आया है, ऐसा श्रद्धान, अन्यत्व भावना में चेतन - अचेतन समस्त पदार्थ अपने से अलग हैं, ऐसा भाव, अशुचि भावना में यह शरीर मल-मूत्र से वेष्ठित हैं, इसमें मोह करना निस्सार है, ऐसा भाव, समस्त भावना में कर्मोका आत्म-प्रदेशसे किस प्रकारसे बंधना होता है, ऐसा चित्तवन, संवर-भावनामें कर्म और उसकी बन्ध-प्रक्रिया को कैसे रोका जाए ऐसा भाव, निर्जरा भावना में बंधे हुए कर्मोकी निर्जरा। छुटकारा कैसे हो, ऐसा विचार, लोक भावना में यह लोक, आकाश में किस प्रकारसे ठहरा है? स्वर्ग मध्य और अधोलोक कहाँ पर अवस्थित हैं, ऐसा विचार क्रोधि दुर्लभ-भावना में सम्यग्दर्शनादि रूप रत्नत्रय की उपलब्धि कितनी कठिन है, उसे कैसे प्राप्त किया जाए, ऐसा भाव, तथा धर्म-भावनामें धर्म क्या है? ऐसा चिन्तवन धार्मिक प्राणियों द्वारा बार-बार किया जाता है। ५ - परीषह दूसरों के द्वारा दिए गए कष्ट अर्थात् उपसर्ग को साम्यभाव से सहज करना परीषह कहलाता है। सहिष्णुता कषायों या अन्य मजबूरी के साथ नही अपितु साम्यभावसे होनी चाहिए। परीषह से नवीन कर्म-कषाय आत्मा से बँधते नहीं है। इसमें तो जीवन विराट और समग्र बनता है। क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण आदि बाईस प्रकार के परीषदों का उल्लेख जैनागम में वर्णित है। एक कुशल साधक इन बाधाओंसे कभी विचलित नहीं होता और प्रशस्त मार्ग पर निरन्तर बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार कर्मास्रव का निरोध मन, वचन व काय के अप्रशात्त व्यापार को रोकने से, विवेक पूर्वक प्रवत्ति करनेसे, क्षमादि धर्मोका आचरण करनेसे, अन्त:करण में विरक्ति जगानेसे कष्ट सहिष्णुता और सम्यक चारित्र का अनुष्ठान करने से होता है। यह निश्चित है जीवनकी वे समस्त क्रियाएँ जिसकी पृष्ठभूमि में अविवेक, प्रमाद काम करता है, आस्रव को जन्म देती हैं, तथा विवेक -जागरण के साथ की जानेवाली क्रियाएँ धर्म और संवर का प्रादुर्भाव करती हैं। कर्म-मुक्तिकी साधनामें पहला सो पान संवर है। इसमें नवीन कर्मोको रोका जाता है किन्तु जो कर्म पहलेसे ही आ चुके हों उनको क्षय करना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। कर्म-क्षय के लिए जो साधना की जाती है उसे आगम में तप कहा गया है। इसके दो भेद किए गए हैं - एक बाह्य तप जिसके अन्तर्गत अनशन/उपवास अवमौदर्य/उनोदर, रस-परित्याग, भिक्षाचरी/वृत्ति परिसंख्यान, परिसंलीनता/विविक्त शय्यासन और काय-क्लेश/तथा दूसरा आभ्यन्तर तप जिसमे विनय, वैयावृत्य/सेवा-सुश्रुषा प्रायश्चित स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग/व्युत्सर्ग नामक तप आते हैं। आभ्यन्तर तप की अपेक्षा बाह्य तप व्यवहार में प्रत्यक्ष परिलक्षित है किन्तु कर्म-क्षय और आत्मशोधन के लिए तो दोनों प्रकार के तपोंका विशेष महत्त्व है। वास्तवमें तप के माध्यम से जीव अपने कर्मों का परिणमन कर निर्जरा कर सकता है। इसके द्वारा कर्म-आस्रव समाप्त हो जाता है और अन्तत: सर्व प्रकारके कर्मजाल से जीव सर्वथा मुक्त होकर सिद्धत्व को प्राप्त होता है। अर्थात् वह सदा अतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता अर्थात् परमात्मास्वरूप को प्राप्त कर विकल्पों से सर्वथा मुक्त होकर केवल ज्ञाता-द्दष्टा भाव में स्थिति पा जाता है। सन्दर्भ ग्रन्थ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता हैं। ३०७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १- दशवैकालिक सूत्र २- उत्तराध्ययन सूत्र ३ - सत्रकृतांग ४ - भगवती आराधना ५ - तत्त्वार्थ सूत्र - राजवार्तिक ७ - ज्ञानार्णव ८- वारस अणु वेक्खा ९ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, शु. जिनेन्द्र वर्णी, चारो भाग। १० - चिंतन की मनोभूमि, लेखक - उपाध्याय अमरमुनिजी। ११ - जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण - देवेन्द्र मुनि रामश्री १२ - धर्म, दर्शन, मनन और मूल्योकंन - देवेन्द्र मुनि रामश्री १३ - जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्षरूप - स्वरूप - राजीव प्रचंडिया एडवोकेट १४ - कर्म, कर्मबध्ध और कर्म क्षय - राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट १५ - दर्शन और चिन्तन - पं. सुखलालजी १६ - जैनदर्शन में मुक्तिः स्वरूप और प्रक्रिया - श्री ज्ञानमुनि जी महाराज (जैन भूषण), श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ। • विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साथ मन-व्यवसाय बधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु हैं, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती हैं। और अनंतानं भव भ्रमर वाला भोमिया भी बनता हैं। मानव जब मनोजयी होता हैं तो तब वह स्वच्छ आत्मा-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि उपलब्ध करता हैं। ३०८ कर्म की सत्ता (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पड़ी है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "संगीत का मानव जीवन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव" -मदन वर्मा, संगीत सौंदर्यानुभूति की नादात्मक अभिव्यक्ति हैं। यह मनुष्य समाज की कलात्मक उपलब्धि है और मानव भावना की उत्कृष्ट कृति हैं। आत्मिक उल्लास और आनन्दानुभूतियों को व्यक्त करने का संगीत से बढ़कर अन्य कोई इतना सशक्त माध्य नहीं हैं। संगीत में दो शब्दों का योग है। "सग और गीत। सम का अर्थ है सहित, अर्थात् वादन और नृत्य के साथ गायन। एक दूसरा अर्थ भी हैं 'सम' से तात्पर्य है 'सम्यक् । सम्यक् का अर्थ अच्छा अर्थात् अच्छा गाना। और अच्छा गाना वादन तथा नृत्य के सहयोग से ही बनता है। अत: संगीत में गायन वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं का समन्वय रूप है। इन अंगों को अलग-अलग प्रस्तुत करना संगीत की सजीवता को नष्ट करना है। तीनों अंगो का समन्वित प्रदर्शन ही संगीत है। प्राचीन शास्त्रकारों ने 'नाद ब्रह्म' कहकर संगीत को ईश्वर का रुप बताया हैं गायन वादन और नृत्य के संमिलित स्वरुप संगीत से परम आनन्द की प्राप्ति होती है। व्यक्ति समस्त बाह्य परिस्थितियों से कटकर आत्मकेन्द्रित हो जाता है। यह आत्म केन्द्रिय होना समाधि की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति की समस्त सोचने विचारने की शक्तियां नाद रूप में लग जाती है और व्यक्ति ईश्वर से एकाकार हो जाता है। इसलिए संगीत को ईश्वर का स्वरूप माना संगीत का सम्बन्ध ध्वनि, स्वर, तथा भाव से सम्बन्ध है। जीवन में इनकी व्यापकता है। अत: संगीत का क्षेत्र भी बहुत व्यापक है। संगीत सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। हवा की सर सराहट, नदी का कल बहता जल, मेघ की गंभीर गर्जना और पानी की बूंदो की छम-छम प्रत्येक संगीत से पूरित है। यही नहीं जब प्रकृति बिल्कुल शांत होती है, कहीं कोई आहट, कोई स्पन्दन, कोई सरसराहट नहीं हो तब वातावरण में सन्नाटा ही प्रतिध्वनि होता हैं वह संगीत की ही प्रतीती है। संगीत असीमित, अछोर तथा अशेष हैं। विद्वानों ने संगीत को ईश्वर प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन माना है और अपनी खोज द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि संसार के अन्य समी रास्तों में उलझाव हैं, भटकन हैं। व्यक्ति उन पर चलकर कहीं न कहीं प्रपंच में पड़ सकता है, अपने लक्ष्य से भटक सकता है क्योंकी अन्य साधन जैसे तप, दान, यज्ञ, कर्म और योग इन सब में चित्त का विचलन संभव हैं। तपस्या का आरंभही कष्ट से होता हैं। दान और यज्ञ के लिए प्रथम स्वयं का साधन सम्पन्न होना आवश्यक हैं। कर्म में फल की भावना पहले जाग्रत हो जाती है। योग का बहुत अस्पष्ट और जटिल है। फलत: व्यक्ति बहुत जल्दी अपने निर्णय से डिग जाता है। किन्तु संगीत ही एक मात्र माध्यम है जो समस्त विचारों से मुक्त रखते हुए मोक्ष के मार्ग तक पहुँचता है। संगीत योग कि विशेषता यह है कि इसके प्रारंभ और अंत में सुख ही मिलता है। इसलिए मोक्ष का मार्ग कष्ट रहित और सहन हो जाता है। योग और ज्ञान के आचार्य श्री याज्ञवल्क्य कहते हैं कि "वीणा वादन तत्वज्ञ: श्रुति जाति विशारदः।" तालज्ञश्चाप्रयासेन, मोक्ष मार्ग प्रयच्छति॥" "शिक्षा का, मनुष्य का सम्यक विकास में बहुत बड़ा योगदान हैं (संगीत शास्त्र के अनुसार) मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करने को शिक्षा ही कहा गया है। मनुष्य के विकास में विभिन्न विषयों की मान्यता है। किन्तु हृदय पक्ष का विकास ललित कलाओं से संभव हैं। देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं। ३०९ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कलाओं में भी संगीत का स्थान सर्वोच्च है।" संगीत मानवता का संचार करता है। यह जीवन का समुचित विकास करता है। जीवन को अनुशासित और नियन्त्रित करता हैं। सम्यता, सांस्कृतिकता विशाल द्रष्टि आत्मबल, सहनशीलता और विनम्रता की सृष्टि संगीत से ही संभव है। संगीत से हृदय की कटुता, छल, प्रपंच कठोरता नष्ट होती है और शिष्टता तथा स्नेह स्थापित होता है। यदि जीवन से संगीत अलग कर दिया जाय तो फिर मनुष्य केवल मशीन बनकर रह जायगा। आज की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था ने व्यक्ति, व्यक्ति को अलग किया है। सामाजिक उच्चवर्ग और निम्न वर्ग को जन्म दिया बीच खाई को और अधिक गहरा कर और दुश्मन मानते हैं। इसके पीछे दो एकता की जगह विखण्डन की स्थिति निर्मित की हैं। है। इस दोष पूर्ण आर्थिक व्यवस्था ने दोनों वर्गों के दिया है। नतीजन दोनों वर्ग एक दूसरे को प्रतिद्वन्दी महत्वपूर्ण घटकों का पूरा-पूरा हाथ हैं। ये दोनों घटक है राजनीति और धर्म । सारा समाज धर्म और राजनीति पर टिका है पूर्णतया इन्हीं से प्रभावित हैं और संचालित हैं यह निर्विवाद सत्य है कि राजनीति और धर्म कभी व्यक्ति को जोड़ती नहीं, तोड़ती ही है। इन दोनों घटको ने कभी समाज को एकता के सूत्रमें नहीं बांधा, हमेशा विघटित ही किया है। इसका कारण यह है कि समाज के टूटने, जर्जर होने और आपस में टकराने पर ही राजनीति पनपती हैं और धर्म जीवित रहता है। इसी तरह भाषा भी कभी किसी को एक सूत्र में नहीं बांध सकती। जिस भाषा को भी महत्व दिया जायगा वह दूसरों पर लादी गई भाषा ही होगी विवशता वश लोग दूसरी भाषा को स्वीकार करते है लेकिन अन्दर से लोग उसके प्रति समर्पित नहीं होते। इसी कारण बार बार भाषा का झगडा खड़ा हो जाता है क्योंकि कोई भी यह नहीं चाहता कि उस पर दूसरी भाषा का अधिकार हो इस तरह धर्म और राजनीति की तरह ही भाषा भी एक दूसरे को जोड़ने में सहायक नहीं हो सकती । जब भी इन आधारों पर प्रयास किये गये आपसी टकराहट तथ भेद अधिक पैदा हुए हैं। | व्यक्ति व्यक्ति के बीच अलगाव समाप्त कर आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने का काम कला के द्वारा ही संभव है कला में भी संगीत से अधिक संभावना है। मनुष्य संगीत के द्वारा आदि काल से प्रभावित होता आ रहा हैं। संगीत के प्रती आकर्षण मनुष्य का जन्मजात गुण हैं। छोटे बच्चों में संगीत के प्रति बहुत अधिक रूझान होता है। बच्चे के समाने यदि गीत गाया जावे, कोई वाद्य या झुनझुना ही बजाया जाय तो बच्चा खुश हो उठता है। उस धुन के साथ वह किलकारियां भरने लगता है। तालियां बजाने लगता है और हाथ पाँव पटकने लगता है लोरी सुनकर सो जाता है। सोचिये क्या कारण हैं कि बालक इतना मुग्ध हो जा है? क्या केवल ध्वनि के कारण ही उसका ध्यान बह जाता हैं? यदि ऐसा हैं तब तो कुत्ते के भौंकने से भी इतना प्रभाव पड़ना चाहिए ? पर ऐसा नहीं होता। ध्वनी के साथ रंजकता भी तो आवायक है क्योंकि बच्चा तो रंजकता से प्रभावित होता हैं। यही रंजकता संगीत में होती है। मनुष्य हर स्थिति और अवस्था में संगीत का सहारा लेता है। दुःख में भी तो सुख में भी बचपन में वह आनन्द और मस्ती का संगीत पसंद करता है। युवावस्था में श्रृंगार और प्रेम तथा उत्साह वाला संगीत पसंद करता है प्रौढ़ होने पर उसकी रुचि गंभीरता की ओर हो जाती है तो वृद्धाअवस्था में वह आध्यात्मिक संगीत में आत्मिक शांति ढूंढता है। संगीत का ध्वन्यात्मक रुप भाषा के जन्म से पहले का नहीं तो कम से कम उसके साथ ∞ ३१० अभिनय कभी सत्य नही होता किंतु छद्म वेषधारियों को इसका ध्यान कुछ कम ही रहता है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का तो हैं ही। उस समय जब भाषा का प्रयोग ठीक शुरु नहीं हुआ था। व्यक्ति प्रसन्नता और उत्साह के क्षणों में मन के उदगारों को विभिन्न हावभाव उछलने कूदने तथा विभिन्न ध्वनियों के द्वारा अभिव्यक्त करता था। धीरे धीरे उन विशिष्ट ध्वनि समूहों को स्थायी बना लिया गया। समय के साथ साथ उसमें सुधार होता गया। आगे चलकर वही लोक संगीत बन गया। जहाँ मनुष्य ने आग का अविष्कार किया। शिकार और सुरक्षा के लिए हथियारों का प्रयोग किया वहीं उसने अपने मनोरंजन के लिए संगीत के बांस यंत्र बनाये। वे वाद्ययंत्र पत्थर, लकड़ी और पशुओं के "सोधी के हुआ करते थे। 'सींघी' वाद्य जो कि पशुओं के सींघ से बनाया गया है जो उसी आखेट युग का है। इससे प्रकट होता है कि बिल्कुल प्रारंभिक काल में भी मनुष्य संगीत से प्रभावित होता है। हमारे यहाँ आदिम जातियों में संगीत के प्रति बहुत लगाव है। वे जातियाँ जो अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। शिक्षा का उनमें कोई प्रचार-प्रसार नहीं है। आज की शहरी सभ्यता तथा समस्त विकास से वे पूर्ण तथा अपरिचित है, फिर भी संगीत उनके जीवन का एक आवश्यक अंग है। विवाह जन्म और अन्य शुभ अवसरों पर सामूहिक गायन और नृत्य का आयोजन होता ही है। मेले तथा सार्वजनिक उत्सवों पर पुरुष और महिलाओं मादल, ढोल, बांस की मनोहारी धुन और थाली की झनकार पर झुमते गाते लोगों को देखकर लगता है संगीत इनसे गहराई तक उतरा हुआ है। शिक्षा इन्हें प्रभावित नहीं कर सकी, शहरी चमक-दमक का इन पर कोई असर नहीं पड़ा पर संगीत इन्हें जरूर छू गया। क्या इससे बढ़कर है कोई और साधन जो व्यक्ति को ऐसे अद्भुत आनन्द में डूबो दे? शायद नहीं हमारे प्राचीन कवि इस बात को खूब अच्छी तरह जानते थे कि कविता को संगीत के द्वारा ही व्यक्ति की अन्तरआत्मा तक पहुँचाया जा सकता है तभी तो उन्होंने अपने काव्य में संगीत को प्रधानता दी है। तुलसीदास, सूरदास, संत तुकाराम दादू दयाल, कबीरदास और मीराबाई आदि रचनाकारों ने मनुष्य के स्वभावको सामने रख साहित्य की रचना की है। रामचरित मानस जितनी पढ़े लिखें और देहातियों में पढ़ी और सुनी जाती है। सुरदास और कबिरदास जन-जन के गायक बने तथा मीरा के गीत कंठ-गंठ के स्वर बनकर अमर हो उठे। इन कविओं की इतनी लोक प्रियता का कारण यह है उन्होंने संगीत का सहारा लिया। अपनी रचनाओं में रस और ज्ञेयता का विशेष ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाएँ जन-जन तक पहुँच कर अमर हो गई। पंत प्रासाद निराला, महादेवी वर्मा और हरिवंशराय बच्चन ने इसी सिद्धान्त को अपनाया। आज के रचनाकार योग्यता के मामले में बहुत आगे हैं। उनका लेखन भी बहुत सशक्त है। फिर भी उनकी बात जन सामान्य को छूती नहीं, उन्हें बेचैन नही करती, सोचने के लिए उकसाती नहीं। इसका सीधा सा कारण यह हैं कि आज की कविता में रस समाप्त हो गया है। कविता से संगीत पक्ष को निकाल दिया गया फलत: कविता बेजान हो गई है। अब रचनाकार लिखता तो बहुत है, सप्रयास अच्छा भी लिखता हैं पर वह जन-जन तक पहुँचता नहीं। भुले भटके पहुँच भी जाता है तो असर नहीं करता। कविता केवल शब्द ही नहीं रस भी है, लय भी है तथा भाव भी हैं और वह सब संगीत के बिना कहाँ संभव? संगीत के बिना कविता शुष्क हो गई। उसमें अकाल ग्रस्त खेत की तरह तीडें पड़ गई हैं। कितने ही वाद खडे हो गये हैं और जन-जन के दु:ख तकलिफों को उकेरने और जन चेतना का दावा करने वाली कविता अपने आपसी झघडों में पड़कर नष्ट होती जा रही हैं। संगीत समानता के भाव को जन्म देता है। सहयोग, उदारता तथा परस्पर में भी सिखाता दोषों का स्वयं निरीक्षण करे, निरीक्षण करने बाद उसका संशोधन करे। ३११ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जन कोई संगीतकार अपनी कला का प्रदर्शन कर रहा होता है तब कोई श्रोता या दर्शक यह नहीं सोचता कि वह कलाकार किस जाति या धर्म से सम्बन्धीत है। उस समय जातिगत अथवा धार्मिक भेद याद नहीं आते। उस समय तो व्यक्ति बाहर के तमाम अवरोधो से मुक्त होकर परम आनन्द में रमने लगता हैं। वह आनन्द आत्मा से उपजता है। आत्मा के धरातल पर सब समान है। संगीत आत्मा को जगाने का काम करता है। मानव को उदार मन, निर्विकार और निर्मल बनाता हैं। यही कारण हैं हमें बिसमिल्लाखां की शहनाई में उतना ही आनन्द आता है जितना पं. रविशंकर के सितार में आता है। बडे गुलाम अली हमें उतने ही प्रभावित करते हैं जितने पंडित औंकारनाथ ठाकुर, अमीरखां, अली अखबर खां, अब्दुल हमीद जाफर, परविन सुल्ताना, बेगम अख्तर, मेहदी हसन का संगीत सुनकर मन रस में उतना ही भीग जाता है जितना कुमार गंधर्व पं. जसराज जीतेन्द्र अभीषेकी, भीमसेन जोशी, शरन रानी और निर्मला देवी का संगीत सुनकर भीग जाता है। इन कलाकारों का संगीत सुनते हुए मन में कहीं लेश मात्र विकार शेष नहीं रहता। संसार का कोई भी ऐसा साधन नहीं है जो व्यक्ति को व्यक्ति से इतनी गहराई में सहजता से जोड़ दे। - संगीत का प्रभाव केवल मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और वनस्पति पर भी देखा गया है। बाँसुरी की मनोहारी धुन सुनकर 'हीरण' दौडा आता है। "बीन' की आवाज पर सर्प झूमने लगता है। अलगुंजो की गूंज पर 'गाँये' रंभाती हुई दौडी आती है। इसके अलावा प्रयोगों द्वारा यह भी प्रमाणित हो गया है कि संगीत के द्वारे पौधे भी बड़े हो सकते है। इस प्रकार कुछ रोगों को संगीत के द्वारा दूर करने में सफलता मिली है। इसका कारण यह है कि संगीत रोगी में आशा का संचार करता है। उत्साह और जीवन के प्रति मोह पैदा करता है, जो कि किसी भी रोग के निदान में काफी सहायक है। इतिहास में संगीत के चमत्कारिक प्रभावों के कई प्रमाण मिलते हैं। कृष्ण की बांसुरी पर बृज के नरनारी, पशु-पक्षी सब मूग्ध थे। संगीत सम्राट तानसेन और बैजू बावरा के बारे में भी यही प्रचलित हैं कि वे अपने संगीत से वर्षा करा देते थे। दीयों का जलना और पत्थरों को पिघलाना उनके लिए सहज था। यह बात शायद कुछ लोगों को अतिशयोक्ति पूर्ण लगे पर पंडित औंकार नाथ ठाकुर ने जो प्रयोग किया उस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। उन्होंने एक बार चिड़िया घर के एक खूखार शेर को बेला (एक वाद्य) सुनाया। उधर पंडितजी बेला बजा रहे थे इधर दहाड़े मारता हुआ शेर शांत होने लगा। थोड़ी देर बाद देखा कि पंडित औंकारनाथ ठाकुर जंगल के सामने बैठे तन्मयता से बेला पर राग बजा रहे थे और उधर जंगल के अन्दर शेर चुपचाप बैठा अपने पंजे चाट रहा था और उसकी आँखो से आँसु गिर रहे थे। यह संगीत का ही प्रभाव था जिसने खूखार जानवर को भी अमिभूत कर दिया। अंत में यही कहा जा सकता है कि संगीत का मानव जीवन से बहुत गहरा सम्बन्ध संगीत को सीधे आत्मा तक पहुँचता है। संगीत सुनकर सुखी आदमी का सुख द्विगुणित हो जाता है। समस्त चिंताओं और निराशा और तनावों से मुक्ति के लिए संगीत एक मात्र उपाय है। यह ईश्वर प्राप्ति का सहज माध्यम है। व्यक्ति, व्यक्ति के बीच आत्मीयता का सेतुरुप हैं। संसार का प्रत्येक व्यक्ति और भाषाएँ जानता हो या नहीं, पर वह संगीत की भाषा जरुर जानता है। ३१२ शास्त्र वाणी का संक्षेप में यदि कोई सार है तो मात्र इतना है कि अनासत्क भाव से किया जाये। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा, स्वरूप और साधना - दर्शन रेखाश्री, जिस मनुष्य ने मनुष्य जीवन पाकर जितना अधिक आत्मविश्वास सम्पादित कर लिया है वह उतना अधिक शान्ति पूर्वक सन्मार्ग पर आरूढ़ हो सकता है, उसके लिए सर्व प्रथम ज्ञानी भगवन्तों ने मानव को क्षमा रखने का उद्देश दिया. क्षमा का स्वरूप:- क्षमा अमृत है, क्रोध विष है, क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है, क्षमा युक्त जो धार्मिक अनुष्ठान वगेरे करने में आते है वह भी सफलता को प्राप्त होते है जैसे कि तप, जप, संयम स्वाध्याय, ध्यान, योगानुष्ठान आदि में कितने ही विकट परिषह संकट उपसर्ग आये तो भी शान्तिपूर्वक उन्हें सहन करें, हृदय मन्दिर में पूर्ण क्षमा को धारण करें, क्षण मात्र भी क्रोध नही करे, क्षमा ही मानव जीवन को उज्जवल बनाती है, मानवता का विकास करती है, और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। क्रोध वेशी में दुराचारिता, दृष्टता, अनुदारता, परपीड़कता इत्यादि दुर्गुण निवास करते है। और वह सारी जिन्दगी चिंता, शोक और सन्ताप में घिर कर व्यतीत करता है, क्षण भर भी शान्ति से श्वास लेने का समय उसको नहीं मिल पाता, सदैव अशान्ति मय जीवन गुजारता है इसलिये क्रोध को पूर्णतया नष्ट कर क्षमा को अपना लेना चाहिए, शास्त्रकार भगवन्तोंने हमारे लौकिक पर्व पर्युषण महापर्व के अन्तर्गत श्रावक श्राविकाओंको मुख्य रूप से विशेषतः पाँच कर्तव्यों का पालन करने का उद्देश्य दिया है, वे पाँच कर्तव्य इस प्रकार है १ अमारी प्रवर्तन २ साधर्मिक भक्ति ३ अठ्ठम की तपस्या ४ चैत्यपरीपाटी और पाँचवा अन्तिम कर्तव्य बताया है ५ क्षमापना इन कर्तव्यों का हमें उपदेश प्रसाद महाग्रन्थ से बहुत कुछ जानने को मिलता है परन्तु मुख्य रूप से संक्षेप में दो बातें अपनाने पर भी मन की मलिनता दूर हो जाती है। वे दो बाते है "नमामि सव्व जिनानाम" सर्व जिनेश्वर देवों को नमस्कार करता हुँ । "खमामि सव्व जिवानाम" सर्व जीवात्माओं के साथ क्षमापना कर उनका सत्कार करता हुँ। "नमस्कार" और "सत्कार" इन दो बातों को जीवन में आचरित करने से और साधना करने से दो प्रकार के लाभ साधक को हो सकते है, साधक को साध्य प्राप्ति भी इसीसे होती है। १ सर्व जिनेश्वर देवों की वन्दना करने से आत्मा का सहज स्वाभाविक विशुद्ध सम्यगदर्शन गुण निर्मल बनता है और जीवात्मा को समक्ति की प्राप्ति होती है २ जिन दर्शन से आत्मा के ऊपर से मिथ्यात्व रूपी कर्मों का घर्षण मिटकर स्वस्वरूपॉलब्धि का दिग्दर्शन होता है, परन्तु इन हेतुओं की पूर्ति के लिए क्षमा स्वरूप और साधना की आवश्यकता है। इसलिये प्रत्येक जीवात्मा को जीनालम्बन को स्वीकार कर साकर और निराकार भाव से ध्यान करना चाहिए। क्षमा के स्वरूप को विशद रूप से समझाते हुए परम पूज्य हेमचन्द्र आचार्य और पूज्य हरिभद्र सूरिने अपने ग्रन्थ की रचना में लिखा है कि..... इस भूमण्डल में भ्रमण करते हुए प्रत्येक जीव के साथ भव-भवान्तर में नाना प्रकार से अनेक विध सम्बन्ध बन्धे हुए है, जिससे किसी प्राणी के साथ ज्ञान अथवा अज्ञान एवं प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अज्ञानवश रागवश द्वेशवश, क्रोधवश, मानवश, मायावश, लोभवश विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो यह हैं मन को वश में करना। ३१३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी निकृष्ट प्रवृत्ति और हिन प्रवृति के फलस्वरूप उन जिवात्माओं के साथ अव्यवहार होने के कारण उन समस्त प्राणियोंकी आत्मा अपने द्वारा दुःखीत हुई हो, पीडित हुई हो तो मनसा, वाचा, कर्मणा के त्रिवेणी संगम विनम्र भाव से मैं वारंवार वैर विरोध की दीर्घ परम्परा को तिलांजली देते हुए अपने मनोमालिन्य हेतु सभी जीवों से क्षमा याचना करना उसी के द्वारा हमारे आत्मोत्थान व जीवन विकास के लिए की गई प्रत्येक साधना - साध्य की प्राप्ति में अभिवृद्धि करके परमात्मा तक पहुंचाने में सहायक होती है ज्ञानीयों ने तो क्षमा धर्म को साधना सिद्धि की पूंजी कहा है जगत के सर्व जीवों के साथ की गई क्षमापना स्वात्मा के लिये एक सुन्दर प्रार्थना है। नमस्कार करने से विनय गुण प्रगट होता है। क्षमा भाव रखकर सभीका सत्कार करने से आत्मा का अवगुरुलहान गुण प्रकट होता है दशविध यति धर्म में प्रथम लक्षण प्रथम गुण की सम्यग् प्रकार से परिपुष्टि होती है वह सर्व प्रथम गुण व लक्षण है "क्षमा क्षमा आत्मा में जो कषायिक विकृति पैदा हुई होती है, उसे दूर कर आत्म कमल को शुद्ध निर्मल स्फाटिकवत प्रकृति अवस्था में लाने की सुन्दर व्यवस्था कर देती है। क्षमा... अर्थात्त जीवों की सहानुभूति प्राप्त करने की केन्द्रशाला क्षमा... अर्थात्त आध्यात्मिक विकास की पाठशाला क्षमा... अर्थात दुष्कर्मों की परिसमाप्ति का प्रथम चरण क्षमा... अर्थात्त मन और मस्तिष्क को शुद्ध करने की प्रयोग शाला पर्युषण पर्व में भी पाँचवे कर्तव्य के विषय में भी कहाँ है कि इन आठ दिनों में अविचार असद व्यवहार और दुराचार की आहुति देकर " क्षमावाणी पर्व पर वर्ष गत हुए भूलों की पूर्णाहुति कर नये रूप से जीवन की साधना प्रारम्भ करना यही जिन वाणी का सन्देश है मनुष्य मात्र भूल का भरा पिटारा है उस भूल को सुधार कर वैर विरोध रूप भूल को दूरकर कषाय रूप त्रिशुलको त्याग कर जीवन बगीया में फूल खिलना यही सच्चा क्षमा पर्व है। किसी विद्वान ने कहा है कि ठंडा लोहा गर्म लोहे को काट देता है दियासलाई दूसरों को जलाने के पूर्व अपना मुख सर्व प्रथम जलाती है। अग्नि के दो रूप है १ ज्योति और २ ज्वाला अब हमें अपने स्वयं के जीवन विकास के लिए कुछ सोचना विचार करना है। १ ज्योति बनने की कला क्षमा गुण को धारण करने से उपलब्ध होती है २ ज्वाला की बला क्रोधाग्नि से जीवन को और साधना को नष्ट कर डालती है ज्योति स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी आलोकित प्रकाशित करती है ज्वाला - स्वयं जलकर दूसरों को भी जलाती है और नष्ट भष्ट कर देती हैं पुरण चोट करने पर टुटता नही कायम रहता है जब कि हथोड़ा चोट करता है और टुट भी जाता है। स्टर्न नामक एक विद्वान ने अंग्रेजी में लिखा है कि कायर मानव कदापि क्षमा नही कर सकता, जो व्यक्ति बहादुर है वही क्षमा कर सकता और दे सकता है, कहा भी गया है कि ३१४. . क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो । उसको क्या जो दन्त हीन, विष रहित विनीत सरल हो। आग का छोटे से छोटा तिनका भी भयंकर ज्वाला निर्मित कर सकता है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा विर शूरविर मनुष्यों को भूषण है अलंकार है उद्दण्ड एवं क्रोधी व्यक्ति का क्रोध भी क्षमा के कारण को समाप्त हो जाता है " क्षमा वीरस्य भूषणम् ग्रन्थकार महर्षियोंने क्षमा वाणी को वीर का भूषण शणगार कहा है, संस्कृत के एक श्लोक में ज्ञानी भगवन्त कह गये है कि " क्षमाशास्त्र करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति । अतृणे पतितो वहिनः स्वयमेवोप शाम्यति ॥ जिसके कर कमल में क्षमा रूपी शस्त्र है, उसका दुष्ट जन क्या कर सकते है जिस प्रकार सुखे तिनके से रहित स्थान में पड़ी हुई अग्नि अपने आप ही शान्त हो जाती है किसी मर्मज्ञ मनिषीने कहा "क्षमा" यह तो देवी दिव्य गुण है जिसमें यह गुण होता है वही परमात्मा का प्रियपात्र बन सकता है "क्षमा" धारण से मानव की मानवता में अभिवृध्धि होती है। "क्षमा" के अभाव में व्यक्ति का सारा आयाम कागज के फूल के समान है। क्षमाधारी शत्रु को भी मित्र बना लेने की कला जानता है उसका व्यक्तित्व बहूत ही स्वच्छ, सुन्दर, निर्मल होता है इतिहास के पृष्ठों पर कितने ही सचोट उदाहरणों का विस्तृत वर्णन हमें देखने को मिलते है कि " क्षमागुण" के कारण अनेक भव्य महान आत्माओंने स्वयं को भवसागर से पार कर लिया और अन्य को भी भवरूपी समुद्र से तिरने का उपाय बता दिया क्षमा धारक कभी हिंसक नहीं हो सकता क्षमा कूलककी छठ्ठी गाथा में लिखा कोहे वसटे भंते जिवे किं जणइ इय विजाणंतो भगवइ वयणं निलज्ज देसी कोवस्स अवगातं हे परमात्मा क्रोध के वशिभूत हुआ जीव क्या उत्पन्न करता है? इसके उतर के लिए श्री भगवती सूत्र का वचन हे निर्लज्ज । क्रोध के आवेश में क्यो अवकाश प्रदान कर कटु परिणामी कर्म का बन्धन करता है जिससे आत्म अवोन्नति का मार्ग रूक जाता है और साधना की सफलता में बाधा उत्पन्न होती है। मित्रस्याहं चक्षुणा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुणा सर्वानि भूतानि समिक्षन्ताय सर्व प्राणी जगत को मैं मित्र की दृष्टि से देखूं मुझे भी सभी जीव मित्रता की दृष्टि से देखें। यह आत्मीय भाव की उन्नत स्थिति है। इस उन्नतस्थिति को प्राप्त करने के लिए साधक को क्षमा की साधना करना अनिवार्य है जिससे व्यक्ति का हृदय उदार विशाल बन जाये। अनुदार व्यक्ति का कभी भी व्यक्तित्व नही निखर सकता व्यक्ति सर्वोपरी नही है उसका व्यक्तित्व सर्वोपरी है पृथ्वी को माता क्यों कहते है ? माता जिस प्रकार पुत्र पुत्रियों के लिए अनेक कष्ट सहन करती है। उनका लालन पालन, पोषण, देख भाल भली प्रकार से करती है उच्चत्तम वात्सल्य भाव रखती है। स्वयं कष्ट सहकर भी पुत्र पुत्री की सूरक्षा करती है। इसीसे माँ यह शब्द विश्व का सबसे प्यारा शब्द माना गया। अतः इसी कारण माता पिता कहते है। माता की भांति 'पृथ्वी' भी कितना सहन करती है चाहे पीटे, कुटे, मलमूत्र करे, पैरों जिसे कोई चिंता नही होती उसकी निन्द्रा से गाढ़ी दोस्ती होती है। ३१५ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रौंदे फिर भी "पृथ्वी" सब कुछ सहन कर "क्षमा" करती है। इसलिये मनस्विद कहते, है कि साधक को पृथ्वी के समान प्रतिकूल, उपसर्ग, परिषह, कष्ट के समय सहनशिल बनकर क्षमाधारी बनना चाहिए । ईसामसीह को द्वेषियों ने शुली पर लटका दिया उस समय भी असाध्य पीडा के मध्य भी उन्होनें अमृतामय वाक्य कहा था हे परमेश्वर। इन्हें क्षमा करना ये अल्पमति नही जानते है कि हम क्या कर रहे है? यह क्षमा का दिव्य उदाहरण है। चन्द्र प्रधोत कितना खूखार था राजा उदयन ने युद्ध जीतकर चन्द्र प्रधोत को बंधी बना लिया किन्तु महापर्व के शुभ अवसर पर राजा उदयन ने क्षमा याचना कर चन्द्र प्रधोत जैसे क्रुर हृदयी को भी परम मित्र बना लिया। प्रभु श्री महावीर देव को भी संगम देव के द्वारा छः माह तक अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाये, चड़कोशी सर्प के द्वारा डंख मारना, ग्वाले के द्वारा कान में किलें ठोकें जाना इतने भयंकर उपसर्ग परिषह के बिच भी साधना में अगि रहे उन प्राणियों के प्रति लेश मात्र भी रोष नही किया यह क्षमापना का सचोट उदाहरण है। गजसुकुमाल मुनि को स्वयं के ससुर सोमिलने मीट्टी की पागड़ी बांधी और उसमें अंगारे भर दिया सिर की चमड़ी जलने लगी तब भी वह अपनी साधना से विचलित नही हुए क्षण मात्र क्रोध भी नहीं किया बल्की अपने ससुर का उपकार माना की देखो इसने मुझे मोक्ष की पागड़ी बंधाई, इसी प्रकार मेतार्यमुनी स्कन्दक आचार्य के ५०० शिष्य और राजा प्रदेशी, खदक मुनि इन समस्त महापुरुषोंने क्षमाव्रत को अंगीकार मन के रोष को मिटाकर आत्मा साधना में तल्लीन रहे और साध्य की प्राप्ति की क्षमापना करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का गम्भीर प्रत्युत्तर देते हुए क्षमावीर श्रमण भगवान महावीर प्रभु फरमाते है कि " खमावाण माएणं जीवे पल्हामज भावं जणयइ' क्षमापना करने से अथवा क्षमा देने या लेने से जीव प्रमोद भाव ( आल्हाद ) आत्मानन्द भाव की अनुभूति करता है मन के धरातल पर पवित्र प्रेम की गंगा प्रवाहित होती है। "क्षमा शस्त्र जेना हाथमां दुर्जन तेने शु करी शके" जैन दर्शनकार कहते है कि मन शुद्धि से साधना फलवति बनती है साधना में अपूर्व सौरभ लाने के लिए मनोनिग्रह की आवश्यकता है। मन के मलिन विचार ही विकार पैदा करते है और साधना की निंब को उखाड़ देते है, साधना में मन की शुद्धि होना जरूरी है। ३१६ "जहाँ सद् विचार है, वहाँ विकार नहीं जहाँ उपासना है, वहाँ वासना नहीं बस क्षमा स्वरूप की गई साधना का ज्ञानी भगवन्तोंने तो बहूत ही अनेक प्रकार से हमें समझाने का प्रयास किया है और उसी का जीवन धन्य बनता है जो क्षमा सहिष्णुता पूर्वक साधना के शिखर पर चढ़ता है। अस्तु. जहाँ उज्जवल प्रभात है, वहाँ अन्धकार नहीं । जहाँ क्षमापना है वहाँ विराधना नही ।" निराश हृदय में जब आशा का अंकुर फूटता है तब उस में आनन्द की किरणें फूटने लगती है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि में धर्म का स्वरुप प्रो. सागरमल जैन मानव प्रकृति: मनुष्य विश्व का श्रेष्ठतम् प्राणी है, उससे श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं। फिर भी मानव अस्तित्व जटिल (Complex), विरोधाभास पूर्ण (Paradoxical) और बहु-आयामी (Multi-dimension) है। मनुष्य मात्र जैविक संरचना नहीं है, उसमें विवेकात्मक चेतना भी है। शरीर मात्र चेतना यह हमारे अस्तित्व के मुख्य दो पक्ष है। शरीर से वासना और चेतना का प्रस्फुटन होता है। मनुष्य की यह विवशता है कि उसे वासना और विवेक के इन दो स्तरों पर जीवन जीना होता है। उसके सामने शरीर अपनी मांग प्रस्तुत करता है, तो विवेक अपनी मांग प्रस्तुत करता है। एक और देहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होती है, तो दूसरी और विवेक द्वारा निर्धारित जीवन जीने के कुछ आदर्शों का परिखालन भी करना होता है। वासना और विवेक के संघर्ष को झेलना यही मानव की स्थिति है। यद्यपि जीवन जीने के लिए शारीरिक मांगो को पूर्णत: ठुकराया नहीं जा सकता है, किन्तु एक विवेकशील प्राणी के रुप में मनुष्य का यह भी दायित्व बनता है, कि वह अन्ध वासना-चालित जीवन से ऊपर उठे। वासनात्मक आवेगों से मुक्ति पाना यही मानव-जीवन का लक्ष्य है। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है। जहाँ पशु का जीवन-व्यवहार पूर्णत: जैविक-वासनाओं से नियंत्रित होता है, वहाँ मनुष्य की यह विशेषता है कि वह विवेक के तत्व द्वारा अपने वासनात्मक जीवन पर भी नियंत्रण कर सकता है और इसी में मानवीय आत्मा में अनुस्यूत स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है। पशु का जीवन व्यवहार पूर्णत: प्रकृति के अन्धयान्त्रिक नियमों से चालित होता है, अत: वह परतन्त्र है, जब कि मनुष्य प्रकृति के यान्त्रिक नियमों से उपर उठकर जीवन जीने की क्षमता रखता है, अत: उसमें स्वतंत्रता या मुक्त होने को सम्भावना भी है। यही कारण है कि जहाँ पशु जीवन में विकास और पतन की सम्भावनाएं अत्यन्त सीमित होती है, वहाँ मनुष्य में विकास और पतन की अनन्त सम्भावनाएं है। वह विकास की दिशा में आगे बढ़े तो देवत्व से उपर उठ सकता है और पतन की दिशा में नीचे गिरे तो पशु से भी नीचे गिर सकता है। इसे जैन धर्म की भाषा में कहें तो मनुष्य ही विश्व में ऐसा प्राणी है, जो एक और आध्यात्मिक पतन के द्वारा नारकीय जीवन के निम्नत्म स्तर (सप्तम नरक) को प्राप्त कर सकता है, तो दूसरी और आध्यात्मिक विकास के द्वारा मुक्ति के परम् साध्य को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य की इस आध्यात्मिक विकास यात्रा को धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। मानव की विकास यात्रा का सोपान: सामान्यतया आचार और व्यवहार के कुछ विधि-विधानों के परिपालन को धर्म कहा जाता है। धर्म हमें यह बताता है, कि यह करो और यह मत करो, किन्तु आचार के इन बाह्य नियमों के परिपालन मात्र को धर्म मान लेना भी एक भ्रान्ति ही है। आचार और व्यवहार के बाह्य नियम धर्म के शरीर तो अवश्य हैं, किन्तु वे र्धम की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो उस विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि अथवा समता रुपी साध्य की उपलब्धि में निहित होती है, जो आचार और व्यवहार के इन स्थूल नियमों का मूल-हार्द है। यही विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि ही आचार-व्यवहार की उन मर्यादाओं एवं विधि-निषेधों की सूजक है, जौ वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समता और शांति के संस्थापक हैं और जिन्हें सामान्यतया धर्म या सदाचार के नाम से जाना जाता है। मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। ३१७ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक एव श्रमण धर्म-परम्पराएं और उनका वैशिष्ठयः भारतीय धर्मों को मुख्य रुप से वैदिक और श्रमण इन दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। इस विभाजक का मूल आधार उनकी प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक जीवन दृष्टियां है, जो क्रमश: उनकी वासना और भावावेग जनित जैविक मूल्यों एवं विवेक जनित आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित है। सामान्यतया वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्म को निवृत्तिमूलक कहा जाता है। यद्यपि आज वैदिक धर्म और श्रमण धर्मो की विविध जीवित परम्पराओं के बीच प्रवृत्ति और निवृत्ति के इन आधारों पर कोई विभाजक रेखा खींच पाना कठिन है, क्योंकि आज किसी भी धर्म-परम्परा या धर्म सम्प्रदाय को पूर्ण रुप से प्रवृत्तिमूलक या निवृत्तिमूलक नहीं कहा जा सकता है। जहाँ एक और वैदिक धर्म में औपनिषदिक चिन्तन के काल से ही निवृत्तिमूलक तत्व प्रविष्ट होने लगे और वैदिक कर्म-काण्ड, इहलौकिकवाद एवं भोगवादी जीवन-दृष्टि समालोचना का विषय बनी, वहीं दूसरी ओर श्रमण परम्पराओं में भी धर्म-संघों की स्थापना के साथ ही संघ और समाज व्यवस्था के रुप में कुछ प्रवृत्तिमूलक अवधारणाओं को स्वीकार किया गया और इस प्रकार लोककल्याण के पावन उद्देश्य को लेकर दोनों परम्पराएँ एक-दूसरे के निकट आ गयीं। जैन-जीवन दृष्टि: जैन धर्म की आचार परम्परा यद्यपि निवृत्तिमूलक जीवन-दृष्टि प्रधान है, परन्तु उसमें सामाजिक और ऐहिक जीवन-मूल्यों की पूर्ण उपेक्षा की गई हो, यह नहीं कहा जा सकता। उसमें भी जैविक एवं सामाजिक जीवन-मूल्यों को समुचित स्थान मिला है। फिर भी इतना निश्चित है कि जैन धर्म में जो प्रवृत्तिमूलक तत्त्व प्रविष्ट हुए हैं, उनके पीछे भी मूल लक्ष्य तो निवृत्ति या संन्यास ही है। निवृत्तिमूलक धर्म से यहाँ हमारा तात्पर्य उस धर्म से है जो सांसारिक जीवन और ऐन्द्रिक विषय-भोगों को गर्हणीय मानता है और जीवन के चरम् लक्ष्य के रुप में संन्यास और निर्वाण को स्वीकृत करता है। आज भी ये श्रमण परम्पराएं निर्वाण को ही परम् साध्य स्वीकृत करती है। आज संन्यास और निर्वाण को जीवन का साध्य माननेवाले श्रमण धर्मो में मुख्य रुप से जैन और बौध्द धर्म ही जीवित है। यद्यपि आजीवक आदि कुछ अन्य श्रमण परम्परायें भी थीं, जो या तो काल के गर्भ में समाहित हो गयीं है या बृहद् हिन्दु धर्म का एक अंग बने गयीं है। अब उनका पृथक् अस्तित्व नहीं पाया जाता है। । जहां तक जैन धर्म का प्रश्न है, परम्परागत दृष्टि से यह इस कालचक्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित माना जाता है, ऋषभदेव प्रागऐतिहासिक काल के तीर्थंकर हैं। दुर्भाग्य से आज हमारे पास उनके सम्बन्ध में बहुत अधिक ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में उल्लिखित ऋषभ की कुछ स्तुतियों और वातरसना मुनियों के उल्लेख से हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वैदिक युग में कोई श्रमण या संन्यासमार्गी परम्परा प्रचलित थी जो सांसारिक विषय भोगों से निवृत्ति पर और तप तथा ध्यान साधना की पध्दति पर बल देती थी। इसी निवृत्तिमार्गी परम्परा का अग्रिम विकास एक और वैदिक धारा के साथ समन्वय एवं समायोजन करते हुए औपनिषदिक धारा के रुप में तथा दूसरी और स्वतंत्र रूप में यात्रा करते हुए जैन (निर्ग्रन्थ) बौध्द एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के रुप में हुआ। आज यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि कोई भी धर्म परम्परा पूर्ण रुप से निवृत्ति प्रधान या प्रवृत्ति प्रधान होकर जीवित रह सकती है। वस्तुत: निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में एकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा ३१८ महापुरुषो की प्रभावी रुप में मात्र उडती करण रज भी घर में पड़ जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक शरीर के साथ योजित होकर जीवन जीती है, तब तक एकान्त प्रवृत्ति और एकान्त निवृत्ति की बात करना समुचित नहीं है। यद्यपि जैन परम्परा को हम निवृत्ति मार्गी परम्परा कहते है, किन्तु उसे भी एकान्त रुप से निवृत्ति प्रधान मानना, एक भ्रांति ही होगी। यद्यपि जैन धर्म के आचार ग्रन्थों में प्रमुख रुप से निवृत्ति मार्ग की चर्चा देखी जाती है, किन्तु उनमें भी अनेक संदर्भ ऐसे हैं। जहाँ निवृत्ति और प्रवृत्ति के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास किया गया है। अत: जो विचारक जैन धर्म को एकांत रुप से निवृत्तिपरक मानकर उसके धर्म-ग्रन्थों में उपलब्ध सामाजिक और व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुत: अज्ञान में ही जीते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि जैन आचार्यों ने तप और त्याग पर अधिक बल दिया है, किन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी वासनाओं से ऊपर उठे। जैन-अचार्यों ने जितना भी उपदेशात्मक और वैराग्य-प्रधान साहित्य निर्मित किया है, उसका लक्ष्य मनुष्य को वासनात्मक जीवन से ऊपर उठाकर उसका आध्यात्मिक विकास करना है उनकी दृष्टि में धर्म और साधना व्यक्ति के आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए है और अध्यात्म का अर्थ है वासनाओं पर विवेक का शासन। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि कोई धर्म या साधना-पध्दति जैविक और सामाजिक जीवन-मूल्यों की पूर्णत: उपेक्षा नहीं कर सकती है, क्योंकि यही वह आधार भूमि है जहां से आध्यात्मिक विकास यात्रा आरम्भ की जा सकती है। जैनों के अनुसार धर्म और अध्यात्म का कल्पवृक्ष समाज और जीवन के आंगन में ही विकसित होता है। धार्मिक होने के लिये सामाजिक होना आवश्यक है। जैन धर्म में जिन-कल्प और स्थविर-कल्प के रुप में जिन दो आचार मार्गों का प्रतिपादन है, उनमें स्थविर-कल्प, जो जन-साधारण के लिए है, समाज जीवन या संघीय जीवन में रहकर ही साधना करने की अनुशंसा करता है। वस्तुत: समाज-जीवन या संघीय-जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का समेल है। समाज जीवन भी त्याग के बल पर ही खड़ा होता है। जब व्यापक हितों के लिये क्षुद्र स्वार्थो के विसर्जन की भावना बलवती होती है, तभी समाज खडा होता है। अत: समाज-जीवन या संघीय-जीवन में सजन और विसर्जन तथा राग और विराग का सुन्दर समन्वय है। जिसे आज हम "धर्म" कहते हैं वह भी पूर्णत: निजी या वैयक्तिक साधना नहीं है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ स्वस्थ समाज का निर्माण भी अनुस्यूत है। जैन आगमों में धर्म का स्वरुप: धर्म की विभिन्न व्याखाएं और परिभाषएं दी गई है। पूर्व-पश्चिम के विद्वानों ने धर्म को विविध रूपों में देखने और समझने का प्रयत्न किया है। सामान्यतया आचार और विचार की एक विशिष्ट प्रणाली को धर्म कहा जाता है किन्तु जहां तक जैन परम्परा का प्रश्न है, उसमें धर्म को स्व-स्वरुप की उपलब्धि के अथवा आध्यात्मिक विकास के एक साधन के रुप में माना गया है। जैनाचार्यों ने धर्म की अनेक परिभाषा प्रस्तुत की है, उनमें एक परिभाषा "वत्थसहावों धम्मो" के रुप में की है। जब हम यह कहते हैं कि आग का धर्म उष्णता और जल का धर्म शीतलता है तो यहां धर्म से तात्पर्य उनके स्वभाव से ही होता है। यद्यपि वस्तु-स्वभाव के रुप में धर्म की यह परिभाषा सत्य और प्रामाणिक है, किन्तु इससे धर्म के स्वरुप के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं मिलता है। जब हम धर्म की व्याख्या वस्तु-स्वभाव के रुप में करते हैं, तो हमारे सामने मूल प्रश्न मनुष्य के मूल स्वभाव के सम्बन्ध में ही उत्पन्न होता है। मनुष्य एक चेतन प्राणी है और एक चेतन १) धम्मोवत्थु तहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रणयत्तयं च धम्मो जावाणां रक्खनं धम्मे।। बारस्व अणुवेक्खा। कर्तिकय। कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहां दृढ होती हैं, वहां मन में उत्साह की औढ में नैराश्य आता ही नहीं है। ३१९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी के रुप में उसका धर्म या स्वभाव चैतसिक समत्व की उपलब्धि है। यहां चैतसिक समत्व का तात्पर्य विभिन्न अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियों में चेतना के स्तर पर अविचलित रहना है। दूसरे शब्दों में समत्व का अर्थ ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित रहना है। वस्तुत: यह राग और द्वेष के तत्त्व हमारी चेतना के समत्व को विचलित करते हैं अत: राग-द्वेष जन्य विक्षोभों से रहित चेतना की समभाव में अवस्थिति ही उसका स्व-स्वभाव है और यही धर्म है। वैयक्तिक धर्म: समता: व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में आत्म स्वभाव की चर्चा करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है कि आत्मा क्या है और उसका साध्य या लक्ष्य क्या है? जैन आचार्यों ने इस सम्बन्ध में अपने उत्तर में कहा है कि आत्मा समत्व रुप है और उस समत्व को प्राप्त कर लेना यही उसका लक्ष्य है। आचारांग सूत्र में इसी दृष्टिकोण के आधार पर धर्म को समता के रुप में परिभाषित किया गया है। उसमें कहा गया है कि "आर्यजनों ने समभाव में धर्म कहा है," २ वस्तुत: समभाव के रुप में धर्म की यह परिभाषा धर्म की स्वभाव परक परिभाषा से भिन्न नहीं है। मानवीय एवं प्राणी प्रकृति यही है कि वह सदैव ही तनावों से रहित समत्व की स्थिति को पाना चाहता है। अत: यह कहा जा सकता है कि वे सभी तथ्य, जो चेतना के इस समत्व को भंग करते हैं, विकार, विभाव या अधर्म हैं, इसके विपरीत जीवन व्यवहार के वे सभी तथ्य जिनसे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समता की स्थापना होती है धर्म कहा जा सकते हैं। जब हम धर्म को वैयक्तिक दृष्टि से परिभाषित करना चाहते है। तो उसे निश्चय ही समभाव के रुप में परिभाषित करना होगा। संक्षेप में कहें तो समता धर्म है और ममता अधर्म या पाप है, क्योंकि समता के द्वारा आत्मा समाधि या शांति की स्थिति में होता है और यही उसकी अविकारी अवस्था या स्वभाव-दशा है। जबकि ममता के कारण वह तनाव एवं मानसिक असंतुलन से ग्रस्त होता है, अत: ममता विकारी अवस्था या विभाव-दशा है। सामाजिक धर्म: अहिंसा: वैयक्तिक ममता के ये तत्व, जब बाह्य रूप में अभिव्यक्त होकर हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करते है, तो वे हिंसा और संघर्ष को जन्म देते हैं। ममता के कारण अधिकांश आधिपत्य, संग्रह और शोषण की वृत्तियों का उदय होता है। व्यक्ति अपने और पराये की दीवारें खींचता है, जिसके परिणामत: समाज-जीवन में संघर्ष और हिंसा का जन्म होता है और इन्हीं संघर्षों और हिंसक व्यवहारों के कारण सामाजिक जीवन का समत्व या सामाजिक शांति भंग हो जाती है। आचारांग सूत्र में इसी सामाजिक जीवन-व्यवहार के दृष्टिकोण के आधार पर धर्म की एक दूसरी परिभाषा भी दी गई है, उसमें कहा गया है कि "भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमान में हैं अथवा भविष्य में होंगे वे सब यह प्रज्ञापित करते हैं अथवा व्याख्यायित करते हैं कि किसी प्राण, भूत जीव या सत्व को पीडा नहीं देना चाहिए, उनका घात नहीं करना चाहिए, उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। यही शाश्वत् शुद्ध एवं नित्य धर्म है।३ १) आया सामाइण, सानाइस्स अटे। व्यख्यापज्ञप्ति २) समयारा धम्मे आरिएहिं पवेइए। - आचारांग १/५/३/१५७ (च० पृ०३०) ३) से बेमि-जेय अतीता जे य पडप्पणा जे य आगमेस्मा अरहंता भगवंता सव्वे त एमवाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पणवेंति, एवं पति-सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ताण हंतव्वा ग अज्जावेयव्वा ण परिधेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उछेवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते, समेच लोग खेतन्नेहिं पवेविते। आचारांग १/४/१३१-१३२/(च०पृ०३३) सूत्रकृतांग२/१/६८० (च०पृ० २१६) ३२० किसी भी छोटे-बडे मंत्र की आराधना में सिद्धि तन, मन और प्राण की एकाग्रता के बिना होती ही नहीं। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि जैन आचार शास्त्रीय ग्रन्थों में वैयक्तिक दृष्टि से समता और सामाजिक दृष्टि से अहिंसा को धर्म कहा गया है। धर्म सदाचार या सद्गुण के रुप में: प्रकारांतर से अर्धमागधी और शौरसेनी जैन आगम साहित्य में क्षमा, सरलता, निर्लोभता, सत्यता, संयम आदि को भी धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है। १ आचारांग में क्षमा आदि सद्गुणों को धर्म कहा गया है।५ २ स्थानांग में क्षमा, अलोभ, सरलता, मृदुलता, लधुत्व, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास आदि धर्म के १० रुप प्रतिपादित कीए गये है। ३ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी क्षमादि दस सद्गुणों को दसविध-धर्म के रुप में परिभाषित किया गया वस्तुत: यह धर्म की सद्गुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं सामाजिक समत्व के संस्थापन से धर्म कहे गए हैं। क्षमादि इन सद्गुणों की विशेषता यह है कि ये वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवन में समत्व या शांति संस्थापन करते हैं। वस्तुत: धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कह कर प्रकट कर सकते हैं कि सगुण का आचरण या सदाचरण ही धर्म है और दुर्गुण का आचरण या दुराचरण ही अधर्म है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति अथवा धर्म और सद्गुण में तादात्म्य स्थापित किया है, उनके अनुसार धर्म और अनैतिक जीवन सहगामी नहीं हो सकते। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के अनुसार भी वह धर्म जो अनैतिकता का सहगामी है वस्तुत: धर्म नहीं अधर्म है। धर्म: जिनाज्ञा का पालन: आचारांग में धर्म की एक अन्य परिभाषा हमें इस रुप में मिलती है कि आज्ञा पालन में धर्म है। तीर्थंकर या वीतराग पुरुषों के आदेशों का पालन ही धर्म है। आचारांग में महावीर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मानवों के लिये मेरा निर्देश है कि मेरी आज्ञा का पालन करना ही धर्म है। यहां आज्ञा-पालन का तात्पर्य सद्गुणों को जीवन में अपनाना है। यही धर्म का व्यवहारिक पक्ष है। आचारांग में उपलब्ध धर्म की यह परिभाषा हमें मीमांसा दर्शन में उपलब्ध धर्म की उस परिभाषा की स्मृति दिला देती है जहां धर्म को ५) आचारांग १/६१५ ६) दसविदे समण धम्मे पारणत्ते तं जहाँ - खंति, मुक्ति, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सचे, संजये, तवे, चिचाए, बंभचेरवासे।। स्थानांग १०/७१२/(च० पृ० ३१) सातव्य है कि आचारांग १/६/५, समवायांग १०/१, बारस्स अणुवेक्सा, तत्वार्थ ९/६ आदी में इनका उल्लेख है यदापी आचारांग और स्थानांग की सूचीमें कुछ नाम भेद है। वैदिक परम्परा में मनुस्मृति १०/६३, ६/९२, महाभारत आदि पर्व ६०/१५, में भी कुछ नाम भेद के साथ इनके उल्लेख है। श्रीमद्भागवत् में ४/४९ धर्म की पत्नियों एवं पुत्रों के रुप में सद्गुणों का उल्लेख है। ७) बारस्सअणुवेक्खा/ (कार्तिकेय) /४७८ ८) आणाए मामगं धम्म-एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिए। - आचारांग १/०/२/१८५ (च.पृ. ३०) कर्म की सत्ता (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पडी है? ३२१ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोदना (प्रेरणा) लक्षण कहकर परिभाषित किया गया है, और जिनके अनुसार वेद विहित विधानों के पालन को धर्म कहा गया है। धर्म सामाजिक दायित्व का निर्वहनः स्थानांग सूत्र में धर्म की व्याख्या के एक अन्य सन्दर्भ में राष्ट्र धर्म, नगर धर्म, ग्राम धर्म, कुल धर्म, गण धर्म आदि का भी उल्लेख हुआ है । १० यहां धर्म का तात्पर्य राष्ट्र, ग्राम, नगर, कुल, गण आदि के प्रति हमारे जो कर्तव्य या दायित्व है, उनके परिपालन से है। इन धर्मों के प्रतिपालन का उद्देश्य व्यक्ति को अच्छा नागरिक बनाना है, ताकि सामाजिक और पारिवारिक जीवन के संघर्षों और तनावों को कम किया जा सके तथा वैयक्तिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी शांति और समता की स्थापना की जा सके। धर्म की विविध परिभाषाओं में पारस्परिक सामंजस्यः जैन परम्परा में उपलब्ध धर्म की इन विविध परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचार्यो ने धर्म को कभी भी रूढि या विशिष्ट प्रकार के कर्म-काण्डों के परिपालन के रूप में नहीं देखा है। उनकी दृष्टि में धार्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के चैतसिक जीवन में उपस्थित पाशविक वासनाओं एवं उन कषायजन्य आवेगों का परिशोधन कर उसकी आध्यात्मिक चेतना को समत्व शांति या समाधि की दिशा में अग्रसर करना है। यद्यपि जैन धर्म में साधना और उपासना की विशिष्ट पद्धतियां अनुशंसित है फिर भी उन सबका तात्पर्य व्यक्ति की प्रसुप्त चेतना को जागृत कर उसे अपनी आध्यात्मिक दुर्बलताओं का बोध कराना है तथा यह दिखाना है कि उसकी आवेगजन्य तनावपूर्ण चैतसिक स्थिति के कारण क्या है? और उन कारणों का निराकरण कर किस प्रकार आध्यात्मिक शुद्ध स्वरूप प्राप्त किया जा सकता है? जब स्थानांगसूत्र में धर्म का क्षमा आदि सद्गुणों से जो तादात्म्य बताया गया है, तो उसका तात्पर्य भी यही है कि व्यक्ति इन गुणों को अपने जीवन में अपना कर चैतसिक समत्व या शांति का अनुभव करता हुआ अपनी आध्यात्मिक विकास-यात्रा या स्वरुप की उपलब्धि की दिशा में आगे बढ़ सके । वस्तुतः इन सदगुणों की साधना का तात्पर्य भी यही है कि व्यक्ति की वासनाएं और मानसिक तनाव कम हो और वह अपनी शुद्ध, स्वाभाविक तनाव रहित एवं शांत आत्मदशा की अनुभूति कर सके। यदि हम संक्षेप में कहें तो जैन दृष्टि से धर्म विभाव से स्वभाव की ओर यात्रा है । कषाय और दुर्गुण या दुष्प्रवृत्तियां मनुष्य की विभाव दशा अथवा पर परिणति की सूचक है, क्योंकि ये पर के निमित्त से होती है। इनकी उपस्थिति में व्यक्ति मानसिक तनावों से युक्त होकर जीवन जीता है तथा उसकी आध्यात्मिक शांति और आध्यात्मिक समता भंग हो जाती है। अतः कषायों के निराकरण के द्वारा व्यक्ति की खोई हुई आध्यत्मिक शक्ति को पूनः प्राप्त करना अथवा समत्व दशा या स्वभाव में स्थित होना यही धर्म का मूल उद्देश्य है । कोई भी धार्मिक साधना पध्दति या आराधना यदि उसे विभाव से स्वभाव की ओर, ममता से समता की ओर, मानसिक आवेगों और तनावों से आध्यात्मिक शांति की ओर ले जाती है तो वह सार्थक कही जा सकती है, अन्यथा वह निरर्थक होती है। क्योंकि जो आचरण ९) मीमांसा सूत्र १/१/२. १०) दसविहे धम्मे पण्णत्ते तं जहां गामधम्मे, नयर धम्मे, रट्ठधम्मे, पंखंड धम्मे, फुलधम्मे, गणधम्मे, सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अत्थिकायधम्मे । इसी प्रकार जब अशुभ कर्मों का उदयकाल होता है तब मानव धारण कीये हुए कार्यो को करने से चूक जाता है, गिर जाता है। ३२२ - For Private Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयक्तिक या सामाजिक समता को भंग करता है वह धर्म नहीं अधर्म ही है। इसके विपरीत जो आचरण वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समता या शान्ति लाता है, वह धर्म है। जब हम धर्म को वीतराग प्रभु के प्रति अनन्य आस्था या उनके आदेशों के पालन के रूप में देखते हैं तो वह समत्व संस्थापनरूप अपने उस मूल स्वरूप से भिन्न नहीं होता है। वस्तुतः वे सभी साधक जो बौद्धिक और आध्यत्मिक विकास की दृष्टि से अग्रिम कक्षाओं में स्थित नहीं है, अथवा जिनको धर्म और अधर्म की सम्यक् समझ नहीं है, उनके लिए उपादेय यही है कि वे उन लोगों के जीवन और उपदेशों का अनुसरण करें, जिन्होनें मानसिक आवेगों, वासनाओं और कषायों से अर्थात् विभाव दशा से उपर उठकर आध्यात्मिक समता अथवा वीतरागदशा का अनुभव किया है। जिस प्रकार दैहिक विकृतियों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य के आदेशों और निर्देशों का पालन उपयोगी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक कमियों से छुटकारा पाने के लिये वीतराग प्रभु के आदेशों का पालन और जीवनादर्शो का अनुसरण करना आवश्यक है। क्योंकि धर्म साधना भी चौतसिक विकृतियों की चिकित्सा ही है। यदि व्यक्ति स्वयं इतना समर्थ है कि वह अपनी विकृति (रोग) को स्वयं जानकर चिकित्सा द्वारा उस विकृति का उपशमन या निरसन कर सकता है, तो उसे अधिकार है कि वह अपना मार्ग स्वयं बनाये और उस पर चले, उसे गुरू, मार्ग-दर्शक या धर्मोपदेश की आवश्यकता नहीं है, उसके लिये यह जरूरी नहीं है, कि वह दूसर के उपदेशों और आदेशों का पालन करें। ऐसा साधक स्वयं सम्बुद्ध या प्रत्येक बुद्ध होता है । किन्तु सभी व्यक्तियों में ऐसी सामर्थ्य नहीं होती है कि वे अपनी आध्यात्मिक विकृतियों को स्वयं जानकर उनके कारणों का निदान और निराकरण कर सके। ऐसे साधकों के लिये गुरू, तीर्थंकर अथवा वीतराग पुरुष के आदेश और निर्देश का पालन आवश्यक है। ऐसे ही लोगों को लक्ष्य में रखकर आगम में यह कहा गया है कि तीर्थंकर के आदेशों का पालन ही धर्म है । यद्यपि जैन धर्म इस अर्थ में अनीश्वरवादी धर्म है कि वह विश्व के सृष्टा और नियन्ता के अर्थ में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता है। अतः उसकी आस्था का केन्द्र और मार्ग निर्देशक विश्व - नियन्ता ईश्वर नहीं, अपितु वह वीतराग परमात्मा है, जिसने अपनी साधना के द्वारा राग-द्वेष जन्य आवेगों एवं आत्म-विकारों पर विजय प्राप्त कर समभाव युक्त शुद्धात्मदशा परमशांति या समाधि को उपलब्ध कर लिया है। जैन धर्म में तीर्थंकर आदेशों का पालन या उसके प्रति श्रध्दा या भक्ति का प्रदर्शन इसलिय नहीं किया जाता है कि वह प्रसन्न होकर हमें दुःख या अपूर्णता से मुक्ति दिलायेगा अथवा संकट की घडी में हमारी सहायता के लिए दौडा हुआ चला आयेगा, अपितु इसलिये किया जाता है कि उसके माध्यम से हम अपने शुद्ध स्वरूप का बोध कर सकें। उसके आदेशों का पालन इसलिए करना है कि सुयोग्य चिकित्सक की भांति उसके निर्देशों का पालन करने से या उसके जीवनादर्शो का अनुसरण करने से हम आत्म-विकारों का उपशमन कर शुद्धात्मदशा को प्राप्त कर सकेंगे। अतः धर्म को चाहे वस्तु स्वभाव के रूप में परिभाषित किया जाये, चाहे समता या अहिंसा के रूप में परिभाषित किया जाये, चाहे हम उसे जिन आज्ञा-पालन के रूप में व्याख्यायित करें, उसका मूल हार्द यही है कि वह विभाव से स्वभाव की ओर जाता है। वह आत्मशुद्धि अर्थात् वासना परिष्कार की दिशा में सम्यक् संचरण है। अतः धर्म और सदाचारण भिन्न नहीं है। यही कारण है कि स्थानांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने और प्रवचन सार में आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र को भी धर्म का लक्षण माना है । (११) ११) (अ) स्थानांग टीका ४ / ३ / ३२० (ख) प्रवचनसार १ / ७. तन-मन और प्राण की एकाग्रता से जो साधक साधना करता है उसे जगत में कोई वस्तु अप्राप्य वस्तु नहीं हैं। For Private Personal Use Only ३२३ 1 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यों ने आगम साहित्य की विषय-वस्तु का जिन चार अनुयोगों में विभाजन किया है, उनमें चरणकरणानुयोग ही ऐसा है जिसका सीधा सम्बन्ध धर्म साधना से है धर्म मात्र ज्ञान नहीं अपितु जीवन शैली है। वह जानने की नहीं जीने की वस्तु है। धर्म वह है जो जिया जाता है। अतः धर्म सदाचरण या सम्यक् चरित्र का पालन है। सामान्यतया जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चरित्र को रत्नत्रय के नाम से अभिहित किया गया है दिगम्बर परम्परा में आचार्य कार्तिकेय ने अपने ग्रन्थ 'बारसअणुवेक्खा' में रत्नत्रय की साधना को धर्म कहा है। वस्तुतः रत्नत्रय की साधना से मिन्न धर्म कुछ नहीं है मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे अस्तित्व का मूलकेन्द्र चेतना है और चेतना के तीन पक्ष हैं-ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प वस्तुतः रत्नत्रय की साधना अन्य कुछ नहीं, अपितु चेतना के इन तीनों पक्षों का परिशोधन है। क्योंकि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, और सम्यक - चरित्र क्रमश: वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध करा कर ज्ञेय के प्रति हमारी आसक्ति या राग भाव को जुडने नहीं देता है और हमें ज्ञांता द्वा भाव या समभाव में स्थित रखता है। इस प्रकार हमारी चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यक् ज्ञान भावात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यकू दर्शन और संकल्पात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यक चरित्र है। अतः रत्नत्रय की साधना अपने ही शुद्ध स्वरूप की साधना है, क्योंकि वह स्व स्वरूप में अवस्थिति के द्वारा समभाव और वीतरागता की उपलब्धि का कारण है। ३२४ मानव के अंतर प्रदेश में वैराग्य का प्रकाश अनेक बार सहसा चमकता है परन्तु यह प्रकाश यदि दुःख के प्रत्याघात के रुप में चमका हो तो दुःख का शमन होते ही वैराग्य भी शांत हो जाता है कारण दुःख के प्रत्याघात से उत्पन्न वैराग्य मन को प्रभु के रंग में रंग नही सकता। वह तो मात्र वृत्ति यानि उपरी रंग से रंजित होता हैं। इसमे भी यदि किसी आत्मा को इस प्रसंग में सम्यग्ज्ञान दर्शन का सहारा मिल जाता है तो क्षणिक प्रकाश स्थिर भी बन सकता हैं । कसौटी पर कसे जाने का भाग्य कुंदन को ही मिलता है, कथिर को नहीं । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी जागरण के प्रेरक भगवान श्री महावीर एवं वर्तमान नारी समाज -श्री चंदनमल "चांद' एम.ए. साहित्यरत्न जीवन रुपी रथ के दो पहिये हैं पुरुष और नारी। इन दोनों के सामंजस्य और संतुलन से ही जीवन की गाड़ी निरंतर चलती है। समय-समय पर उत्थान-पतन के क्रम से नारी जाति ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। विश्व के लगभग सभी धर्मों ने सिद्धान्तत: तो नारी की महिमा गाई है किन्तु व्यवहार में पुरुष की अपेक्षा नारी को हीन माना गया हैं। भारतीय दर्शन में एक ओर तो "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता" की घोषणा हुई और शक्ति, बुद्धि एवं धन की अदिष्ठता क्रमश: दुर्गा, सरस्वती एवं लक्ष्मी को मानकर पूजा की गई हैं किन्तु दूसरी ओर व्यवहारिक क्षेत्र में नारी समाज पीडित, शोषित, उपेक्षित और हीन ही रहा। नारियों को केवल भोग्या, पांव की जूती समझनेवाला पुरुष उसे गहने आभूषणों के प्रलोभन में बांधकर रखता है। उसके तन को भोगता रहा किन्तु मन के अन्दर झांकने का प्रयास नहीं किया। नारी अपने क्षमा, धैर्य, सहनशीलता, मृदुता और सेवा जैसे गुणों से पुरुषों का पीडित पीती रही किन्तु युग बदला और नारी जागरण की एक लहर उठी। नारी जागरण की लहर आधुनिक नहीं है और भारत में नारी जागृति का इतिहास लिखने वाले यदि राजाराम मोहन रॉय से नारी जागण की बात लिखते हैं तो भूल करते है। नारी जागरण का शंखनाद आज से लगभग अढाई हजार वर्षों पूर्व भगवान श्री महावीर ने किया था। उन्होंने केवल अपने उपदेशें में ही यह घोष नहीं किया बल्कि व्हवहारिक रुप में धर्म के क्षेत्र में नारियों को बराबरी का दर्जा देकर उनकी महत्ता सिद्ध की थी। । तीर्थंकर भगवान श्री महावीर अपने युग के ऐसे महामानव और युग पुरुष थे जिन्होंने उस युग की सामन्तवादी व्यवस्था, नारी-दासता, परिग्रह, शोषण जातिवाद आदि बुराईयों के खिलाफ मुक्तकंठ से क्रांति का स्वर बुलंद किया। भगवान महावीर ने केवल वैचारिक क्रांति का बीज ही नहीं बोया बल्कि उसे व्यवहारिक रुप भी दिया। लगभग अढाई हजार वर्षों पूर्व तीर्थंकर श्री महावीर ने जो उपदेश दिया वह आज भी उतना ही उपयोगी एवं कालातीत है। महावीर ने प्राणीमात्र के प्रति समभाव, मैत्री, करुणा, अपरिग्रह एवं अहिंसा का जो उपदेश दिया वह वर्तमान युग के संदर्भ में और भी अधिक उपयोगी है। महावीर का दर्शन उनके सुदीर्ध साधना एवं तप के अनुभवों पर आधारित कैवल्यज्ञान से आलोकित था। उन्होंने "मीत्ति में सव्व भुएसु" का उद्घोष करते हुए शाश्वत सुख मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया एवं लोकहिताय भी वे अपनी वाणी और व्यवहार से समता का मार्गदर्शन करते रहे। तीर्थंकर श्री महावीर के अनेक पहलुओं में से केवल नारी जागरण के सम्बन्ध में ही यदि विचार करें तो लगता है कि वे नारी जागरण के अग्रदूत थे। महावीर युग में नारी केवल भोग्याथी, पुरुष वर्ग उसे पाव की जुती समझता था। बहु-विवाह का प्रचलत था और खुले आम दासियों के रुप में नारी की बोली बोली जाती थी। नारी समाज भी वस्त्र, आभूषणों में ही स्वयं को आसक्त बनाकर अपने अधिकार और कर्तव्य को भूकाबैठा था। धार्मिक, सामाजिक संसार में प्रत्येक पुरुष के जीवन में आत्म निरीक्षण द्वारा शुद्धि के एक-दो अवसर मिलते है। ३२५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनैतिक आदि क्षेत्रों में नारी पुरुष से हीन समझी जाती थी। भगवान श्री महावीर ने जातिवाद के साथ-साथ लिंगवाद पर भी कडा प्रहार करते हुए "भावे वंध, भावे मोक्ष" की घोषणा की। पुरुषों के समान ही पूजा आराधना का अधिकार नारियों को दिया, श्रावक के समान ही श्राविकाएं भी "बारह व्रत" पालन कर उपासिका पालन कर उपासिका बन सकती है, ऐसा निर्देश किया। स्वयं तीर्थकर महावीर ने अपने धर्म संघ में चंदना जैसी दासी के रुप में बिकी हुई नारी को दीक्षित किया एवं छत्तीस हजार साध्वियों का प्रमुखा पद दिया। महावीर के संघ में साधुओं की अपेक्षा साध्वियां तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक थी। नारी और पुरुष का साधना के क्षेत्र में भेद नहीं करने वाले क्रांति दूत महावीर ने महिला समाज को भोग, विलास, फैशन से मुक्त बनाकर संयम, सादगी, सेवा का मार्ग बताया। एक आदर्श माता के रुप में, पतिव्रता पत्नी के रुप में नारी ही पुरुष को संस्कारी शीलवान एवं सुशील बना सकती है। महावीर की जननी भी तो माता त्रिशला नारी ही थी और इसी प्रकार सृष्टि के सभी महापुरुषों को जन्म देने वाली, लालन-पालन करने वाली नारी जाति के प्रति उस युग में होने वाले भेद भाव, अत्याचार आदि के खिलाफ भगवान महावीर ने सबल स्वर में विरोध ही नहीं किया बल्कि व्यवहारिक क्षेत्र में नारी को सुप्रतिष्ठित भी किया। जो नारी केवल भोग और वासना का साधन थी उसे पूज्या, आदरणीया बनाकर दिखाया। भगवान महावीर के समकालीन तथागत बुद्ध ने भी अपने धर्म संघ में नारी को दिक्षित तो किया परन्तु प्रारम्भ में वे हिचकिचाये किन्तु महावीर ने क्षणभर की भी दुविधा न रखते हुए नारी जाति को सम्मानीय, गौरवशाली एवं आदरणीय मानकर अपने संघ में दीक्षित किया। आधुनिक युग में नारी जागरण, नारी स्वतंत्रता की जो मांग उठ रही हैं और नारी पुरुष के बराबर अपने कार्यकौशल का प्रदर्शन कर रही है उसमें यदि महावीर की शिक्षा संयम, सादगी, सेवा आदि नारियों समावेश कर सके तो नारी जागरण सार्थक होगा। तीर्थंकर महावीर का घोष था। "उट्ठिए णो पमायए" उठो प्रमाद मत करो। जैन समाज में नारियों की आधुनिक युग में क्या स्थिति हैं इस पर विचार करें। जो कम पढ़े-लिखे व्यापारी हैं उनकी बहु-बेटियां भी थोड़ी सी शिक्षा पाती हैं। दूसरा वर्ग वह है जो सुशिक्षित है और सरकारी नौकरियों अथवा बड़े पदों पर या सी.ए. आदि क्षेत्रों में हैं इन सुशिक्षित परिवारों में बहुएं भी पढ़ी लिखी आती हैं, और बेटियों को भी शिक्षा दिलाई जाती है। जहां शिक्षा कम है वहां अज्ञान का अंधकार होने से रुढ़ियों का बोलबाला है, जागृति का अभाव है और उनकी दुनिया घर की दीवारों तक अथवा आभूषण एवं कपडे बर्तनों की दुकान तक ही सीमित हैं। दूसरी ओर जहां शिक्षा है वहां अपवाद छोडकर लगभग फैशन, आडम्बर अधिक बढ़ा है। क्लब, होटलों, सिनेमाओं तक उन्होंने अपनी परिधि बढाई हैं किन्तु घर का लगाव कम होने से घर की गरिमा घटी है। शिक्षित महिलाओं के रहन-सहन, वस्त्रों आदि में आभिजात्यपन आया है और उसने उन्हें सभ्य तो बनाया हैं किन्तु संस्कार कम हुए हैं। घरों में भारतीय संस्कृति का प्रभाव घट रहा है। मातृभाषा और पुराने रीति-रिवाज के प्रति विरक्ति बढी हैं और पश्चिमी सभ्यता एवं अंग्रेजी भाषा, रहन-सहन को प्रमुखता देकर यह सिद्ध करने ३२६ जिस हाथ से किया है, जिस हृदय से किया है, उसी हाथ और हृदय को भुगतना भी पड़ता है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भौंडा प्रयास हो रहा है कि हमारा रहन-सहन स्टेंडर्ड का है, हम अधिक सभ्य है। वस्तुत: वस्त्रों, टेबलों, कुर्सियों और अधकचरी विदेशी भाषा से सभ्यता एवं संस्कृति नहीं आति है। सभ्यता और संस्कृति का विकास जीवन के आचार एवं व्यवहार में होता है। हमारा समाज संक्राति काल में है। एक ओर पुरानी रुदयों के बंधन हैं,तो दूसरी ओर उस्तुकता के स्थान पर उच्छखलता है। कहीं मध्यमवर्गीय समाज का बाप अपनी ब्याह योग्य कन्या के लिए दहेज की चिंता में घुल रहा है तो कहीं एक-एक शादी में लाखों रुपये सजावट एवं आतिशबाजी में ही फूंके जा रहे हैं। कहीं नारियां केवल भोग्या, दीनहीन अज्ञान के अंधेरे में घुट रहीं हैं और कुछ महिलाएं फैशन की तितली बनकर क्लबों एवं होटलो में जाकर अपना धर्म, अपनी संस्कृति एवं खानपान को ही बिगाड रही है। ऐसी स्थिति में हमारी विनम्र राय में समाज को नारी जागरण का सही दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढे किन्तु उसके दुष्परिणामों से बचने की सावधानी रखी जाय। पुरानी रुढ़ियों के बंधन तोड़े जायें लेकिन नई प्रथाएं, नये आडम्बर और प्रदर्शन नहीं पनपने पायें। मृत्यु भोज समाप्त हो चले हैं और एक रुदि टूटि है किन्तु "बर्थडे" पार्टियो का जोरदार प्रचलन चल पड़ा है। विवाह में गांव की बिरादरी का भोज बंद हुआ है लेकिन फाईव स्टार होटलों में खड़े-खड़े भोज की प्रथाएं चल निकली हैं। अत: हमें पुराना छोड़ने और नया ग्रहण करने में बहुत सावधानी एवं विवेक रखना होगा। देखा-देखी कुछ भी करना उचित नहीं है। भारतीय नारी समाज एक महान परम्परा, महान संस्कृति की धरोहर का दायित्व लिए हुए है। नारियां ही अपने घर को सुसंस्कारी बनाती है, बालकों में संस्कार भरती हैं अत: स्वयं उनका जीवन आदर्श, संस्कारमय होना जरुरी है। हमें हमारे तीर्थंकरों का अनंत उपकार मानना चाहिए और उनके बताये मार्ग पर सदा चलने का प्रयत्न करना चाहिए। भगवान श्री महावीर नारी जाति की ही देन हैं, और विश्व के सभी महापुरुष, विभूतियां नारी जाति की कोख से ही जन्मी हैं अत: मातृशक्ति की महिमा का पार नहीं है। नारी को अपनी महिमा और अपने आदर्श बनाये रखने के लिए भोग विलास के प्रलोभनों को त्यागना चाहिए और दूसरी ओर अज्ञान के कारण अंधविश्वासों एवं रुढ़ियों के बंधनो से भी मुक्त होना चाहिए। भारतीय महिला वर्ग जागरुक है और अधिक सचेष्ट बनेगा और उसका भविष्य उज्जवल है, ऐसा मेरा विश्वास है। जिसे कोई चिंता नही होती उसकी निन्द्रा से गाढी दोस्ती होती है। ३२७ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोग्य एवं शान्तिदायिनी ध्यान-साधना पद्धति - श्री रतन मुनि आज हम साधना के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। पहले यह समझ लें कि साधना क्या है, इसका लक्ष्य और उद्देश्य क्या है? इसके बाद मैं आपको साधना की विधि बताऊँगा।' साधना है क्रमिक उन्नति; अपने साध्य की ओर बढ़ना। जब यह उन्नति अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती है तो साधना स्वयं ही सिद्धि बन जाती है। सिद्धि का अभिप्राय है - लक्ष्य में सफलता तथा आनन्द की उपलब्धि। आनन्द भौतिक नहीं अपितु आत्मिक! स्व-यानी आत्मा के आनन्द की अनुभूति-स्वानन्दानुभूति-उसका अनुभव। आत्मा स्वयं आनन्द-धन है, उस आनन्द की अनुभूति या उसका रसास्वादन, उसमें लीनता, तल्लीनता, डूब जाना, विभोर हो जाना ही स्वानन्दानुभूति है, स्वात्मानुभाव हैं, आत्मिक आनन्द रूपी अमृत का पान करना है। यह जिस विधि से प्राप्त होता है, उसी को साधना कहा गया है। यह साधना ध्यान रूप है, ध्यान-साधना ही आत्मारूपी अमृत घट को उद्घाटित करने का और इस अमृतानन्द को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है, मार्ग है, पद्धति है। इस ध्यान पद्धति को आपको समझना ___मैं इसे चार चरणों में विभाजित करके आप सबके समक्ष रखूगा, जिससे आप इस ध्यान पद्धति को सरलता से हृदयंगम कर सकें और इसके प्रयोग से अपने लक्ष्य तक पहुँच सकें, स्वात्मा के आनन्द की रसानुभूति कर सकें। प्रथम चरण प्रथम चरण को हम नवकार मन्त्र से प्रारम्भ कर रहे हैं, उसके पश्चात् वीर-वन्दन, गुरू-वन्दन सूत्र का उच्चारण करेंगे और फिर मैं आपको कुछ ऐसे हल्के आसनों के बारे में बताऊँगा, जिससे आप अपनी काया को स्थिर करके ध्यान की पूर्वभूमिका तैयार कर लें। क्योंकि काया काय-योग की स्थिरता के अभाव में ध्यान एकाग्र नहीं हो पाता, वचनयोग और मन भी चंचल बना रहता है, इधर-उधर घूमता रहता है। जब कि ध्यान के लिये मन का स्थिर होना अति आवश्यक है। __ मन स्थिर हुए बिना ध्यान में आनन्द नहीं आ सकता। ध्यान का लक्षण ही यह दिया है एकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानम्। चित्त अथवा मन को एक ध्येय पर स्थिर करना ही ध्यान है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर हो जाती हैं, तनिक भी कॉपती नहीं, उसी प्रकार जब मन अपने ध्येय पर स्थिर हो जाता है, तभी ध्यान स्थिति बनती है। लेकिन आप तो जानते ही हैं कि मन महाबली और वायु से भी अधिक वेग वाला हैं, इसको वश में करना, एक ध्येय पर स्थिर करना बड़ा ही कठिन कार्य है। गीता में अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण के समक्ष यही प्रश्न किया और उत्तराध्ययनसूत्र में भी केशीस्वामी ने भी यही जिज्ञासा रखी हैं। श्रीकृष्ण ने मन को वश में करने का उपाय अभ्यास और वैराग्य बताया है तथा गौतम ३२८ महापुरुषों की प्रभावी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी ने धर्म-शिक्षा। इस मन को वश में करने का उपाय ध्यान में भी बताया है। वह कैसे वश में होता है? किस प्रकार उसे एकाग्र किया जाता है? इस विषय में मैं आपको आगे बताऊँगा। हाँ तो, अब हम ध्यान पद्धति के प्रथम चरण को लें। इस चरण में सर्वप्रथम हमें नवकार मंत्र का सस्वर उच्चारण करना है। मैं समझता हूँ आप सभी को यह महामन्त्र कंठाग्र होगा, आप लोक नित्य इसकी माला भी जपते होंगे। लेकिन इस ध्यान पद्धति में इसके उच्चारण में कुछ विशेषता लानी होती है। उच्चारण सस्वर तो हो ही साथ सरस भी हो, लययुक्त बोलें, उच्चारण में शीघ्रता न करें, प्रत्येक स्वर, बिन्दु आदि का ध्यान रखें, अनावश्यक विलम्ब भी न करें। _हाँ तो अब मैं नवकार मन्त्र का सस्वर उच्चारण करता हूँ, आप सब भी मेरे स्वर के साथ स्वर मिलाकर बोलें नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाण नमो उवज्झायाणं नमो लाए सव्वसाहूणं अब हमें वीर वन्दन करना है। आप सबको ज्ञात ही है कि भगवान महावीर वर्तमान, काल की चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर हैं। उन्हीं भगवान महावीर का शासन चल रहा है। अब मेरे साथ भगवान महावीर का वन्दन श्लोक बोलिए। यह श्लोक संस्कृत भाषा में है, उच्चारण में थोड़ी सावधानी अपेक्षित है। वीर: सर्वसुरासुरेन्द्रमहिता, वीरं बुधा संश्रिता; वीरेणाभिहत: स्वकर्मनिचयो, वीराय: नित्यं नमः। वीरातू तीथीमेदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपो:, वीरे श्रीधृतिकीर्तिकांति निचयो हे वीर! भद्रं दिश:। तीर्थकर भगवान की अनुपस्थिति में हमारे सबसे बड़े उपकारी हैं-गुरूदेव! गुरू भगवान के बताए हुए मार्ग पर स्वयं चलते है और हम सब को वह मार्ग बताकर चलने की प्रेरणा देते हैं। हमें सत्य दृष्टि देते हैं, सन्मार्ग बताते हैं और आचरण-शुद्धि की प्रेरणा देते हैं। वे सम्यक्-ज्ञान-दर्शन-चरित्र में सहायक बनते है। गुरू का महत्व समझने के बाद अब हम गुरू वन्दन करें। तिक्खुत्तो आयाहिणं पयहिणं करेमि, वंदामि-नमंसामि, सक्कारेमि सम्माणेमि, कल्लाणं मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि। जिस हाथ से किया है, जिस हृदय से किया है, उसी हाथ और हृदय को भुगतना भी पड़ता हैं। ३२९ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब आइये थोड़ा सा आसनों का अभ्यास करें। आसन शब्द से चौंकिये मत। मैं आपको ऐसे साधारण और हल्के आसन बताऊँगा जिन्हे आप सरलता से कर सकेंगे। आसन का अभिप्राय है - शरीर को स्थिर करना, शरीर की चंचलता समाप्त करना। क्योंकि ध्यान साधना पद्धति में ऐसा नियम है कि शरीर की स्थिरता से ही मन स्थिर होता है। यदि आपका शरीर स्थिर न रहा, बार-बार आसन बदलते रहे तो मन भी चंचल बना रहेगा और जब तक मन स्थिर न होगा, स्वानन्दानुभूति भी न होगी। योग ग्रन्थों में दो प्रकार के आसन बताये गये हैं - (१) ध्यानासन और (२) शरीरासन। शरीरासनों को स्थूल आसन और ध्यानासनों को सूक्ष्म आसन भी कहा जा सकता है। ध्यानासन पद्मासन, कार्योत्सर्ग आदि हैं, यह ध्यान में - आत्मानुभूति में सहायक होते हैं। शरीरासनों का उद्देश्य शारीरिक और मानसिक कम्पनों में संतुलन स्थापित करना है। यह शरीर और मन को स्थिर भी करते है। साथ ही यह ध्यानासनों की पूर्वभूमिका निभाते हैं। स्थूल आसन सिध्ध होने के बाद ही सूक्ष्म आसन सिध्ध हो पाते हैं। ध्यान साधना पद्धति में शरीर आसनों का यह विशेष महत्व है। अब मैं आपको ऐसे सरल आसन बताता हूँ जिनके द्वारा आप शारीरिक और मानसिक स्फूर्ति तो प्राप्त करेंगे ही, साथ ही साथ शरीर की माँसपेशियों और धमनियों में लचीलापन आयेगा, रक्त संबंधी विकार दूर होंगे और शरीर में स्थिरता आयेगी, यानी आप लोग अधिक समय तक एक आसन से स्थिर बैठे रहने पर भी न ऊब का अनुभव करेंगे और न थकेंगे ही। - हाँ तो, अब आप सब लोग स्थिर हो कर बैठ जायें। शरीर न अधिक तना रहे, और न शिथिल हो। मेरूदण्ड (सुषुम्ना-रीढ़ की हड्डी) सीधा रहें, उसी सीध में गरदन और कपाल भी। ___ अब आप अपना दाहिना पांव फैलाइए, सीधा कर दीजिये और फिर सिकोड़िये, पूर्व स्थिति में ले आइये। इस तरह ९ बार करिए। इसी प्रकार बाँये पाँव और दायें तथा बाँयें हाथों को सिकोड़िए फैलाइए। यह सभी क्रियाएँ नौ-नौ बार करिए। ___ अब आप अपनी गरदन को धीरे-धीरे दायीं ओर घुमाइए और फिर बाँयीं ओर घुमाइए, फिर पूर्ववत् सीधी करिए, सामने देखने लगिए। यह एक बार की क्रिया हुई, ऐसी क्रिया नौ बार करिए. इसी प्रकार आँखों का व्यायाम भी करिए। पुतलियाँ पहले सीधी रखिए। फिर दायीं ओर, ऊपर की ओर, बाँयी ओर और नीचे की ओर घुमाकर, पुतलियों को सीधी करके एक बिन्दु पर तथा सामने किसी भी वस्तु पर टिका दीजिए। कुछ क्षण तक अपलक दृष्टि से उस बिन्दु को देखते रहिए मन को उस वस्तु से-उसके रूप, आकार, रंग आदि से संयोजित करने का प्रयास करिए। जितने अधिक समय तक देख सकें, देखते रहिए, लेकिन ध्यान रखें, आँखें थकें नहीं, उनमें पानी न आ जाए। __ हाओं और पैरों, तथा गर्दन के इस हल्के व्यायाम से नसों में लचीलापन रहता है, स्फूर्ति आती है। गरदन का व्यायाम गरदन में लचीलापन लाने के साथ-साथ ध्यान में भी सहायता होता है, क्योंकि विशुद्धि चक्र आनन्द केन्द्र कण्ठ स्थान में ही अवस्थित है, गरदन के व्यायाम से वह सजग होने को प्रेरित होता है। ३३० आस-पास के संसार को भूले-बिना तनम्यता मिलती ही नही और तन्मयता बिना कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं कर सकता। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑखों के व्यायाम से नेत्र-ज्योति बढ़ती है, छोटे-मोटे विकार दूर हो जाते हैं, दृष्टि संबंधी शिरा-धमनी-नसों में लचीलापन आने से रक्तसंचार निराबाध होता है, मोतियाबिन्दु जैसी बीमारियाँ नही होती, वृद्धावस्था तक नेत्रज्योति मन्द नही होती। नेत्रों का एक वस्तु पर टिके रहना और मन का उस वस्तु के रूप आदि से संयोजित रहना, ध्यान-साधना में परम सहायक है। आगमों में ध्यान के लिए स्थान-स्थान पर आता है - एगपोग्गल निविट्ठदिट्ठीए। (किसी भी एक पुद्गल-पौद्गलिक वस्तु पर निर्निमेष दृष्टि से लगातार अवलोकन करते रहना।) भगवान महावीर की ध्यान साधना के विषय में आचारांग में उल्लेख आता है - अदु पोरिसिं तिरियभित्तं, चक्खुमासन अंतसों झाई। (भगवान ने प्रहर-प्रहर तक तिरछी भित्ति पर आँख टिकाकर ध्यान किया।) इसीलिए मैंने आप से कहा कि किसी भी वस्तु को यथासंभव जितने समय तक आप अपलक दृष्टि से देख सकें, देखें और मन को उस वस्तु में संयोजित करें। यह बाह्य वस्तु का स्थूल ध्यान धीरे-धीरे सूक्ष्म रूप ग्रहण कर लेगा, आप अपने शरीरगत चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान टिका सकेंगे, शरीर के अन्दर होती हुई क्रियाओं को देख सकेंगे और आत्म-साक्षात्कार करने में भी सक्षम हो सकेंगे। तो अब आइये, हम इसी ओर बढें। इन हाथ, पाँव, गरदन आदि के हल्के व्यायामों के बाद अपने शरीर की ओर दृष्टि डालें इसकी क्रियाओं को अनुशासित करने की विधि समझें। दूसरा चरण यह हमारी स्वानन्दानुभूति ध्यान साधना पद्धति का द्वितीय चरण है। इसमें हमें शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित तथा अनुशासित करना है, क्योंकि इस शरीर (औदारिक शरीर - आपका-हमारा जैसा शरीर) से ही ध्यान साधना की जा सकती है और वह भी तब जब शरीर की क्रियाओं को हम साध लें। __ इस शरीर साधना की क्रिया को योग की भाषा में प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम में दो शब्द हैं-प्राण+आयाम = प्राणों का अभ्यास-व्यायाम। प्राण श्वासोच्छ्वास को कहा जाता है। श्वासोच्छ्वास शरीर की सहज क्रिया है। प्रत्येक जीवित प्राणी श्वास लेता है और उच्छ्वास बाहर छोड़ता है। शरीर की सहज क्रिया को नियन्त्रित करना, अपनी इच्छा के अनुकूल चलाना ही प्राणायाम है। इसको मैं तीन खण्डों में आपको समझाऊँगा - १/दीर्घ श्वास। २/ सौम्य भस्त्रिका क्रिया। ३/ पूरक, कुम्भक, रेचक क्रिया। दीर्घ श्वास - श्वासोच्छवास जीवन का लक्षण है. प्राणीमात्र श्वासोच्छवास लेता है. यह शरीर की सहज क्रिया और है। किन्तु योग ध्यान साधना पद्धति में इसमे कुछ विशेषता लाई जाती है। दीर्घश्वास, वस्तुत: श्वासोच्छ्वास शुद्धि का उपाय है। सामान्यतया श्वास लेते समय हम कम ऑक्सीजन लेते हैं; जबकि दीर्घश्वास में ऑक्सीजन की मात्रा काफी खींच ली जाती है। और आप जानते ही हैं कि ऑक्सीजन हमारे रक्त को शुद्ध करती है। इस प्रकार दीर्घश्वास से शंका के विचित्र भूल से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते है। ३३१ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्त-शुद्धि होती है। इसके अतिरिक्त सामान्य श्वास से ग्रहण की हुई प्राणवायु शरीर के प्रत्येक अवयव में पूर्णरूप से नहीं पहुँच पाती, जबकि दीर्घश्वास द्वारा ग्रहण की हुई प्राणवायु फेफड़ों, शरीर आदि के लगभग सभी अंगों में पहुंच जाती है। दीर्घवास का अभिप्राय है - गहरा श्वास लेना। इतना गहरा कि रीढ़ की हड्डी के अन्तिम सिरे (गुदा-मूल) तक पहुँच जाय। क्योंकि यहीं मूलाधार चक्र है, जो ऊर्जाकेन्द्र है और यहीं कुण्डलिनी का मुख है, यहीं से साधक सुषुम्ना नाड़ी में होता हुआ अन्य सभी चैतन्य केन्द्रों के चक्रों को जागृत करता है। दीर्घश्वास के विषय में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह लयबद्ध और सामान्य समय वाली हो। प्रथम दीर्घश्वास में जितना समय-यथा-१५ सेकेंड लगें तो दूसरी दीर्घ श्वास तथा आगे की अन्य प्रत्येक दीर्घश्वास में भी १५ सेकेंड का ही समय लगना चाहिए, न कम न ज्यादा। हाँ तो अब हम दीर्घश्वास का अभ्यास करें। प्रथम आप सब सुखासन अथवा पदमासन में स्थित हो जाये। मेरूदण्ड, ग्रीवा, कपाल सब एक सीध में रहें बिल्कुल स्ट्रेट लाइन में। शरीर न अधिक तना हुआ रहे न शिथिल, सहज मुद्रा रखें, हृदय में प्रसन्नता, उत्साह हो तथा मुख पर मधुर मुस्कान। अब दीर्घ सांस लें। प्रथम बार, द्वितीय बार और तीसरी बार। तीन दीर्घश्वासों का अभ्यास प्रारम्भिक दशा में यथेष्ट है। सौम्य भस्त्रिका क्रिया :- भस्त्रिका प्राणायाम का ही एक प्रकार है। मैंने इसको 'सौम्य' नाम दिया है। कुछ योग ग्रन्थों में इसको 'समशीतोष्ण' भी कहा गया है। इसका कारण यह है कि यह प्राणायाम क्रिया न तो शरीर और मन में अधिक शीत उत्पन्न करती है और न ही अधिक उष्णता लाती है। अपितु सौम्यावस्था में ही शरीर तथा मन रहते हैं। इसी विशेषता के कारणं इसका सौम्य नाम उचित है। अब इस भस्त्रिका प्राणायाम की क्रिया विधि समझ लें। इसे चार प्रकार से किया जाता है (१) मध्यम भस्त्रिका (२) वाम भस्त्रिका (३) दक्षिण भस्त्रिका और (४) अनुलोम प्रतिलोम भस्त्रिका। (१) मध्यम भस्त्रिका - लुहार की धमनी के समान दोनों नासापुटों से पूरी शक्ति लगाकर दीर्घ श्वास का मूलाधार चक्र तक पूरक करें और तत्काल रेचन (भरी प्राण वायु को निकाल देना) कर दें। इस तरह नौ बार करें तथा दशवीं बार कुम्भक (कुछ समय तक मूलाधार चक्र में वायु को रोककर) करके रेचन कर दें। यह एक प्राणायाम हुआ। इस प्रकार के प्रारम्भ में तीन प्राणायाम करें। फिर शक्ति के अनुसार बढ़ाते जायें। (२) वाम भस्त्रिका - दाहिने नासापुट को अँगूठे अथवा तर्जनी अँगुली से दबाकर बन्द कर दें, वाम नासापुट से दीर्घश्वास लें। इसकी शेष क्रिया मध्यम भस्त्रिका के समान है। (३) दक्षिण भस्त्रिका - बायें नासापुट को अँगूठे से बन्द करके दाहिने नासापुट से दीर्घश्वास लें। शेष विधि मध्यम भस्त्रिका के समान ही करें। ३३२ संसार में रोग कभी नष्ट नहीं हुए कारण मनुष्य शरीर स्वत: रोगाय तन सम है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अनुलोम विलोम भस्त्रिका बाएँ नासारन्ध्र से दीर्घ श्वास का पूरक मूलाधार चक्र तक निकाल रेचन दें। इसी प्रकार दक्षिण नासारंध्र से दीर्घश्वास लेकर इन प्राणायामों को करते समय पूरक में मूलाधार चक्र पर कुछ कुम्भक में मणिपूरचक्र नाभिस्थान पर और रेचन में नासाग्र पर करें। फिर दाहिने नासापुट से बाएँ नासारन्ध्र से निकाल दें। सेकंड तक ध्यान स्थिर करें, ध्यान जमाने का प्रयास करें। इन प्राणायाम भस्त्रिका प्राणायाम से मस्तिष्क शूल आदि रोग मिट जाते हैं, फेफड़ों और मस्तिष्क की जकड़न जो श्लेष्म आदि के कारण हो गई हो, वह मिट जाती है, नासिकारंध्र साफ हो जाते हैं, सर्दी का प्रकोप समाप्त हो जाता है और मूलाधार तथा मणिपूरचक्र जागृत होने लगते हैं। - पूरक, रेचक, कुम्भक क्रिया भस्त्रिका प्राणायाम के वर्णन में पूरक, कुम्भक और रेचक इनका अभिप्राय समझना आवश्यक है जरूरी है कि इन तीनों के समय का अनुपात कितना रखना चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि योग और ध्यान पद्धति वैज्ञानिक आधार पर अवस्थित हैं। इनके निश्चित नियम हैं। अनर्गल क्रिया कोई भी नहीं है और अपनी मनमानी भी नहीं चल सकती। यदि कोई साधक योग्य गुरू से निर्देशन लिए बिना मनमानी योग और ध्यान साधना करता है तो उसके अनिष्टकारी परिणाम उसे भोगने पड़ते हैं। इसीलिए कहा गया है - देखा देखी साधे जोग। छीजै काया बाढ़े रोग ॥ - तो अब आप रेचक, पूरक, कुम्भक-इन तीनों का यथार्थ स्वरूप जान लें और साथ ही इनकी विधि और समय का अनुपात भी पूरक का अभिप्राय है-श्वास के द्वारा बाह्य वातावरण में फैली हुई प्राणवायु को नासारन्ध्रों से शरीर के अन्दर ले जाना, कुम्भक इस वायु को शरीर के किसी भी चक्र अथवा स्थान पर रोकना है और रेचक इस वायु को नासारन्धो द्वारा बाहर निकालना है। क्रिया के रूप में यह रेचन, कुम्भन और पूरण कहलाते हैं तथा रेचक, पूरक और कुम्भक इनका संज्ञा रूप मैंने तीन शब्द बताये हैं साथ ही यह जानना भी योग - महर्षियों ने रेचक, कुम्भक और पूरक का अनुपात २:४:१ बताया है, यानी । सेकण्ड में पूरक करें तो ४ सेकण्ड तक कुम्भक और २ सेकण्ड में रेचन कर दें। यदि आप 'अहं' मंत्र को लें तो 'अ' अक्षर के पूरक में ४ सेकण्ड का समय लगायें 'ह' अक्षर के साथ १६ सेकंड का कुम्भक और 'म्' अक्षर का मानसिक उच्चारण करते हुए ८ सेकण्ड में इसका रेचन कर दें। कुछ योग शिक्षक अंकगणित के अंक ४:१६:८ के साथ पूरक, कुम्भक, रेचक करने की शिक्षा देते हैं पर मैं आपको 'अर्हम्' मंत्र के मानसिक उच्चारण के साथ पूरक, कुम्भक, रेचक क्रिया करने की प्रेरणा देना चाहता हूँ इसका कारण यह है कि यह मंत्र अर्हन्त परमेष्ठी का वाचक है। इसके द्वारा मन-मस्तिष्क भी शुद्ध होता है, हृदय में श्रद्धा भक्ति की भावना का संचार होता है। ध्यान करते समय आँखों के सामने या नासाग्र पर 'अर्हन्त' परमात्मा का रूप देंखे । इससे अपार आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। तो अब आप 'अर्हम्' मंत्र के मानसिक उच्चारण के साथ पूरक, कुम्भक और रेचक प्राणायाम सच्ची शांति केवल बाहर के साधन-संपति या पद- सत्ता में नहीं है। सची शांति का निवासालय तो मन ही हैं। ३३३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया करें। तीसरा चरण आप प्राणायाम क्रिया को समझ चुके हैं, इसका अभ्यास भी हो गया है। अब मैं आपको तीसरे चरण की ओर ले चलना चाहता हूँ। यह तीसरा चरण है - कार्योत्सर्ग अथवा शवासन। ___ मैंने कायोत्सर्ग को शवासन कहा हैं, इसमें एक रहस्य है, वह रहस्य योग और ध्यान साधना पद्धति से संबंधित है। ___ शास्त्रों के अनुसार कायोत्सर्ग, एक तप है। यह खड़े होकर भी किया जा सकता है, बैठकर भी और शव के समान लेटकर भी। __कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है-काया का उत्सर्ग-त्याग। लेकिन साधक काया का त्याग नहीं करता क्योंकि काया का त्याग तो आत्महत्या है, जो सभी दृष्टियों से निन्दित है। तब कायोत्सर्ग का योग और ध्यान में अर्थ है-काया के ममत्व का त्याग; साथ ही काषायिक वृत्तियों का, चिन्ताओं, उद्वेगों का त्याग जो शरीर, मन और आत्मा में तनाव उत्पन्न करती हैं, यानी मन-मस्तिष्क को तनावरहित करना कायोत्सर्ग है। तनावरहितता को यदि विधेयात्मक रूप में कहें तो इसको शिथिलता शब्द से. व्यक्त कर सकते हैं और पूर्ण शिथिलता मानव को जीवित अवस्था में, शवासन में ही प्राप्त हो पाती है। इसीलिए मैंने यहाँ शवासन शब्द का प्रयोग किया है। शवासन का अभिप्राय है शव के समान निश्चेष्ट और शिथिल होकर लेट जाना। सिर्फ शरीर ही नहीं, मन, प्राण, आवेग, संवेग सभी शिथिल हो जावें, सम और शांत हो जावें। __ मन की शिथिलता का अभिप्राय है कि वह (मन) जो विषय-कषायों की ओर दौड़ लगाता रहता है उसकी वह दौड़ कम हो जाय, वह शांत-उपशांत हो जाय। इसी प्रकार प्राण (श्वासोच्छ्वास) की क्रिया जो प्रतिपल तीव्रगति से (वैज्ञानिकों के मतानुसार ४ सैकण्ड में एक श्वासोच्छवास) हो रही है, उसकी भी गति कम-निम्नतम सीमा तक कम हो जाय। प्राण अथवा श्वासोच्छ्वास को शांत-उपशांत अथवा उसकी गति कम करना इसलिए आवश्यक है कि श्वोच्छ्वास की तीव्र गति से शरीर में चंचलता अधिक होती है। यदि गति कम होगी तो शरीर के आन्तरिक भागों, नसा-जाल आदि में भी चंचलता कम होगी। और चंचलता जितनी कम होगी उतना ही काययोग स्थिर होगा। मन की भी दो अवस्थाएँ हैं-चंचल और स्थिर। प्राणशक्ति (प्राणवायु ग्रहण करना, छोड़ना अथवा श्वासोच्छ्वास) मन को भी चंचलता प्रदान करती है। इसीलिए कायोत्सर्ग अथवा योग की भाषा में शवासन में श्वासोच्छ्वास को सीमित करना अथवा शिथिल करना अति आवश्यक आप सोच रहे होंगे, मन तो अत्यधिक चंचल हैं, उसे शिथिल करना बहत कठिन है। लेकिन यह काम भावना से संभव है। आप शवासन में वह भावना करिए१/शरीर शिथिल हो रहा है। २/ श्वास शिथिल हो रहा है। ३/ ममत्व विसर्जन हो रहा है। ४/ मै आत्मस्थ हो रहा हूँ। ३३४ संसार में प्रत्येक पुरुष के जीवन में आत्म निरीक्षण द्वारा सिद्धि के एक-दो अवसर मिलते है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना में बहुत शक्ति होती है। विष भी भावनाओं द्वारा अमृत रसायन - आरोग्य वर्धक बन जाता है। आचार्य सिद्धसेन का कथन है - पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं किं नाम नो विष विकारमपाकरोति अभिमंत्रित पानी को अमृत मानकर सेवन करने पर क्या विष बाधा दूर नहीं होती ? • यह सत्य है- यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। आप भी भवानाओं द्वारा मन, काया, श्वास आदि को शिथिल कर सकते हैं। मन, शास, शरीर आदि की शिथिलता होने पर आप अन्तर्यात्रा कर सकते हैं। चतुर्थ चरण अब मैं आपको अन्तरयात्रा की ओर ले चलता हूँ। अन्तरयात्रा का अभिप्राय है भीतर जाना। भीतर का चैतन्य केन्द्रो को प्राणशक्ति से जागृत करना। हम बाह्य संसार से बहुत परिचित हैं। हमारे मन और इन्द्रियों की स्थिति ही ऐसी है कि उनकी संपूर्ण गति बाहर की ओर बाह्य पदार्थों की ओर ही हो रही हैं। हम अपने शरीर के भी बाह्य भाग को ही देखते है। हमारे शरीर के अन्दर क्या हो रहा हैं, इसकी ओर हमने लक्ष्य ही नहीं दिया, कभी जानने की चेष्टा ही नहीं की । सबसे पहले मैं यह बताना चाहूँगा कि अभिप्राय है शरीर के अन्दर अवस्थित हमारा शरीर एक संपूर्ण लोक हैं, इसमें आत्मा का निवास है। इस औदारिक शरीर के अन्दर एक सूक्ष्म शरीर है। शास्त्र इसे तेजस शरीर कहते हैं और वैज्ञानिक विद्युन्मय शरीर इस तेजस शरीर में हमारी चैतन्य धारा प्रवाहित हो रही है। यद्यपि संपूर्ण शरीर में ही चेतना का निवास हैं, किन्तु कुछ विशेष केन्द्र ऐसे हैं, जिनमें चैतन्य शक्ति का प्रवाह अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है। इन विशिष्ट क्षेत्रों अथवा केन्द्रों को योग की भाषा में 'चैतन्य केन्द्र' अथवा 'चक्र' कहा गया है। चक्र कहने का कारण यह है कि इन विशिष्ट केन्द्रों पर तेजस शरीर के ( और औदारिक शरीर के भी) परमाणु चक्राकार रुप में अवस्थित हैं, जिनमें आत्म चेतना की धारा चक्राकार रूप में घूमती हुई प्रवाहित होती है। इसीलिए यहाँ आत्मचेतना की धारा विशेष बलवती हो गई है। कुछ योग ग्रन्थों में इन्हें कमल या पद्म नाम से भी अभिहित किया गया है। इनका मार्ग सुषम्ना के मध्य में होता हुआ गया है जिसका मूल अथवा प्रवेश द्वारा सुषुम्ना का निचला सिरा (गुदा स्थान पर जहाँ रीढ की हड्डी का अन्त है उस सिरे पर ) मूलाबार चक्र में है और इसका शीर्ष कपाल में (कपाल का मध्य भाग जहाँ ब्रह्मरंध्र है) सहस्त्रार चक्र अथवा ज्ञान केन्द्र में अवस्थित है। अन्तर्यात्रा से मेरा अभिप्राय इन्हीं चैतन्य केन्द्रो चक्रों अथवा कमलों को जो अभी तक सुषुप्त अवस्था में पडे हुए हैं, जागृत करने से है। यह कार्य प्राणशक्ति से संपन्न होता है, प्राणशक्ति द्वारा इन्हें जागृत किया जाता है। अब मैं आप को इन चैतन्य केन्द्रों का परिचय दे रहा हूँ । योगशास्त्रों में विभिन्न अपेक्षाओं से इनकी संख्याएँ भिन्न-भिन्न दी गई हैं, कहीं छह चक्र बताये गये तो कहीं सात, कहीं नौ तो कहीं हजार तक की संख्या बता दी गई है। लेकिन मैं शंका के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हों जाते हैं। ३३५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपको प्रमुख सात केन्द्रों के बारे में ही बताऊँगा। साथ ही इन्हें जागृत करने की विधि और इनके जागृत होने पर जो विशेष उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं; उन पर भी प्रकाश डालूँगा। (१) मूलाधार चक्र - इसका स्थान गुदामूल में, जहाँ सुषुम्ना नाड़ी का अन्त होता है, इसका आकार ४ दल वाले कमल जैसा है, वर्ण लाल हैं। कमल दल के बीजाक्षर वं, शं, षं, सं, हैं। शिखाकर स्वर्णिम ज्योति के रूप में ध्यान किया जाता है। इस पर ध्यान करने का फल आयोग्य और अध्यात्म विद्या में प्रवृत्ति के रूप में मिलता है। यह ऊर्जा केन्द्र है। साधक चक्रों में प्रवेश इसी केन्द्र से करता है। (२) स्वाधिष्ठान चक्र - इसका स्थान नाभि और लिंगमूल के मध्य में है। कमल दल छह हैं, बीजाक्षर हैं - बं भं मं यं रं लं। वर्ण सिन्दूरी है। बिजली की रेखा के समान इसका ज्योति स्वरूप है और इस चक्र पर ध्यान करने से वासनाओं का क्षय होता है तथा तेजस्विता बढ़ती है। इसे स्वास्थ्य केन्द्र भी कहा गया है। (३) मणिपूर चक्र - इसे शक्ति केन्द्र भी कहते हैं। इसका स्थान नाभि और वर्ण नील है इसकी ज्योति का स्वरूप बाल सूर्य के समान अरूण है यानी इस केन्द्र पर ध्यान करते समय बाल सूर्य की अरूणाभा का ध्यान किया जाता है। इस चक्र की आकृति दस कमल जैसी है। बीजाक्षर है-डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। इस चक्र पर ध्यान करने से साधक को आरोग्य, आत्म साक्षात्कार और प्रभावशीलता की उपलब्धि होती है। (४) अनाहत चक्र - इसे तैजस केन्द्र भी कहा जाता है। इसका स्थान हृदय और वर्ण अरूण है। यहाँ अग्निशिखा का ध्यान किया जाता है। यह १२ दल कमलाकार है। बीजाक्षर है - कं खं गं घं डं. चं छं जं झं अं टं ठं। इस पर ध्यान करने से आत्मस्थता और यौगिक उपलब्धियाँ साधक को प्राप्ती होती हैं। __आत्मस्थता की दशा में साधक को एक विशेष मधुर ध्वनि हृदय स्थान से निकलती हुई सुनाई देती हैं। इसी ध्वनि को मध्यकालीन साधकों ने 'अनहदनाद' कहा है। (५) विशुद्धि चक्र - इसे आनन्द केन्द्र भी कहा गया है। इसका कारण यह है कि इस चक्र के जागने पर कामना-विजय होती है और कामनाओं (इच्छाओं) की विजय से विशिष्ट आनन्द की अनुभूति साधक को होती है। यह चक्र कंठ स्थान में अवस्थित है। सोलह दल कमलाकृति रूप है। इसके बीजाक्षर 'अ' से 'अ' तक १६ मातृका वर्ण है। वर्ण इसका धुम्र के समान है किन्तु इस पर दीपशिखा का ध्यान किया जाता है।। आग्नेयी धारणा मं जो अष्टकर्म उनके प्रथम अक्षरांकित औंधे अष्टदल कमल की कल्पना की जाती है, उसका नाल कंठ प्रदेश में अवस्थित होता है और वह कमल-दल हृदय प्रदेश पर कल्पित किया जाता है। वह कमल और उसकी नाल धूम्रवर्ण की होती है, इसी कारण विशुद्धि चक्र (जब तक वह जागृत नहीं होता तब तक) का वर्ण धूम्र रहता है। और जागृत होने पर दीपशिखा के समान उज्जवल हो जाता है, जैसे निर्धूम अग्नि-शिखा। (६) अज्ञा चक्र - इसको दर्शन केन्द्र भी कहा जाता है। यह भूमध्य में अवस्थित है। इसका वर्ण श्वेत है और शरदचन्द्र की ज्योति स्वरूप ध्यान किया जाता है। यहाँ द्विदल कमलाकृति की रचना है। इसके बीजाक्षर है - हं क्षं। इस पर ध्यान करने से अन्तर्ज्ञान की प्राप्ति और वासिद्धि की उपलब्धि होती है, साधक जो कुछ भी कह देता है, वैसा ही हो जाता है। ३३६ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस चक्र का योग साधना में अत्यधिक महत्व है। इस चक्र को त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है, क्योंकि इसी केन्द्र पर ईंडा, पिंगला और सुषुम्ना - तीनों नाड़ियों का संगम (मिलन) होता है इस चक्र के जागृत होने पर साधक को अन्य किसी से भी निर्देश लेने की आवश्यकता नही रहती, वह अपने सतत् अभ्यास से ही आगे बढ़ जाता है और सहस्त्रार चक्र को जागृत कर लेता है। (७) सहस्त्रार चक्र - इस को शून्य चक्र और ज्ञान केन्द्र भी कहा जाता है। इसका स्थान कपाल में स्थित तालू में है। यह स्थान समस्त शक्तियों का केन्द्र है। अत: इस चक्र के जागृत होते ही, साधक की समस्त शक्तियाँ उद्घाटित हो जाती है। उसकी शक्ति अतुल और तेज प्रचण्ड हो जाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी मस्तिष्क समस्त शारीरिक-मानसिक क्रियाओं का केन्द्र है। स्मृति, ज्ञान-शक्ति, क्रिया-शक्ति आदि सभी प्रकार के केन्द्र यहीं अवस्थित हैं। मस्तिष्क में ही निर्देशन कक्ष हैं, जहाँ से समस्त आवेगों, संवेगों, क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का नियंत्रण होता है और योग्य निर्देशन दिया जाता है। आधुनिक भाषा में मस्तिष्क एक पावर हाउस है, जहाँ से समस्त शरीर को उर्जा सप्लाई होती है। नियंत्रक के रूप में यह हैड आफिस है, जिसके निर्देशन में शरीर के अंगोपांग रूपी समस्त ब्रांच ओफिस कार्य करते है। अत: योग साधना की दृष्टि से भी इस केन्द्र का सर्वाधिक महत्व है। योग. ग्रंथों में यहाँ सहस्त्रदल कमल अवस्थित माना गया है। सहस्त्रार का अभिप्राय ही है-हजार आरक। आरकों को ही योग की भाषा में दल या पंखुड़ियों कहा गया है। इस केन्द्र में अवस्थित कमल अवर्ण माना गया है। यानी इस पर ध्यान केन्द्रित करते समय किसी भी वर्ण (रंग) की कल्पना नहीं की जाती है। नवपद की साधना में भी इस केन्द्र पर सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान किया जाता है और सिद्ध भगवान अवर्ण हैं ही। इस केन्द्र पर ध्यान करके जब साधक इसे जागृत करता है तो प्रचण्ड तेज प्रकट होता है और इसका फल मुक्ति प्राप्ति है। तीर्थंकरों, आदि अलौकिक पुरूषों के सिर के पीछे चित्रों में जो प्रभामंडल दिखाया जाता है, वह इस चक्र से ही प्रस्फुटित तेज से निर्मित होता है। इस स्थान पर अवस्थित सहस्त्रदल कमल के प्रत्येक दल से एक-एक किरण निकलती है, इस प्रकार हजार किरणें प्रस्फुटित होती हैं। इसीलिए योग-ग्रंथों में शास्त्रों में कहा गया है कि पूर्ण महापुरूषों का प्रभामंडल हजार किरणों वाला होता है। स्तोत्रों में भी भगवान तीर्थंकर के भाममण्डल। (प्रभामण्डल)। के विषय में कहा गया है - 'चन्देसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा' भगवान का तेज सूर्य-चन्द्र के प्रकाश से भी कोटि गुना अधिक निर्मल शुभ्र और प्रभास्वर होता है। इतना अवर्णनीय प्रभाव है सहस्त्रार चक्र का। इसके जाग्रत होते ही साधक पूर्णतया किष्काम, निष्पाप, ममत्व रहित, परमसमाधि में लीन, जीवन्मुख हो जाता है। यह मैंने आप लोगों को इन सातों चक्रों का स्वरूप और उनके जागृत होने पर प्राप्त उपलब्धियों के विषय में समझाया। अब मैं आपको इन चक्रों को जागृत करने की विधि का परिचय देना चाहता हूँ। संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है, तो वह है मात्र धर्म। ३३७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र जागरण की विधि आप सुखासन अथवा पद्मासन से बैठ जाइये। आसन स्थिर रखे मन से सारे संकल्प-विकल्प बाहर निकाल दें। स्थिरचित्त होकर दीर्घश्वास लें, पूरक करें, श्वास में ली हुई प्राणवायु को फेफड़े, हृदय से नीचे की ओर ले जाते हुए गुदामूल तक पहुँचा दें, सुषुम्ना नाड़ी का यही प्रवेश द्वार हैं, जो मूलाधार चक्र कहलाता है। इस चक्र में वायु का प्रवेश करावें और सुषुम्ना नाड़ी में ऊपर की ओर धकेलें । यह क्रिया बार-बार करनी पड़ेगी पहली बार में ही सफलता मिलना बहुत कठिन है, किन्तु बार-बार के अभ्यास से सरल सहज हो जायेगी। अब मूलाधार चक्र मार्ग से सुषुम्ना में ऊपर की ओर चढ़ती हुई प्राणवायु को और ऊर्ध्वगामिनी बनावें, स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश करायें इसी तरह स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र तक प्राणवायु को ले जायें और नासिकारन्ध्र से इसका रेचन करें। ध्यान रखें यह सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी में एक सीध में अवस्थित हैं अतः प्राणवायु का संचरण सुषुम्ना नाड़ी में स्तम्भ के समान ऊर्ध्वगामी होता चला जाय । प्रत्येक चक्र पर उनके स्वरूप में बताये अनुसार बीजाक्षरों वर्णो आदि का भी ध्यान करते चलें। इस विधि से चक्र शीघ्र ही जाग्रत हो जाते हैं। दूसरी विधि यह है कि मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र को छोड़ दें। दीर्घश्वास लेकर नाभि प्रदेश में कुम्भक करें, फिर उस प्राणवायु को अनाहत और विशुद्धि चक्र में प्रवेश कराते हुए आज्ञा चक्र पर ले जायें। इन तीनों चक्रों को पार करते सिर्फ आज्ञा चक्र पर ही प्राणवायु का स्तम्भन कर दें रोग दें और मन को स्थिर करके आज्ञाचक्र के स्वरूप में बताये गये बीजाक्षर, वर्ण, कमलदल आदि का ध्यान करें जब मन स्तम्भित होना शुरू हो जाय, ध्यान में एकाग्र होने लगे तो मन का आश्रय छोड़कर आत्मस्थ हो जायें । इस विधि से अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र शीघ्र ही जागृत हो जाते है। यह दूसरी विधि अध्यात्म योगियों के लिए अधिक हितकर है; क्योंकि नामि प्रदेश से नीचे गुदा स्थान तक का (पेडू और वह भाग जहाँ जननेन्द्रिय है) भाग काम केन्द्र है। यदि साधक के हृदय में वासना का कुछ भी अंश होता है तो काम केन्द्र भड़क सकता है, परिणामस्वरूप साधक अपनी ऊर्ध्वमुखी साधना से पतित हो सकता हैं। 1 - यही कारण है कि कुण्डलिनी जागरण करने वाले बहुत से साधक बीच ही में पतित होते देखे जाते हैं। वे अपने को भगवान तो कहलवाते हैं; किन्तु बन जाते है वासना के दास । अतः अच्छा यही है कि शक्ति एवं उर्जा प्राप्त करने की लालसा में इन काम केन्द्र अवस्थित चक्रों को छेड़ा ही न जाए। जो साधक इनको नहीं छेड़ते उनके पतित होने की संभावना बहुत कम रह जाती है। यह सामान्य जिज्ञासा है कि अमुक चक्र जागृत हुआ अथवा के प्रश्न करते है। इस प्रश्न का समाधान में प्रस्तुत कर रहा हूँ, ऐसी पहचान बता रहा हूँ जिससे आप स्वयं ३३८ केन्द्र जागृत होने की पहचान हमें इतने दिन ध्यान साधना करते हुए हो गये किन्तु हमारा नहीं। बहुत से साधक मेरे पास आते हैं और इसी प्रकार मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान सकते हैं कि हमारा अमुक चक्र जागृत हुआ अथवा नहीं। इसकी पहचान के लिए निम्न सूत्र हैं - (१) चक्र पर प्राणों की सहज गति होना यानि आप आज्ञाचक्र जागृत करना चाहते हैं तो श्वास प्रक्रिया (आपके बिना प्रयास के सहजतया) ऐसी बन जाय कि आप जो श्वास द्वारा प्राणवायु ग्रहण कर रहे हैं, वह नाभि प्रदेश तक जाय, वहाँ कुछ क्षण के लिए रूके और ऊर्ध्वगामिनी बनकर आज्ञा चक्र तक पहुँचे, वहाँ कुछ क्षणों तक के लिए स्तम्भित हो और फिर उस वायु का नासापुट द्वारा रेचन हो, उच्छ्वास के रूप में बाहर निकल जाय। (२) ऐसा प्रतीत हो कि सुषुम्ना नाडी में और विशिष्ट रुप से उस चक्र में जिसे आप जागृत करने का अभ्यास कर रहे है, उस चक्र में चींटियाँ सी रेंग रही है अर्थात् स्पन्दनों की अनुभूति सतत् होती रहे। (३) जिस चक्र को आप जगा रहे है, उसमें स्पन्दनों की स्पष्ट अनुभूति के साथ प्रकाश भी दिखाई दे। जैसे-आज्ञा चक्र की साधना में जागृत होने पर आँखें बन्द करते ही शरत् चन्द्र की ज्योत्स्ना जैसा धवल दूधिया प्रकाश सभी और फैला हुआ दिखाई देने लगे, जैसे सभी वस्तुएँ दुग्ध धवल हो गई हैं। (४) वृत्तियों में अप्रत्याशित परिवर्तन परिलक्षित हो और हृदय में अपूर्व आनन्द की अनुभूति हो। उदाहरणार्थ-विशुद्धि चक्र पर ध्यान करने का फल कामना विजय है। तो आपकी इच्छाओं और कामनाओं की संसार की ओर रुचि थी उसमें इतना अधिक परिवर्तन आ जाये, आपकी रुचि उस ओर से इतनी अधिक हट जाए कि आप स्वयं ही आश्चर्यचकित रह जायें कि ऐसा परिवर्तन बिना किसी बाह्य कारण के कैसे हो गया? इसके अतिरिक्त बहुत से साधक यह प्रश्न भी पूछते हैं कि कोई भी चक्र कितने समय में जागृत हो जाता है। यानी चक्र जागृति की महीना, दो महीना, छह महीना, एक वर्ष, दो वर्ष आदि कितनी समय-सीमा हैं। इस विषय में मेरा अनुभव यह है कि चक्र जागृति की कोई समय-सीमा निश्चित नहीं की जा संकती। यह तो साधक के संकल्प बल पर आधारित है। दृढ संकल्पी साधक १०-१५ मिनट प्रतिदिन ध्यान करके किसी भी चक्र को तीन महीने में जागृत कर सकते हैं, जबकि शिथिल संकल्प वाले साधक वर्षों में भी सफल नहीं हो पाते। नोट-इस चक्र जागरण विधि, समय-सीमा आदि में मैंने सहस्त्रार चक्र (जो ब्रह्मरंध्र में अवस्थित है और ज्ञान केन्द्र भी कहा जाता है)। की जागरण विधि इसलिए नहीं बताई है कि यह योग की उच्च्तम सिद्धि है, दृश्य रुप में इससे प्रभामण्डल बनता है और साधक के अन्दर प्रचण्ड तेज उत्पन्न होता है तथा फल मुक्ति है। किन्तु आज के मानवों की शारीरिक क्षमता इतनी नहीं है कि वे उस प्रचण्ड तेज को सह सकें और मुक्ति प्राप्त कर सकें। शरीर स्थित चक्रो की पूरी जानकारी के बाद अब मैं चाहता हूँ कि आपको शरीर शिथिलीकरण के बारे में भी कुछ बता दूँ। तनाव मुक्ति - शरीर शिथिलीकरण कायोत्सर्ग का ही एक अंग है। इससे शारीरिक और मानसिक तनाव समाप्त होकर नई स्फूर्ति और ऊर्जा प्राप्त होती है, शरीर में हल्कापन आता है। सिर्फ शारिरीक लाभ ही अध्यात्म साधक का लक्ष्य नहीं होता, और इससे स्वानन्दानुभूति भी नहीं होती। इसलिए शरीर शिथिलीकरण के साथ व्युत्सर्जन का चिन्तन भी आवश्यक है। स्मृति के चित्र, मन की दुनिया है। मन की दुनिया स्पष्ट हुए बिना स्वच्छता आती ही नहीं हैं। ३३९ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्सर्जन किसका? सभी संयोगज वस्तुओं का। क्योंकि बाह्य संयोग ही स्वानन्दानुभूति के प्रमुख बाधक तत्व हैं। जैसा कि कहा है संयोगतो दुःखमनेक भेदं, यतोश्नुते जन्मवने शरीरी। ततस्त्रिधासो परिवर्जनीयो, यियासना निवृत्तमात्मनीनाम्। अत: शिथिलीकरण के साथ-साथ अध्यात्म साधक भावना भाता हैं यह भवन, आसन, वस्त्र, शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुएँ संयोगज है, मेरी नहीं है। विषय-कषाय आदि की भावनाएँ भी परजन्य है, कर्मोदय से हो रही हैं। मैं तो एक मात्र शुद्ध, बुद्ध-चिद्रूप आत्मा हूँ, ज्ञान-दर्शन ही मेरा स्वभाव है इसी में रमण करना मेरा लक्ष्य/कर्तव्य है। उसके अन्तर से भाव-प्रवाह बहता है शुद्धोडह, बुद्धोडह, सर्वचिद्ध पोडहं ध्वनियाँ इस भावना-प्रवाह के साथ-साथ शुभ और शुद्ध आवेग में उसके मुख से ध्वनियाँ प्रस्फुटित होती १. अर्हम् २. ॐ हीं अहं अहं अर्हम् ३. मनोविजेता जगतोविजेता ४. चिदानन्द रूपं नमो वीतरागं और फिर ५. अरिहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवजमि, साहू सरणं पवजामि ६. चार शरण दुःखहरण जगत में, औरा न शरण कोई होगा । जो भवि प्राणी करे आराधन, उसका अजर अमर पद होगा। आप भी साधक हैं। स्वानन्दानुभूति ध्यान साधना में प्रवृत्त हुए हैं। मैंने आपको इस ध्यान साधना की पद्धति बताई। आप सभी ने हदयंगम की। मेरा विश्वास है कि आप मेरे द्वारा बताई हई विधि से ध्यान साधना करेंगे और स्वानन्दानुभूति का अमृत रस पान करेंगे। अन्त में, दो शब्द मैं स्वानन्दानुभूति के बारे में भी कह दूँ। यों तो स्वानन्दानुभूति का स्वरुप शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो गूंगे का गुड है, जो चाखे, वही जाने बता नहीं सकता। किन्तु फिर भी कुछ आभास तो आपको करा ही दू। स्वानन्दानुभूति में तीन शब्द है -स्व, आनन्द और अनुभूति। स्व का अभिप्राय है आत्मा। कषाय आत्मा नहीं, शुद्ध आत्मा। आपकी, मेरी, सबकी, सभी भव्य प्राणियों की आत्मा आनन्दमय है। आनन्द आत्मा का स्वभाव है। अरिहंत भगवान के चार अनन्तचतुष्टयों में अनन्तमुख कहा गया है। वह सुख ही आत्मा का अनन्दमय स्वभाव है। इसीलिए आत्मा को सचिदानन्दघन ३४० देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी कहा जाता है। इसी आत्मिक आनन्द की अनुभूति करना, अनुभव में लाना, इस लाना इस सुख का रसास्वादन करना स्वानन्दानुभूति है। में विश्वास के साथ कहाता हूँ कि उपरिवर्णित ध्यान पद्धति की साधनास करके आप अवश्य ही उस आत्मिक आनन्द का अनुभव करेंगे, जो अलौकिक है, अचिन्त्य है, अनुपम है, जिसकी तुलना में संसार का बड़े से बड़ा सुख भी किसी गिनती में नहीं है। मेरी भावना है- आप इसी स्वानन्दानुभूति में निमग्न हों। • मोह और प्रेम में बड़ा फर्क है मोह किसी क्षण टूट सकता है पलट सकता हैं अथवा ठीक विपरीत दिशा में भी दौड़ सकता हैं। मोह की चमक-दमक मात्र स्वार्थ या तृप्ति पूर्ण होने तक ही होती है। जबकि प्रेम में किंचित भी परिवर्तन नही होता। इसमे कुछ भी प्राप्त करने का भाव नही हैं, मात्र देने की इच्छा होती है। प्रेम तो देता हैं, देता रहता है आजीवन देता रहता / प्रेम में लूट-खसोट नहीं। मानव जब परास्त होता है, हारता है, तब भी अपना दोष देखने जितना निर्मल पवित्र नहीं बन सकता। ३४१ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैन आगम साहित्य में वर्णित दास-प्रथा डॉ. इन्द्रेश चन्द्रसिंह प्राचीन भारत में दास-प्रथा प्रागैतिहासिक काल से ही प्रचलित मानी जाती है । यद्यपि कतिपय विदेशी इतिहासकारों ने भारत यात्रा के दौरान यहाँ जो कुछ देखा, उसके आधार पर भारत में दास-प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसका प्रमुख कारण यह था कि भारत में दास-प्रथा समकालीन सभ्य देशों जैसे-रोम, यूनान और अमेरिका आदि की भाँति नहीं थी। उक्त सभ्य देशों में दासों के साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता था। इसके विपरीत भारत में दास एवं दासियाँ परिवार के सदस्यों के साथ रहते थे तथा परिवार के अंग समझे जाते थे। जैनागम आचारांगसूत्र में गृहपति, उसकी पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्री एवं पुत्रवधू के साथ दास-दासी तथा नौकरों (सेवकों) को भी पारिवारिक सदस्यों के अन्तर्गत ही वर्णित किया गया है। पश्चिमी सभ्य कहे जाने वाले देशों में दासों की स्थिति से भारतीय दासों की उत्कृष्टता को प्रमाणित करने के लिए यहाँ राजा द्वारा इन्हें देवानुप्रिय जैसे शब्द का सम्बोधन पर्याप्त होगा। सामान्यतया दास परिवार में रहते हुए समस्त आन्तरिक एवं बाहय कार्यों में अपने स्वामी का सहयोग करते थे। दासों की स्थिति- जैनाचार्यों ने दासों की गणना दस बाह्य परिग्रहों में करते हुए श्रमणों के लिए इनका प्रयोग निषिद्ध बताया है। इसके विपरीत चार गृहस्थों के लिए इन्हें सुख का कारण बताया गया है तथा इनकी गणना भोग्य वस्तुओं के साथ की गई है।५ जैनागम काल में राजा एवं कुलीन व्यक्ति ही दासों के स्वामी नहीं होते थे अपितु धनसम्पन्न गाथापति एवं गृहस्थ भी अपने यहाँ दासों को नियुक्त कर उनसे सहयोग प्राप्त करते थे। सामान्यतया सेवावृत्तिही दासों का प्रधान धर्म था। अत: उनकी स्थिति को शोचनीय मानते हुए वर्णित है कि महावीर के उपदेश में जिस प्रकार पापदृष्टि वाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को हिन समझता है, उसी प्रकार दास को भी हीन समझा जाता था। दासों के ऊपर दासपतियों को पूर्ण आधिपत्य प्राप्त था। अत: विवाह आदि अवसरों पर विविध वस्त्राभूषणों के साथ प्रीतिदान के अन्तर्गत इन्हें भी सम्मिलित कर लिया जाता था। इस प्रकार प्रीतिदान अथवा भेंट के रूप में दिये जाने पर दासों को श्वसुर पक्ष के अन्य सदस्यों के साथ गिना जाता था।९ दासता के कारण: जैन आगम साहित्य में दास विषयक उल्लेखों के आधार पर दासों के प्रकार अथवा दासवृत्ति अपनाने के पीधे कार्यरत कुछ प्रमुख हेतुओं को विवेचित किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र१० में ६: प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है। इसमें जन्म से ही दासवृत्ति स्वीकार करने वाले, क्रीत (खरीदे) किये हुए दास, ऋणग्रस्तता से बने हुए दास, दुर्भिक्षग्रस्त होने पर, जुर्माने आदि को चुकता न करने पर तथा कर्ज न अदा करने के कारण बने दास उल्लेखनीय हैं। जन्मदास:- दास एवं दासी के साथ उसकी सन्तति पर भी दासपति के अधिकारों का प्रमाण मिलता है। अत: यह कहा जा सकता है कि दासियों द्वारा पुत्र-प्रसव के उपरान्त उसपर स्वामी का स्वत: अधिकार स्थापित हो जाता था। स्वामी की देख-रेख में बाल्यावस्था से ही इनका पालन-पोषण किया जाता था।११ प्रारम्भिक अवस्था में ये स्वामी-पुत्रों का मनोरंजन करते तथा उन्हें क्रीडा कराते थे। कभी-कभी अपने स्वामी को भोजन आदि भी पँहुचाते थे।१२ तथा बडे होने पर अन्य गुरुतर कार्यों को सम्पादित करते थे। क्रीतदास-जैनागमों में कुछ ऐसे भी विवरण मिलते हैं जहाँ राजपुरुषों द्वारा अपने कार्यों में सहयोग हेतु विविध देशों से लाये गये दास-दासियों को नियुक्त किया गया था। इनमें दासों (पुरुषों) १ स्लेवरी इन एशियेष्ट इण्डिया, पृ. १५-१८, २ आचारांग सूत्र, २/१/३३७ पृ. २५, ३. ज्ञाताधर्मकथासू, १/१/२६, राजप्रश्नीयसूत्र, विवेचन, पृ. १७, ४. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/३/१६, ५. उत्तराध्ययनसूत्र, ३/१७, प्रश्नव्याकरणसूत्र, अ. २, पृ. १६०. ६. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, २/१/१०, ७. उत्तराध्ययनसूत्र, १/३९, ८. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/१६/१२८, ९. आचारांगसूत्र, २/१/३५०., १०. स्थानांगसूत्र, ४/१९१ - अ तथा देखिए - जे.सी. जैन, पृ. १५७, ११. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/२/४३, १२ वही, १/२/३३ ३४२ धोखेबाज, दगाबाज कभी भी विजय प्राप्त नहीं करते। वे तो सर्व विनाश को ही प्राप्त होते हैं। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा दासियों का उल्लेख अपेक्षाकृत अधिक हआ है। विदेशी दासियों में चिलातिका (चिलात-किरात देशोत्पन्न), वर्वरी (वर्वरदेशोत्पन्न), वकुश देश की तथा योनक, पल्हविक, ईसनिक, लकुस, द्रविण, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कण, बहल, भुरुंड, शबर, पारस आदि का नामोल्लेख हुआ है।१३ ये दासियां अपने-अपने देश के वेश धारण करने वाली, इंगित, चिन्तित, प्रार्थित आदि में निपुण, कुशल एवं प्रशिक्षित होती थी। इन तरुण दासियों को वर्षधरों (नपुंसक), कंचुकियों एवं महत्तरकों (अन्त:पुर के कार्य की चिन्ता रखने वाले) के साथ राजपुत्रों के लालन-पालन हेतु नियुक्त किया जाता था।१४ विदेश से मँगवाई गयी दासियों५ का विवरण उस समय समाज में दासों के क्रय-विक्रय का संकेत प्रस्तुत करता है, जिसकी पुष्टि केश-वाणिज्य के अन्तर्गत दास-दासियों की खरीद-फरोख्त (पशुओं के समान) किये जाने से होती है। युद्धदास:- युद्ध में विजयी पक्ष, पराजित राज्य की विविध धन-सम्पदा के साथ साथ मनुष्यों एवं स्त्रियों को भी बन्दी बना लेता था। इनमें से कुछ अतिविशिष्ट स्त्रियों को तो धन-सम्पन्न व्यक्तिओं द्वारा पत्नी के रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। जबकि शेष पुरुषों एवं स्त्रियों को दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए संत्रस्त किया जाता था।१६ सम्भवत: अपने उपयोग से अधिक संख्या होने पर इन्हें उपहार या परिश्रमिक के रुप में भी दिया जाता था।१७ दुर्भिक्षदास एवं ऋणदास- दुर्भिक्ष के समय उदरपूर्ति एवं अन्य आवश्यकता हेतू लिये गये ऋणो को समय पर अदायगी न किये जाने से ऋणी को ऋणदाता को अल्पकालिक अथवा जीवनपर्यंत दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। उस समय वणिक अथवा गाथापति लोगों को आवश्यतानुरूप कर्ज वितरित करते थे। परिस्थितवश यदि निर्धारित अवधि में ऋण लेने वाला व्यक्ति उसका सम्यक् भुगतान करने में असमर्थ रहता था तो उससे कहा जाता था कि या तो तुम कर्ज चुकाओ, अन्यथा गुलामी करों । १९ धात्रियाँ-दास तथा दासियों के अतिरिक्त उस समय प्राय: सम्पन्न परिवारों में नवजात शिशुओं के पालन, संरक्षण, संवर्दन एवं विकास हेतु दाइयों की नियुक्ति की जाती थी। जैन सूत्रों में राजपरिवार में विविध देशों से लाइ गयी दासियाँ जिन्हें कार्यानुसार पांच कोटियों में विभक्त किया गया है। (१) क्षीरधात्री, (२) मंडनधात्री, (३) भज्जनधात्री, (४) अवधात्री एवं (५) क्रीडापनधात्री। ये दाइयाँ बच्चे को दूध पिलाने, वस्त्रालंकारों से सज्जित करने, स्नान कराने गोद में लेकर बचे को खिलाने तथा क्रीडा आदि कराने में संलग्न रहती थी।२० दाइयों की स्थिति दासियों की अपेक्षा श्रेष्ठ थी। इसका कारण यह था कि दाइयों का स्वामीपुत्रों अथवा पुत्रियों से न केवल तब तक सम्बन्ध रहता था, जब तक वे नादान रहते थे बल्कि वे उनका उचित मार्गदर्शन वयस्क हो जाने पर भी करती थी।१ राजपुत्रों के प्रवजित होते समय माता के साथ दाइयों के भी जाने का उल्लेख मिलता है। दाइ (अम्माधाई) राजपुत्र के वामपार्श्व में रथारुढ़ होती थी।-२२ दासों के कार्य- जैनागम ग्रन्थों में परिवार में रहते हुए घर के काम-काज में तत्पर दासों का विवरण मिलता है। घर के आन्तरिक कार्यों में इनसे अत्यधिक सहयोग प्राप्त किया जाता था। दास तथा दासियाँ परिवार में प्राय: राख तथा गोबर आदि फेंकने, सफाई करने, साफ किये गये स्थल पर पानी छिड़कने, पैर धुलाने, स्नान कराने, अनाज, कूटने, पीसने, झाडने और दलने तथा भोजन बनाने में अपने स्वामी अथवा स्वामिनी का सहयोग करते थे।२३ जैसाकि पीछे कहा जा चुका है कि दास एवं दासियों के अतिरिक्त उनकी सन्तति पर भी दासपतियों का प्राय: आधिपत्य रहता था। दासचेट अपने मालिक के बच्चों का मनोरंजन तथा क्रीडादि कराते थे एवं स्वामी को भोजन आदि पँहुचाते थे।२५ दासचेटियाँ अपने स्वामिनी के साथ पूजा-सामग्री १३. अन्तकृतदशांगसूत्र ३/२, राजप्रश्नीयसूत्र २८१, १४. वही, वही, १५. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, २/८/५, उत्तराध्ययन, ८/१८, १६, अन्तकृतदशा, ३/३ १७. पिण्डनियुक्ति, ३१७-१९, व्यवहारभाष्य, ४/२, २०६-७, १८. देखिए, जे.सी. जैन, पृ. १५७-१५९, १९. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/१/९६, अन्तकृतदशा, ३/२ २०. ज्ञाता धर्म कथासूत्र, १/१/९६, २१. वही, १/१/१४६, २२. वही, १/७/२०, २३. वही, १/२/२२, २४. वही, १/४८/४५ ममता यदि ज्ञान पूर्ण होतो वह सांसारिकों के लिए उत्तम हैं। ३४३ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकर मन्दिरों में जाती थी।५ दासों की नियुक्ति कभी-कभी अंगरक्षकों के रूप में भी होती थी तथा सेवा शुश्रूषा करने के लिए दासियों की नियुक्ति अंगपरिचारिका के रुप में होती थी। इस प्रकार की दासी को आभ्यान्तर दासी कहा जाता था। ये अपने मालकिन के चिन्तित होने पर उसका कारण खोजती, तत्पश्चात् स्वामी से उसका निवेदन कर निराकरण हेतु प्रार्थना करती थी।६ दास-दासियाँ कभी-कभी सन्देशवाहक अथवा दूत के रुप में भी प्रयुक्त किये जाते थे और अपने स्वामी के गोपनीय कार्यों का सम्पादन करते थे। अत: इन्हें प्रेष्य कहा जाता था।२७ दास-दासियों के विशिष्ट कार्य- कतिपय दासियाँ राजकन्याओं के साथ स्वयंवर में भी जाती थीं। उनमें कुछ दासियाँ लिखने का कार्य करती थीं२८ तथा कुदेख दर्पण लेकर उपस्थित जनसमूह के प्रतिबिम्ब को दिखलाकर तत्सम्बन्धित गुण-दोष का बरवान करती थी। इसके अतिरिक्त उस काल में रूप एवं सौन्दर्य सम्पन्न दासियों (तरुणी दासी) की उपस्थिति स्वामी पुत्रों के अति निकट रहती थी। दासों का जीवन- यद्यपि भगवान् महावीर के अहिंसा महाव्रत के समर्थक एवं बहुसंख्यक सहृदय दासपति, दासों को अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ नियुक्त कर उनका सम्यक् पालन-पोषण कर उदारता का प्रदर्शन करते थे तथा उन्हें 'देवानुप्रिय' जैसे शब्दों से सम्बोधित करते थे। उपासकदशांगसूत्र में अहिंसाव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत दासों को बांधने, जान से मारने, बहुत अधिक बोझ लादने तथा अत्यधिक श्रम लेने जैसे अनाचारों को भी सम्मिलित किया गया है।३० लेकिन कभी-कभी दासों द्वारा विवेकहीन कर्मों का निष्पादन करने पर स्वामी द्वारा इन्हें प्रताड़ित किया जाता था।३१ कतिपय क्रूर दासपतियों द्वारा दासों को अकारण ही प्रताडित किया जाता था तथा उनको सामर्थ्य से परे कार्यों में लगाकर पीडा पहुचाई जाती थी।३२ जनसामान्य अपनी आवश्यकतानुसार परिवार में दासों की नियुक्ति करते थे तथा उनके भरण-पोषण का ध्यान भी रखते थे। इस सबके बाव-जूद दासों की गणना भोग्य वस्तुओं३ में करके उनकी स्वतंत्रता को बाधित कर दिया जाता था। जैनागमों के काल में दास-दासियों का क्रय-विक्रय, उपहार एवं पारिश्रमिक के रूप में दिया जाना तथा उन्हें प्रताडित करना एवं जीवनपर्यन्त पराधीनता अदि तथ्य उनकी शोचनीय सामाजार्थिक स्थिति की ओर बरबस ध्यान आकृष्ट कराते है। दासपन से मुक्ति- जैन ग्रन्थों में कुछ ऐसे भी सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जहाँ दासों द्वारा दिये गये शुभसन्देश से खुश होकर दासपति उन्हें दासवृत्ति से मुक्ति प्रदान कर देते थे। ऐसी स्थिति में दास-दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गंधो, मालाओं और आभूषणों से सत्कार-सम्मान करके इस तरह की आजीविका की व्यवस्था कर दी जाती थी कि जो उनके पुत्र-पौत्रादि तक चलती रहे|३४ दासों को मुक्त करते समय उनका मस्तकधोत३५ (मस्तक धोना) करना दासता से मुक्ति का प्राथमिक एवं महत्त्व पूर्ण लक्षण माना जाता था। इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति जो दुर्भिक्ष अथवा अन्य अवसर पर महाजनों से ऋण लेता था तथा समय पर ऋण न देने पर दासत्व स्वीकार करता था। ऐसी स्थिति में उस ऋणी व्यक्ति द्वारा साहूकार का कर्ज चुकता कर देने पर दासपन से मुक्ति सम्भव थी।३६ सामान्यतया दासों को जीवनपर्यन्त स्वतन्त्र होने का आधिकार एवं अवसर बहुत कम था। सामान्यत: दासपति अपने यहाँ नियुक्त दासों का पालन-पोषण पारिवारिक सदस्य की तरह करते थे। २५. अन्तकृतदशासूत्र ३/२-६, ज्ञाताधर्मकथा १/१/४९, २६. ज्ञाताधर्मकथा, १/२/४३, २७. वही, १/१६/१२२, २८. वही, १/१/१४७-४८ तथा देखिए बुद्धकालीन समाज और धर्म, पृ. ३१-३२, २९. उपासकदशासूत्र, अ. १, सू. ४५, ३०. ज्ञाताधर्मकथासूत्र १/१८/८, ३१. आवश्यकचूर्णि पृ. ३३२, देखिए, जे.सी. जैन, पृ. १६१, ३२. अन्तकृतदशासूत्र, ३/२-६, ३३. वही, ८/१५, ३४. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/१/८९, ३५. व्यवहारभाष्य ४/२, २०६-७, ३६. देखिए, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. १५८-५९ ३४४ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में ध्यान लेखक- मनोहरलाल मणिलालजी पुराणिक अधिवक्ता कुक्षी जिला धार म.प्र. जैन मतावलम्बियों के लिये बताये गये तप में अभ्यन्तर प्रकार के तपों में पांचवां तप ध्यान हैं। योग के, यम नियम आसन प्रणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान व समाधि इन आठ अंगो में सातवां अंग ध्यान है ध्यान के चार भेद १. पदस्थ २. पिण्डस्थ ३. रुपस्थ व ४. रुपातीत धर्म ध्यान इन दो शब्दों का अक साथ उपयोग/प्रयोग कर के शास्त्रों में इनकी अकरूपता व अविच्छिन्नता बताई गई है । यद्यपि ध्यान, धर्म से व्यक्ति को जोड़ने की क्रिया है तथापि इसके अभाव में धर्म सूना सूना सा हो जाता है। धर्म के बारे में सोचने का अवसर ध्यान देता है, ध्यान व्यक्ति को अन्तर झांकने में स्वयं के समझने व पहचानने में सहायक होता है। जैन धर्म में मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। जो लोग संसार सागर से पार उतर गये उनकी आत्मा व साधारण व्यक्ति की आत्मा को मूलत, कोई भेद नहीं है। भेद वास्तव में आत्मा पर चढी चार कषाय व आठ मद की परतों का है। जिस आत्मा पर से ये परते हटी वही आत्मा परम आत्मा हो गई। इन परतों को देखने के लिये आंख मुन्द कर ध्यान लगाना होता है। ध्यान लगाने में यह ध्यान रखना होता है कि आंख मुन्दी तो जाये पर वह दृष्टीहीन न हो जाये। वह बाहर के बजाय अन्दर की और देखने लगे यह आवश्यक है। मानव शरीर अपने आप में बहूत बडा यन्त्रालय है। यन्त्रों के सन्चलन में जिस प्रकार गडबडियां आया करती है उसी प्रकार मानत शरीर में भी विकार व रोग होते रहते है। तीर्थकरों के शरीर ऋषभनाराचसंघण व अतिशययुक्त होने के कारण से उनमें विकार व रोग नहीं होते है। इस कारण उनके द्वारा किये जाने वाले ध्यान में श्वास उपर लेने व नीचे छोडने, खांसी, छीक, जम्हाई, डकार, वायु, निसरण अकस्मात, देह भ्रमण, मूर्छा व चक्कर आने आदि कारणों से अंग संचलन नहीं होता है। थुक व श्लेष्म भी शरीर संचलन नहीं कर पाते है नहीं दृष्टि संचलन का विकार/बाधा होती है किन्तु सामान्य व्यक्ति के शरीर में न तो अतिशत होता है नहीं वह चरम शरीरी होता है इस कारण से सामान्य व्यक्तियों के ध्यान मे शरीर में होने वाली व्याधियों प्रकृतिक परिवर्तनों, रोगों, विकारो आदि से बाधा होती है हमारे पूर्वाचार्यों ने अपने अलौकिक अनुभवों से उक्त शारीरीक विकारों से होने वाली बाधाओं को जाना। ध्यान करने में सर्वप्रथम अपने मन का, काया से सम्बंध तोडना/छोडना होता है मन का सम्बंध अदृश्य शक्ति से जुड़ने का अनुभव करना होता है। इस स्थिति को कायोत्सर्ग कहा जाता है। कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के छ: आवश्यक में से अक है जो अभ्यन्तर तप की श्रेणी में भी आता है। कायोत्सर्ग के बिना ध्यान की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह ध्यान की प्रथम सीढी है। ध्याता की ध्येय में तल्लीनता भी कभी कभी काया का उत्सर्ग कर देती है। काया को पता ही नहीं चलता है कि बाहर क्या हो रहा है। पानव शरीर की कमजोरियों का सुक्ष्म विष्लेशण करके हमारे पूर्वाचार्यों ने ध्यानत्मय कायोत्सर्ग में उंचा श्वास लेने, नीचे श्वांस छोडने, खांसी आने, छींक होने, जम्हाई आने, डकार आने, वायु निसरण, अकस्मात देह भ्रमण/चक्कर आने, पित्त प्रकोप के कारण से धुंक श्लेष्म के कारण ज्ञान-पूर्वक उत्पल-वैराग्य याने वासनाओं ये वैराग्य, आत्मा से चिपके हुए आत्म-जरा-मृत्यु के जाल को छेदने का पुरुषार्थ है। ३४५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से शरीर का सुक्ष्म संचलन व दृष्टी के सुक्ष्म संचलन के अपवादों को छोड़ने का निर्देश दिया है। इन सारे अपवादो का अन्त्थसुत्र में विवरण देते हुओ कायोत्सर्ग का प्रत्याख्यान/पचकखाण किया जाता है। उक्त शारीरीक विकारों के अतिरिक्त ध्यान में भय के कारण से स्थान छोड़ने की अनुमति भी दी गई है। इन भयों में प्रमुख, अग्नि व विद्युत प्रकोप, बिल्ली चुहों का भय, पन्चेन्द्रीय जीव के छेदन का भय, चोर व राजा का भय, सिंह सर्प का भय तथा दीवार गिरने का भय प्रमुख है इनमें से किसी भी भय के उपस्तिथ होने पर स्थान छोडने से ध्यान भंग हुआ हीं माना जाता है। इन विकारों व भय के अतिरिक्त ध्यान में शरीर सन्चलन के लिये दायित्वाधीन कोई तत्त्व शेष नहीं रह जाता है। जिस तरह धर्म ध्यान अकाकार है उसी प्रकार का सम्बंध ध्यान व मौन का भी है। मौन होने पर ही व्यक्ति अपने विचारों के प्रवाह को रोकने का प्रयास कर सकता है। विचार प्रवाह रुकना ध्यान की सार्थकता है। विचार प्रवाह, मन को अकाग्र नहीं होने देता है विचार प्रवाह ध्यान का प्रबल शत्रु माना गया है विचार प्रवाह से मन में होने वाली चन्चलता के कारण ही मन को बन्दर की उपमा दी जाती रही है। ध्यान किसका किया जाये यह अक प्रमुख प्रश्न उठता है। यह प्रश्न भी तभी तक सारभूत रहता है जब तक कि मन अकाग्र न हो जाये। जैन धर्म में सर्वाधिक जोर नमस्कार महामन्त्र के ध्यान करने पर दिया गया/जाता है फिर भी तीर्थंकरों, गणघरों, प्रभावक आचार्यो, देवी देवताओं व विशेष सुत्रों का ध्यान किया जाना असंगत नहीं माना गया है। धर्म ध्यान व शुक्लध्यान ध्याना जैन मतावलम्बियों के लिये आवश्यक माना गया है। शुक्ल ध्यान में आत्मा स्व चिन्तन में लग जाती है। वह कहां से आई कहां जाना, क्या लक्ष्य है, अभी तक क्या कर लिया है, लक्ष्य पर पहुंचने का मार्ग मिला या नहीं, इन बातों का ध्यान करने लगती है। क्यों कि आत्मा का लक्ष्य अब बन्धनों को तोडकर सिध्ध स्थान में अपनी जगह बनाना है। शुक्ल ध्यान कषाय बन्धनो से आत्मा को मुक्त कर क्षपक श्रेणी पर पहुंचाता है। मरुदेवी व भरत चक्रवर्ती ने ऐसा ही ध्यान करके योग्य भावना भाकर केवलज्ञान व सिध्धस्थान प्राप्त किया था। ध्यान की ऐक आवश्यकता स्थान की निरापदता भी है। चाहे जहां ध्यान करना सुसंगत नहीं माना गया है। मनशद्धि शरीरशुद्धि के साथ ही शुद्ध निरापद व भय रहित स्थान ध्यान के लिये उपयुक्त है। कोलाहल से ध्यान भंग होता है। आस पास के वातावरण का भी ध्यान पर प्रभाव पड़ता है शुध्द सात्विक व धार्मिक वातावरण से परिपूर्ण स्थान ध्यान में सहायक होते है। सगुण व निर्गुण दोनों प्रकार के ध्यान के लिये सिद्धासन व पदमासन की स्थिति योगशास्त्र में सर्वश्रेष्ठ कही गई है। सारी अन्य सहायक परिस्थितियों के उपरान्त भी मन की चन्चलता पर नियन्त्रण के बिना ध्यान असम्भव है। कोशा गणिका की चित्रशाला में मन पर नियन्त्रण करके स्थुलिभद्रजी ने ध्यान किया जबकि मन पर नियन्त्रण न रह पाने के कारण निर्जन गुफा में रथनेमि मुनि का मन विचलित होने के उदाहरण हमें मिलते है। प्रयत्न से/यत्नपूर्वक ध्यान किया जाये तो निश्चित रुप से मन को अकाग्र करके आत्मा का बाहर से सम्बंध तोड कर अपने लक्ष्य की और ध्यान आत्मा को निर्बाध रुप से प्रवाहमान कर देता है। काश आर्तध्यान व रौद्रध्यान से दूर रह कर शुक्ल ध्यान व धर्म ध्यान हम कर पायें. इत्यलम ३४६ औषधि मंत्र तंत्र भी हर बार कार्य नहीं करते, हर बार सफल नहीं होते। ये भी कर्म के प्रभाव को नष्ट नहीं कर पाते। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह - एक विवेचन - डॉ. कमल पुंजाणी 'परिग्रह' शब्द संस्कृत की 'ग्रह' धातु में 'परि' उपसर्ग जोडने से बना है। जिसका अर्थ होता है चारों और से बटोरना, अनेक वस्तुओं का संग्रह करना, समेटना इत्यादि 'ग्रह' धातु के पहले विविध उपसर्ग जोड़ने से जो अनेक शब्द बनते हैं, उनकी सूची सुदीर्घ और सुन्दर है, किन्तु उसी में 'परिग्रह' शब्द विशेष चर्चित एवं चारुतापूर्ण है। इसमें निषेधवाचक 'अ' जोडने से 'अपरिग्रह' शब्द बनता है। अपरिग्रह' धर्मशास्त्रो, विशेषत: जैन धर्मशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है । 'मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति आदि धर्मशास्त्रो में धर्म का स्वरुप स्पष्ट करते समय 'सत्य', 'अहिंसा' 'अस्तेय' आदि लक्षणों में 'अपरिग्रह' शब्द का प्रयोग हुआ हो या नहीं परन्तु मुनि श्री सन्तबालजी ने 'सत्य, अहिंसा, चोरी न करवी, वण जोतुं नव संघरखं....' नामक अपने एक गुजराती गीत में जिन ११ महाव्रतों का उल्लेख किया है, उनमें 'अपरिग्रह' को अवश्य स्थान दिया है। जैन-दर्शन में 'अपरिग्रह' शब्द का जहां व्यापक रूप में प्रयोग हुआ है, वहां इसके अन्य परम्परित एवं सन्दर्भगत अर्थ भी प्रदर्शित किये गये तदनुसार, 'परिगह' का अर्थ 'पाणिग्रहण' के अतिरिक्त 'धनादि पदार्थो का वासनामूलक संग्रह' भी होता है। इस दृष्टि से 'अपरिग्रह' का अर्थ होगा पत्नी, पुत्रादि व्यक्तियों तथा धन, दौलत, विलास, वैभवादि वस्तुओं एवं वृत्तियों से मुक्त होना, परे होना। यहां ध्यातव्य है कि 'अपरिग्रह' शब्द, जैन दर्शन में, केवल 'व्यक्ति' या 'वस्तु' के त्याग ही सूचक नहीं वरन् 'वृत्ति' से मुक्ति का द्योतक भी है। दूसरे शब्दों में, जैनागम के अनुसार, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि वृत्तियां भी 'परिग्रह' की श्रेणी में आती है। इसी कारण, जब तक इन वृत्तियों से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक 'वास्तविक अपरिग्रह' की स्थिति या तृप्त असम्भव है। 'अपरिग्रह' के इस महत्व को ध्यान में रखकर कुछ जैन विद्वान अहिंसा से भी उसे अधिक मननीय तथा महत्त्वपूर्ण मानते है । हिन्दी - जगत् में कथा - साहित्य की चर्चित पत्रिका 'कथालोक' के सम्पादक श्री हर्षचन्द्र द्वारा आयोजित एक परिचर्चा (अप्रैल, १९८०) में युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अपरिग्रह' की महत्ता इन शब्दों में प्रकट की है। "अहिंसा परमो धर्म:" का घोष जैन धर्म का महान घोष माना जाता है । इसमें कोई सच्चाई नहीं है, यह मैं कैसे कहुं, पर मैं इस सच्चाइ को उलट कर देखता हूँ 'अपरिग्रह : परमो धर्म:' यह पहली सचाई है और 'अहिंसा परमो धर्मः यह इसके बाद होने वाली सचाई है । " अपनी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए आदार्यजी लिखते है : "यह सर्वथा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य हिंसा के लिए किन्तु परिग्रह की सुरक्षा के लिए हिंसा करता है। जैसे-जैसे वैसे-वैसे अहिंसा का विकास होता है।...." इससे स्पष्ट है कि अपरिग्रह का व्रत अहिंसा - व्रत से अधिक उत्तम एवं उपयोगी है। आत्म-दर्शन और आत्मा के जन्म मरण के भय को नष्ट करने का पुरुषार्थ ही सबसे कठिन पुरुषार्थ है । For Private Personal Use Only - परिग्रह का संवय नहीं करता, अपरिग्रह का विकास होता है, ३४७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार तथा प्रसिद्ध जैन विद्वान श्री यशपाल जैन 'अपरिग्रह के सूक्ष्म अर्थ की और इंगित करते हुए कहते है : "सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो कभी-कभी साधनहीन साधु परिग्रही मिलते हैं और साधनयुक्त श्रावक अपरिग्रही। साधु में अपनी साधुता का गुमान और श्रावक में अपनी सम्पदा का अभिमान हो, तो दोनों ही परिग्रही की श्रेणी में पहुंच जाते है।" इस प्रकार परिग्रह आसक्ति और अपरिग्रह अनासक्ति से सम्बद्ध है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या संपूर्ण अपरिग्रह सम्भवित और सराहनीय है? यदि हा, तो किसके लिए? कैसे? इन प्रश्नों का उत्तर श्रावक तथा साधु के जीवनादर्श और जीवनोद्देश्य को ध्यान में रखकर ही दिया जा सकता है। वस्तुत: श्रावक के लिए परिमित ग्रहण तथा साधु के लिए पूर्ण अपरिग्रह अभीष्ट है। श्रावक को अपने परिवार तथा साधु समाज-दोनों के निर्वा का दायित्व वहन करना पड़ता है। इसलिए अपरिग्रह-व्रत का पूर्ण पालन उनके लिए असम्भव है, किन्तु वह अपनी आवश्यकताओं का अल्पीकरण करते हुए, सन्त कबीर की भांति, इतना निवेदन अवश्य कर सकता है : "सांई, इतना दीजिये जा में कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।" इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का यह अल्पीकरण श्रावक के लिए अपरिग्रह-व्रत-तुल्य हो जायेगा। श्रावक यदि साधु-समाज के भौतिक योग-क्षेम का दायित्व वहन करता है तो साधुओं को सम्पूर्ण श्रावक-समाज के 'आत्मिक उन्नयन' का दायित्व वहन करना पड़ता है। इसके लिए पहले उन्हें सुख-दु:ख, राग-द्वेष, मानापमान आदि द्वन्दो से ऊपर उठना पड़ता है। इस 'आत्म-विकास' के लिए उन्हें अपरिग्रह-व्रत के पूर्ण पालन की आवश्यकता होती है। ऐसे अपरिग्रह व्रत धारी साधु के लिए गीता (२/५६) में 'स्थितप्रज्ञ' की संज्ञा देते हुए कहा गया है : "दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः। वीतराग भयक्रोध : स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।" उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अपरिग्रह एक महाव्रत है। यह अहिंसा से भी अधिक महत्वपूर्ण है किन्तु इसका पूर्ण पालन संसार-मुक्त वैरागियों से ही सम्भव है। जैन-दर्शन में अपरिग्रह केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के त्याग तक ही सीमित नहीं है, किन्तु 'समस्त इच्छाओं से मुक्ति' (To have no desire is divine का पर्याय है। ३४८ जो वस्तु उत्तमोत्तम हो उसे ही जिनेन्द्र पूजा में रखना चाहिए। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त कुसूमबेन मांडवगणे M.A.B.ED. __ कर्म का सर्वमान्य अर्थ है, मनुष्य दिनभर में जो कार्य करता है वह कर्म। मनुष्य के जन्म और मरण तथा उसके सुख और दु:ख उसके कर्म पर ही आश्रित है। कर्म का संबंध मुनष्य के धर्म से है; अथार्त उसकी धारणा सें, मनोवृत्ति से अथवा ज्ञान से है। अत: मनुष्य को निवृत्ति का, दैवी और असुरी प्रवृत्ति का, धर्म और अधर्म का ज्ञान प्राप्त करके ही कर्म करना चाहिये। यह करने से ही मनुष्य का कर्म श्रेष्ठ हो सकता है। कर्म तो क्षणिक होता है, व्यक्ति जब कर्म करता है तो वह केवल उसी समय वह कार्य करता है और उसका परिणाम मनुष्य के पूरे जिन्दगीभर रहता है। मनुष्य याने कि उसका जीव कर्म करता है पर जीव अभुर्त है। वह मनुष्य के शरीर में भले ही विराजमान हो, कभी कभी वह शरीर की पर्वा किये बगेर कर्म करता है। इसलिए जीव के लिए कोई बंधन नही है। कर्म तो मूर्त है, वह हम देख सकते है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीव अमूर्त है और कर्म मूर्त है, तो जीव और कर्म का मेल कभी भी नही हो सकता। ___ गीता में कर्म का सिद्धांत है - "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" मनुष्य अपने कर्म करने के लिये बाध्य होता है। उसे उस कर्म के फल की अपेक्षा नही करनी चाहिये। गीता में बताया है, 'कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर हे इन्सान; जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।' फल देना इश्वर के हाथ मे होता है। कोई बुरा कर्म करता है तो उसे बुरा फल मिलता है तो उसे बुरा कर्म नही करना चाहिये। कोई श्रेष्ठ कर्म करता है तो उसे श्रेष्ठ फल मिलता है। एक बात अनिर्णित रहती है, अच्छा कर्म कौनसा है, और बुरा कर्म कौनसा है? इससे एक छोटी कहानी मुझे याद आती है - "एक योगी तप के लिये बडी धूप में जंगल मे केवल लंगोटी पहन के बैठे थे। उधर से एक ग्वाला मस्का बिक कर आ रहा था। उसके बर्तनमे थोडा मस्का बाकी था। उसने देखा एक योगी कडी धूप मे तपस्या में लीन है, उसका शरीर धूप में फटा जा रहा है, उसके मनमे दया उत्पन्न हुई और वह मनमे सोचना लगा कि मेरा थोडासा मस्का अगर योगी के काम आ जाये तो क्या बुराई है उसने अपने पास बचा हुआ मस्का योगी के शरीर को लगा दिया; उसे नमस्कार करके अपने रास्ते चला गया। कुछ समय बाद मस्के की गंध से वहा बहुत सारी चिंटियाँ योगी के शरीर को नोचने लगी। उससे योगी को यातना होने लगी। इतने मे वहाँ से एक गुंडा जा रहा था, जो भगवान या योगी के नामसे भी चिढता था। उसके हाथ में एक गन्ना था। वह योगी के पास बैठा और उसकी खिल्ली उडाने लगा। उसे गालियाँ भी देने लगा। और साथ-साथ वह गन्ना खाके योगी के बदनपर खाया हुआ गन्ना फेंकने लगा और जी भरके योगी को सताकर अपनी राह चला गया। इससे यह हुआ कि योगी के बदनपर जो जो चिंटियों उसे नोच रही थी वह गन्ने की मिठास से गन्ने पर चली गयी। मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। ३४९ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे तात्पर्य यह निकलता है कि, पुण्य कर्म करनेवाले ग्वाले को पाप का साझीदार होना पडा और पाप कर्म करनेवाले गुंडेके पल्ले पुण्य पडा। इससे यह बात सिद्ध होती है कि हम कुछ नही है; हम पाप-पुण्य कुछ नही जानते। हम तो केवल भगवान के हाथ की कठपुतलियाँ है। भगवान के मन में जब भी कोई चिज करनी होती है वह हमसे करवाता है। समाजका हर मनुष्य कर्म करता रहता है, वह उसके पूर्व जन्म के अनुसार या उसके कर्म के नतीजे के अनुसार करता है। इस लिये उसे बुरे कर्म के लिये दोषी नही ठहराया जा सकता। महाभारत का एक पर्व भी यही बात सिद्ध करता है कौरव और पांडवो का युद्ध मुकरी हो गया। दोनों युध्धक्षेत्र में आमने-सामने खड़े हो गये। अर्जुन ने देखा कि उसके सामने प्रतिस्पर्धी के रुप मे उसके तातश्री, गुरुजन, तथा उसके ही खून के चचेरे भाई खडे है और उन्हे ही मारना है तो उसका हृदय कांप उठा, उसने युद्ध करने से इन्कार कर दिया। इसपर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टी प्रदान की। अर्जुन को श्रीकृष्णने बताया कि देखो, ये सारे के सारे पहलेही मर चुके है। तुम केवल इन्हे मारने के लिये निमित्त मात्र हो। यह देखकर ही अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो गया। इस प्रकार मनुष्य कर्म करता है तो केवल निमित्त मात्र ही होता है। नतीजा निकालने वाला या फल देने वाला ईश्वर होता है। इसपर भी मनुष्य के हाथ मे मुक्ति के लिये कर्म करना और रोजाना जिन्दगी के लिये कर्म करना होता है। मुक्ति के लिए कर्म करना ही धर्म है और ज्ञानी लोग जानबूझकर धर्म करते है। भगवान का नामस्मरण करना श्रेष्ट कर्म है, इससे मुक्ति का मार्ग सुकर होता है। मेरा तो इतनाही कहना है कि श्रेष्ठ कर्म करना है तो - "जपाकर जपाकर हरी ओम् तत्सत। रटाकर-रटाकर हरी ओम् तत्सत।।" जिस तरह शराब का नशा मानव को घडी दो घडी सतेज रखता है, उसी तरह कामना का नशा भी कुछ समय के लिये मतवाला बना देता है। शराब और कामना, दोनों मतवाला बना देती है। दोनों ने मानव को ज्ञान मार्ग से, आत्माभिमुख होने के कार्य से, विचलित किया है। दोनों के नशे के दुष्परिणाम, भयंकर परिस्थिति पैदा करता है। ३५० संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है तो वह है मात्र धर्म। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ब्रम्हचर्य" लेखक - श्री भंवरसिंह पंवार ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या विस्तृत है व विषय वस्तु, कार्य क्षेत्र भी अपरिमित है। ब्रह्म अर्थात शरीर का स्वामी (राजा) द्वारा (ब्रह्म) चरित्र का पालन करना ही "ब्रह्मचर्य" है। बाहरी रुप में, बोल चाल में "ब्रह्मचर्य" का सीधा अर्थ संयम, नियम का पालन करने से व विषय वासना से परे रहने से है। किन्तु इतने व्यापक शब्द को संकीर्ण बनाना या थोड़े से शब्दों में बान्धकर परि भाषित करना अन्याय ही होगा। प्राचीन काल में साधु, सन्त, ऋषिमुनि एकाग्रचित होकर, दोनो भौंहो के मध्य दृष्टि स्थिर कर ईश्वर आराधना में, तपस्या में तन्मय हो जाते थे और इस प्रकार आत्मा में परमात्मा का प्रतिबिम्ब देखते हुए अन्त में ब्रह्मलीन हो जाते थे। यह सब "ब्रह्मचर्य" का ही प्रभाव था। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मन की स्थिरता हमें ईश्वर के, सत्य के व ज्ञान के निकट ले जाती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मै हम ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते है, अपने आचार, विचार, व्यवहार व क्रीया कलाप में, अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार होकर, अध्ययन में, सेवा (नोकरी) में, प्रार्थना मै, सुक्ष्म व स्थूल रुपों के निर्वाह में 'ब्रह्मचर्य व्रत कसोटी पर कस कर खरा साबित करता है। इस व्रत के व्रति को त्याग, वैराग्य, दृढ संकल्प तथा साहसी होना पडेगा, साथ ही सहनशील, परोपकारी व दीन बन्धु भी होना होगा, तब जाकर "भीष्म प्रतिज्ञा" के मूल मंत्र को जीवन में उतारने में सफलता प्राप्त करने का साहस सम्भव होगा। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अपने आचरण से, संकल्प से व निष्ठा से व्यक्ति कर सकता है किन्तु हमारा झुकाव, हमारी गति निर्माण की ओर हो न कि अस्थिरता या विध्वंस की ओर। भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा ने, भीष्म के वचन से बन्धे होने की मजबूरी ने उन्हीं की आँखो के समक्ष अन्याय, अधर्म और उच्चाकांक्षा तथा पुत्र मोह के दावानल में न मात्र हस्तीनापुर अपितु एक 'युग' को मानवता को, झोंक दिया और परिणाम हुआ "महाभारत" माँ वसुन्धरा के धुरन्धर वीर, योद्धा, धनुर्धारी, महारथी भाई-भाई आपस में टकरा-टकरा कर चूर-चूर हो गये समाप्त हो गये। यदि महाभारत न होता तो कर्ण, अर्जुन, दुर्योधन व अभिमन्यु का शौर्य व पुरुषार्थ क्या-क्या रंग लाता। ये - योध्दा समस्त भू मण्डल पर ही नहीं पाताल व स्वर्ग लोक में भी अपनी वीरता का डंका बजा देते। यम् ब्रह्म इव आचरति, तम् ब्रह्मचर्य उचयते। ब्रह्म का आचरण, ब्रह्म का आदेश व अन्त: करण की आज्ञा को जीवन में उतारते "ब्रह्मचर्यव्रत" के महत्व को समझते तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता, जगतगुरु कहलाने वाला भारत जगत वन्दनीय भारत का कहलाता और भारतमाता को अपने ही बेटो के रक्त से रंजित न होना पड़ता। छोटे-बडे, अपने-पराये, उँच-नीच की भावना साम्प्रदायिकता का दैत्य अपनी भुजाएँ न फैला पाता और वर्तमान में जो कुछ हो रहा है न होता क्यों कि भूतकाल ही भय, पाप, द्रोह ये सम शक्ति को नष्ट कर देते है। ३५१ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान को धरोहर के रुप में कुछ न कुछ दे जाता है और दुर्भाग्य हमारे वर्तमान के कि हमें अतित से नफरत, छलावा, साम्प्रदायिक भेदभाव की कटुता व उच्चाकांक्षा जो स्वार्थ से लिप्त है, प्राप्त हुई। यह विडम्बना है अथवा भाग्य की कमजोरी कि हमने अर्थ को अनर्थ के रुप में समझा व स्वीकारा "ब्रह्मचर्य" शब्द का अर्थ हम मात्र चरित्र पालन व संयम से ही जोड़ बैठे है, जबकि मन, वचन, कर्म, व्यवहार, वाणी, आचरण सभी में हम ब्रह्मत्व के दर्शन करें। समस्त जीव, चराचर में "ब्रह्म" का अनुभव करें, दर्शन करे और यह माने कि "सिया राम मय सब जग जानी"। सब में ब्रह्म व ब्रह्म में सब विद्यमान है, जब हमारी मानसिकता, वैचारिकता, ज्ञान इस निशकर्ष तक पहुँचेगा तब हम अपने आप को, जगत को और जगदीश को पहचानेगे। जैन धर्म में "ब्रह्मचर्य" शब्द को व्यापक व विस्तृत रुप में स्वीकार है, सत् आचरण, नियम पालन, संयम, सत्भाषी एवं ब्रह्म के अनुरुप आचरण करना 'ब्रह्मचर्य है। वैसे देश काल व समय के अनुसार शब्द का अर्थ व्यापक व विस्तृत होता रहा है और "ब्रह्मचर्य" शब्द भी इसी चक्र से प्रभावित हुआ है। एक सचा "ब्रह्मचारी" ब्रह्म के मर्म को समझते हुए आचार-विचार का पालन करते हुए समाज, धर्म, राष्ट्र एवं मानवता की सेवा में संलग्न रहकर "विश्व कुटुम्ब" की "राम राज्य" की कल्पना करता है। • संसार में रोग कभी नष्ट नहीं हुए कारण मनुष्य शरीर स्वतः रोगाय तन सम है। जो व्यक्ति पथ्या-पथ्या पालते नहीं है, रसेन्द्रत (जिहां) पर संयम नहीं रखते, सदाचारमय जीवन नहीं जीते, नियम-संयम बद्ध जीवन नहीं है, जिनका उन लोगों के पीछे रोग रुपी दानव (राक्षस) हमेशा लगा रहता है। ३५२ अपनी कोई भी वस्तु सर्वश्रेष्ठ हो तो गर्व होना सहज ही हैं किंतु यह सर्वनाश का कारण भी है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैन धर्म में नारी का स्थान" -लेखक: गोपाल पंवार, नारी धर्म पालने में, धर्म प्रचार में एवं धर्म को अंगीकार करने में पुरूषों से कई दशक आगे है यद्यपि "नारी" के स्वरूप, स्वभाव, शिक्षा, सहयोग एवं पद समय के अनुसार बदलता रहा है। जन्मदात्री माता से लेकर कोठे की घृणित व प्रताड़ित वेश्या के रूप में भी वह समय-समय पर हमारे समक्ष आई है। यशोदा बनकर लालन-पालन किया है तो कालिका बनकर असुरों का संहार भी किया है, साक्षात वात्सल्य की प्रतिमूर्ति रही है तो सती के रूप में धधकती ज्वाला में आहुति बनने में भी विलम्ब नहीं किया। समय व काल की गति अनन्त व अक्षुण्ण है, इससे परे न कोई रहा है न रह सकेगा। कालचक्र में सभी बन्धे हैं, फिर भला कोई समाज या धर्म उससे विलग कैसे रह सकता है। जैन धर्म भारत का एक सशक्त, प्रभावी एवं व्यापक धर्म रहा है जिससे मानव जाति को एक ऐसे कगार से उभारा है जो हिंसा, घृणा, अन्याय व स्वार्थ के महासागर में डूब-उतर रहा था। नारी, नर की अर्धांगिनी, मित्र, मार्गदर्शिका व सेविका के रूप में हमेशा-हमेशा से समाज में अपना अस्तित्व बनाती रही है किन्तु कभी-कभी तुला का दूसरा पलड़ा अधिक वजनदार हुआ तो नारी को चारदीवारी की पर्दानसी, विलासिता व भोग की वस्तु व मात्र सेवा तथा गृहकार्य करने वाली इकाई भी माना गया, केवल कर्तव्यपरायणा बनकर चुपचाप जुल्म सहना ही उसकी नियति बन गई व बदले में उसे सिसकने तक का अधिकार भी न रहा। अधिकार के बिना कर्तव्य का न मूल्य रह जाता है न औचित्य। किन्तु समय-समय पर समाज में जाग्रति व क्रान्ति की लहर आयी जिसने नारी को उसके वास्तविक स्वरूप का बोध कराया। जैन समाज में आदिकाल से ही नारी का पद व गरिमा सम्माननीय व वन्दनीय ही रही है। कुछेक अपवाद को छोड़कर नारी परामर्शदात्री व अंगरक्षक भी रही है जैन धर्म को संसार में स्थान दिलाने में, जैन धर्म की ख्याति तथा जैनत्व के प्रभाव के मूल में नारी की भूमिका प्रमुख व सर्वोपरि रही है। "नारी से ही जैन धर्म जीवित है। यदि ऐसा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि नारी अपने समस्त उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के साथ ही साथ धर्मपालन, नियम, व्यवहार, स्वाध्याय, पूजन, उपवास आदि में अधिक समय देकर पुरूषों से कई गुना आगे है। यदि जैन धर्म के व्यौम से नारी को हटा दिया जाय तो मात्र अन्धकार ही शेष रह जायेगा। आज भी जैन धर्म रूपी व्यौम में चमकते नक्षत्र के रूपमें चन्दनबाला के नाम का स्मरण अत्यन्त स्वाभिमान के साथ किया जाता है और आज भी जैन महिलायें उनके नाम की दुहाई देकर, उन्हें आराध्य मानकर नियम पालन की, व्रत-उपवास की, धार्मिक क्रियाकलाप की शपथ लेती है। कितना महान आदर्श, त्याग व कर्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ने व सीखने को मिलता है, उनके चरित्र से। यदि हम समाज को व राष्ट्र को प्रगति व उपलब्धि के मार्ग पर प्रशस्त करना चाहते है, यदि हम भगवान महावीर की शिक्षाओं को व्यवहार में उतारना चाहते है, यदि हम समाज व देश में शिक्षा, अनुशासन, भाईचारा व एकता का शंखनाद फूंकना चाहते है तो हमें नारी मन की पंखुड़ियाँ जन एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफळ नहीं हो सकते। ३५३ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उनके अधिकार व उनके उपयोग की स्वतन्त्रता व स्वच्छन्दता देनी होगी, उन्हें उनकी शक्ति, शौर्य, शील व तेज की याद दिलानी होगी। जैन धर्म हो या अन्य धर्म, नारी का झुकाव पुरूषों की तुलना में धर्म की और अधिक ही होता है। यदि हम वर्तमान परिस्थितियों में देखें तो पायेगें कि सेठजी की अपेक्षा सेठानीजी नित्यनेम, धर्म-कर्म, स्वाध्याय, नियम-पालन, एकासना उपवास आदि नियमित व आस्था से करती है जबकि उन्हें एक बहू, बेटी, मां, बहन या पत्नि का कर्तव्य भी निभाना पड़ता है। व्याख्यान में उ स्थिति व रूचि, नियमित सामायिक पालन, नवकार जाप तथा देव-दर्शन, गुरूवन्दन में सेठजी की तुलना में, सेठानीजी की संख्या ही अधिक होती है। पुरूष वर्ग यह कहकर अपने दायित्व से हट जाते हैं कि हमें व्यापार, वाणिज्य, प्रवास आदि कार्य में व्यस्त रहना पड़ता है अत: नियम का पालन सम्भव नहीं। धर्म के मर्म को जितनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से महिला वर्ग ने देखा, जांचा व परखा है, उतना पुरूष वर्ग नहीं, और यही कारण है कि आज जैन धर्म के उत्थान में, प्रचार-प्रसार में नारी की भूमिका अहम् है, प्रशंसनीय है, स्तुत्य है। नारी ने धर्म ध्वजा को फहराया है। नारी ने ही नियम, संयम व यश कमाया है। अत: यह बात निर्विवाद है कि जैन धर्म में नारी का स्थान, नारी का योगदान आदिकाल से रहा हैं, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी बना रहेगा क्योंकि "वह धर्म की धुरी है। विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साध मन-व्यवसाय बधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती है। और अनंतानं भव भ्रमण वाला भोमिया भी बनता है। मानव जब मनोजयी होता है तो तब वह स्वच्छ आत्मा-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि उपलब्ध करता ३५४ महापुरुषों की प्रसादी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड़ जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर - स्तोत्र -श्रीचंद सुराणा "सरस" "भक्तामर-स्तोत्र" भक्ति-साहित्य का अनुपम एवं कान्तिमान रत्न है। शांत-रस-लीन प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की भक्ति की अजस्त्र रस-धारा जिस प्रवाह और वेग के साथ इस काव्य में प्रवाहित है, वह अन्त:करण को रस-आप्लावित कर देने वाली है। भक्ति का प्रशम रस-पूर्ण उद्रेक सचमुच में भक्त को "अमर" बनाने में समर्थ है। यह एक कालजयी स्तोत्र है। इसकी मधुर-ललित शब्दावली में न केवल उत्कृट भक्ति रस भरा है, अपितु जैन-दर्शन का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक वैभव भी हर छन्द में मुखरित होता है। इसकी लय में एक अद्भुत नाद है, जिसके द्वारा पाठ करते समय अंतर हृदय का तार सीधा आराध्यदेव के साथ जुड़ जाता है। स्तोत्र के प्रारम्भ में स्तुति कर्ता भक्त प्रभु को "त" (उन) के रूप में स्वयं से दूर-स्थित अनुभव करता है, किन्तु ज्यों-ज्यों भक्ति की गहराई में डूबता है, त्यों-त्यों भक्त-भगवान के बीच अधिक समीपता एवं गहरी घनिष्ठता बढ़ती जाती है, जो "त्व" "तव' आदि शब्दों में व्यक्त होने लगती है। लगता है, असंख्य योजन की दूरी क्षण-भर में ही हृदयस्थ समीपता में बदल गई और प्रभु आदिदेव भक्त के हृदय मंदिर में विराजमान हो गये हैं। इस प्रकार अत्यंत भक्ति-प्रवण क्षणों में रचा गया यह आत्मोन्मुखी स्तोत्र है। स्तोत्र-साहित्य का मुकुट मणि है। शताब्दियों के बीत जाने के बाद भी इस स्तोत्र की महिमा और प्रभावशीलता कम नहीं हुई, बल्कि उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही है। आज भी लाखों भक्त बड़ी श्रद्धा के साथ इसका नियमित पाठ करते हैं, और अभीष्ट प्राप्ति की सुखद अनुभूति भी करते हैं। "भक्तामर-स्तोत्र" के रचयिता आचार्य श्री मानतुंग बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान, जिनशासन प्रभावक और अत्यंत चमत्कारी संत थे। "भक्तामर-स्तोत्र" का एक-एक अक्षर उनकी अनंत आस्था-युक्त सचेतन भगवद् भक्ति को उजागर करता है। कहा जाता है, कि अवन्ती नगरी के राजा वृद्धभोज ने चमत्कार देखने की इच्छा से आचार्यश्री को हथकड़ी-बेड़ी डालकर कारागार में बंद कर दिया था, और बाहर मजबूत ताले लगाकर कड़ा पहरा बैठा दिया। तीन दिन आचार्यश्री ध्यानस्थ रहे, चौथे दिन प्रात:काल भगवान आदिनाथ की स्तुति के रूप में इस स्तोत्र का निर्माण किया। आपने ज्यों ही "आपाद कंठ-मुरू-शृंखल वेष्टितांगा" छियालीसवां श्लोक उच्चारित किया, त्यों ही हथकड़ी-बेड़ी और ताले आदि के बंधन टूट-टूटकर गिर पड़े। आचार्यश्री बंधन-मुक्त होकर कारागार से बाहर निकल आये। राजा के मन पर इस घटना का अद्भुत प्रभाव पड़ा, वह आचार्यश्री का तथा भगवान आदिनाथ का परम भक्त बन गया। भक्ति में आश्चर्यकारी शक्ति हैं। श्रद्धा में अनन्त बल होता है। शुद्ध और पवित्र हृदय से प्रभु के चरणों में समर्पित होकर यदि कोई उन्हें पुकारता है, तो उसकी पुकार कभी खाली नहीं जाती। उसके जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का संचार होता है। वैभव, मन जब लागणी के घावत से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। ३५५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मान, समृद्धि, आरोग्य और लक्ष्मी उसके चरणों में स्वयं उपस्थित रहेती है। सच्चा भक्त कभी जीवन में निराश नहीं होता। भक्ति फलवती न हो, यह सम्भव नहीं। प्रभु की स्तुति में, उनकी दिव्य निर्मल छबि में जब मन एकाग्र हो जाता है, तब सब विकल्प समाप्त होकर तन्मयता का अनूठा आनंद अनुभव होने लगता है। यह आनंद अनिर्वचनीय है, अनुभवगम्य है। भक्ताभर-स्तोत्र में ४८ श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में चार चरण (पद) हैं। प्रत्येक पद में १४ अक्षर हैं। सात अक्षर लघु हैं। सात अक्षर गुरू हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण स्तोत्र के ४८ श्लोकों में २८८८ अक्षर निबद्ध हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार भक्तामर स्तोत्र का पाठ, पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर मुख करके प्रात:काल में करना चाहिए। विद्वान आचार्यों के कथनानुसार भक्तामर की शब्द-संयोजना मंत्र गर्भित है। इसका प्रत्येक श्लोक तथा प्रत्येक अक्षर-ध्वनि-स्फोट करता हुआ मांत्रिक प्रभाव जागृत करने में समर्थ है। भक्त की भक्ति, विशुद्धि, एकाग्रता, निरन्तरता और लक्ष्यबद्धता इसमें सहायक होती है। मंत्रशास्त्रवेत्ता आचार्यों ने भक्तामर स्तोत्र के यंत्र, मंत्र, ऋद्धि आदि का वर्णन करते हुए प्रत्येक श्लोक के भिन्न-भिन्न विशिष्ट प्रभावों की सूचक अनेक अन्तर्कथाएं लिखी हैं, जिसमें भक्तामर-स्तोत्र के प्रत्यक्ष चमत्कारों की घटनाएं मुंह से बोल रही हैं। उन सबका अभिप्राय एक ही है "भक्तामर-स्तोत्र" भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों का कल्पतरू या काम-कुम्भ है। सर्व सामान्य धारणा के अनुसार भक्तामर के कुछ प्रमुख श्लोकों विशिष्ट प्रयोजनों में बड़े चमत्कारी सिद्ध होती हैं जैसे:लक्ष्मी प्राप्ति के लिए - २,३६ एवं ४८ वा श्लोक विद्या प्राप्ति के लिए - ६ वां श्लोक वचन सिद्धि के लिए - १० वां श्लोक उपद्रव शांति के लिए - ७ वां श्लोक रोग, पीड़ा निवारण के लिए - १७ वां एवं ४५ वां श्लोक कारागार तथा कष्ट मुक्ति, राजभय निवृत्ति के लिए - ४६ वा श्लोक सब प्रकार के भय निवारण के लिए - ४७ वां श्लोक सर्प आदि विष निवारण के लिए - ४१ वां श्लोक दूसरों के द्वारा किये गये जादू, टोटका आदि से आत्म-रक्षण करने के लिए-९ वां श्लोक, आवश्यकता पूर्ति के लिए - १९ वां श्लोक। . प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ को भावभरी वंदना एवं भक्तामर स्तोत्र के रचयिता पू. स्व. मानतुंगाचार्य जी का अनन्त उपकार मानता हूं जिन्होंने ऐसी भक्तिपूर्ण, प्रभावशाली रचना जन-जन के लिए सुलभ की। ३५६ जगत में जिस प्रकार बालक निर्दोष होता है, वैसे संत साधू भी निर्मल होते है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , " जैन समाज की एकता : - समस्या एवं समाधान - श्री प्रकाश कावड़िया संगठन में ही शक्ति हैं। यह वाक्य जितना छोटा दिखाई दे रहा है उतना वास्तव में छोटा नही हैं। यह प्रत्येक समाज प्रत्येक कार्य के लिये मूल मंत्र हैं। एकता से बड़े से बड़े कार्यो को आसानी से हल किया जा सकता है हम कहते है कि मैं अकेला हूँ, मैं क्या कर सकता हूँ किंतु यदि इस अकेले के साथ एक व्यक्ति और आ जुडता है ते गणित के अनुसार १ पर १ ग्यारह हो जाते है। उस एक में ग्यारह की शक्ति निहित हो जाती है। इस लिये एकता या संगठन होना और उससे जो कार्य असंभव दिखते है वे भी संभव हो जाते हैं। जैसे फूलों के अलग-अलग रहते वे फूल कहलाते है किंतु यदि उन्हें धागे में पिरो दिया जाता है तो वे एक होकर माला बन जाते है और यही माला किसीके गले की शोभा बन जाती है। एकता शब्द का अर्थ सरल रूप में यही है कि एक और उसके साथ अनेक संगठन में बहुत बड़ी शक्ति निहित हो जाती है । प्रत्येक समाज की उन्नति उस समाज की एकता में निहित होती हैं। जिस समाज में एकता, संगठन नहीं है वह समाज कभी विकास नहीं कर सका है। यह हमारा इतिहास साक्षी हैं। बिना एकता और संगठन के उस समाज का महत्व कहीं दिखाई नहीं दे सकता हैं। वह असंगठित समाज हमेशा हेमदृष्टि से देखा जाता है। सामाजिक कार्यों में अग्नि हेतू समाज के विकास हेतू उसमें संगठन होना आवश्यक है। संगठन के पीछे की भावना यदि स्पष्ट है तो उस कार्य को होने में, लोगों के विचारों को एक करने में संगठन बहुत बड़ी भूमिका निभाता हैं । आदमी किसी चीज को नीचे से उठाना चाहता है तो वह उस कार्य को एक अंगूली के माध्यम से सम्पादित नहीं कर सकता है। उसे उस चीज को उठाने के लिये अपनी अन्य अंगुलियों को मिलाकर उठाना पड़ेगा। अर्थात एक अंगूली कार्य नहीं कर सकती है उसके साथ मिलकर वहीं कार्य अन्य अंगूलीयों कर देती है यहाँ अंगूलियाँ के संगठन एक होने पर कार्य हो गया है। इसी प्रकार समाज की एकता आवश्यक है। कहावत अपने आप स्पष्ट है कि " एक चना भाड को नहीं फौड़ सकता है। " हमारे परिवार में संगठन नही है तो उसकी कोई महत्व नहीं मोहल्ले, समाज और राष्ट्र सभी कि उन्नति के लिये एकता आवश्यक है। समस्या आज जैन समाज की एकता के बारे में हमें गंभीरता से विचार करना चाहिये। जैन समाज की एकता की बात देखे तो हमें पता चलेगा कि हम जिस भगवान महावीर के अनुयायी है उसके जन्मोत्सव मनाने हेतू भी एक नहीं हो पाते हैं। आज जन्मोत्सव संवत्सरी मनाने को मानव जब माया के मोह जाल में उलझ जाता हैं तब वह अपने अस्तित्व को भी भूल जाता है। For Private Personal Use Only ३५७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था देखें तो सभी अपने-अपने हिसाब से महोत्सव मनाते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है। यह समस्या पूरे जैन समाज में व्यापी हैं। एक और बात जो अति महत्वपूर्ण है वह यह है कि भगवान महावीर ने जैन धर्म की संस्थापना की तो उस समय उन्होंने यह नहीं कहा था कि मैं श्वेताम्बर जैन का महावीर हूँ। मैं स्थानकवासी जैन का महावीर हूँ मैं तेरापंथी जैन समाज का महावीर हूँ मैं तीनथुई का महावीर हूँ। मैं चारथूई का महावीर हूँ। मैं दिगम्बर जैन का महावीर हूँ। और इसमें भी और अन्यान्य पंथ चलादिये गये है और वे सभी महावीर के ही अपने को अनुयायी मानते है तो यह अलगाववाह काहे का है। यह समझ से परे है किंतु इसकी गहराई में जाना आवश्यक है । इस विघटन की गहराई की जड़ है हमारे मार्गदर्शक संत समुदाय जो स्वयं महावीर के संदेश को समाज में फैलाते है किंतु उसमें अपना महत्व बनाये रखने के लिये अपना पंथ, फिरका, गच्छ और न जाने क्या से क्या व्यवस्था करने जा रहे है। समाज को जोड़ने की बात वे अपने पंथ और अनुयायियो तक ही सीमित रखना चाह रहे हैं। वे समग्र दृष्टिकोण से यह नहीं सोच रहे है कि वे भगवान महावीर के सिद्धांतो को जगतमें फैलाके एकता इस प्रकार से स्थापित कर रहे है जिसका अलग से कोई महत्व नहीं रहेगा। चार व्यक्तियों ने अपना संगठन १०० व्यक्तियों से अलग बनाया तो उसका कितना महत्व होगा हम सोच सकते है। आज पूरे जैन समाज की यह स्थिति है। सब अपना अपना राग अपनी अपनी दफली वाली कहावत चरीतार्थ कर रहे हैं। जिस समाज के मार्गदर्शक उपर से एक होने की बात करते है वे स्वयं एक नहीं हो पाते है। एक कहता है इसमें भगवान महावीरने यह कहा है तो दूसरा कहता है नहीं इस प्रकार से नहीं कहा है। हम अच्छी एकता के लिये छोटासा उदाहरण लेवें कि मिलेट्री में कमान्डर के अन्डर में जितने सैनिक कमान में होते है वे अपने एक ही कमान्डर का आर्डर मानते है उससे वे अलग नहीं जाते है इसी प्रकार से जैन समाज के लिये आज यह दुःखद स्थिति है कि हर संत और मार्गदर्शक, अगुआ अपने आप को समाज का कमान्डर समझाता है और जैसा चाहे उन्हें चला रहा है। एक संत कहना है संवत्सरी चतुर्थी को होना चाहिये तो दूसरा संत कहता है संवत्सरी पंचमी को होना चाहिये। मंदीर मार्गों के पर्व पर्युषण आज प्रारंभ होते है तो स्थानकवासी समाज के दूसरे दिन प्रारंभ होगे क्यों दूसरे दिन मनाने से या पहले दिन न मनाने से वे पर्युषण नहीं कहलायेगा। यह मतभिन्नता आज पूरे जैन समाज को टुकड़ो में बांटे हुए है। पूरे समाज की एकता इन छोटी-छोटी बातों के कारण छिन्न भिन्न हो रही है । दिगम्बर जैन समाज भगवान महावीर की पूजा मंदीर में ही करता है किंतु उसकी पूजा पद्धति श्वेताम्बर जैन से अलग है। स्थानकवासी जैन समाज मानता उसी भगवान महावीर को किंतु वह मूर्ति पूजक नहीं हैं क्यों मूर्तिपूजक होने या न होने से भगवान महावीर अलग-अलग तो नहीं रहे है भगवान महावीर तो एकही हुए है यह सर्वमान्य हैं फिरभी उनके नाम पर ३५८ संसार के छोटे-बडे प्रत्येक व्यक्ति आशा और कल्पना के जाल में फंस कर भव भ्रमर करते रहते है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारे कार्यों को अलग-अलग रूपों में बांटकर क्यों माना जा रहा है। दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तैरापंथी, और अन्यान्य पंथों में आपसी व्यवहार करने में संकोच करते है। आपसी संबंध, रिश्तें तै करने में ये पंथ आडे आ रहे है। कैसे एकता होगी। उसी नवकार महामंत्र को सबने अपने-अपने ढंग से तोड़ मरोड़कर अभी ज्यादा विकृत नहीं किया है कोई दो लाईन ज्यादा बोलता है तो दो लाईन कम। जैन समाज पहले से ही अन्य समाजकी तुलना संख्या कम है और फिर उसमें भी अलग-अलग फिरकों में बंटने से नगण्य दिखाई देने है। आज यदि जैन समाज के स्थानक पंथ पर कोई बात हावी होती है तो उसे वहीं निपटता है, अन्य पंथ पर हुई है तो वहीं स्वयं निपटता है समग्र जैन समाज की एकता की स्थिति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है। इन सब मतभिन्नता का मात्र मेरी नजर मे एकही कारण दिखाई दे रहा है और वह यह कि प्रत्येक अगुआ अपने अहं को संतुष्ट करना चाहता है उससे उसका अहं, स्वयं की महत्व बनाये रखना, छूटता नहीं है उसके कारण वह अपने अनुयायियोंकी संख्या वृद्धि की अपना स्वयं का महत्व बनाये रखकर यह बताना चाहता है कि मेरे पीछे इतने अनुयायी है। दूसरी और सभी को देखे तो पायेंगे कि सभी महावीर के गुणानुवाद को बांट रहे है। फिर एकता क्यों नहीं यह एकता की ज्वलंत समस्या आज पूरे देश के जैन समाज को झकझोर रही है। जैन समाज समृद्ध होते हुए भी एकता न होने से अपनी कोई स्थिति देश के सामने नहीं रख पाता है। उसका कोई वर्चस्व आज कहीं पर नहीं दिखाई देना है। चाहे वह राजनैतिक स्तर पर हो चाहे सामाजिक या चाहे राष्ट्रीय स्तर पर कहीं पर भी जैन समाज एक रुप में संगठित नहीं हैं। ... यह एकता की समस्या जैन समाज की प्रगति, उसके विकास को अवरुद्ध किये हुए है। समाधान जैन समाज की इस एकता की समस्या का पहला समाधान यह है कि प्रत्येक जैन जिस नगरमें निवास करता है उसमें चाहे स्थानकवासी हो, चाहे श्वेताम्बर मूर्ति पूजक हो, चाहे दिगम्बर जैन हो, चाहे तेरापंथी जैन हो उन्हें अपने नगर, निवास, गाँव, शहर के स्तर पर प्रत्येक कार्यक्रम को एक होकर मनाना होगा। जिससे उनमें अपना मेलजोल बढ़ने पर अन्य स्तर पर इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। चाहे उस नगर गांव, शहर, कस्बे में महावीर जयंति मनाना, चाहे पर्युषण मनाना हो चाहे समाज का कोई भी कार्यक्रम हो अपने सभी के हृदयों को स्वच्छ बनाकर एकता रखते हुए मनाना होंगे। तो आगे आनेवाली पीढ़ी भी उसी की अनुसरण करेगी। (२) प्रत्येक जैन पंथ के अगुआ संतो मुनियों, शृमण्वन्दों को मिल बैठकर जैन समाज के समग्र विकास के बारे में सोचना होगा। वे जहाँ पर भी वर्षावास करें वहाँ पर पूरे समाज को एकता के कामी पूरुष को कभी भीनमय, संयोग, परिस्थिति या भविष्य पर विचार करने तक का ज्ञान नही होता। ३५९ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र में बांधने का महत्वपूर्ण कार्य करें। केवल तपश्चर्या, व्रत, महोत्सव, दीक्षा, मंदीर स्थापना से कार्य नहीं चलेगा। उनको करने के साथ-साथ यह एकता का कार्य स्वयं को अपने हाथों में लेना होगा। वे अपने अलग-२ पंथ और अनुयायियोंकी संख्या मात्र बढ़ाने का काम छोड़े अन्यथा यह जैन समाज कहाँ तक छिन्नभिन्न होकर रसातल में चला जायेगा कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि दिन प्रतिदिन विघटनना समाज में बढ़ती जा रही है। (३) समाज में आज जितनी भी सामाजिक संस्थाएँ है वे समाज में एकता के कार्यको करते हुए अपनी गतिविधीयोंको संचालित करे। उनके कार्यकर्ता जैन समाज को विघटन की ओर जाने से बचा सकते है। (४) श्री जैन कुल में जन्म लेना हम सौभाग्य मानते है तो इसी प्रकार से प्रत्येक जैन को यह मानसिकता बनाना होगी कि जैन-जैन भाई है एक है। हममें कोई भेद नही है। हम सभी एकही महावीर के अनुयायी है। (५) सवंत्सरी, महावीर जयंती मनाने की एकही तिथि समाज के संत मिल बैठकर एकबार तै कर लेवें और संयुक्त रुपसे पूरे देश के जैन समाज को बतायें कि संवत्सरी इसी तिथिको, एकही बार मनायी जायेगी। यदि यह नहीं होता है तो स्थानीय जैन समाज के सभी पंथ मिलकर यह तै करे कि हमे संवत्सरी इस तिथि को सामूहिक रुपसे एकही दिन मनाना है। जैसे कहा गया है कि "हम सुधरेंगे, युग बदलेगा।" इसलिये पहले हम अपने स्वयं के नगर, कस्बों, गाँवो से इसे शुरू कर देवें। हमारा संत समाज यहि इस बात को नहीं करता है तो हमें करना होगा। फिर देखीये वे स्वंय अपनी मानसिकता बदलने को मजबूर होंगे। हम उनके अनुयायी है इसका मतलब यह नहीं है कि एकता के मंत्रको भी भूला दिया जावे। (६) प्रत्येक जनगणनामे स्वयं को जैन लिखवाये यह भी अपने मन में यह अनुभव करवाना है कि मैं जैन हूँ। और जैन सब एक है। (७) भारत जैन महामंडल, अखिल भारतीय जैन संघ, और इसी प्रकार की अन्य संस्थाएँ सक्रीय होकर प्रत्येक नगर, कस्बे, गांव, शहरमें अपनी शाखाएँ स्थापित कर नव जवान पीढ़ी को इसका सदस्य बनाये। और उनमे एकता स्थापित कर नवनिर्माण के बीज बोयें। ये संकलीत होंगे तो उसमें से ही "एकता के फूल" खिलेंगे। अत: आईये इस शुभ अवसर हम प्रत्येक यह संकल्प लेवें की हम जैन समाज में एकता के लिये ही कार्य करेंगे। और इस समाज की पताका, महावीर की वाणी, उसके सिद्धांतो को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचायेगे। जिसके कारण विश्व यह सोचने को मजबुर हो कि जैन और महावीर के सिद्धांतो से ही विश्व कल्याण संभव है। ३६० लातों के अधिकारी कभी भी बातों से नहीं मानते। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष -श्रीमती करुणा शाह, ज्ञानके अलग अलग प्रकारोमेंसे ज्योतिष एक ऐसा विशिष्ट ज्ञानका साधन है जिसका सीधा उपयोग करनेसे इष्ट सिध्धि और कल्याण प्राप्ति सरल हो जाती है। ज्योतिष विषयों पर अनेक शिक्षित वर्गमें विचार होने लगे है। कुछ लोग ज्योतिषको मानते नहीं। कुछ लोगो के मन पर ज्योतिष विषय पर उलटा प्रभाव होता है। ज्योतिषका मूल स्थान है आकाश जीसे हम खगोलशास्त्र कहते है। इस खगोलशास्त्र के विषयमें पूर्व और पश्चिम के मत भिन्न प्रकारके है। जैन दर्शन उससे अपना अलग विचार दिखाता है। सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र और तारा ये पांच ज्योतिष है। इसमें सबसे श्रेष्ठ चंद्र है उसके बाद सूर्य का स्थान है। सूर्य और चंद्र दो इन्द्र है बाकी सब ग्रह नक्षत्र उसके परिवार है। ग्रह ८८ और नक्षत्र २८ है ताराओंकी संख्या तो करोड़ो के आसपास है। ये सब चंद्रका परिवार है। जंबुद्विप में दो चंद्र दो सूर्य है। लवणसमुद्रमें चार चंद्र, चार सूर्य है। और अढाई द्विपमें १३२ चंद्र और १३२ सूर्य है। इनकी संख्या हरेक शाखकारोंने अलग बताई है। ये सब चर ज्योतिष है। ये ज्योतिष चक्र मेरू पर्वतके पास प्रदक्षिणा रूपसे फिर रहा है। अढाईद्वीपकी बाहर स्थिर ज्योतिष चक्र है। कालकी गणना चर ज्योतिषचक्र पर ही आधार रखती है। ज्योतिष शुभ अशुभ कार्योका कतृत्व धारण करता है। दूसरोंका मंतव्य है कि ज्योतिष कतृत्व नही । लेकिन सूचकत्व जरूर है। जैन ज्योतिषको मंतव्य है विश्वमें हो रहे कार्योंमें ज्योतिष चक्र अगर कुछ न करे तो कोई ग्रह कोई नक्षत्रमें प्रवेश करें और जो परिवर्तन होता है। अगर ये परिवर्तन ऐसा ही हो जाये सहजगतिसे तो विश्वमें कोई कार्य ही नही बन सकता। इस लिये इस मन्तव्यके अनुसार ज्योतिषचक्र में ऐसे किरण प्रसर रहे है जिनकी विश्वके हवामान, मानवी वस्तु पर उसकी असर होती है ज्योतिष दैवी तत्वको मानता है और वो कार्य करता है। ज्योतिष का आधार गणित है। गणित की भिन्न पध्धति है। कोई भी गणित का प्रयोग करो परिणाम सच निकला तो वो पध्धति मान्य है। पश्चिमी क्षेत्रमें ताराओंका महत्व बहुत देते है। नक्षत्रके आसपास जो ताराओंका पूंज रहता है। उसी पुंजके प्रकाशसे नक्षत्र पर असर पडती है वह नक्षत्रका कारकत्व कहलाता है। तारे स्वयं प्रकाशित है और ग्रह पर प्रकाशित है। उदाहरण के स्वरूप एन्टरस (Anteras) नामका तारापूंज ज्येष्ठाके पास है और ज्येष्ठा नक्षत्र वृश्विक राशीका नक्षत्र है तारोंकी असर ज्येष्ठा नक्षत्रके ७५.५४' कला होनेसे उस व्यक्ति के जिवन पर उसकी असर होगी अगर इस राशीमें रवी शनी जैसे ग्रह अष्टम स्थान पर होने से सर्पदंशका भय रहता है ये शास्त्र बहुत गहन है। उसके प्रतियोगमें वृषभ राशी आती है वृषभ राशीमें कृतिका नक्षत्र और अलडेबरान नामका तारा पूंज है पाश्चिमात्य ज्योतिषोने इस विषयों पर बहुत अच्छी प्रगति की है। हमारे जैन ज्योतिष शाखोको इस आधुनिक तंत्र पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। शास्त्र एक है। फलित एक है। इस शास्त्रकी गहराईमें जानेसे फलित सच निकलता है। नये ग्रहोंकी खोज ही है। ये ग्रहो की उम्र एक एक राशीमें ७४ सालकी दी है कोई ७ सालका है। हर्षल-नेपच्युन जैसे ग्रह बहुत स्फोटक है। मेदनीय ज्योतिषमें इस ग्रहोंके फलित बहुत प्रभाविक रहते है। ये बहुत मंद गति ग्रह है। चंद्र, सूर्य बुध, शुक्र जैसे तेज गतिके ग्रहोंकी युति जब हर्षल नेपत्युन जैसे मंद गति ग्रहोंसे होती है तो फलित सामनेह दिखाई पड़ता है। मन की पंखड़ियां जब ऐक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानव के प्रयत्न सफल नही हो सकते। ३६१ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाशमें २८ नक्षत्र मुकरर किये है। हरेक को अपना क्षेत्र दिया है। हर एक राशी को || नक्षत्रका क्षेत्र दिया है। जिस तरह नक्षत्रमें ग्रह फरते है उसी तरह वे राशीमें भी फिरते है। नक्षत्रकी तरह वे राशीमें भी फल देते है। ग्रहोंकी गति एक जैसी नहि है। राहु, केतु छाया ग्रह है ये वक्र गीतसे चलते है। सूर्य और चंद्र जब एक साथ होते है तब अमावस्या कहलाते है। सूर्य से चंद्र १२ अंश जाने पर एक तीथी होती है और सूर्य एक दिन में १ अंश आगे जाता है। ज्योतिष शास्त्र में ग्रह और नत्रक्ष प्रधान है। उसमें से वार, करण योग आदीका जन्म हुआ, तीथी-वार-नक्षत्र-योग-करण ये पंचाग के पांच अंग है। ज्योतिष प्रसादमें प्रवेश करनेका पंचाग मुख्य द्वार है। पंचाग ज्योतिष के आगे ज्योतिष के बड़े दो प्रवाह बहते है एक जातक ज्योतिष और दूसरा फल ज्योतिष जातक गणित इतना विशाल स्वरूप है कि कोई जातक का गणित करने को बारा मास लग जाते है। पंचाग-दशवर्ग कुंडली ग्रहोंके बलाबल भावोंकी व्यवस्था - दशा - अंतरदशा गणित अगर व्यवस्थित हो तो फल ज्योतिष बरोबर हो सकता है। एक ही कुंडलीका फल हर एक ज्योतिष भीन्न कहता है इसलिये ज्योतिष उपरकी श्रध्धा लोगोमें कम होती है। ये बहुत अटपटा विषय है। इसमें सूक्ष्म रूपसे देखा जाये तो फल कहना आसान हो जाता है। ज्योतिष शास्त्रका दूसरा भाग है मुहुर्त/भावि काल जांचनेके लिये मुहुर्त देखा जाता है। लोगोके मनकी श्रध्धा है मुहुर्त साधनेसे जिवन मार्ग सुलभ बन जाता है कोई विपत्ति नही आती मुहुर्त शास्त्रके बारेमें अगर विचारणा करनी हो तो उसमें प्रधान साधन शास्त्र है। जैन दर्शनमें आगम मुख्यत्वे है। आगमोमें ज्योतिष विषय पर व्यवस्थित निरूपण दिया गया है। खगोल ज्योतिष चक्रके स्वतंत्र आगम है। सूर्य प्रज्ञप्ति और ज्योतिष करंडक। गुरुगम परंपरा और योग्य श्रम कम होते जा रहे है। आज सहज ज्ञान ज्योतिषमें पाते है। आगम ज्योतिषके बारेमें कोई नही जानता। ये मिलना भी मुश्कील हो गया है। वेदांग ज्योतिष नामका एक ग्रंथ है। ये ग्रंथ इतना छोटा और पति महत्वपूर्ण था कि उसका अर्थबोध लगाने बड़े बड़े विद्वान पंडितोको भी बहुत परिश्रम करना पड़ा। कई वर्षों तक उसका लगाने में निकल गये। आगमो के बाद विशीष्ट बडे विद्वान आचार्योने ग्रंथोकी कई रचना की। जैन दर्शन ज्योतिष विषयमें पीछे नही है। वर्तमानमें भी अग्रस्थान विश्वकी प्रवृत्तिके दो प्रकार है। एक आत्मलक्षी और दूसरी संसार लक्षी। सामान्य जीवोंका लक्ष्य संसारलक्षी प्रवृत्ति तरफ विशेष रहता है। जैन दर्शकाका ध्येय संसार कम रहे, यह है ज्योतिष का उपयोग संसार के लिये ठीक नही है इसलिये त्याग मार्गको वफादार रहनेवाले जैनाचार्य ज्योतिका भौतिक उपयोग नही करते। । ___ मुहुर्त शास्त्र पर अनेक ग्रंथ है। जिसमें मुहुर्त मार्तंड, मुहुर्त चिंतामणी, पीयूषधारा, ज्योतिष गणितका समावेश है। कोई ऐसा देश नही है जहां ज्योतिष न हो। युरोप-अमेरीकामें राफेल एफेमरी की अच्छी प्रतिष्ठा है आज तो राफल अफेमरी मीलनी मुश्कील हो गयी है। मानव स्वभाव ही ऐसा है जो भूतभविष्य जानने की उत्कंठ आकांक्षा करता है। फल अगर अपेक्षित निकला तो उस पर विश्वास बैठ जाता है। फलादेश के लिये संहिता ग्रंथ की अच्छी नामना है। एक प्रसंग पेश करती हूं। एक राजाको ज्योतिष विद्या की परीक्षा लेने का मन हुआ। उसने प्रसिध्ध ज्योतिषकार को बुलाया और पूछा मुझे कल क्या खाना मिलेगा ये बताओ? ये ऐसे प्रश्नका उत्तर ऐसे ही देना ये विद्या का गौरव है। उसने एक कागज के टुकडे पर कुछ लिखके ३६२ सत्य कभी कडवा नही होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नही होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीके हाथ में दे दी। दुसरे दिन राजा जब भोजन के उठेंगे तब ये चिट्ठी खोलकर पढना ऐसा पंडित ने कहा। राजा रोज की तरह भोजन करने बैठा उस वख्त राज्य में कुछ गडबड हो गयी और राजाका जाना जरूरी हो गया। राजा भूखा ही उठा सब ठीक ठाक शांति करके सांझ को ४-५ बजे वापस आया। भूख तो जोरसे लगी थी। रसोई घरमें खीचडी के सीवा कुछ था ही नही। खीचडी का भोजन करनेके बाद उसे चिठ्ठीकी याद आ गई। उसने मंत्री से चिठ्ठीमें लिखा मजकूर पढने कहा। चिठ्ठीमें लिखा था "राजा को शाम को खीचडी खाने मिलेगी" इतनी शक्ति ज्योतिष में है। ज्योतिष शास्त्रके सिध्धांत, संहिता और होरा तीन स्कंध है। प्रशास्त्र के उपर भी निदान कर सकते है षटपंचालीका, प्रश्न भैरव आदी ग्रंथ प्रश्रशाख के उपयुक्त है। ज्योतिष वो नयन है और मुहुर्त दिया है। नयन और दिया मिल जाय तो उज्जवल प्रकाश के मार्ग पर आगे बढना बुध्धि का लक्षण है। दनिया के खगोलशास्त्रज्ञोने ज्योतिष दर्शन का दान दिया। क्रांतिवत पर कोई एक स्थान पर कोई एक ग्रह खूप बलवान है। दुनियामें अलग अलग राष्ट्रों पर अलग अलग सत्ताधिकारोका आधिपत्य होता है। राजकीय व्यक्ति भी अपने ही वर्तुलमें महान कहलाता है। उसी तरह ग्रहोंकी स्थिति का है। ग्रहोंकी असर किस तरह होती है ये जानने का प्रयास ज्योतिष शास्त्रने किया है। संसारमें मनुष्यको प्रारब्ध कर्मोको भोगे बीना छुटका नही, वर्तमानका पुरूषार्थ भविष्यका प्रारब्ध है। अवकाशमें रहनेवाले ग्रह सुख या दु:ख देते नही। सुख दुःख हमारी वृत्ति हमारी चेतना उपजाति है। हमारी चित्त वृत्ति ही एक जन्मकुंडली मानी जाती है। हमारी चित्तवृत्तिनुसार कुंडलीमें वो जो स्थानमें ग्रह पडते है। वृत्तिको अंकुशमें ले लो ग्रह अपने आप वशमें आ जाते है। संसारमें सुख-शांति प्राप्त करनेके लिये वृत्ति उपर कंट्रोल करना सीखो एक श्लोक है। श्रेयांसि बहु विध्वानि, भवन्ति महतामपि।। अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ।। महापुरूषोके कार्यमें भी विघ्न आते है। मंगल कार्यों में भी विघ्न आते है। इस हेतु से कोई भी कार्य शुभ मुहुर्त पर करना जरूरी है। उसे प्रतिपादन करनेवाला ज्योतिष शास्त्र है। ज्योतिष ज्योति रूप है। मनुष्यके भाग्य का दर्शन कराता है। उसीका नाम ज्योतिष है। ज्योतिष विद्या इतनी विशाल है। और बहुत विस्तृत है। इसे समजने के लिये इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये सदगुरूकी उपासना और गुरुगम की आवश्यकता है। ज्योतिष के ज्ञानका अंत नही। नये डोकी खोज होती है नये तर्क निर्माण होते है। नया ज्ञान प्राप्त होता है। ज्योतिष विषय इतना गहन है कि हर एक कोई पा नहीं सकता। सब ज्ञान का भंडार है। आजकल मेडीकल एस्ट्रोलोजी भी बहुत प्रचलित है। डॉक्टर्स जन्मकुंडली देखकर रोग का निदान करते है और उस रोग अनुसार उसकी ट्रीटमेंट चालू होती है। इस विषयमें जितना लिखा जाय उतना कम है। आखिर प्रारब्ध अटल है। कर्मणे वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन फलकी आशा किया बीना कर्म कीये जा। जय जिनेन्द्र ज्योतिष पंडित करूणा जो वस्तु उत्तमोत्तम हो उसे ही जिनेन्द्र पूजा में रखना चाहिए। ३६३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिनालंकार' - एक प्राचीन स्तोत्रकाव्य लेखक : प्रा: श्याम जोशी, वाई जि:- सातारा (महाराष्ट्र) 'जिनालंकार' नामक एक प्राचीन काव्य का परिचय यहां दिया जा रहा है। लेकिन इधर 'जिन' शब्द का व्युत्पत्यर्थ याने 'इंद्रियोंपर विजय पानेवाला' ऐसा ही लेना है। क्योंकी इस काव्य का विषय है गौतम बुद्ध और भाषा है पालि। वैसे तो भगवान महावीर की उपाधी 'जिन' ऐसी रुढ है। और अनेक धर्मियोंने और सांप्रदायिकोने इस उपाधी का उपयोग वही और सही अर्थमे अपने अपने ग्रंथोंमे किया है। जैन धर्मने भी 'जिन' होने की ही महत्वाकांक्षा और आदर्श रखा और अनेक सांप्रदायिकों को इस वजह से अपना लिया है। इंद्रियोंपर विजय पाना यही श्रमण संस्कृती का साध्यसाधन बना रहा है। चाहे उस संस्कृती को अनेक संप्रदाय अपनी अपनी तरह से आत्मसात कर लें। त्रिपिटकों को छोडकर बौद्धोंका अट्टकथा नामक एक वाङमय प्रकार है। इसी प्रकार मे गिना गया "जिनालंकार" यह एक काव्य ब्राह्मी परंपराके अनुसार एक अट्टकथा है। एक समयमे ब्रह्मदेशके प्रमुख मठोंमे इसका अभ्यास और पाठ होता था ग्रंथ के अंतमे इस काव्यकर्ताका उल्लेख बुद्धरख्खित ऐसा दिया है। वह श्रीलंकामे जन्मा हुआ (इ.स. पूर्व ४२६मे) एक विद्वान था। तम्बमणीके बौद्धभिक्षु परिषद का वह अध्यक्ष था। काव्य के टीकाके अनुसार 'जिनालंकार' नामक खजिना धारण करनेवाला 'भण्डारिक' था। इस खजिना या भण्डार का सारांश ऐसा है: शुरुमे मंगलाचरण जैसी प्रणाम दोपनी गाथा लिखने के बाद कवी बुद्धकृतीका शुद्धत्व कहकर उसका अनन्य साधारणत्व कहता है। बुद्धकी महत्वाकांक्षा कहते समय सुमेधने दीपंकरके सामने देहका पूल कैसा बनाया इसका वर्णन, आता है। बादमे बुद्ध माताके गर्भमे प्रवेश करता है। उसका जन्मोत्सव मनाने के लिये देव, नाग, असुर इत्यादी सर्व विश्व सम्मीलित हो जाता है। यशोधराके साथ राजैश्वर्यसंपन्न युद्ध का विवाह और पुत्रप्राप्ती होने के बाद गौतमके मनमे वैराग्य और जनमोक्ष के विचार आते हैं। इसलिये सर्वसंग परित्याग करके वह निर्वाणके मार्ग पर चल पडता है। इस वख्त कवीने अपना काव्यरचना कौशल्य दिखाने के लिये विविध यमक गाथा और पहेली गाथा दी हैं। प्रवासका सविस्तर वर्णन होने के बाद गौतम और मार का बोधिवृक्षतले युद्ध होता है और मारका पराजय वर्णित किया है। उनका संवाद बड़ा रोचक है। इस विजयके बाद बुद्ध को ज्ञानप्राप्ती हो जाती है और देवादिक सिद्धार्थ के ऊपर छत्रचादर धरते हैं। इसि पतन वनमे ब्रह्मके विनंती पर वह धर्मचक्र परिवर्तन करता है। उसके बाद युद्धका गुणगान व पूजाविधान आता है। इस समय वर्णित निसर्गसंपत्ती लक्षणीय है। अन्तमे स्वयं अनागत कालमे 'जिन' होने की इच्छा प्रकट की है। मूलत: तीनसौ श्लोक की इस रचनाके अढाईसौ श्लोक उपलब्ध हैं। उनके ऊपर की टीका प्रसिद्ध टीकाकार युद्धघोष के समकालील बुद्ध दत्तकी है। स्वयं कवीने भी इस काव्यपर टीका लिखी होगी। अर्थात् बुद्धदत्तके कारणही वर्तमान ग्रंथ सुरक्षित रहा है। श्रीलंकामे रहते हो और मगधको वापस आनेसे पूर्व उसने 'जिनालंकार की नकल उतारी और उसके ऊपर टीका भी लिखी।। इस काव्यमे उपयोजित वृत्त लेखकका वृत्तोंपर का प्रभाव सूचित करते हैं। 'पथ्यावत्त के ३६४ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान ग्यारह अलगअलग वृत्तोंका उपयोग किया है। बहुतांश रचना इन्द्रवजा और उपवजा इत्यादी उपजातीमे की मिलती है। नियमबाह्य पद्यरचना क्वचितही मिलती है। भारतीय विद्वानोंने इस काव्य का आलंकारिक मूल्य उच्च प्रतीका माना है। उसका शब्द सौष्ठव उल्लेखनीय है। आर्यधन और प्रभावी शैली के साथ साथ तालबद्धता और वृत्तरचनाकी विविधता यह उसका वैशिष्ट्य है। पाली गलीमे 'मिलिन्द पन्हा' का जो स्थान है वही पाली पद्यमे 'जिनालंकार'का है। इसवी सन पूर्व चवथे शतकका काल महिमा ही ऐसा था की इसकी शैली संस्कृत लेखकोंकी तरह कृत्रिम है। उसमे प्रसादसे ज्यादा पांडित्य है। उदाहरण के लियेदिस्वा निमिज्ञानि मदच्छिदानि श्रीनं बिरुरुपानि रताच्छदानि। पापानि कम्मानि सुखच्छिदानि। लच्छानि जाणामि भवाच्छदानि॥४९|| और 'नाना सनामि सयनानि निवेसनानि इत्यादी ८५वा श्लोक देखिये। इसमे अंतरत्रिक खास है। ९६ वे श्लोक मे 'तथा हिमारोपि तदाहसन्ति।' यह एकही चरण तीन बार इस्तमाल करके शब्द छलसे श्लोक साधा है। पंदित्त गेहा बिय करेवं वं वं समुदाय गतो महेसि। महेसि मोलो किय पुत्तमत्तनो तनोसि नो पेममहोद्यमत्तनो।। इस श्लोकमे प्रत्येक चरणका अन्तिम शब्द आगले चरणका पहला शब्द है। तो ९७ वे श्लोकमे 'सकामदाता विनयानमन्तगू' यही चरण चार बार अलग अलग अर्थमे आती है। १०५ से १०८ श्लोकों में न, स, र, द, व, इन वाँका इश्तेमाल करके विलक्षण अनुप्रास साध्य किया है। उनमेसे एकही देखें:नोनानिनो ननूनानि ननेनानि ननानिनो। नुन्नानेनानि नून न नाननं नाननेन नो॥ यह श्लोक पढकर कारवीके । न नोननन्नो नन्नोनो नानो इत्यादी श्लोक याद आता है। अपने श्लोकमे केवल नकार है। सौवे श्लोकमे राजराजयसोपेत विसेसं रचितं मया। यह पहला चरण उलटा पढा जाय तोयामतं चिरसंसेवित पेसो यजराजरा। यह चरण तयार होता है। इसी प्रकार नमो तस्स यतो महिमतो यस्स तमो न। यह पंक्ती उलटी या सुलटी पढी जाय तो वही अक्षरावली है। एक श्लोक मे सभीके सभी वर्ण कण्ठय उपयोजित है दिखे आकंखक्खाकं रवंग... इत्यादी एकसौ एकवा श्लोक। इस तरह संस्कृत जैसा कृत्रिमता का जंगल खडा करनेका सामर्थ्य प्राकृतमेही है इसका साक्षात्कार इधर होता है। अर्थात् यह भक्ती रसात्मक काव्य है। बुद्ध के जीवनका दर्शन करते करते कवीने अपनी भाषाप्रभुता दिखायी है। इसका नित्यपठन अवश्य होता होगा। और पठनसे मनुष्यके जिव्हाको व्यायाम और मोड मिलता होगा। निरोगी वाणीके लिये अवश्य है। फिर पढनेवाला कोई भी संप्रदायका क्यों न हो। किसी भी महापुरुषके चरित्र का पढना मनुष्य मात्रके लिये अच्छे असरदायी है। इधर तो 'जिन' महात्माका एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिये कवी के साथ प्रार्थना करे की'जिनो भविस्सामि अनागतेसु।' मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। ३६५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का धर्म वितराग और हमारा दृष्टिराग ले. अगरचंद नाहरा जिन महापुरुषों ने राग पर विजय पायी अर्थात राग को नष्ट कर दिया। जैन धर्म में वे ही वास्तविक देव या परमात्मा हैं। इसलिए तीर्थकरों का विशेषण वीतराग सार्थक है और जैन तीर्थंकरों को वितराग कहा जाता हैं। भगवान महावीर ने वीतरागता को ही साध्य बनाया और जब वे पूर्ण वीतराग बन गये तभी उनमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और उसके बाद ही उन्होंने ३० वर्षों तक धर्म प्रचार किया। आठों कर्मों में मोहनीय कर्म ही सबसे प्रबल माना गया है। जहाँ तक मोह रहता है। वहाँ तक सम्यक, ज्ञान, सम्यक चारित्र्य, शुद्ध और पूर्णरूपता प्राप्त नहीं होती। बाकी सभी आत्मा के एक एक गुण को अवतरित करते है। जब की मोहनीय कर्म सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र्य इन दो आत्मिक गुणों के अवरोधक है और मोहनीय कर्म के नष्ट हुए बिना जो भी ज्ञान हैं। वह अज्ञान और कजान हैं। और चारित्र्य भी कुचारित्र्य हैं। इसलिए मोक्षमार्ग का सबसे बड़ा बाधक मोहनीय कर्म ही हैं, क्योंकि सम्यकू दर्शन ज्ञान, चारिख्य इन तीनों को मोक्ष मार्ग का साधन बताया गया हैं। मोह का प्रबल कारण राग ही हैं जो अनेक रूपों में प्रत्येक सांसारिक जीव में भरा पड़ा हैं। इच्छा से लेकर आसक्ति तक की सारी प्रक्रियाएँ राग के कारण ही उत्पन्न होती हैं। इसलिए कर्मबंध और संसार का मूल या बीज राग - द्वेष ही है। जितने - जितने अंश में राग-द्वेष हटेगा या कम होगा उतने- उतने अंश में आत्मा शुद्ध होगी। आत्मिक गुण प्रगट होंगे। जैन धर्म में जीव या आत्मा का लक्षण धार्मिक विषयों को लेकर भी राग - द्वेष अत्यधिक बढ़ा हुआ हैं। वास्तव में तो जहाँ समभाव है, वही धर्म है। जहाँ राग-भाव है वहाँ धर्म ही नहीं। क्योंकि धर्म वितरागिता में है। समता में है। उप-सममें हम कल्पसूत्र में श्रमणत्व या श्रमण धर्म का सार "उपसम" भाव को ही बतलाया हैं। जहाँ उपसम हैं वहीं शांति हैं, क्षमा हैं, सरलता है, मृदुता है, संतोष है इसीलिए धर्म के दस लक्षण बतलाए गये हैं। जिन-जिन व्यक्तियों में जितने - जितने अंश में ही वह धार्मिक। इसके विपरित जहाँ जितना क्रोध, मान, माया, लोम, राग-द्वेष विषयक काषाय आदि दोष हैं, उतने अंशो में वे अधर्मी हैं, 'पापी हैं, दोषी है, इस बात को प्रत्येक जैनी को गहराई से चिंतन करते हुए अपने हृदय में इसे आदर्श वाक्य के रूप में प्रतिष्ठित कर लेना चाहिए। वैसे तो राग के असंख्य भेद है, पर जैन ग्रंथो में उसके तीन प्रमुख भेद बतलाये गये है। [9] काम-राग [२] स्नेह-राग [३] दृष्टि-राग। विषय - वासना के प्रति आकर्षण काम-राग हैं। पाँचो इन्द्रियों के २३ विषयों और विकारों का सामवेश काम-राग में होता हैं। कुटुम्ब, परिवार, स्त्री-पुरुष, माता-पिता, धन-धान्य आदि में जो विशेष लगाव होता हैं। वहीं स्नेह-राग हैं। यद्यपि ये दोनों राग बड़े बलवान हैं इन्हें जीतना बहुत ही कठिन हैं, फिर भी जैन मनीषियों ने "दृष्टि-राग छोड़ना और भी अधिक कठिन बताया हैं, क्योंकि वह सहज पकड़ में नहीं आता, बड़ा सूक्ष्म हैं, लुभावना भी है। इसीलिए उसके दोष, प्राय: ध्यान में नहीं आते। हमारी दृष्टि में हम जिसे अपना या अच्छा मान लेते हैं, उसमें हमारा इतना प्रबल अनुराग हो जाता हैं कि उससे भी अच्छे व्यक्ति के प्रति हमारा ऐसा सदभाव नहीं होता। समान गुणी या विशेष गुणी की अपेक्षा दृष्टि - राग के कारण ही होती है। संप्रदाय दृष्टि - राग पर ही आधारित हैं। वास्तविक धर्म की प्राप्ति में सम्प्रदायिकता बहुत बड़ी बाधा हैं। एकांत या आग्रह दृष्टि या वृति दृष्टि राग के कारण ही होती हैं। इसीलिए सम्यक् दृषिट को सर्वाधिक महत्व दिया गया हैं। अनाग्रह दृष्टि, वृति और समान्वय भाव ही सम्यक दृष्टि या अनेकांत दृष्टि हैं। जो वीतरागिता की ओर ले जाने वाली दृष्टि या वृति हैं, हम अनेकांत की चर्चा करते हुए जैन धर्म का महत्व -पूर्ण सिद्धांत बतलाकर अपने आपको गोरखान्वित अनुभव करते हैं, और कहते है किंतु अनेकांत को हमने सही में समझने का ही प्रयत्न नहीं किया तो जीवन व्यवहार में कैसे आ पायेगा वह? इसीलिए एक महापुरुष ने कहा है: दृष्टि राग नो पोष, तेह समक्ति गिणू। स्यादवाद नी दृष्टि, न देख निज पणू॥ अर्थात हमने तो दृष्टि-राग को ही सम्यकत्व - सम्यक दर्शन मान लिया है और उसी दृष्टिराग को अधिकाधिक पोषण दिये जा रहे हैं। जैन समाज में दृष्टि-राग कितने अधिक प्रभावक रुप में प्रभाव जमाये बैठा है, इसके कुछ दृष्टांत दे रहा हूँ। वास्तव में हमारा ध्यान उस ओर जाता ही नहीं कि दृषिट राग हानिकार हैं। वरन् तो उसे उपादेय के रुप में समझा गया हैं। जब वह हेय है, यह भावना जागृत होगी तभी उससे छुटना संभव हो सकेगा। दृष्टि राग ने तो हमें ऐसे प्रगाढ़ रूप में बांध स्खा है कि हमें उसका भान ही नहीं होता। देव, गुरू और धर्म जो हमारे आध्यात्मिक उत्कर्ष के प्रबल साधन है। उनमें भी दृष्टि-राग विष की तरह घुल मिल गया हैं और हम उसे ही अमृत मानकर नित्य-निरंतर पीते जा रहे हैं। वितराग प्रभु के मंदिर व मूर्तियों को ही ले। हमने उसकी इतनी विडम्बना कर रखी है। कभी-कभी तो मुझे बहुत ही दुःख र आश्चर्य होता है तथा साथ ही हसी भी आती हैं। सबसे पहले बात जो मुझे बार-बार कटौचती हैं, वह हैं दिगम्बर - श्वेताम्बर मन्दिरों और मूर्तियों में भेदभाव तथा इनके लिए होने वाले मनमुराव कलह झगडे और समाज की छिन - भिन्नता, समय, शक्ति और धन की असीम बर्बादी। मेरे समझ में यह नहीं आता कि हम वितराग परमात्मा तीर्थंकरों और उनके जीवन धर्म और उपदेश वितरागता पर के उपासक इतने मूढ़ कैसे हो गये कि मूल लक्ष्य को सर्वथा भूलकर नवकार-मंत्र-आराधना अंतकरण के सुख के लिये है लौकिक कामना हेतु साधना निरर्थक हो जाती है। ३६६ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरित मार्ग को अपनाने लगे हैं, उन्हीं को दृष्टि के मध्य रखकर झगड़े, कोर्ट-केस, हिंसा करते हैं। जिन्होंने इनसे अलग रहने के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त किया था। कैसी भयंकर विडम्बना है कि हम राग-द्वेष से रहित प्रभु को ही राग-देष की ज्वालाओं में डाल देते है। जैन मंदिरो और मूर्तियों की स्थापना का एक मात्र लक्ष्य यहीं तो है कि हम नित्य निरंतर उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त कर ध्यान, सम्यकत्व और वितरागता की ओर बढ़े। मन्दिर में जाते व मूर्ति का दर्शन करते ही हम एकाग्रता - चित से तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करते हुए व अपने दोषों की ओर ध्यान देते हुए उन गुणों को प्रगटित करने की प्रेरणा प्राप्त करें तथा प्रयत्न और पुरुषार्य, वीतरागता की प्राप्ति के लिए हि करें। वितराग को देखकर हमारे हदय मन्दिर में एक प्रेरणा ओर प्रकाश जागृत हो कि हम निरंतर राग-द्वेष में झूल रहे है, यह हमारी सबसे बड़ी मूल है। इसको मिटाना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है। खेद है कि हम मंदिर और मूर्तियों को लेकर भी राग-द्वेष बढा ही रहे है। अत: वीतराग का मूल ध्येय ही भूलाया जा रहा है। यह श्वेताम्बर मन्दिर है, यह दिगम्बर, यही भावना ठीक नहीं। किन्तु जब श्वेताम्बर यह सुन लेते हैं कि यह दिगम्बर मन्दिर है और दिगम्बर यह जान लेते है कि यह श्वेताम्बर मन्दिर है तो उन्हें अपना-अपना नहीं मानकर एक दूसरे के मन्दिरों में नहीं जाते, दर्शन वन्दन नहीं करते। अपितु उपेक्षा करते है। फिर ऐसी अलगाव की भावनाएँ क्यों पनपती हैं -हमारे भीतर? दृष्टि-राग के कारण ही तो। मेरी राय में तीर्थंकरों की यह उपेक्षा, अवहेलना, आशातना और अपमान है। पर दृष्टि-राग में वीतराग भगवान के मंदिर या मूर्ति प्रमुख नहीं रहते श्वेताम्बर या दिगम्बर सम्प्रदाय मुख्य हो जाते हैं। इसीलिये वीतराग की मूर्ति को देखकर जो प्रशांत और निर्मल भाव उत्पन्न होने चाहिए वे उत्पन्न नहीं हो पाते, वरन कही-कही तो विपरित भाव भी दिखाई देते है। तीर्थों और मूर्तियों के झगड़े में समय, शक्ति और धन की बर्बादी हो रही हैं यह किसी से भी छिपा नहीं हैं। फिर भी यह विवाद समाप्त ही नहीं होते बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जाते हैं। क्योंकि दृष्टि-राग हमारे मानस पर गहरे रुप में छाया हुआ है। वास्तव में जहाँ जाकर हमारे-राग-द्वेष शांत होने चाहिये, वहाँ वे उल्टे बढ़ते हुये दिखाई देते है। किसी एक मूर्ति के प्रति हमारा इतना अधिक आकर्षण या दृष्टि-राग हो जाता है कि "हम बैसी ही" दूसरी मतियों की पूजा व मान्यता उस रुप में नहीं करते जिस रूप में अपनी मानी हुई चमत्कारिक या विशेष श्रद्धा प्राप्त मूर्ति की करते हैं। जल कि वीतरागता की प्रेरणा देने वाली सभी मतियाँ समान हैं तो एक मूर्ति विशेष में ही अपनी श्रद्धा को केन्द्रीत करना और दूसरी मूर्तियों की उपेक्षा करना, उसी के समान पूजा नहीं करना यह दृष्टि राग ही तो है। एक मंदिर में एक मूर्ति का दर्शन करने सैकड़ों-हजारों लोग नित्य जाते है, उसी मंदिर की सारी मूर्तियाँ या पास के अन्य मन्दिरों में दर्शन-पूजन करने वाले विरले ही पहुँचते होंगे। इस वृत्ति में दृष्टि-राग ही है। इसी कारण एक मन्दिर में धूम-धाम, चहल-पहल हैं दुसरे मन्दिर में सूनापन। एक मन्दिर में लाखों की आमदानी है तो दूसरे में पूजा का भी प्रबन्ध नहीं हैं। और भी ताज्जुब की बात तो यह है कि एक मन्दिर में लाखों की आमदानी है तो दूसरे में पूजा का भी प्रवन्ध नहीं और भी ताज्जुब की बात तो यह है कि एक मन्दिर में लाखों पड़े है तो दूसरा मन्दिर दिन प्रतिदिन जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा हैं, टूट फूट रहा है और उसमें कोई पूजा भी नहीं करता, यह सब देखते हुए भी उसके जीर्णोद्धार, पूजा व्यवस्था में समृद्ध मन्दिर से कुछ भी नहीं दिया जाता। सोचिये कि दोनों ही मन्दिर उन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तिया वाले हैं फिर उनमें इतना भेद-भाव व अन्तर क्यों? रुपया किसी व्यक्ति का नहीं, तीर्थंकरों के मन्दिर का हैं पर यहाँ अपना-पराया, मेरा-तेरा यह भेद-भाव इतना छा गया है कि हम कर्तव्य का भान भूल गये हैं। मानों उस मन्दिर का पैसा हमारा अपना हो, जाबकि हम केवल उसके संरक्षक एवं व्यवस्थापक मात्र हैं। जहाँ एक और सहस्त्रों की तादाद में मूर्तियों नष्ट हो जा रही है, उनकी कोई सार संभाल रखने वाला नहीं, दूसरी ओर हजारों मूर्तियों व मन्दिर बनते जा रहे है। ऐसा क्यों? उत्तर है कि हम बनायेंगे तो हमारा नाम रहेंगे। दूसरे के बनाए हुए मन्दिर और मूर्तियाँ है तो उसमें हमारा क्या? इसीलिए प्राचीन और सुन्दर मूर्तियाँ सर्वथा उपक्षित है, कहीं-कही तो भयंकर आशातना हो रही है, पर उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हमें तो अपा शिलालेख खुदाना है, अपना नाम कमाना है। यह हमारी असम्यक दृष्टि-मिथ्या दृष्टि का ही परिचायक है। दृष्टि-राग के कारण ही हमारी दृष्टि सम्यक नहीं हो पाती। चिंतन और प्रवृत्ति सही नहीं होती। इसी प्रकार अपने गुण, गच्छ और गरुओं को लें, जिस संप्रदाय का गच्छ का या सम्प्रदाय का भी जो उपासक होता है, उसी में उसका राग बंध जाता है। इसलिए दूसरे संप्रदाय गच्छ या समुदाय के अच्छे व्यक्तियों व अच्छी बातों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता या उपेक्षा करता है। श्वेताम्बर दिगम्बर गुरुओं के पास नहीं जाते, यदि जाते हैं अपने माने हुए गुरु के प्रति जैसा सद्भाव या भक्तिभाव होता है वैसा उसके प्रति नहीं होता। इसी तरह दिगम्बरों का श्वेताम्बर साधुओं के प्रति भाव होता हैं। क्यों? क्योंकि हमारी दृष्टि बाहरी परिवेश, वेश या लिंग तक ही सीमित हो गई हैं, दूसरे वेश या व्यक्ति चाहें वह कितना उँचा हो हम उसे उतना अधिक महत्व नहीं देते जितना हम हमारे सम्प्रदाय के कम गुणवान वेशधारी को देते हैं। क्योंकि हमारी दृष्टि बाझ नाम, रुप के प्रति अधिक गहरी होती हैं यह सब दृष्टिराग के कारण ही होता है। भिन्न संप्रदाय की बात छोड भी दें तो भी, एक ही गच्छ या संप्रदाय में भी हमारी दृष्टि इतनी राग भाव वाली हो गई है कि दिगम्बर संप्रदाय में बीस पंथी, तेरापंथी और कानजी आदि के झगडे चलते ही रहते हैं। एक दूसरे की मान्यताओं मानवता के विकास से हो देवत्व, आचार्यत्व, सिद्धत्व का सृजन-विकास हो सकता है। ३६७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के खंडन में ही विद्वान जुटे हुए हैं। व्यवहार दृष्टि वाले अपने क्रिया-काण्ड और पुण्य क्रियाओं में मग्न हैं तो निश्चय वृष्टिवाले उनकी उपेक्षा और निंदा करने में व्यस्त हैं। दिगंबर मुनियों में भी जो जिस मुनि के भक्त है, उस मुनि के इशारे या कथन से तो लाखों रुपये खर्च कर देंगे पर दूसरे अच्छे और ऊँचे मुनि की ओर ध्यान भी नहीं देंगे। समदृष्टि की जगह विषमदृष्टि या भेद दृष्टि, दृष्टि राग के कारण ही होती हैं। एक ही संप्रदाय या संघ में व्यक्तियों के भी जो जिसके भक्त हैं, वे उन्हीं के प्रति श्रद्धाशील है। उसी संघ या संप्रदाय के दूसरे मुनि या आर्मिका के प्रति वैसा सद्भाव नहीं मिलेगा। श्वेताम्बर संप्रदाय में भी इसी दृष्टि राग का प्राध्यान्य है। परस्पर गच्छों के झगडे, तिथियों के विवाद चलते रहते हैं। एक तपागच्छ में ही जो रामसूरि के भक्त हैं, वे दूसरे समुदायवालों को उस रुप में नहीं मानेंगे। अपने माने हुए आचार्य या साधु ही सर्वोपरि है, दूसरे उनके सामने कुछ भी नहीं है, या साधु नहीं है, ऐसी धारणा बना लेंगे। स्थानकवासी संप्रदाय से भी जो श्रमणसंघ के अनुयायी है वे उस. संघ के अमुक मुनि को ही विशेष मानेंगे। जैसे हस्तीमलजी को मानने वाले दूसरों को उस रूप में नहीं मानेंगे, नानालालजी को मानने वाले स्थानकवासी अन्य संप्रदाय के साधु-साहिवयों के प्रति उपेक्षाभाव रखेंगे, कहीं तो उनकी कटु आलोचना तक भी करते नजर आते हैं उर्थात दृष्टि राग का पदी उनकी आँखो और हृदय पर इतने गहरे छा जाते हैं कि दूसरे सब फिके और नीचे लगने लगते हैं। दूसरे संप्रदाय के व्यक्तियों को चाहे वे कितने ही अच्छे हो, उतना आदर नहीं दिया जाता। अपने संप्रदाय के भी अमुक व्यक्ति के प्रति दृष्टिराग बन गया है तो दूसरे के प्रति वैसा सद्भाव नहीं मिलता। किसी धर्म-संप्रदाय के मुख्य आधार उसके देव गुरु और शास्त्र होते हैं। जब हम देव गुरु की चर्चा के बाद शास्त्र अर्थात मान्य ग्रन्थों की ओर दृष्टिपात करेंगे। जिससे धर्म के तीनों स्तम्भों आधारों पर दृष्टिराग कैसा छाया हुआ है, स्पष्ट हो जाएगा। भगवना महावीर की जो कुछ भी वाणी बच पायी है वह जैन आगमों में उपलब्ध है। केवल कुछ साम्प्रदायिक मान्यताओं में अंतर पड जाता है इसलिए दिगम्बर सम्प्रदाय वालों ने यहाँ तक कह दिया कि प्राचीन जैन आगम सभी लुप्त हो चुके हैं। जबकि दिगम्बर ग्रंथो में ही उन आगमों का जो विवरण और वर्णन मिलता है, वह श्वेताम्बर मान्य आगमों में बहुत कुछ उसी रुप में प्राप्त है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी बतलाते हुए कहा गया है कि: नाणं च दसणं देव चरित च तवो तहाँ। वीरिय उवभोगो य एवं जीवस्य लक्खणं। अर्थात् जीव वहीं है, जिसमें ज्ञान-दर्शन चारित्र तप वीर्य (शक्ति) और उपयोग नामक गुण हैं। जीव का प्रमुख लक्षण बताया गया है- चैतन्य। जिसमें चेतना नहीं, वह अजीव हैं जड़ एक हैं, उसमें अनुभव और संवेदन शक्ति नहीं होती। अनादिकाल से जीव और अजीव अर्थात चैतन्य और जड़ साथ रहे हुए हैं। जीव ने पुदगल या जड़ का अपना मान लिया हैं। इस ममत्व राग, मोह या अज्ञान के कारण ही संसार में चक्कर काट रहा हैं। आत्मा-विस्मृति ही प्रसाद और मिध्यात्व हैं। पर को अपना मान लेना ही अनादिकाल की भूल हैं। और पुदगल से बने हुए शरीर और पदार्थों को अपना मान लेना राग-द्वेष के कारण ही होता हैं। इसलिए भी कर्म या संसार की जड़ रागभाव ही हैं। एक तत्वज्ञ महापुरुष ने बहुत ही संक्षेप और सरल रुप में कहा है कि 'कर्मन की जड़ राग हैं राग जरे जल जाया" अर्थात राग के कारण ही कर्मबंद होते है और राग के समाप्त होते ही कर्म भी जलकर भस्म हो जाते है। प्रत्येक जैनी को जैन धर्म के इस सारभूत वाक्य पर खुब चिंतन करना चाहिए और जितना भी संभव हो "राग-द्वेष" को कम करने और नष्ट करने का लक्ष्य रखते हुए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए पर वर्तमान में हमें अपने का इससे सर्वथा विपरीत पा रहे है। एक तरह से यह भी कह सकते है कि कई बार अन्य सामान्य जीवों की अपेक्षा भी जैनों में राग-द्वेष अधिक पाया जाता है। व्यावहारिक कार्यों में ही नहीं किन्तु उन आगमों की प्राचीनता और प्रामणिकता स्वीकार की है, पर हमारे दिगम्बर विद्वान उनके पठन-पाठन में उतनी रुचि नहीं लेते हैं। इसी तरह श्वेतांबर संप्रदाय में भी स्थानकवासी संप्रदाय बत्तीस सूत्रों के जितना महत्व देता है उतना उन्ही बत्तीस सूत्रों से नंदीसूत्र आदि में उल्लेखित अन्य आगमों को महत्व नहीं देता। तथापि वे आगम बहुत उपयोगी है और कईयों में तो उनके लिए बाधाजनक हों, ऐसी कोई बात तो नहीं मिलती। यधपि बत्तीस और पैतालीस संख्या का कोई महत्व नहीं है पर अपने-अपने संप्रदाय की दृष्टि गंध गई है। उस संकुचित-साप्रदायिक दृष्टि के कारण दूसरे अच्छे ग्रंथों की भी उपेक्षा की जाती है। होना तो यह चाहिए कि 'सत्य' है, वह मेरा है, पर हो गया है, "जो में जानता है, जो मैं कहता है, जो मैं मानता हूँ" वहीं मेरा है, वही 'सत्य है। यह आग्रहशालता ही दृष्टिराग हैं। व्यक्ति पूजा को जैन धर्म में इसलिए महत्व नहीं दिया किंतु हम फिर उसी व्यक्ति-पूजा के घर में बंध गए हैं। मुल वस्तू को मुलकर बाहरी दाचे को सर्वस्व मानने लगे हैं। वास्तव में समदृष्टि और गुणदृष्टि को ही प्रधानता मिलनी चाहिए। आत्मकल्याण इसी में है। पर आज जैन समाज में दृष्टिराग का प्राधान्य हैं। उसको छोडे बिना हम सम्यक् दृष्टि नहीं हो सकते।सचे जैन नहीं हो सकते। महावीर के सचे अनुयायी भी नहीं हो सकते। इसलिए हमारे लिए यही हितकर हैं कि हम इस राग-द्वेष और उसमें भी दृष्टि राग को सर्वथा मिटाकर अपने आप को अनेकांत अनुयायी और सचा जैन प्रमाणित कर सके। मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। ३६८ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिध्दी के बिना प्रसिद्धी नहीं मिल सकती। भावना के बिना प्रभावना नहीं हो सकती। साधना के बिना सफलता नहीं मिल सकती। श्री डूंगरमलजी दोषी जिठाका जीवठा सूर्य की भांति प्रकाशीत है, चन्द्र की भांति सौम्य है, सिंह की भांति निर्मिक है, गजराज की भांति मस्त है, फूलो की भांति सुगंधित है, सागर की भांति गंभीर है, वही जीवठा वंदनीय, वर्णीय और अर्चनीय है। ऐसे शांत स्वभावी 'कोकण केशरी निराज श्री लेवेन्द्र शेखर विजयजी को कोटि-कोटि वंदठा। D. S. Doshi Dungarmal Pruthviraj & Co. M. S. Silicon Sheets & Transformer Core Ferrous & Non Ferrous Metal & Commision agent. 205,Upper Duncan road, Bombay-400008. Trin Trin Office : 3085719 Resi : 3085735 Education infamatiorial जयंत प्रिन्टरी : गिरगांम रोड, बम्बई-२. फोन : 252982, diww