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________________ मेरे दिक्षादाता गुरुवर्य - लेखिका-साध्वी कल्पदर्शिता श्रमण भगवंत महावीरने आरचारंग सुत्र में कहा है कि जब तक जिवात्मा द्रव्य या भाव से चारित्र ग्रहण नहीं करता है तब तक वह भवोदधि से पार नहीं हो सकता। इतिहास साक्षि है कि मरूदेवी माताने भाव चारित्र को अंगीकार करके तत भव मोक्ष प्राप्त की है। भिरवारी के भव में द्रव्य चारित्र को स्वीकार करने वाला व्यक्ति आगामी भव में जैन जगत की महति प्रभावना राजा संत्रति ने की है। जैन जगत के उज्जवल इतिहास में अनेको पवित्र आत्माओं ने संयम जीवन को अपनाकर भवतारिणी भगवती दीक्षा अंगीकार की है। पूर्वभव के प्रबल पूण्योदय का संयोग था कि मुझे बाल्यकाल से ही श्रमणीतर्या साध्वी पुष्पाश्रीजी, साध्वी हेमप्रभाश्रीजी, की पावनीय सेवा में ज्ञानाभ्यास करने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ। अध्ययन के साथ ही मेरी संयम भावना विकसीत होती गयी। अंतत: मेरी यह भावना २०४६ का चातुर्मास कल्याण में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी तथा श्री लोकेन्द्र विजयजी के सतत आध्यात्मिक प्रवचनों में विशेष तोर से मेरे वैराग्य भावों में अभिवृद्धि की है। जनता जनार्दन के विचारों से मेरी आयु कम थी परन्तु प्रज्ञावात पुरुषों ने कहा कि शुभ विचारों का आचरण शिघ्र ही करना चाहिए और अशुभ विचारों को क्रियान्वयन करने में जितनी देरी कर सके करें। उपरोक्त विचार ही मेरे वैराग्य जीवन का आदर्श रहा हैं। पूर्व में भी कम आयु में वज्रबाहु स्वामी, अहम्रत्ता मुनियों के उदाहरण आज भी हमें गौरवान्वित करते हैं। यह भी एक वास्तविक तथ्य हैं कि बाल्यावस्था में संयम गृहण करने वाले साधक पुरुष इस जगत की आत्मोत्थान के लिए प्रगतिशील रहे हैं। मुझे मेरी आत्मा संयम के लिए पुकार रही थी। मैने आत्मनिश्चय किया कि चातुर्मास की पूर्णाहति के साथ ही मुझे अत्याबाध रुप से संयम पथ का राही बनना है। पूज्य मुनिद्वय के पावनीय आशिर्वाद से मेरी भावना फलवती बनी और वह दिन भी मेरे लिए धन्य हो गया जब मुझे मार्गशिर्ष कृष्ण-५ शुक्रवार १७ नवम्बर १९८९ के शुभमुहूर्त की घोषणा की। राजस्थान जैन संघ के तत्वावधानता में यह आयोजन करने का शुभ निर्णय भी लिया गया। ___ कल्याण नगर में मागसर वद ५ को मेरा दिक्षा समारोह अपने आप में अनुठा था। हजारों जन की उपस्थिती में मैं साध्वी कल्पदर्शिता के रुप में घोषित हुई। जय-जयकार की जय ध्वनि में मुझे अपने कर्तव्य का बोध हुआ कि जैन समाज में ज्ञान, ध्यान और तप संयम के द्वारा मुझे जन-जन की सेवा करनी है। उसी आत्मनिश्चय से मैं ज्ञानाभ्यास कर रही हूँ। पूज्यवरों की सतत् मार्गदर्शन और प्रेरणा अस्खलित रुप से मुझे प्राप्त हो रही हैं। मेरे दिक्षा दाता पूज्य 'कोंकण केशरी' मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी के कर कमलों में वन्दना करती हुई उनके अहर्निष उपकारों के प्रति भाव श्रद्धा से श्रद्धान्वित होकर कलम को विराम देती हूँ। १२८ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संत का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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