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________________ अपरिग्रह -नीरज जैन, एक व्यक्ति मकान बनवाना चाहता था। उसने वास्तुकार से अपने मन का नक्शा तैयार करवाया। नक्शा सचमुच बहुत अच्छा बना था। उसके साथ निर्माण के लिये तकनीकी परामर्श (वर्किंग डिजाइन्स) भी साथ में दी गई थीं। इस सब के लिये धन्यवाद देते हुए वास्तुकार से प्रश्न किया गया - "कभी-कभी नये मकान में भी पानी टपकने लगता है। आप इतनी कृपा और करें कि इस नक्शे में उन स्थलों पर निशान दें जहाँ पानी टपकने की हालत में मरम्मत करानी चाहिए। प्रश्न सुनकर वास्तुकार चकित था। अपने व्यावसायिक जीवन में पहली बार ऐसे प्रश्न से उसका सामना हुआ था। उसने कहा - 'बन्धु! यदि मेरी डिझाइन के अनुसार निर्माण होगा तो मकान में पानी टपकने का कोई प्रश्न ही नहीं है। परन्तु, यदि किसी कारण से, कभी, मकान टपकने ही लगे तो उस समय कहाँ मरम्मत करानी होगी, यह आज इस नक्शे में कैसे रेखांकित किया जा सकता है? जब पानी टपके तभी आप देख लें कि पानी कहाँ से टपकता है, बस वहीं मरम्मत करानी होगी। भगवान महावीर ने हमें अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिये भी एक ऐसा नक्शा दिया था जिससे एक छिद्र-रहित भवन हम बना सकते थे। उन्होंने जीवन-निर्माण के लिए कुछ ऐसे तकनीकी परामर्श दिये थे जिन पर यदि अमल किया जाता तो एक निष्पाप और निष्कलंक व्यक्तित्व बन सकता था। हमारे जीवन में पाँच का प्रवेश हो ही नहीं सकता था। परन्तु हम चूक गये। अपने व्यक्तित्व का प्रासाद खड़ा करते समय हमने महावीर के निर्देशों का पालन नहीं किया। इसी का फल है कि हमारे जीवन में पाँच पापों का प्रवेश हो रहा है। यदि हमारा जीवन महावीर की बताई हुई पद्धति पर गढा जाता तो उसमें पाप का पानी टपकने का कोई प्रश्न ही नहीं था। अब हमारे सामने समस्या यही है कि अपने सछिद्र व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने के लिये हम क्या उपचार करें? हमारे जीवन में जगह-जगह पाप का मलिन जल टपक रहा है, किस तरफ से उस चुअन को रोकने का प्रयास करें? पाप-प्रवृत्तियों से बचने के लिये महावीर का यही परामर्श है कि निरन्तर आत्म-अवलोकन हम करते रहें और जिस आचरण के माध्यम से हमारे जीवन में पाप का प्रवेश होता दिखे, उस आचरण को पूरी सतर्कता के साथ अनुशासित करने का प्रयत्न करें। पाप की जड़ : परिग्रह : पाप तो पाँच होते हैं - हिंसा, झठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। परन्तु इन पाँचों पापों को हमारे जीवन में प्रवेश करने के लिए अलग-अलग रास्ते नहीं ढूंढने पड़ते। देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार कोई एक पाप हमारे जीवन में आता है और फिर, उसी के माध्यम से, धीरे-धीरे अन्य चार पाप भी प्रवेश पा जाते हैं। हो सकता हैं कोई ऐसा देश-काल रहा हो जब मनुष्य के आचरण हिंसा प्रधान रहें हों। हिंसा के माध्यम से ही शेष पाप उसके जीवन में आते हों। हो सकता हैं किसी समाज रचना में झूठ, चोरी, अथवा व्यभिचार की प्रधानता रही हो, और वही अन्य पापों के आने मानव बनो। मानवता के विकास में ही साधुत्व, देवत्व और सिद्धत्व का सृजन हो सकता है। २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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