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________________ - सन्मार्ग नहीं सूझता । २८ आर्थिक विषमता का कारण तृष्णा है, तृष्णा कभी शांत नहीं होती । तृष्णा तृष्णा को बढाती है, लोभ से लोभ पैदा होता है । इच्छाओं ओर तृष्णाओं को बढने से रोकना अपरिग्रह है। लोभासक्ति पर नियंत्रण लगाना अपरिग्रह है। अर्थ संचय आज के युग का प्रथम ध्येय है, आर्थिक संघर्ष और विषमता ने मानव जीवन को अशांति का अभिशार्प दे दिया है। अर्थजन्य विषमता से समाज बुरी तरह आक्रान्त है। किसी को झोपडपट्टी में सिर छिपाने को जगह नहीं और किसी के पास कई-कई भव्य भवन है। वही लोक परिग्रह को परिभाषित करते है; 'परि' = परितः सब ओर से, सब दिशाओं से, 'ग्रह' = ग्रहण करना, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना, चारों हाथों से लूट खसोट करना परिग्रह कहलाता है। मनुष्य परिग्रह के कारण असत्य बोलता है, चोरी करता है, दूसरे के साथ छल-कपट करता है। परिग्रह दो प्रकार का होता है आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत माया, लोभ, मान, क्रोध, रति, मिथ्यात्वव, स्त्रीवेद आदि आते है और बाह्य परिग्रह में मकान, खेत वस्त्र, पशु, दास-दासी, धन-धान्य आदि शामिल है। यदि कोई निर्धन है, लेकिन उसमें धनी बनने की आसक्ति या मोह है तो वह परिग्रही ही माना जायेगा। ज्योतिपुरुष महावीर ने वस्तुगत परिग्रह नहीं कहा, वरन् उन्होंने 'मुर्च्छा' को ही परिग्रह कहा है न सो परिग्गहो वुतो, नायपुतेण ताइणा मुच्छा परिग्गहो वुतो, इस वृतं महेसिणा ।। २९ उन्होंने परिमाण में आवश्यकतानुसार वस्तु-संग्रह और धनोपार्जन की स्वीकृति दी । आवश्यकता से अधिक धन संग्रहको उन्होने पाप कहा है और ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता। प्रेमचन्द धनी व्यक्ति को बडा नही समझते थे, क्योकिं बडा आदमी बनता है शोषण से लूट-खसोट से, बईमानी से दूसरों का हक छीनने से। गांधीजी ने सम्पति को जनसाधारण के प्रयोग के लिए 'ट्रस्टीशिप' का विचार दिया वह भी धनसंग्रह या परिग्रह के विरोधी थे। मार्क्सवाद में जो अर्थ का, पदार्थों का समान वितरण करने का आदर्श है वही अपरिग्रह है । इस्लाम में भी परिग्रह को निंदनीय माना गया है। समतावादी भूमि प्रदान करने के लिए आर्थिक विषमता की उँची होती दीवारों को तोडना होगा । भारतीय समाज में जातिवादी प्रथा एक अभिशाप है, कलंक है। एक जाति का व्यक्ति अपने को दूसरी जाति के व्यक्ति से श्रेष्ठ समझता है। शूद्र अछूत, अपृश्य समझे जाते थे । डॉ. आम्बेडकर जैसी राष्ट्र-विभूती को जातिवाद के कारण घृणा, अपमान का शिकार होना पडा फलतः उन्होने हिंदूधर्म का परित्याग कर बौद्धधर्म अंगीकार किया। इस शताब्दी की महानात्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अछूतों, शूद्रों को 'हरिजन' का नाम देकर समाज में आदर और समानता का दर्जा देने का भरसक प्रयत्न किया और उसमें वे कुछ सफल भी हुए। परन्तु हरिजनों पर आज भी यातनाओं की बिजली गिराई जाती है। अनेक स्थानों पर उन पर पुलिस द्वारा, उच्च जाति के लोगों द्वारा जुल्म ढाये जाते रहे है। कहने को तो हमारा संविधान धर्म, जाति से ऊपर है, धर्म और ज्ञाति निरपेक्ष है, परन्तु व्यवहार में हम कितने धर्मनिरपेक्ष या जातिनिरपेक्ष है ? सन् १९४७ से अब तक हम हरिजनों की दशा में सुधार नहीं कर सके। यह अवधि कोई कम नहीं है। राजनीति में धर्म, जाति का दखल नहीं होना चाहिए, राजनीति को धर्म में धर्म को राजनीति में नहीं लाना चाहिए। परन्तु निर्वाचन में जाति / धर्म के आधार पर 'पार्टी मेनडेट' दिया जाता है। मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिम को एम एल. ए. या एम. २८. उत्तराध्ययन ४ / ५२९. समणसुत्तं ३७९ २१० Jain Education International मानसिक चिंता फिक एक प्रकार की ठंडी आग है। For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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