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के खंडन में ही विद्वान जुटे हुए हैं। व्यवहार दृष्टि वाले अपने क्रिया-काण्ड और पुण्य क्रियाओं में मग्न हैं तो निश्चय वृष्टिवाले उनकी उपेक्षा और निंदा करने में व्यस्त हैं। दिगंबर मुनियों में भी जो जिस मुनि के भक्त है, उस मुनि के इशारे या कथन से तो लाखों रुपये खर्च कर देंगे पर दूसरे अच्छे और ऊँचे मुनि की ओर ध्यान भी नहीं देंगे। समदृष्टि की जगह विषमदृष्टि या भेद दृष्टि, दृष्टि राग के कारण ही होती हैं। एक ही संप्रदाय या संघ में व्यक्तियों के भी जो जिसके भक्त हैं, वे उन्हीं के प्रति श्रद्धाशील है। उसी संघ या संप्रदाय के दूसरे मुनि या आर्मिका के प्रति वैसा सद्भाव नहीं मिलेगा। श्वेताम्बर संप्रदाय में भी इसी दृष्टि राग का प्राध्यान्य है। परस्पर गच्छों के झगडे, तिथियों के विवाद चलते रहते हैं। एक तपागच्छ में ही जो रामसूरि के भक्त हैं, वे दूसरे समुदायवालों को उस रुप में नहीं मानेंगे। अपने माने हुए आचार्य या साधु ही सर्वोपरि है, दूसरे उनके सामने कुछ भी नहीं है, या साधु नहीं है, ऐसी धारणा बना लेंगे।
स्थानकवासी संप्रदाय से भी जो श्रमणसंघ के अनुयायी है वे उस. संघ के अमुक मुनि को ही विशेष मानेंगे। जैसे हस्तीमलजी को मानने वाले दूसरों को उस रूप में नहीं मानेंगे, नानालालजी को मानने वाले स्थानकवासी अन्य संप्रदाय के साधु-साहिवयों के प्रति उपेक्षाभाव रखेंगे, कहीं तो उनकी कटु आलोचना तक भी करते नजर आते हैं उर्थात दृष्टि राग का पदी उनकी आँखो और हृदय पर इतने गहरे छा जाते हैं कि दूसरे सब फिके और नीचे लगने लगते हैं। दूसरे संप्रदाय के व्यक्तियों को चाहे वे कितने ही अच्छे हो, उतना आदर नहीं दिया जाता। अपने संप्रदाय के भी अमुक व्यक्ति के प्रति दृष्टिराग बन गया है तो दूसरे के प्रति वैसा सद्भाव नहीं मिलता।
किसी धर्म-संप्रदाय के मुख्य आधार उसके देव गुरु और शास्त्र होते हैं। जब हम देव गुरु की चर्चा के बाद शास्त्र अर्थात मान्य ग्रन्थों की ओर दृष्टिपात करेंगे। जिससे धर्म के तीनों स्तम्भों आधारों पर दृष्टिराग कैसा छाया हुआ है, स्पष्ट हो जाएगा।
भगवना महावीर की जो कुछ भी वाणी बच पायी है वह जैन आगमों में उपलब्ध है। केवल कुछ साम्प्रदायिक मान्यताओं में अंतर पड जाता है इसलिए दिगम्बर सम्प्रदाय वालों ने यहाँ तक कह दिया कि प्राचीन जैन आगम सभी लुप्त हो चुके हैं। जबकि दिगम्बर ग्रंथो में ही उन आगमों का जो विवरण और वर्णन मिलता है, वह श्वेताम्बर मान्य आगमों में बहुत कुछ उसी रुप में प्राप्त है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी बतलाते हुए कहा गया है कि:
नाणं च दसणं देव चरित च तवो तहाँ।
वीरिय उवभोगो य एवं जीवस्य लक्खणं। अर्थात् जीव वहीं है, जिसमें ज्ञान-दर्शन चारित्र तप वीर्य (शक्ति) और उपयोग नामक गुण हैं। जीव का प्रमुख लक्षण बताया गया है- चैतन्य। जिसमें चेतना नहीं, वह अजीव हैं जड़ एक हैं, उसमें अनुभव और संवेदन शक्ति नहीं होती। अनादिकाल से जीव और अजीव अर्थात चैतन्य और जड़ साथ रहे हुए हैं। जीव ने पुदगल या जड़ का अपना मान लिया हैं। इस ममत्व राग, मोह या अज्ञान के कारण ही संसार में चक्कर काट रहा हैं। आत्मा-विस्मृति ही प्रसाद और मिध्यात्व हैं। पर को अपना मान लेना ही अनादिकाल की भूल हैं। और पुदगल से बने हुए शरीर और पदार्थों को अपना मान लेना राग-द्वेष के कारण ही होता हैं। इसलिए भी कर्म या संसार की जड़ रागभाव ही हैं। एक तत्वज्ञ महापुरुष ने बहुत ही संक्षेप और सरल रुप में कहा है कि
'कर्मन की जड़ राग हैं राग जरे जल जाया" अर्थात राग के कारण ही कर्मबंद होते है और राग के समाप्त होते ही कर्म भी जलकर भस्म हो जाते है। प्रत्येक जैनी को जैन धर्म के इस सारभूत वाक्य पर खुब चिंतन करना चाहिए और जितना भी संभव हो "राग-द्वेष" को कम करने और नष्ट करने का लक्ष्य रखते हुए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए पर वर्तमान में हमें अपने का इससे सर्वथा विपरीत पा रहे है। एक तरह से यह भी कह सकते है कि कई बार अन्य सामान्य जीवों की अपेक्षा भी जैनों में राग-द्वेष अधिक पाया जाता है। व्यावहारिक कार्यों में ही नहीं किन्तु उन आगमों की प्राचीनता और प्रामणिकता स्वीकार की है, पर हमारे दिगम्बर विद्वान उनके पठन-पाठन में उतनी रुचि नहीं लेते हैं। इसी तरह श्वेतांबर संप्रदाय में भी स्थानकवासी संप्रदाय बत्तीस सूत्रों के जितना महत्व देता है उतना उन्ही बत्तीस सूत्रों से नंदीसूत्र आदि में उल्लेखित अन्य आगमों को महत्व नहीं देता। तथापि वे आगम बहुत उपयोगी है और कईयों में तो उनके लिए बाधाजनक हों, ऐसी कोई बात तो नहीं मिलती। यधपि बत्तीस और पैतालीस संख्या का कोई महत्व नहीं है पर अपने-अपने संप्रदाय की दृष्टि गंध गई है। उस संकुचित-साप्रदायिक दृष्टि के कारण दूसरे अच्छे ग्रंथों की भी उपेक्षा की जाती है।
होना तो यह चाहिए कि 'सत्य' है, वह मेरा है, पर हो गया है, "जो में जानता है, जो मैं कहता है, जो मैं मानता हूँ" वहीं मेरा है, वही 'सत्य है। यह आग्रहशालता ही दृष्टिराग हैं। व्यक्ति पूजा को जैन धर्म में इसलिए महत्व नहीं दिया किंतु हम फिर उसी व्यक्ति-पूजा के घर में बंध गए हैं। मुल वस्तू को मुलकर बाहरी दाचे को सर्वस्व मानने लगे हैं। वास्तव में समदृष्टि और गुणदृष्टि को ही प्रधानता मिलनी चाहिए। आत्मकल्याण इसी में है। पर आज जैन समाज में दृष्टिराग का प्राधान्य हैं। उसको छोडे बिना हम सम्यक् दृष्टि नहीं हो सकते।सचे जैन नहीं हो सकते। महावीर के सचे अनुयायी भी नहीं हो सकते। इसलिए हमारे लिए यही हितकर हैं कि हम इस राग-द्वेष और उसमें भी दृष्टि राग को सर्वथा मिटाकर अपने आप को अनेकांत अनुयायी और सचा जैन प्रमाणित कर सके।
मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं।
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