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________________ सेवा सहयोग एवं समाज विकास के लिए बृहत् योजना लेखक - वस्तीमल जी. शाह, जवाली (राज.) श्री पार्थपद्मावती साधार्मिक फाउन्डेशन मानव सेवा का एक उपक्रम सेवा जीवन में सुवास भरती है एवं आत्म-विकास की ओर अग्रसर करती है। साधार्मिक भक्ति एवं सेवा का जैन धर्म में अत्यन्त महत्व बताया गया है। हमारे समाज के स्थिति अत्यन्त विषम है। निम्न मध्यम वर्गीय समाज भीषण महंगायी के कारण आर्थिक संकट मे फँसा हुआ है। अपने स्वाभिमान के कारण किसी के सामने हाथ पसारना पसंद नहीं करता, लेकिन असाध्य खर्चीली बिमारीओं, शिक्षा आदि के लिए निम्न मध्यम वर्गीय समाज के पास साधनों का अभाव है। व्यापार, छोटे उद्योग आदि न रहने के कारण आर्थिक स्थिति दिनोंदिन गिरती जा रही है। बम्बई जैसे महानगर में हमारा समाज झोपडपट्टियों में जीवन आवश्यक सुविधाओं से वांचित ही रहा है। समाज की इस दारुण परिस्थिति को देखकर पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म. एवं मुनि श्री लोकेन्द्रविजयजी म. का हृदय करुणा से भर उठा। उन्होंने निर्णय किया हैं कि साधर्मिक बन्धुओं के उत्थान, विकास रोजगार आदि के लिए समाज के सहयोग से कुछ किया जाय इस भावना का ही मूर्तरुप है " श्री पार्थपद्मावती साधार्मिक फाउन्डेशन' इसकी स्थापना कर ट्रस्ट मण्डल बना दिया गया है एवं २८ अक्टम्बर ९० कार्तिक शुक्ला नवमी को इसका विधिवत् उद्घाटन हो गया। यह ट्रस्ट समाज के दु:खी उन भाईयों के अंधकार भरे जीवन में प्रकाश, आशा एवं आस्था के लिए प्रयत्नशील रहेगा। खर्चीली बिमारीयों जैसे कैंसर, किडनी हार्ट आदि की चिकित्सा में आर्थिक सहयोग, उच्च अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ देना, युवावर्ग को छोटे उद्योगों एवं व्यापार के लिए सहयोग करना। महिलाओं को स्वालम्बि बनाने के लिए सिलाई मशीने उपलब्ध कराना जैसी विविध प्रवृत्तियों का इस ट्रस्ट द्वारा संचालन होगा। यह भी उल्लेखनीय है। कि इस ट्रस्ट में प्राप्त सहयोग राशी उसी वर्ष में खर्च की जावेगी। व्यापार के आधार पर इस ट्रस्ट का संचालन नहीं होगा। बल्की समाज से प्राप्त राशि सीधे जरुरतमंद भाई -बहनों तक पहुँचेगी। जैन समाज "परस्परोग्रही जीवानाम' के सिद्धान्त को मानता है। प्रत्येक प्राणी के प्रति उसके मन में दया, करुणा सेवा भावना है। अपने साधर्मिकों के प्रति तो जैन उदार पूर्वक सहयोग करेगा ही। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस ट्रस्ट को पूरे समाज द्वारा बड़ी राशि सहयोग में प्राप्त होगी। जिससे निम्न मध्यम वर्गीय समाज की सेवा का लाभ मिलेगा। सेवा ही सुगन्ध है, सेवा परम धर्म है और सेवा पुण्योपार्जन का अनुपम साधन है। १२४ वेदना या दुःख का पान करने वले अन्य को वेदना या दुःख दे ही नहीं सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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