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________________ का तो हैं ही। उस समय जब भाषा का प्रयोग ठीक शुरु नहीं हुआ था। व्यक्ति प्रसन्नता और उत्साह के क्षणों में मन के उदगारों को विभिन्न हावभाव उछलने कूदने तथा विभिन्न ध्वनियों के द्वारा अभिव्यक्त करता था। धीरे धीरे उन विशिष्ट ध्वनि समूहों को स्थायी बना लिया गया। समय के साथ साथ उसमें सुधार होता गया। आगे चलकर वही लोक संगीत बन गया। जहाँ मनुष्य ने आग का अविष्कार किया। शिकार और सुरक्षा के लिए हथियारों का प्रयोग किया वहीं उसने अपने मनोरंजन के लिए संगीत के बांस यंत्र बनाये। वे वाद्ययंत्र पत्थर, लकड़ी और पशुओं के "सोधी के हुआ करते थे। 'सींघी' वाद्य जो कि पशुओं के सींघ से बनाया गया है जो उसी आखेट युग का है। इससे प्रकट होता है कि बिल्कुल प्रारंभिक काल में भी मनुष्य संगीत से प्रभावित होता है। हमारे यहाँ आदिम जातियों में संगीत के प्रति बहुत लगाव है। वे जातियाँ जो अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। शिक्षा का उनमें कोई प्रचार-प्रसार नहीं है। आज की शहरी सभ्यता तथा समस्त विकास से वे पूर्ण तथा अपरिचित है, फिर भी संगीत उनके जीवन का एक आवश्यक अंग है। विवाह जन्म और अन्य शुभ अवसरों पर सामूहिक गायन और नृत्य का आयोजन होता ही है। मेले तथा सार्वजनिक उत्सवों पर पुरुष और महिलाओं मादल, ढोल, बांस की मनोहारी धुन और थाली की झनकार पर झुमते गाते लोगों को देखकर लगता है संगीत इनसे गहराई तक उतरा हुआ है। शिक्षा इन्हें प्रभावित नहीं कर सकी, शहरी चमक-दमक का इन पर कोई असर नहीं पड़ा पर संगीत इन्हें जरूर छू गया। क्या इससे बढ़कर है कोई और साधन जो व्यक्ति को ऐसे अद्भुत आनन्द में डूबो दे? शायद नहीं हमारे प्राचीन कवि इस बात को खूब अच्छी तरह जानते थे कि कविता को संगीत के द्वारा ही व्यक्ति की अन्तरआत्मा तक पहुँचाया जा सकता है तभी तो उन्होंने अपने काव्य में संगीत को प्रधानता दी है। तुलसीदास, सूरदास, संत तुकाराम दादू दयाल, कबीरदास और मीराबाई आदि रचनाकारों ने मनुष्य के स्वभावको सामने रख साहित्य की रचना की है। रामचरित मानस जितनी पढ़े लिखें और देहातियों में पढ़ी और सुनी जाती है। सुरदास और कबिरदास जन-जन के गायक बने तथा मीरा के गीत कंठ-गंठ के स्वर बनकर अमर हो उठे। इन कविओं की इतनी लोक प्रियता का कारण यह है उन्होंने संगीत का सहारा लिया। अपनी रचनाओं में रस और ज्ञेयता का विशेष ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाएँ जन-जन तक पहुँच कर अमर हो गई। पंत प्रासाद निराला, महादेवी वर्मा और हरिवंशराय बच्चन ने इसी सिद्धान्त को अपनाया। आज के रचनाकार योग्यता के मामले में बहुत आगे हैं। उनका लेखन भी बहुत सशक्त है। फिर भी उनकी बात जन सामान्य को छूती नहीं, उन्हें बेचैन नही करती, सोचने के लिए उकसाती नहीं। इसका सीधा सा कारण यह हैं कि आज की कविता में रस समाप्त हो गया है। कविता से संगीत पक्ष को निकाल दिया गया फलत: कविता बेजान हो गई है। अब रचनाकार लिखता तो बहुत है, सप्रयास अच्छा भी लिखता हैं पर वह जन-जन तक पहुँचता नहीं। भुले भटके पहुँच भी जाता है तो असर नहीं करता। कविता केवल शब्द ही नहीं रस भी है, लय भी है तथा भाव भी हैं और वह सब संगीत के बिना कहाँ संभव? संगीत के बिना कविता शुष्क हो गई। उसमें अकाल ग्रस्त खेत की तरह तीडें पड़ गई हैं। कितने ही वाद खडे हो गये हैं और जन-जन के दु:ख तकलिफों को उकेरने और जन चेतना का दावा करने वाली कविता अपने आपसी झघडों में पड़कर नष्ट होती जा रही हैं। संगीत समानता के भाव को जन्म देता है। सहयोग, उदारता तथा परस्पर में भी सिखाता दोषों का स्वयं निरीक्षण करे, निरीक्षण करने बाद उसका संशोधन करे। ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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