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________________ किया जाता है। माँ के गर्भ में पल रहा शिशु योजनली (Placenta) द्वारा आहार ग्रहण करता है। शिशु जब गर्भ में विकास कर रहा होता है तब उसे यह ज्ञान नहीं होता है कि किस प्रकार से आहार लिया जाए इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने हेतु कोई निश्चित अंग भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पाता है। लेकिन जीव को अपनी जीवन-रक्षा के लिए आहार तो लेना ही पड़ता है। अत: शिशु को नाभिनाल या योजनाली निकल आती है और इसीके माध्यम से उसे आहार की आपूर्ति होती रहती है। आहार के रुप में शिशु माता के रजांश का ही उपभोग करता है और यह रजांश उसके उत्पत्ति स्थान को चारों तरफ से घेरे रहता है। जीव वैज्ञानिको ने अमीबा नामक जीव को भी ओजाहारी ही कहा है। यह एक अत्यंत सूक्ष्म जीव है और मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श से युक्त होता है। परंतु हमें यहाँ यह भी जानना होगा कि अमीबा जैन ग्रंथों में प्रतिपादित एकेन्द्रिय से बिलकुल अलग है। क्योंकि जैनाचार्योंने जिन एकेन्द्रिय की व्याख्या की है वह स्थावर है जबकि अमीबा एकेन्द्रिय होते हए भी त्रस अर्थात गतिशील है। अमीबा जिस वस्तु का आहार करना चाहता है उसे चारों तरफ से घेर लेता है। इस हेतु वह स्यूडोपोडिया (Psuedopodia) का निर्माण करता है जो उसके शरीर से निर्मित होते है। जब वह आहार कर लेता है तो उसका स्यूडोपोडिया समाप्त हो जाता है। ओजाहार के संबंधमें यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शरीर द्वारा अर्थात् त्वचा की सहायता से होता है। जीव विज्ञान में कुछ ऐसे भी जीवों का उल्लेख किया गया है जो दूसरे जीवों के शरीर में उत्पन्न होते हैं, वहीं निवास करते हैं, वहीं संतानोत्पति करते हैं, जीवन की संपूर्ण क्रियाओं का सम्पादन करते हैं और मृत्यु को भी प्राप्त करते है। उन्हें परजीवी (Parasites) कहा जाता है। ये सभी परजीवी ओजाहारी होते हैं। मलेरिया, फाइलेरिया जैसे रोगों का कारण ये परजीवी ही हैं। ये मच्छर मनुष्य, पशु के शरीर में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हैं। प्रक्रिया इस प्रकार चलती है मच्छर (मादा) जब मनुष्य को काटती है तब उसके शरीर में पल रहा परजीवी मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह मनुष्य के शरीर में पहले यकृत (Liver) में पलता है तत्पश्चात् वहाँ से लाल रक्त में चला आता है। यहाँ यह लाल रक्त कणों को अपना आहार बनाता है। अब जब मच्छर पुन: प्रभावित व्यक्ति को काटता है (खून चूसता है) तो वह परजीवी मच्छर के शरीर में चला आता है और इस तरह से यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। चूंकि ये परजीवी अपने उत्पत्तिस्थान में स्थित पुद्गल (लहू के कण) का ही आहार करते हैं और यह ओजाहार के रूप में ही लिया जा सकता है और यही कारण है कि मलेरिया आदि जैसे रोगों को फैलानेवाले परजीवी ओजाहारी कहे गए हैं। वनस्पति को भी एकेन्द्रिय और स्थावर जीव माना गया है। ये भी 'ओजाहारी ही होते हैं। आहार की इस प्रक्रिया में वनस्पति या पौधे अपनी पत्तियों, शाखाओं, शरीर के समस्त हरे भाग (पर्णशाद) द्वारा वायुमंडल से कार्बनडायइक्साइड गैस को सोखते हैं। फिर वे शोषित पदार्थ जड़ों से आए भोजन के जलीय भाग में धुल जाते हैं। तत्पश्चात् प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया द्वारा इसमें रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिससे शक्कर बनता है। इसी शक्कर का कुछ ममता यदि ज्ञान पूर्ण हो तो वह सांसारिकों के लिए उत्तम है। २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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