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संपादकीय
परिवर्तन सृष्टि का सहज नियम है। यह नियम अटल, अचल, अप्रतिम और अपूर्व है।
अपूर्व और अप्रतिम इस अर्थ में कि सृष्टि का हर
परिवर्तन चिरनवीन होता है जो हमने देखा-समझा। वह हमारा जीवन्त अनुभव है। वह भी चिर नवीन होता है। "कागज की लिखी नही आखिन देखी बात।" वास्तव में हमारा प्रत्येक मौलिक अनुभव भी सृष्टि
के सहज नियम के समान अपूर्व और अप्रतिम होता है। अनुभव और परिवर्तन दोनो इस घरातल पर एक समान है।
अनुभव और परिवर्तन की अपूर्वता से उसकें अद्वितिय गुणधर्म से स्थिति मनोनुकूल बनती है। और मनोनुकूल स्थिरता से सुखशांति मिलती है।
चंचल मनोवृति मानव सुखद आनन्दमयी स्थिति को व्यक्तिगत कारणों से स्वार्थवश दुखद और त्रासद वातावरण में परिवर्तित कर देता है। निहित स्वार्थ व्यक्ति परिस्थिति
जन्य घटनाओं के माध्यम से समाज और राष्ट्र में अस्थिरता का वातावरण निर्मित कर जन समाज को दुख और संताप के गहरे समुद्र में हुबो देने की चेष्ठा करते है। अस्थिर मन:स्थिति में मनुष्य प्रायः घटनाओ और परिस्थितियों का दास बनता चला जाता है।
बन्धनहीन जन्मा जीव परिस्थितियों के बन्धन में बंध कर अपनी इयता खो बैठता है। उसका अपनापन, उसका स्वाभिमान, उसकी आत्मनिर्भरता-इस सबकी हानि होती है। बंधनो में जकड़ी मानवता करुण स्वर में दया पुकार करती है। उसकी गुहार सुनकर पवित्र आत्माओं का बारंबार आविर्भाव होता है। उनका पावन जन्म यो तो घटना मात्र है। परन्तु सृष्टी के सहज नियम का परिपालन भी है। समाज, राष्ट्र और मानवता को दुष्प्रवृतियों के घातक प्रहार से बचाने के लिए पवित्र आत्माओं का आगमन सदा शुभ सुचक और सुखदायक होता है।
इस आविर्भाव परम्परा में श्री आदिनाथ भगवान की परम्परा सर्वत्र अवाणी रही है। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महाश्रमण भगवान श्री आदिनाथजी की परम्परा अति प्राचिन है। वैदिक काल ने जब आँखे भी नहीं खोली थी। राम, कृष्ण, गौतम, महावीर आदि पावन सद्धर्मोद्धारक युग पुरुष आत्माओ के आविर्भाव से पूर्व भगवान श्री आदिनाथ जी की परम्परा का अस्तित्व था।
प्रवृति के बन्धन से मुक्त कर मानव को निवृत मार्ग पर अग्रसर करनेवाली यह परम्परा अक्षय है, अक्षुण्ण है। सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में क्या.... कलियुग में भी इस परम्परा की अक्षरता - अक्षुण्णता बनी रही है और बनी रहेगी।
वर्तमान युग में यह परम्परा भारत में भले ही अपने विकसित विराट रूप में. ओझल सी लगती है। परन्तु पंथ विशेष में वह आज भी विद्यमान है। आज भी भारतीय मानवमन प्रवृति मार्ग छोड कर निवृति के मार्ग पर असर होता है। तो वह ऐसे ही संस्कार जन्य पूत पावन आत्मावतरण से, इनके उपदेश वचनामृत से।
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स्वत: के अन्तःकरण को शुद्ध-स्वच्छ कर बर, द्रोह क्रोधादि शत्रुओं पर जय करना, सत्य मार्ग की साधना में डूबे रहना
ही साधुत्व है। मंदिर, मठ, उपाश्रय, संस्था में यह सौरभ नही। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
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