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________________ वह पराधीन हैं, सबसे बड़ा भिखारी है, जिसमें अनन्त अभिलाषा है, संतोष नहीं। राजा या रंक किसी बादशाह का लश्कर जा रहा था। किसी पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई की तैयारी थी। हाथी-घोडों, रथ और प्यादों के बीच में एक सजे-धजे हाथी के हौदे पर बादशाह सीना तान कर बैठा था। अकस्मात एक ओर से एक रुपया सन्नाता हुआ आया और सीधा शहनशाह की नाक पर लगा। वे पीड़ा से तिलमिला उठे। उन्हें हौदे से उतारा गया। कुछ लोग उनके उपचार में जुट गये और कुछ इस तलाश में निकल पड़े कि यह रुपया उन पर किसने फेका। थोड़ी ही देर में वे एक सन्त को पकड़ कर लाये"यही वह गुनहगार है जिसने हुजूर को चोट पहुंचाई है।" शहंशाह तो अपनी चोट की पीड़ा भोग रहे थे परन्तु उनका सेनापति क्रोध से उबल रहा था। बहुत दर्द भरे स्वर में उसने सन्त से प्रश्न किया-"बादशाह पर हमला करने की तुम्हें हिम्मत कैसे हुई?" "मैने शहंशाह को चोट पहुंचाने वाला कोई काम नहीं किया। किसी भक्त ने मुझे एक रुपया दिया था। मैने वह रूपया अपने गुरु की नज़र किया। उन्होने रूपया मुझे लौटा दिया और कहा - "फकीर कभी रूपया पैसा अपने पास नहीं रखते। इसे किसी जरूरतमन्द को दे देना। रात भर यह रूपया मेरी झोली में था, लेकिन इसका बोझ मेरे मन पर बना हुआ था। इसके होने का अहसास बराबर मेरी रूह को बेचैन किये हुए था। वह मुझे चुभ रहा था। सुबह से मैं इसी तलाश में इस सड़क के किनारे बैठा हूं कि कोई जरूरतमन्द नज़र आवे और उसे यह रूपया सौंप कर मैं अपना बोझ हलका करूं।" फकीर ने बादशाह की ओर मुखातिब होकर नम्रता से कहा-"आप दिखे, लेकिन आप इतनी ऊंचाई पर बैठे हुए थे कि मुझे यह रूपया निशाना साध कर आपकी ओर उछालना पड़ा। जरूरतमन्द को इतना ऊंचा नहीं बैठना चाहिए कि किसी मददगार का हाथ ही उस तक न पहुंच सके। फिर आपके हाथ में कोई कटोरा भी न था, इसीलिए रूपया आपके चेहरे पर गिरा। मैं सिर्फ आपकी मदद करना चाहता था। आपको चोट पहुंचाना मेरा मकसद नहीं था।" दर्द के बीच भी फकीर की बातों पर बादशाह को हंसी आ गई। "तुमने मुझे जरूरतमंद और रूपये का मोहताज समझ लिया यह तुम्हारी बुद्धि की बलिहारी है।" फकीर ने मुस्कुराते पूछा हुए कहा - "जहाँपनाह! मैं तो आपको पहिचानता भी नहीं था। मैने आपके सिपहसालारों से ही पूछा। मुझे बताया गया कि आप पड़ोस की रियासत पर चढ़ाई करके उसे अपनी सल्तनत में शामिल करने की गरज से घर से निकले हैं। मैने अपनी जिन्दगी में बहुत से जरूरतमन्द लोग देखें हैं, लेकिन उनकी जरूरतें बहुत छोटी, बहुत मामूली किस्म की हुआ करती थीं। आप जैसा बड़ा और रौब-दाब वाला जरूरतमंद आज पहलीबार अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। २७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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