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आश्रय एवं संसार से मुक्त होना है।
६ संवर कर्म आने के द्वार को रोकना संवर है। संवर आश्रव का विरोधी तत्त्व है। आश्रव कर्म रूप जल के आने की नाली के समान है। और उसी नाली को रोक कर कर्मरुप जल के आने का मार्ग बन्द कर लेना या उस मार्गको अवरूद्ध कर देना संवरका कार्य है। संवर आश्रव निरोध की प्रक्रिया है । १८ उससे नवीन कर्मोंका आगमन नहीं होता है। संवरके दो भेद १९ हैं। द्रव्य संवर और भाव संवर। इन में कर्म पुद्गल के ग्रहण का छेदन या निरोध करना द्रव्य संवर है और संसार वृद्धि में कारणभूत क्रियाओं का त्याग करना, आत्माका शुद्ध उपयोग अर्थात् समिति, गुप्ति आदि भाव संवर है संवरकी सिद्धि गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्रसे होती है। संवर के मुख्य भेद पांच हैं। उन के नाम इस प्रकार प्रतिपादित हैं ।
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२ व्रत !
ये पांच भेद आश्रव के विरोधी है, संवर के
च - पंचास्तिकाय २/१४२, अमृतचन्द्र वृत्ति !
पंचास्तिकाय २ / १४२, जयसेन वृत्ति !
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२० क तत्त्वार्थसूत्र ९ /१९-२० /
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ख - उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ३४ /३० / ७
२१ क प्रकृतिस्थित्यनु भाग प्रदेशास्तद्विधयः तत्त्वार्थ सूत्र ८ / ४ !
ख प्रकृतिस्थित्यनुभाग भेदाब चतुर्धा !
षट्दर्शन समुचय पृ. २७७ / वन प्रकार भी है।
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सम्यक्त्व !
७ निर्जरा तत्त्व आत्मा पर जो कर्मावरण है। उसे तप आदि के द्वारा क्षय किया जाता है। कर्म क्षय का हेतु होने से तप को भी निर्जरा कहते हैं। तप के बारह भेद होने से निर्जरा के भी बारह प्रकार हैं।२० उन के नाम इस प्रकार हैं।
७ प्रायश्चित्त!
८ विनय
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१ - अनशन !
२ - ऊबो दरी !
३- मिक्षाचरी!
४ रस परित्याग !
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५- अयोस - अप्रमाद !
४
अकषाय !
विस्तार से बीस भेद और सत्ता
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१८ क १९ क ग योगशास्त्र ७९८० घ - २०. क तत्त्वार्थसूत्र ९ / १९-२०
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५ कामक्लेश !
११
ध्यान !
६ - प्रति संलीनता !
१२ - कायोत्सर्ग !
संवर नवीन आनेवाले कर्मों का निरोध है, परन्तु अकेला संवर मुक्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। नौका में छिद्रों द्वारा जल का आना 'आश्रव है छिद्र बन्द कर के पानी रोक देना "संवर" है परन्तु जो पानी आ चुका है, उस का क्या हो ? उसे धीरे-धीरे उचीलना ही पडेगा, बस, यही निर्जरा है । निर्जरा का अर्थ है -जर्जरित कर देना !
तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन ९ सूत्र १, ख - ९ सूत्र - १, ख - योगशास्त्र - ७६ पृष्ठ - ४ स्थानांग सूत्र टीका १/१४ ख सप्ततत्त्वप्रकरण ११२ ! !, सर्वार्थसिद्धि ९/१, ङ द्रव्य संग्रह - २ / ३४ ! ख उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ३४ /३० / ७
आस-पास के संसार को भूले बिना, तन्मयता मिलती ही नहीं और तन्मयता बिना कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं कर सकता।
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वैयावृत्य !
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स्वाध्याय !
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