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________________ रक्त-शुद्धि होती है। इसके अतिरिक्त सामान्य श्वास से ग्रहण की हुई प्राणवायु शरीर के प्रत्येक अवयव में पूर्णरूप से नहीं पहुँच पाती, जबकि दीर्घश्वास द्वारा ग्रहण की हुई प्राणवायु फेफड़ों, शरीर आदि के लगभग सभी अंगों में पहुंच जाती है। दीर्घवास का अभिप्राय है - गहरा श्वास लेना। इतना गहरा कि रीढ़ की हड्डी के अन्तिम सिरे (गुदा-मूल) तक पहुँच जाय। क्योंकि यहीं मूलाधार चक्र है, जो ऊर्जाकेन्द्र है और यहीं कुण्डलिनी का मुख है, यहीं से साधक सुषुम्ना नाड़ी में होता हुआ अन्य सभी चैतन्य केन्द्रों के चक्रों को जागृत करता है। दीर्घश्वास के विषय में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह लयबद्ध और सामान्य समय वाली हो। प्रथम दीर्घश्वास में जितना समय-यथा-१५ सेकेंड लगें तो दूसरी दीर्घ श्वास तथा आगे की अन्य प्रत्येक दीर्घश्वास में भी १५ सेकेंड का ही समय लगना चाहिए, न कम न ज्यादा। हाँ तो अब हम दीर्घश्वास का अभ्यास करें। प्रथम आप सब सुखासन अथवा पदमासन में स्थित हो जाये। मेरूदण्ड, ग्रीवा, कपाल सब एक सीध में रहें बिल्कुल स्ट्रेट लाइन में। शरीर न अधिक तना हुआ रहे न शिथिल, सहज मुद्रा रखें, हृदय में प्रसन्नता, उत्साह हो तथा मुख पर मधुर मुस्कान। अब दीर्घ सांस लें। प्रथम बार, द्वितीय बार और तीसरी बार। तीन दीर्घश्वासों का अभ्यास प्रारम्भिक दशा में यथेष्ट है। सौम्य भस्त्रिका क्रिया :- भस्त्रिका प्राणायाम का ही एक प्रकार है। मैंने इसको 'सौम्य' नाम दिया है। कुछ योग ग्रन्थों में इसको 'समशीतोष्ण' भी कहा गया है। इसका कारण यह है कि यह प्राणायाम क्रिया न तो शरीर और मन में अधिक शीत उत्पन्न करती है और न ही अधिक उष्णता लाती है। अपितु सौम्यावस्था में ही शरीर तथा मन रहते हैं। इसी विशेषता के कारणं इसका सौम्य नाम उचित है। अब इस भस्त्रिका प्राणायाम की क्रिया विधि समझ लें। इसे चार प्रकार से किया जाता है (१) मध्यम भस्त्रिका (२) वाम भस्त्रिका (३) दक्षिण भस्त्रिका और (४) अनुलोम प्रतिलोम भस्त्रिका। (१) मध्यम भस्त्रिका - लुहार की धमनी के समान दोनों नासापुटों से पूरी शक्ति लगाकर दीर्घ श्वास का मूलाधार चक्र तक पूरक करें और तत्काल रेचन (भरी प्राण वायु को निकाल देना) कर दें। इस तरह नौ बार करें तथा दशवीं बार कुम्भक (कुछ समय तक मूलाधार चक्र में वायु को रोककर) करके रेचन कर दें। यह एक प्राणायाम हुआ। इस प्रकार के प्रारम्भ में तीन प्राणायाम करें। फिर शक्ति के अनुसार बढ़ाते जायें। (२) वाम भस्त्रिका - दाहिने नासापुट को अँगूठे अथवा तर्जनी अँगुली से दबाकर बन्द कर दें, वाम नासापुट से दीर्घश्वास लें। इसकी शेष क्रिया मध्यम भस्त्रिका के समान है। (३) दक्षिण भस्त्रिका - बायें नासापुट को अँगूठे से बन्द करके दाहिने नासापुट से दीर्घश्वास लें। शेष विधि मध्यम भस्त्रिका के समान ही करें। ३३२ संसार में रोग कभी नष्ट नहीं हुए कारण मनुष्य शरीर स्वत: रोगाय तन सम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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