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________________ भौक्तृत्व और स्वाभाविक भौक्तृत्व। स्वाभाविक कर्तृत्व प्रत्येक द्रव्य में निरन्तर परिणमन होता रहता है, परिवर्तन होता रहता है। आत्मा उस परिणमन की कर्ता है। आत्मा अपने स्वाभाव को करती है, उसका कर्तृत्व-भाव निरन्तर चलता रहता है। यदि एक क्षण भी उसका कर्तृत्वभाव बन्द हो जाए तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाए। उसे निरन्तर कुछ न कुछ करना होता है। पारिभाषिक शब्दावली में इसे कहा गया -अर्थपर्याय, स्वाभाविक पर्याय, स्वाभाविक परिणमन। परिवर्तन का चक्का स्वभाव से निरन्तर घूमता रहता है, कभी बन्द नहीं होता। आत्मा में निरन्तर परिणमन होता रहता है, इसलिए उसका अस्तित्व टिका रहता है। परिणमन बन्द हो जाए तो उसका अस्तित्व भी बन्द हो जाए। एक क्षण में आत्मा का अस्तित्व है। यदि वह दूसरे क्षण के योग्य अपने अस्तित्व को न बना सके तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अपने अस्तित्व को टिकाए रखने लिए प्रतिक्षण करना होता है और यही आत्मा का स्वाभाविक कर्तृत्व है। वैभाविक कर्तृत्व ___ एक आत्मा मनुष्य बन गई और एक आत्मा पशु बन गई। एक आत्मा तिर्यंच योनि में चली गई, एक नरक गति में चली गई, एक देव गति में चली गई। यह है, वैभाविक कर्तृत्व।व्यक्ति अपने कर्तृत्व से मनुष्य बना है, उसे कोई बनाने वाला नहीं है। अपने कर्तृत्व से ही वह पशु गति में चली जाती है। यह उसका वैभाविक कर्तृत्व है। उसने अपने साथ एक ऐसा जाल रच रखा है जिसके कारण उसका कर्तृत्व चलता है और उस नाना गतियों में भ्रमण करना पडता है। यह गतिवाद, नाना गतियों में परिभ्रमण का चक्र आत्मा के कर्तृत्व के आधार . पर चलता है। उसे दूसरा कोई करने वाला नहीं है। प्रश्न सुख-दुःख का इस कर्तृत्व के सिद्धांत के आधार पर साधना का एक बहुत बड़ा सूत्र प्रस्तुत होता है-दुनिया में कोई किसी को सुख-दु:ख नहीं देता। यह मानना मिथ्या है कि अमुक आदमी ने मुझे सुख दिया और अमुक आदमी ने मुझे दु:ख दिया। साधक कभी अपने सुख और दुःख को दूसरे पर आरोपित नहीं कर सकता। इस तथ्य को समझने में कुछ कठिनाई हो सकती है। प्रत्येक आदमी कहता है - उसने मुझे सुखी बना दिया और उसने मुझे बड़ा दु:खी बना दिया। सुख दु:ख का आरोपण दूसरों पर होता है। आदमी अपने आपको बचा लेता है और दूसरों पर आरोपण कर देता है। यह मिथ्या भ्रम है। इसका टूटना बहुत जरुरी है। __ दूसरा आदमी कुछ भी नहीं करता, ऐसी बात नहीं है। वह किसी को सुख देना चाह सकता है और किसी को दु:ख देना भी चाह सकता है। किन्तु उसके वश में नहीं है कि वह किसी को सुख दे सके और किसी को दु:ख दे सके। वह केवल सुख के साधनों को जुटा सकता है, द:ख के साधनो को जुटा सकता है। वह द:ख देने वाले वातावरण और परिस्थिति का निर्माण कर सकता है, सुख देने वाले वातावरण या परिस्थिति का निर्माण कर सकता है। इससे आगे उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। वह सुख-दु:ख दे नहीं सकता, उनका निमित्त बन सकता है। २०० अनन्त पाप के बोझ से जिसका ज्ञान विलुप्त हो जाता है वे कभी भी समझदारी पा नहीं सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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