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जिस व्यक्ति के जीवन में इतना घटित हो जाए, वही निर्भीक होकर सम्मान-पूर्ण जीवन जी सकता है। कबीर ने कहा - "वांछा समाप्त होते ही सारी चिन्तायें नष्ट हो गई। मन निश्चिन्त हो गया। ठीक ही तो है, जिन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिये वे तो शाहों के भी शाह हैं।"
चाह गई, चिन्ता मिटी, मनुवा बे-परवाह, जिनकौं कछु न चाहिये, सो साहन पति साह।
-कबीर परिग्रह की लालसा पर अंकुश लगाने का एक मात्र उपाय है संतोष। जब तक हम अपनी इच्छाओं और आवश्यक्ताओं की सीमा निर्धारित नहीं करेंगे, और जब तक हम प्राप्त सामग्री में संतुष्ट और सुखी रहने की कला नहीं सीख लेंगे, तब तक तृष्णा की दाहक ज्वालाओं में हमें जलना ही होगा। परिग्रह से मोह बढ़ेगा और उससे तृष्णा की ज्वालायें और ऊंची होती जायेंगी। एक पद की दो पंक्तियां हैं
रे मन कर सदा संतोष,
जातें मिटत सब दुख-दोष बदें परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिस्ना होत, बहुत इंधन जरत जैसें, अगिनि ऊंची जोत।
-दौलतराम/अध्यात्म पदावली समस्या यह है कि संतोष प्राप्त कैसे हो? सारा जीवन तो भौतिक उपलब्धियों की स्पर्धा की दौड़ बनकर रह गया है। कोई वस्तु जब तक मिलती नहीं है तब तक उसकी प्राप्ति में ही सुख और संतोष दिखाई देता है। जब वह मिल जाती है तब वस्तु तो हम सहेज लेते हैं, परन्तु उसमें सुख या संतोष कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। तब तक हमारी द्रष्टि किसी अन्य अप्राप्त वस्तु पर लग जाती है। उसके बिना सब कुछ फीका लगने लगता
ऋषियों के उपदेशों पर चलकर मनुष्य तम से प्रकाश की ओर बढ़ा हो या नहीं, उसने मृत्यु से अमरत्व की ओर पग बढ़ाये हों या नहीं, परन्तु अपनी परिग्रह-प्रियता से प्रेरित वह भौतिकता के क्षेत्र में उपलब्ध से अनुपलब्ध की ओर निरतंर बड़ी तेजी से दौड़ रहा है। विचार करना चाहिये हमें कि हमारी इस लक्ष्य हीन और थकाने-भरमाने वाली दौड़ का अंत कब होगा? कहाँ होगा? और कैसे होगा?
जहां प्रेम, करुणा, वात्सल्य आहर साधुत्व है उसी की जय होगी।
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