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________________ व्यवस्था देखें तो सभी अपने-अपने हिसाब से महोत्सव मनाते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है। यह समस्या पूरे जैन समाज में व्यापी हैं। एक और बात जो अति महत्वपूर्ण है वह यह है कि भगवान महावीर ने जैन धर्म की संस्थापना की तो उस समय उन्होंने यह नहीं कहा था कि मैं श्वेताम्बर जैन का महावीर हूँ। मैं स्थानकवासी जैन का महावीर हूँ मैं तेरापंथी जैन समाज का महावीर हूँ मैं तीनथुई का महावीर हूँ। मैं चारथूई का महावीर हूँ। मैं दिगम्बर जैन का महावीर हूँ। और इसमें भी और अन्यान्य पंथ चलादिये गये है और वे सभी महावीर के ही अपने को अनुयायी मानते है तो यह अलगाववाह काहे का है। यह समझ से परे है किंतु इसकी गहराई में जाना आवश्यक है । इस विघटन की गहराई की जड़ है हमारे मार्गदर्शक संत समुदाय जो स्वयं महावीर के संदेश को समाज में फैलाते है किंतु उसमें अपना महत्व बनाये रखने के लिये अपना पंथ, फिरका, गच्छ और न जाने क्या से क्या व्यवस्था करने जा रहे है। समाज को जोड़ने की बात वे अपने पंथ और अनुयायियो तक ही सीमित रखना चाह रहे हैं। वे समग्र दृष्टिकोण से यह नहीं सोच रहे है कि वे भगवान महावीर के सिद्धांतो को जगतमें फैलाके एकता इस प्रकार से स्थापित कर रहे है जिसका अलग से कोई महत्व नहीं रहेगा। चार व्यक्तियों ने अपना संगठन १०० व्यक्तियों से अलग बनाया तो उसका कितना महत्व होगा हम सोच सकते है। आज पूरे जैन समाज की यह स्थिति है। सब अपना अपना राग अपनी अपनी दफली वाली कहावत चरीतार्थ कर रहे हैं। जिस समाज के मार्गदर्शक उपर से एक होने की बात करते है वे स्वयं एक नहीं हो पाते है। एक कहता है इसमें भगवान महावीरने यह कहा है तो दूसरा कहता है नहीं इस प्रकार से नहीं कहा है। हम अच्छी एकता के लिये छोटासा उदाहरण लेवें कि मिलेट्री में कमान्डर के अन्डर में जितने सैनिक कमान में होते है वे अपने एक ही कमान्डर का आर्डर मानते है उससे वे अलग नहीं जाते है इसी प्रकार से जैन समाज के लिये आज यह दुःखद स्थिति है कि हर संत और मार्गदर्शक, अगुआ अपने आप को समाज का कमान्डर समझाता है और जैसा चाहे उन्हें चला रहा है। एक संत कहना है संवत्सरी चतुर्थी को होना चाहिये तो दूसरा संत कहता है संवत्सरी पंचमी को होना चाहिये। मंदीर मार्गों के पर्व पर्युषण आज प्रारंभ होते है तो स्थानकवासी समाज के दूसरे दिन प्रारंभ होगे क्यों दूसरे दिन मनाने से या पहले दिन न मनाने से वे पर्युषण नहीं कहलायेगा। यह मतभिन्नता आज पूरे जैन समाज को टुकड़ो में बांटे हुए है। पूरे समाज की एकता इन छोटी-छोटी बातों के कारण छिन्न भिन्न हो रही है । दिगम्बर जैन समाज भगवान महावीर की पूजा मंदीर में ही करता है किंतु उसकी पूजा पद्धति श्वेताम्बर जैन से अलग है। स्थानकवासी जैन समाज मानता उसी भगवान महावीर को किंतु वह मूर्ति पूजक नहीं हैं क्यों मूर्तिपूजक होने या न होने से भगवान महावीर अलग-अलग तो नहीं रहे है भगवान महावीर तो एकही हुए है यह सर्वमान्य हैं फिरभी उनके नाम पर ३५८ Jain Education International संसार के छोटे-बडे प्रत्येक व्यक्ति आशा और कल्पना के जाल में फंस कर भव भ्रमर करते रहते है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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