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________________ सारे कार्यों को अलग-अलग रूपों में बांटकर क्यों माना जा रहा है। दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तैरापंथी, और अन्यान्य पंथों में आपसी व्यवहार करने में संकोच करते है। आपसी संबंध, रिश्तें तै करने में ये पंथ आडे आ रहे है। कैसे एकता होगी। उसी नवकार महामंत्र को सबने अपने-अपने ढंग से तोड़ मरोड़कर अभी ज्यादा विकृत नहीं किया है कोई दो लाईन ज्यादा बोलता है तो दो लाईन कम। जैन समाज पहले से ही अन्य समाजकी तुलना संख्या कम है और फिर उसमें भी अलग-अलग फिरकों में बंटने से नगण्य दिखाई देने है। आज यदि जैन समाज के स्थानक पंथ पर कोई बात हावी होती है तो उसे वहीं निपटता है, अन्य पंथ पर हुई है तो वहीं स्वयं निपटता है समग्र जैन समाज की एकता की स्थिति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है। इन सब मतभिन्नता का मात्र मेरी नजर मे एकही कारण दिखाई दे रहा है और वह यह कि प्रत्येक अगुआ अपने अहं को संतुष्ट करना चाहता है उससे उसका अहं, स्वयं की महत्व बनाये रखना, छूटता नहीं है उसके कारण वह अपने अनुयायियोंकी संख्या वृद्धि की अपना स्वयं का महत्व बनाये रखकर यह बताना चाहता है कि मेरे पीछे इतने अनुयायी है। दूसरी और सभी को देखे तो पायेंगे कि सभी महावीर के गुणानुवाद को बांट रहे है। फिर एकता क्यों नहीं यह एकता की ज्वलंत समस्या आज पूरे देश के जैन समाज को झकझोर रही है। जैन समाज समृद्ध होते हुए भी एकता न होने से अपनी कोई स्थिति देश के सामने नहीं रख पाता है। उसका कोई वर्चस्व आज कहीं पर नहीं दिखाई देना है। चाहे वह राजनैतिक स्तर पर हो चाहे सामाजिक या चाहे राष्ट्रीय स्तर पर कहीं पर भी जैन समाज एक रुप में संगठित नहीं हैं। ... यह एकता की समस्या जैन समाज की प्रगति, उसके विकास को अवरुद्ध किये हुए है। समाधान जैन समाज की इस एकता की समस्या का पहला समाधान यह है कि प्रत्येक जैन जिस नगरमें निवास करता है उसमें चाहे स्थानकवासी हो, चाहे श्वेताम्बर मूर्ति पूजक हो, चाहे दिगम्बर जैन हो, चाहे तेरापंथी जैन हो उन्हें अपने नगर, निवास, गाँव, शहर के स्तर पर प्रत्येक कार्यक्रम को एक होकर मनाना होगा। जिससे उनमें अपना मेलजोल बढ़ने पर अन्य स्तर पर इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। चाहे उस नगर गांव, शहर, कस्बे में महावीर जयंति मनाना, चाहे पर्युषण मनाना हो चाहे समाज का कोई भी कार्यक्रम हो अपने सभी के हृदयों को स्वच्छ बनाकर एकता रखते हुए मनाना होंगे। तो आगे आनेवाली पीढ़ी भी उसी की अनुसरण करेगी। (२) प्रत्येक जैन पंथ के अगुआ संतो मुनियों, शृमण्वन्दों को मिल बैठकर जैन समाज के समग्र विकास के बारे में सोचना होगा। वे जहाँ पर भी वर्षावास करें वहाँ पर पूरे समाज को एकता के कामी पूरुष को कभी भीनमय, संयोग, परिस्थिति या भविष्य पर विचार करने तक का ज्ञान नही होता। ३५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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