________________
को प्रात: विहार किया। मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र को पार करते हुए खानदेश के धुलिया, मालेगांव व आदि नगरों से होते हुए महाराष्ट्र के पूना शहर में त्रिस्तुतिक संघ के मुनियों ने वि. सं. २०३६ चैत्र शुक्ला पंचमी को मंगल प्रवेश किया। पूना में अनेक कार्यक्रम पूजा महोत्सव आदि सम्पन्न हुए। यहां मुनिश्री ने समाज को सुगठित किया और एक सौ पचास घरोंकी सूचि तैयार हो गई। महावीर जयन्तीका आयोजन पूरे जैन समाज के साथ मिलकर मुनिश्री ने मनाया। पूना से कराड पधारे। यहां श्री घेवरचंदजी हिम्मतमलजी तथा श्री चम्पालालजी हिम्मतमलजी द्वारा नव-निर्मित श्री महावीर स्वामी जिन मंदिर एवं गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम ऐतिहासिक रहा। वि.सं. २०३६ जेष्ठ शुक्ला चतुर्दशी को प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। दक्षिण की ओर आगे बढ़ते हुए प्रथम चातुर्मास कर्नाटक के बीजापुर शहर में हुआ। यहां श्री लेखेन्द्र विजयजी के तर्क एवं वैज्ञानिक आधार पर दिये गये प्रवचनों की धूम रही। चातुर्मास में दीवालियों की छुट्टियों के समय बालकों और युवकों के लिए शिबिर आयोजित किये। जैन संगीत पार्टी, चंदनबाला परिषद आपकी प्रेरणा से गठित हुई। जैन संगीत पार्टी आज कर्नाटक और महाराष्ट्र में अपने कार्यक्रमों के लिए सुप्रसिद्ध है। दावणगिरी नगरी में पूज्य दादा गुरुदेव की हीरक जयंती भव्य समारोह के रुप में मनाई। कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर में वि.सं. २०३७ की चैत्री नवपद शाश्वती आराधना करवाई। बैंगलोर से मद्रास की ओर विहार किया। वि.सं. २०३७ जेष्ठ शुक्ला द्वितीया को मद्रास पदार्पण हुआ। पंचाहनिका महोत्सव हुआ तथा मद्रास के बीस दिनों में श्री लेखेन्द्र विजयजी ने अपने प्रवचनों से धर्मप्रेमियों को मोहित कर दिया। मद्रास से विहार कर अषाढ़ शुक्ला तृतीया को चातुर्मास हेतु मैसूर पधारे। यहां गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल' की दीक्षा रजत जयंती का महोत्सव भव्य रुप में सम्पन्न हुआ। मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने गुरु चरणो में " मोहरों का मूल्य" उपन्यास अर्पित किया। आपकी यह सर्व प्रथम रचना है। चातुर्मास में नमस्कार महामंत्र की आराधना और अन्य आयोजन आदि तथा ज्ञान शिबिर मुनिश्री के निर्देशन में हुए।
चातुर्मास के बाद श्रवणवेलगोला पधारे और भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी से मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी की लम्बी वार्ताएँ हुई। आगामी चातुर्मास चित्रदुर्ग में सफलता पूर्वक करने के बाद पुन: बैंगलोर पदार्पण हुआ। बैंगलोर से बम्बई के मार्ग में पूना में नव-पद की आराधना के दौरान वि.सं. २०३९ का चातुर्मास बम्बई में करने का निर्णय लिया। इसके बीच पूना-लस्कर पधारे
और वहां मुनिश्री लेखेन्द्रविजयजी ने लस्कर जैन समाज को एकता के सूत्र में बांधने का उल्लेखनीय कार्य किया।
मुनिश्री मुलत: साहित्कार हैं अत: जब भी समय मिलता है अपनी लेखनी से कुछ न कुछ सरस्वती के भंडार में अभिवृद्धि करते हैं। साहित्यकारों, विद्वानो आदि का सम्मान और सहयोग करना उनकी विशेषता है। आपने महाराष्ट्र के भिवंडी शहर से १३ जून, १९८२ को "दीक्षा" नामक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। वि.सं. २०३८ का बम्बई चातुर्मास उल्लेखनीय सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के पश्चात पालीताणा पधारे, वहां वर्तमान गणाधीश आचार्यश्री हेमेन्द्रविजयजी की पावन निश्रा में श्री राजेन्द्र विहार दादावाडी में श्री आदिनाथ जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा कार्यक्रमों में भाग लिया।
वि. सं. २०४० का चातुर्मास भी गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल" का पालीताणा में हुआ। इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि इस पवित्र भूमि में मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी को विशेष
मानसिक चिंता - फिक्र एक प्रकार की ठंडी आग है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org