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________________ "निवृत्तिवाद- आधुनिक संदर्भ में" डॉ. जया पाठक मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी होने के साथ ही आनन्दकामी भी है, क्योंकि प्रतिकूलता की स्थिति उसकी सहज चेतना को स्वीकार्य नहीं। प्रतिकूलता किसी भी स्तर पर आनंदानुभुति में बाधक हो सकती हैं। अति भोगवाद से सर्वस्व त्याग तक की यात्रा एवं भारतीय संस्कृति के दोनों पक्ष-निवृत्ति एवं प्रवृत्ति आनन्द तक पहुँचने के ही विभिन्न पथ हैं। जैसा कि हम देखते हैं वैदिक ऋषि की कल्पनाएँ प्राकृतिक शक्तियों पर विजय तथा भोग की प्राप्य उच्चतम सामग्री तक ही सीमित नहीं थी। मात्र तात्कालिक सुख उसके आनन्द को स्थाई रुप नहीं दे सके थे, उसकी बृहत्तर जिज्ञासा सुखी जीने के साथ-साथ सार्थक जीने की प्रेरणा भी देती थी। यही कारण था यज्ञों द्वारा प्राप्त भौतिक सुखों पर प्रश्न चिन्ह लगाने का। यहीं से आनंदकामी ऋषि की विराट कल्पनाएँ आनन्द के नवीन पक्ष के अनुसंधान में लग जाती हैं। फलस्वरुप "तेन त्यक्तेन भुजीघा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् अर्थात् तू त्याग भाव से अपना पालन कर, किसी के धन की इच्छा न कर" की त्यागमयी प्रेरणा निवृत्ति को जीवन का अनिवार्य तत्त्व घोषित करती है। नचिकेता द्वारा मृत्यु देवता के सम्मुख भौतिक सुखों की उपेक्षा तथा मृत्यु रहस्य जानने की जिज्ञासा भी भोग परक दृष्टिकोण पर आत्मपरक दृष्टि की विजय ही है। जो दु:खमयता के बीच से आनन्द का मार्ग प्रशस्त करती है। अर्थ की उपासना स्वार्थमयी प्रवृति की जननी है। जो समाज के परस्पर सौख्य विकास में बाधक है। इसी स्वार्थ परता से उपर उठकर देखा जाय तो 'स्यादवाद' की महनीयता भी स्पष्ट हो जाती है। सामाजिक शांति का प्रश्न पुरातन होने के साथ ही चिर नवीन भी है जो समाज के प्रति व्यक्ति की निष्ठा तथा परस्पर सौहार्द भाव पर आधारित है। व्यक्ति के अहिंसा, सत्य अस्तेय अपरिग्रह, दया, करुणा, क्षमा, औदार्य आदि मानवीय गुण, सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र के विकार की पृष्ठ भूमि है। जिस पर नचिकेता की जिज्ञासा, मैत्रयों द्वारा प्रतिपादित धन की नि:सारता गौतम तथा महावीर की त्याग तपस्या, शंकराचार्य की योग साधना, कबीर व विवेकानन्द के उद्घोषों के स्वर आनन्द की किरणें प्रस्त्रवित कर रहे वर्तमान में निवृत्ति या त्याग के स्वरुप को लेकर, विवाद भी हो सकते हैं। आज कितना छोड़ा हैं? उसे प्राय: अधिक महत्त्व दिया जाता है? उस भौतिक त्याग के पश्चात् प्राप्य आध्यात्मिक उपलब्धियों से समाज को कितना प्राप्त हुआ ? उसकी गणना प्राय नहीं हो पाती। यही कारण है कि साधक प्राय: 'त्याग' को ही लक्ष्य समझकर साधना से विरत हो जाते हैं। और यह प्रश्न रह ही जाता है कि अमर जीवन मूल्यों की आत्मगत अनुभुति पाकर उन शाश्वत मूल्यों से समाज को परिचित कराने वाले 'साधक की अत्यन्त आवश्यकता है? या मात्र एन्द्रिय अनुभवो द्वारा खोखली मान्यताओं प्रतिस्थापित करने वाले तथाकथित साधकों का कहना न होगा कि भारतीय चिंतको ने इन्द्रिय महत्ता को नहीं स्वीकारा। बुद्धि से भी सूक्ष्म आत्मा को महत्त्व देने वाले इन चिंतकों ने कठिन आत्म निग्रह द्वारा यह सिद्ध किया कि विषयों के अधिन बुद्धि नहीं, बुद्धि के अधिन विषय हैं तथा समाज में रहकर भी उससे अनासक्त रहा जा सकता हैं। विदेहराज जनक की व्यवस्था, गौतम एवं महावीर का जनपदों से सम्पर्क, दयानंद व विवेकानन्द २९२ रोना संसारी को होता है त्यागी को नहीं। त्यागी तो जटिल परिस्थितियों में भी आत्मानंद भाव से सुशोमित रहता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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