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________________ कर्म सिद्धान्त कुसूमबेन मांडवगणे M.A.B.ED. __ कर्म का सर्वमान्य अर्थ है, मनुष्य दिनभर में जो कार्य करता है वह कर्म। मनुष्य के जन्म और मरण तथा उसके सुख और दु:ख उसके कर्म पर ही आश्रित है। कर्म का संबंध मुनष्य के धर्म से है; अथार्त उसकी धारणा सें, मनोवृत्ति से अथवा ज्ञान से है। अत: मनुष्य को निवृत्ति का, दैवी और असुरी प्रवृत्ति का, धर्म और अधर्म का ज्ञान प्राप्त करके ही कर्म करना चाहिये। यह करने से ही मनुष्य का कर्म श्रेष्ठ हो सकता है। कर्म तो क्षणिक होता है, व्यक्ति जब कर्म करता है तो वह केवल उसी समय वह कार्य करता है और उसका परिणाम मनुष्य के पूरे जिन्दगीभर रहता है। मनुष्य याने कि उसका जीव कर्म करता है पर जीव अभुर्त है। वह मनुष्य के शरीर में भले ही विराजमान हो, कभी कभी वह शरीर की पर्वा किये बगेर कर्म करता है। इसलिए जीव के लिए कोई बंधन नही है। कर्म तो मूर्त है, वह हम देख सकते है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीव अमूर्त है और कर्म मूर्त है, तो जीव और कर्म का मेल कभी भी नही हो सकता। ___ गीता में कर्म का सिद्धांत है - "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" मनुष्य अपने कर्म करने के लिये बाध्य होता है। उसे उस कर्म के फल की अपेक्षा नही करनी चाहिये। गीता में बताया है, 'कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर हे इन्सान; जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।' फल देना इश्वर के हाथ मे होता है। कोई बुरा कर्म करता है तो उसे बुरा फल मिलता है तो उसे बुरा कर्म नही करना चाहिये। कोई श्रेष्ठ कर्म करता है तो उसे श्रेष्ठ फल मिलता है। एक बात अनिर्णित रहती है, अच्छा कर्म कौनसा है, और बुरा कर्म कौनसा है? इससे एक छोटी कहानी मुझे याद आती है - "एक योगी तप के लिये बडी धूप में जंगल मे केवल लंगोटी पहन के बैठे थे। उधर से एक ग्वाला मस्का बिक कर आ रहा था। उसके बर्तनमे थोडा मस्का बाकी था। उसने देखा एक योगी कडी धूप मे तपस्या में लीन है, उसका शरीर धूप में फटा जा रहा है, उसके मनमे दया उत्पन्न हुई और वह मनमे सोचना लगा कि मेरा थोडासा मस्का अगर योगी के काम आ जाये तो क्या बुराई है उसने अपने पास बचा हुआ मस्का योगी के शरीर को लगा दिया; उसे नमस्कार करके अपने रास्ते चला गया। कुछ समय बाद मस्के की गंध से वहा बहुत सारी चिंटियाँ योगी के शरीर को नोचने लगी। उससे योगी को यातना होने लगी। इतने मे वहाँ से एक गुंडा जा रहा था, जो भगवान या योगी के नामसे भी चिढता था। उसके हाथ में एक गन्ना था। वह योगी के पास बैठा और उसकी खिल्ली उडाने लगा। उसे गालियाँ भी देने लगा। और साथ-साथ वह गन्ना खाके योगी के बदनपर खाया हुआ गन्ना फेंकने लगा और जी भरके योगी को सताकर अपनी राह चला गया। इससे यह हुआ कि योगी के बदनपर जो जो चिंटियों उसे नोच रही थी वह गन्ने की मिठास से गन्ने पर चली गयी। मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। ३४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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