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विद्यमान है। संहारक्रम कर्मविनाश का तथा सष्टि और स्थिति क्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्यदय का साधक है। इस मंत्र के द्वारा मातका ध्वनियों के तीनों प्रकारों के मंत्री की उत्पत्ति बताई गई है। प्रत्येक मंत्र में बीजाक्षार होते हैं। इन बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है
हलो बीजानि चोक्तानि स्वरा: शक्तय ईरिता: ।।३७७।। अर्थात् ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजन बीज संज्ञक है और अकारादि स्वर शक्ति रुप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। तंत्र-मंत्र के ग्रन्थो में विस्तार के साथ वर्णमातृका की शक्तियों और फलों का उल्लेख मिलता है। मेरी धारणा है कि जब जैनशास्त्र वर्णमातृका में सब प्रकार की शक्तियों का उल्लेख है और शास्त्रोक्त होने से प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता को मान लेने पर यह स्पष्ट है कि ऊपर जिस शब्दशक्तिगत सर्जना की बात की गई है वह युक्तिसंगत और शास्त्रसंगत हो। माना कि जैनशास्त्र के अनुसार सृष्टि नित्य है - पर प्रवाहनित्य ही कहना पड़ेगा, कारण परिणाम तो होता ही रहता है - अत: वह कूटस्थ नित्य नहीं है। प्रवाहनित्य में बनना-बिगड़ना चलता है - वही तो परिणाम है। बनना-बिगड़ना - दोनों में शक्ति की आवश्यकता है और शक्ति वर्णमातृका में है - इसीलिए जनयित्री का धर्म होने से उन्हें मातृका कहा जाता है। __ जब यह तथ्य शास्त्रसंगत और युक्तिसंगत है - तब इसकी विश्वसनीयता और बोधगम्यता के निमित्त अपेक्षित उपत्ति देनी ही पड़ेगी! यदि यह मान लिया जाय कि प्रत्येक वर्ण में तत्-तथ ऐहिक-आमुष्मिक उपलब्धि की क्षमता है तो वर्ण सबको माम ही हैं - शक्तिलाभ सभी को क्यों नहीं हो जाता? लगता है तदर्थ एक साधना की विशिष्ट प्रक्रिया है - उस प्रक्रिया से मंत्र जप किया जाय - तभी उसमें निहित शक्ति का स्वायत्तीकरण होता है - वह शक्ति अदिव्यध्यनि में नहीं - दिव्यध्वनि में है जिसका साक्षात्कार सर्वज्ञ मुनि को होता है। यह दिव्यध्वनि क्या 'तन्मात्र' या 'निरतिशय' शब्द की ही तो नहीं है? पर उसका साक्षात्कारपूर्व वांछित उपलब्धि में विनियोग कैसे हो? साक्षात्कार या स्वायत्तीकार कैसे हो? जप ही उपाय है - जो वाचिक, उपांशु और मानस - तीन प्रकार का है और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट है। यह सातिशय या स्थूल शब्द उस मातृकाभूत शब्द के साक्षात्कार का माध्यम है।
समस्त बीजाक्षरोंकी उत्पत्ति णमोकार मंत्र से ही हुई है। कारण, सर्वमातृका ध्वनि इसी मंत्र से उद्भूत है। इन सबमें प्रधान 'ॐ' बीज है। यह आत्मवाचक है। पातंजल सूत्र भी है - "तस्य वाचक: प्रणवः" 'प्र' 'नव' - जो बराबर नया रहे - बासी हो ही नहीं। सर्जनात्मिका शक्ति का यही तो परिचय है। ऊँकार को तेजोबीज, कामबीज और भावबीज मानते हैं। प्रणववाचक या परमेष्ठीवाचक - एक ही बात है। ऊँ समस्त मंत्रों का सारतत्व है। जो वर्ण जिस तत्व का वाचक है - उससे उसके अर्थका तादात्म्य है। मंत्र को शक्तिशाली करनेवाले अन्तिम ध्वनि में स्वाहा, वषट्, फट्, स्वधा तथा नम: लगा रहता है। णमोकार मंत्र से ही सभी बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई है। अरिहंत (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि-इनके पहले अक्षरों को लेकर सन्ध्य क्षर ऊँ बना है।
बीजाक्षर मंत्र एकाक्षर हैं - ऊँ, हीं, श्री, क्लीं/- इत्यादि। वैसे युग्माक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुरक्षरी, पंचाक्षरी से लेकर सत्ताइस और उसमें भी अधिक अक्षरी मंत्र (ऋषिमण्डल) हैं। श्री णमोकार मंत्र पंचत्रिंशत्यक्षरी है।
आनंद यह बाहर का विषय परन्तु अंतर की वस्तु है।
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