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आज समाज में जो विग्रह, वर्गसंघर्ष, अराजकता आदि बुराइयाँ तीव्रता के साथ बढ रही है इनका मूल कारण उपर्युक्त अनैतिक आचरण और व्यवहार ही है। एक और धन के उंचे पर्वत और दूसरी और निर्धनता एवं अभाव की गहरी खाई ने ही वर्गसंघर्ष और असंतोष को जन्म दिया है, जिसके कारण मानव-मन में विप्लव उठ खड़ा हुआ है।
इस पाप रुप अनैतिकता के विपरीत अन्य व्यक्तियों को सुख पहुँचाना, अभावग्रस्तों का अभाव मिटाना, रोगी आदि की सेवा करना, समाज में शान्ति स्थापना के कार्य करना, धन का अधिक संग्रह न करता, कटु शब्द न बोलना, मिथ्या भाषण न करना, चोरी, हेरा-फेरी आदि न करना नैतिकता है, नीतिपूर्ण आचरण है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार बन्ध का अभिप्राय है- अपने ही किये कर्मों से स्वयं ही बँध जाना, किन्तु नीति के सन्दर्भ मे इसका अर्थ विस्तृत है। व्यक्ति अपने कार्यों के जाल में स्वयं तो फंसता ही है, दूसरो को भी फंसाता है। जैसे मकड़ी जाला बुनकर स्वयं तो उसमें फंसती ही है, किन्तु उसकी नीयत मच्छरों आदि अपने शिकार को भी उस जाल में फंसाने की होती है ओर फँसा भी लेती है।
इसी तरह कोई व्यक्ति झूठ-कपट का जाल बिछाकर लच्छेदार और खुशामद भरी मीठी-मीठी बाते बनाकर अन्य लोगों को अपनी बातों में बहलाता है, भुलावा देकर उन्हें वाग जाल में फँसाता है, उन्हे वचन की डोरी से बांधता है, अकडता है तो उसके ये सभी क्रिया कलाप-वागजाल बन्धन रुप होने से अनैतिक है।
और नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से निर्जरा है, ऐसे वागजालो में किसी को न फँसाना, झुठ-कपट और लच्छेदार शब्दों में किसी को न बांधना। यदि पहले कषाय आदि के आवेग में किसी को इस प्रकार बन्धन में ले लिया हो तो उसे वचनमुक्त कर देना, साथ, ही स्वयं उस बन्धन से मुक्त हो जाना। इसी बात को हेमचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में कहा है
आस्त्रवो भवहेतु: स्यात् संवरो मोक्षकारणम्।
_इतीयनार्हती दृष्टिरन्यदस्या प्रपंचनम्।। - वीतराग स्त्रोत्र - आस्त्रव भव का हेतु और संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्त्रव अनैतिक है तथा संवर नैतिक है। यह आर्हत (अरिहन्त भगवान् तथा उनके अनुयायियों की) दृष्टि है। अन्य सब इसी का विस्तार है।
जैन दृष्टि के इन मूल आधारभूत तत्वों के प्रकाश में अब हम भगवान् महावीर की नीति को समजने का प्रयास करेगें।
भगवान् महावीर के अनुयायियों का वर्गीकरण श्रमण और श्रावक इन दो प्रमुख वर्गो में किया जा सकता है। इन दोनों ही वर्गों के लिए भगवान ने आचरण के स्पष्ट नियम निर्धारित कर दिये है। पहले हम श्रमणों की ही लें। श्रमणाचार में नीति
श्रमण के लिए स्पष्ट नियम है कि वह अपना पूर्व परिचय -गृहस्थ जीवन का परिचय श्रावक को दे। सामान्यतया श्रमण अपने पूर्व जीवन का परिचय श्रावकों को देते भी नहीं, किन्तु कभी-कभी परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि परिचय देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा श्रमणों के प्रति आशंका हो सकती है। इसे एक दृष्टान्त से समझिये
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असद्ज्ञान मानव को सूखाभास के भ्रमजाल में फंसाकर जन्म-जन्म की वेदनाओं में गलाकर भव भ्रमण करवाता है।
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