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अनेकान्त और स्याद्वाद
डा. हुकमचंद भारिल्ल
वस्तु का स्वरुप अनेकान्तात्मक है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुणधर्मो से युक्त है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु ही अनेकान्त है और वस्तु के अनेकान्त स्वरुप को समझाने वाली सापेक्ष कथन पद्धति को स्यावाद कहते हैं। ये अनेकान्त और स्याद्वाद में द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है।
समसार की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में आचार्य अमृतचन्द्र इस सम्बन्ध में लिखते
"स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरुप को सिद्ध करने वाला अर्हन्त सर्वज्ञ का अस्खलित (निधि) शासन है। वह (स्याद्वाद) कहता है कि अनेकान्त स्वभाव वाली होने से सब वस्तुएं अनेकान्तात्मक हैं।... जो वस्तु तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है- इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।"
अनेकान्त शब्द "अनेक" और "अन्त" दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ होता है- एक से अधिक। एक से अधिक दो भी हो सकते हैं और अनन्त भी। दो और अनन्त के बीच में अनेक अर्थ सम्भव हैं। तथा अन्त का अर्थ है धर्म अर्थात् गुण। प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण विद्यमान हैं, अत: जहाँ अनेक का अर्थ अनन्त होगा वहाँ अन्त का अर्थ गुण लेना चाहिये। इस व्याख्या के अनुसार अर्थ होगा। अनन्तगुणात्मक वस्तु ही अनेकान्त है। किन्तु जहाँ अनेक का अर्थ दो लिया जाएगा वहाँ अन्त का अर्थ धर्म होगा। तब यह अर्थ होगा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में होना अनेकान्त है।
स्यात्कार का प्रयोग धर्मो में होता है, गुणों में नहीं। सर्वत्र ही स्यात्कार का प्रयोग धर्मो के साथ किया है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं। यद्यपि "धर्म" शब्द का सामान्य अर्थ एण होता है, शक्ति आदि नामों से भी उसे अभिहित किया जाता है, तथापि गुण और धर्म में कुछ अन्तर है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त शक्तियाँ है, जिन्हें गुण या धर्म कहते हैं। उनमें से जो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं या सापेक्ष होती हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। जैसे- नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, सत्-असत्, भिन्नता-अभिन्नता आदि जो शक्तियाँ विरोधाभास से रहित है, निरपेक्ष हैं, उन्हें गुण कहते हैं। जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि पुद्गल के रुप, रस गंध आदि।
जिन गुणों में परस्पर कोई विरोध नहीं है, एक वस्तु में उनकी एक साथ सत्ता तो सभीवादी-प्रतिवादी सहज स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु जिनमें विरोधता प्रतिभासित होता है, उन्हें स्याद्वादी ही स्वीकार करते हैं। इतर जन उनमें से किसी एक पक्ष को ग्रहण कर पक्षपाती हो जाते हैं। अत: अनेकान्त की परिभाषा में परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रकाशन पर विशेष बल दिया गया है।
प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक युगल (जोडे) पाये जाते हैं, अत: वस्तु के बल अनेक धर्मो (गुणों) का ही पिझड नहीं है- किन्तु परस्पर विरोधी दिखने वाले अनेक धर्म-युगलों का भी पिनड नहीं है। उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मो को स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादन करता है।
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शंका के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते हैं।
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