SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म से कर्म की गाँठ: बोल-चाल की भाषा में हम कहते आए है, कि ज्ञान प्राप्त करो। पर यह भाषा दर्शन की भाषा नहीं है। प्राप्ति का अर्थ 'अप्राप्तस्यार्थस्य उपलब्धि: प्राप्ति:' जो आज तक प्राप्त नहीं हुआ है, मिला नहीं, उसकी उपलब्धि प्राप्ति कही जाती है। परन्तु जो वस्तु अपने पास है, उसकी प्राप्ति कैसी? दर्शन-शास्त्र की दृष्टि से विचार करेगें तो 'ज्ञान-प्राप्ति' इस शब्द का कोई अर्थ नहीं है, भारतीय-दर्शन में उस प्राप्ति का कोई स्थान नहीं है। जो अपने अन्दर में है उसको क्या प्राप्त किया जाए, वह तो प्राप्त है ही। जो दूसरा है, पर है, अपने से भिन्न है उसको पाया जाता है, प्राप्त किया जाता है। परन्तु स्वयं की कैसी प्राप्ति? कोई व्यक्ती इधर उधर नजर दौडाता हुआ कुछ ढूँढ रहा है, तलाश कर रहा है। लोग पूछते हैं-बाबा! क्यां खोज रहे हो? तो वह कहे कि अपने आपको खोज रहा हूँ तो लोग हसेगें की यह पागल हो गया है। इसे पागल के अस्पतालों में भेजो। आगरा या राँची ले जाओ-| इसका दिमाग बिगड गया है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, वह आत्मा में विद्यमान है। उसकी प्राप्ति जैसी कोई बात नहीं है। जो वस्तु प्राप्त की जाए वह अपनी नही होती, उधार की हुई होती है, पराई होती है। ज्ञान तो आत्मा का निज स्वरुप है। आत्मा ही ज्ञानमय है। अत: उसकी प्राप्ति नहीं होती। प्रश्न होता है- जब 'प्राप्ति' शब्द के साथ इतना वितर्क जुड़ा हुआ है, तो फिर उसे क्या कहा जाए? बात यह है कि ज्ञान की प्राप्ति नहीं, किन्तु जागति होती है। वह प्रगट या प्रकाशित किया जाता है। यों तो शब्दों का चक्कर है। इस चक्कर से बचकर ही चलना पडता है, पर जब गहराई से चक्कर को भी समझने की बात करते है, तो यह सब विश्लेषण किया जाता है, कि प्रकाश अन्दर में विद्यमान है, और जिस पर आवरण छा गया है, उस आवरण को हटा कर फैंकना है। शास्त्र कहते हैं-तू प्रकाशमान है, अखण्ड जोतिर्मय है, सचिदानन्द रुप है। कितने ही प्रगाढ़ आवरण छा जाएँ, पर तेरा प्रकाश पूर्णत: कभी लुप्त नहीं हो सकता। प्रकाश का ज्योति-मण्डल सिमट सकता है, परंतु मिट नहीं सकता। किसी भी आवरण में उसे मिटाने की क्षमता नहीं है। अन्धकार जो छाया हुआ लगता है, वह आवरणों के कारण है। आवरण हटे कि तू स्वयं प्रकाशमय दिखाई पडेगा। आवरण क्या है, वस्तुत: आवरण कर्म-बन्धन है। आत्मा के ऊपर कर्म का एक पर्दा है। प्रश्न यह है कि आवरण या बन्धन किसको होता है? बोल-चाल की भाषा में हम कह देतें हैं, कि आत्मा को कर्म लग गए हैं। परंतु तात्विक दृष्टि से यह भाषा भी अशुद्ध है। कर्म को ही कर्म लगते है, आवरण पर ही आवरण चढता है। आत्मा का जो अपना रुप है, जिसे हम आत्म-द्रव्य कहतें है, वह तो शुद्ध निर्विकार है. चिदानन्द स्वरुप है। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, अन्तर नहीं पड़ता। फिर कर्म कहाँ लगते हैं? तथ्य यह हैं, कि आत्मा की भाँति कर्म भी अनादि है। नये कर्म आते है, पुराने चले जाते हैं। ये पुराने-नये कर्म जब आत्मा के साथ नहीं बन्धते, तो फिर वे कहाँ रहते हैं, उनका आधार क्या है? यह भी एक प्रश्न है? कर्म, कार्मण शरीर के साथ रहते है। कार्मण शरीर के साथ उनका सम्बन्ध रहता है। कार्मण शरीर का अर्थ हैं - कर्मों का पुञ्ज। पुराने कर्म अपना फल दे कर या साधना के द्वारा कार्मण शरीर से हट जाते हैं और नये कर्म उसी कार्मण के साथ घुल मिल जाते हैं। कर्म की सत्ता (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पड़ी है? १८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy