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से रौंदे फिर भी "पृथ्वी" सब कुछ सहन कर "क्षमा" करती है। इसलिये मनस्विद कहते, है कि साधक को पृथ्वी के समान प्रतिकूल, उपसर्ग, परिषह, कष्ट के समय सहनशिल बनकर क्षमाधारी बनना चाहिए । ईसामसीह को द्वेषियों ने शुली पर लटका दिया उस समय भी असाध्य पीडा के मध्य भी उन्होनें अमृतामय वाक्य कहा था हे परमेश्वर। इन्हें क्षमा करना ये अल्पमति नही जानते है कि हम क्या कर रहे है? यह क्षमा का दिव्य उदाहरण है।
चन्द्र प्रधोत कितना खूखार था राजा उदयन ने युद्ध जीतकर चन्द्र प्रधोत को बंधी बना लिया किन्तु महापर्व के शुभ अवसर पर राजा उदयन ने क्षमा याचना कर चन्द्र प्रधोत जैसे क्रुर हृदयी को भी परम मित्र बना लिया। प्रभु श्री महावीर देव को भी संगम देव के द्वारा छः माह तक अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाये, चड़कोशी सर्प के द्वारा डंख मारना, ग्वाले के द्वारा कान में किलें ठोकें जाना इतने भयंकर उपसर्ग परिषह के बिच भी साधना में अगि रहे उन प्राणियों के प्रति लेश मात्र भी रोष नही किया यह क्षमापना का सचोट उदाहरण है। गजसुकुमाल मुनि को स्वयं के ससुर सोमिलने मीट्टी की पागड़ी बांधी और उसमें अंगारे भर दिया सिर की चमड़ी जलने लगी तब भी वह अपनी साधना से विचलित नही हुए क्षण मात्र क्रोध भी नहीं किया बल्की अपने ससुर का उपकार माना की देखो इसने मुझे मोक्ष की पागड़ी बंधाई, इसी प्रकार मेतार्यमुनी स्कन्दक आचार्य के ५०० शिष्य और राजा प्रदेशी, खदक मुनि इन समस्त महापुरुषोंने क्षमाव्रत को अंगीकार मन के रोष को मिटाकर आत्मा साधना में तल्लीन रहे और साध्य की प्राप्ति की क्षमापना करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का गम्भीर प्रत्युत्तर देते हुए क्षमावीर श्रमण भगवान महावीर प्रभु फरमाते है कि " खमावाण माएणं जीवे पल्हामज भावं जणयइ' क्षमापना करने से अथवा क्षमा देने या लेने से जीव प्रमोद भाव ( आल्हाद ) आत्मानन्द भाव की अनुभूति करता है मन के धरातल पर पवित्र प्रेम की गंगा प्रवाहित होती है।
"क्षमा शस्त्र जेना हाथमां दुर्जन तेने शु करी शके"
जैन दर्शनकार कहते है कि मन शुद्धि से साधना फलवति बनती है साधना में अपूर्व सौरभ लाने के लिए मनोनिग्रह की आवश्यकता है। मन के मलिन विचार ही विकार पैदा करते है और साधना की निंब को उखाड़ देते है, साधना में मन की शुद्धि होना जरूरी है।
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"जहाँ सद् विचार है, वहाँ विकार नहीं जहाँ उपासना है, वहाँ वासना नहीं
बस क्षमा स्वरूप की गई साधना का ज्ञानी भगवन्तोंने तो बहूत ही अनेक प्रकार से हमें समझाने का प्रयास किया है और उसी का जीवन धन्य बनता है जो क्षमा सहिष्णुता पूर्वक साधना के शिखर पर चढ़ता है। अस्तु.
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जहाँ उज्जवल प्रभात है, वहाँ अन्धकार नहीं । जहाँ क्षमापना है वहाँ विराधना नही ।"
निराश हृदय में जब आशा का अंकुर फूटता है तब उस में आनन्द की किरणें फूटने लगती है।
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