SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूध में पानी उसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता। बंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं और ये बंध के कारण अपनी-अपनी कर्मशक्ति के अनुसार बँधते हैं। इनके अभाव होने से व्यक्ति कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। तब कर्म-संस्कार आत्मा पर नहीं पड़ते ।२६ डॉ. रामनाथ शर्मा ने लिखा है कि "संसार एक रंगमंच के समान है जिस पर सभी को अपने कर्मानुसार निश्चित पार्ट अदा करना पड़ता है।.......... कर्म के सिद्धान्त के साथ पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी लगा हुआ है। कर्म के बंधनों के कारण आत्मा को बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। मोक्ष होने पर ही पुनर्जन्म से छुटकारा मिलता है।२७ धम्मपद के यमवर्ग में पुनर्जन्म का एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया है "सारे कार्यों का आरम्भ मन से होता है। मन श्रेष्ठ है। सारे कार्य मनोमय होते हैं। मनुष्य यदि दुष्ट मन से बोलता है तो दु:ख इसका पीछा करता है जैसे कि चक्र बैल के पैर का पीछा करता है।"२८ जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म निश्चित होता है। कर्म नियमानुसार ही कर्मफल को भोगना पड़ता है। समस्त कर्मफल को एक साथ नहीं भोगा जा सकता। जिस क्रम से कर्मफल को भोगता है, उसी क्रम से कर्मफल का अन्त भी होता है। गीता में आत्मा की शाश्वतता के बतलाने के बाद कहा वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृद्दद्दाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण कर लेती है। अत: जन्म-मरण का चक्र अनादि से चला आया है। जो जन्म-मरण का अन्त कर देता है वही परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। आत्मा "न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व न भूयः।" गीतार/२० तथा धम्मपद के आत्मवर्ग में स्वयं को उदबोधन किया गया है "अत्ताहि अत्तनो नाथो..... और गीता के छठे अध्याय के पाँचवें-छठवें श्लोक में भी इसी प्रकार का कथन किया नैतिक समन्वयात्मक दृष्टि-तीनों नीतिपरक रचनायें हैं। सदाचार, सत्कर्म एवं ज्ञान को विशेष महत्व दिया गया है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में गुरु-शिष्य की विशेषताओं को बतलाया गया है। शिष्य को उपदेशित किया है कि गुरु के निकट रहकर गुरु की आज्ञा-पालन करे, जो आज्ञा को नहीं मानता वह तत्त्वमान को नहीं समझ सकता। इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए।२९ चौथे अध्ययन में साधु के गुणों का विवेचन किया है कि साधु विवेक को बन्द करके लुभाने वाले विषयों में मन नहीं लगावे, क्रोध को शान्त करे, मान को हटावे, माया का सेवन नहीं करे और लोभ का त्याग करे।३० उत्तराध्ययन की तरह गीता में अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के अधीन एवं दूसरों की निन्दा करने वाला, भगवत् विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष को न इहलोक है और न परलोक है और न सुख ही।३१ आलसी और वीर्यहीन रहकर सौ वर्ष तक जीवित रहना निरर्थक है, पर वीर्ययुक्त और दृढ़तापूर्ण रहकर एक दिन का जीवित रहना श्रेष्ठ है। सदाचारी और संयत, बुद्धिमाने मन की पंखुड़ियाँ जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy