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"स्यात् शब्द निपात है।" वाक्यों में प्रमुख यह शब्द अनेकान्त का द्योतक वस्तुस्वरुप का विशेषण है।
शायद, संशय और सम्भावना में एक अनिश्चय है, अनिश्चय अज्ञान का सूचक है। स्याद्वाद में कहीं भी अज्ञान की झलक नहीं है। वह जो कुछ कहता है, दृढता के साथ कहता है, वह कल्पना नहीं करता, सम्भावनाएँ व्यक्त नहीं करता।
श्री प्रो. आनन्द शंकर बाबूभाई ध्रुव लिखते हैं:"महावीर के सिध्दान्त में बताए गये स्याद्राद को कितने ही लोग संशयवाद कहते है, इसे मैं नहीं मानता। स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, किन्तु वह एक दृष्टि-बिन्दु हमको उपलब्ध कर देता है। विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिए यह हमें सिखाता है। यह निश्चय है कि विविध दृष्टि-बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरुप में आ नहीं सकती। स्याद्वाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना यह अनुचित है।" आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान के समान सर्वतत्व प्रकाशक माना है। भेद मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का है। __ अनेकान्त और स्यादाद का सिध्दान्त वस्तु-स्वरुप के सही रुप का दिग्दर्शन करने वाला होने से आत्म-शान्ति के साथ-साथ विश्व-शान्ति का भी प्रतिष्ठापक सिध्दान्त है। इस संबंध में सुप्रसिध्द ऐतिहासिक विद्वान एवं राष्ट्रकवि रामधारीसिंह "दिनकर" लिखते है:
"इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।"
डॉ. हुकमचंद भारिल्ल पं. येडरमल स्मारक ट्रस्ट ओ-४ बापूनगर जयपुर-३०२०१५
कोई भी विद्या साधना के बिना प्राप्त ननही होता और इसके उपलब्ध हो जाने पर ददि साधक आपनी विद्या का उपयोग स्वार्थवश करता है
तो जीवन अभिशप्त हो जाता है:
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धर्म हो सचा मार्ग-पाथेय है। यह पाथेय जिसके अंत:करण में है उसका तो अकल्याण कभी नहीं होता।
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