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________________ परम श्रद्धेय 'कोंकण केशरी' पूज्य प्रवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. का जीवन उनके सर्वांगीण व्यक्तित्व की विलक्षण प्रतिभा से आज समग्र जैन समाज भलिभांति परिचित हैं। सरल हृदयी, सौम्य मूर्ति, परम आराधक 'कोंकण केशरी' पूज्य प्रवर की पावन सानिध्यता में हो रहे अनेकानेक पार्श्वपद्मावती महापूजन उनकी अंतरंग साधना का ही एकरूप हैं। विगत दो वर्ष से उनकी पावनीय छत्रछाया में विचरण करते हुए मैंने स्वयं ने इस महापूजन के अनेक चमत्कारों की महिमा देखी भी है और श्रद्धालु भक्तों के मुखों से सूनी भी हैं। गुरु चद्रा धाम श्री मोहन खेडा तीर्थ से २५-११-८८ को विहार महाराष्ट्र प्रदेश के लिए किया। महाराष्ट्र प्रदेश में कल्याण के सन्निकट मोहने नगर में माघ शुक्ला १०, १५ फरवरी १९८९, को यह महापूजन श्री श्रृंखला कोंकण की धरती पर प्रारंभ हुई। यह प्रथम महापूजन आयोजन भी अनूठा था। पूज्य प्रवर श्री पूजन के प्रारंभ से अंत तक एक आसन को धारण किए भक्ति में मग्न हो जाते हैं। महापूजन के दौरान इस महिमा मंडित पूजन की महिमा से श्रावकों को अवगत करवाते हैं। इस प्रथम पूजन की सुगंध की सुवास कोंकण में प्रवाहित हो गयी। प्रथम महापूजन ही इतनी प्रभावक रही कि कर्जत, नेरल, खोपोली, लोनावाला में यह महापूजन हुए। इन महापूजनों में अनेक चमत्कार हुए हैं जो हजारों हजार श्रद्धालू परम गुरु भक्तों ने देखा हैं। आकुर्डी पूना में श्री नगराजजी, चान्दमलजी श्री श्रीमाल परिवार की ओर से यह पूजा आयोजित की गई थी। इस परिवार की कुलदेवी भी श्री पद्मावती देवी ही है। सर्वप्रथम श्री पार्श्वनाथजी प्रभूके पूजन से यह पूजन प्रारंभ होता हैं। इसके बाद माँ भगवती का अष्टप्रकारी पूजन होता हैं। प्रत्येक पूजन १०८ मंत्रों द्वारा किया जाता हैं। अभी जलपूजा की मंत्र ध्वनी गुंजीत हुई ही थी कि जल पूजा के साधकों को माँ का पवन शुरू हो गया। यह भी कितनी चमत्कारिक घटना हैं कि जो भी इस महापूजन में उनके परिवार का कोई भी युगल बैठता तो जोरों से माँ का संचार हो जाता। श्री नगराजजी की माँ जो लगभग ७० वर्ष से भी अधिक वय की थी उन्हें जब पवन का संचार हुआ वह इतना जोशिला था कि १० व्यक्ति उन्हें संभाल नहीं पाए। यह अनोखा अनुभव दृश्य इन महापूजनों के दौरान प्रथम था। यह महापूजन चल ही रहा था कि एक व्यक्ति ने संकल्प लिया कि यदि इस महापूजन में कोई चमत्कार हो तो जिस व्यक्ति को मैं तीन वर्षों से खोज रहा हूँ वह मुझे तीन दिनों में मिल जाय। पाठक वर्ग को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब यह व्यक्ति अपने नगर की ओर जाने के लिए रवाना हुआ और स्टेशन पर पहुँचकर जिस गाड़ी में बैठने के लिए वह उद्धत हुआ तो उसकी दृष्टि उसी व्यक्ति पर जा गिरी जिसे वह तीन वर्षों से खोज रहा था। उसका हृदय श्रद्धा से भर आया। तत्वार्थ सुत्र में कहा है कि तत्वार्थ श्रद्धानां सम्यक दर्शनम परम तत्व पर जो श्रद्धा है वही सम्यक दर्शन हैं। सदर्शन का ही रूप है श्रद्धा। आत्मीय श्रद्धा ही प्रत्येक आत्मा के मनोरथ पूर्ण करती हैं। किसी ने कहा हैं कि "संत की भभूति में चमत्कार का वास हैं" यह मंत्र केवल श्रद्धा का प्रतिक हैं। "विश्वासो फलती सर्वत्र" श्री कृष्ण ने भी कहा है कि 'संशयात्मा विनश्यति" संशय और संदेह से भरी आत्माएँ विनाश को प्राप्त होती हैं और ऐसे व्यक्ति हर क्षेत्र में असफल होते हैं। जयवंता जिन शासन में श्रद्धा को सर्वोच्च रूप दिया हैं। इस महापूजनों में देखा गया १२६ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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