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जाते है। फिर भी वे प्रशंसा, लौकेषणा व मान-सम्मान से परे रहे है। परन्तु मानव हमेशा से, नदी, संत, वृक्ष और सूर्य के प्रति कृतज्ञता का भाव अनादि से प्रकट करता रहा है। आजभी भारतीय संस्कृति में उदित सूर्य को नमन करते है। यह मानवताकी कृतज्ञता का परिचायक है। कोंकण की जनता कृतज्ञता प्रकट करना चाहती थी। पूज्य श्री की अनिच्छा होते हुए भी मोहने श्री जैनसंघ द्वारा प्रात: स्मणिय दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. की गुरु जयन्ती के पावन प्रसंग पर, समस्त कोंकण क्षेत्र की भावना साकार करते हुए पोष शुक्ला६, सोमवार २४ डिसेम्बर १९९० को "कोंकण केशरी" पद से विभुषित किया गया। कोंकण प्रदेश के लगभग ६१ नगरों से सैकडों गुरुभक्त भक्ति प्रकट करने हेतु उपस्थित हुए थे। "कोंकण केशरी" की जय-जयकारों से आकाश मण्डल गुंज उठा था। श्री धनराजजी राजमलजी पोसालिया सुमेरपरवालों की तरफ से "कोंकण केशरी" कामली ओढायी गयी। पदारुढ़ होते ही प्रथम गुरुपूजन श्री सायरमलजी माणकचन्दजी भीनमाल वालों की ओर से किया गया। अभिनन्दन पत्र मोहने संघ की ओर से पूज्य श्री के करकमलों में समर्पित किया गया। हजारों हजार श्रावकों के मन प्रसन्नता से झूम उठे।
पूज्य प्रवर को कोंकण की धर्मपरायण जनता अपने जीवन में कदापि नहीं भूल सकती है। भुलाये नहीं भूल सकते हम। इस धर्म यात्रा में पूज्य प्रवर के लघुभ्राता मुनिराज श्री लोकन्द्रविजयजी म. ने विशिष्ठा भूमिका अदा की है। ये दोनों गुरुभाई रामलक्ष्मण की जोड़ी है। निरहंकारी व्यक्तित्त्व के घनी है, साधना शील है। ऐसे गुरुवर के चरणों में हमारा कोटि-कोटि वंदन। आप शतायु हो और इसी प्रकार अविराम अविच्छिन्न रुप से जिन शासन प्रभावनाएँ करते रहें। इसी मंगल कामना के साथ।
विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साथ मन-व्यवसाय बंधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती है। और अनंतानं भव भ्रमण वाला भोमिया भी बनता है। मानव जब मनोजयी होता है तब वह स्वच्छ आत्म दृष्टि और ज्ञान दृष्टि उपलब्ध करता है।
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नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण है।
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