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को उनके अधिकार व उनके उपयोग की स्वतन्त्रता व स्वच्छन्दता देनी होगी, उन्हें उनकी शक्ति, शौर्य, शील व तेज की याद दिलानी होगी।
जैन धर्म हो या अन्य धर्म, नारी का झुकाव पुरूषों की तुलना में धर्म की और अधिक ही होता है। यदि हम वर्तमान परिस्थितियों में देखें तो पायेगें कि सेठजी की अपेक्षा सेठानीजी नित्यनेम, धर्म-कर्म, स्वाध्याय, नियम-पालन, एकासना उपवास आदि नियमित व आस्था से करती है जबकि उन्हें एक बहू, बेटी, मां, बहन या पत्नि का कर्तव्य भी निभाना पड़ता है। व्याख्यान में उ स्थिति व रूचि, नियमित सामायिक पालन, नवकार जाप तथा देव-दर्शन, गुरूवन्दन में सेठजी की तुलना में, सेठानीजी की संख्या ही अधिक होती है। पुरूष वर्ग यह कहकर अपने दायित्व से हट जाते हैं कि हमें व्यापार, वाणिज्य, प्रवास आदि कार्य में व्यस्त रहना पड़ता है अत: नियम का पालन सम्भव नहीं।
धर्म के मर्म को जितनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से महिला वर्ग ने देखा, जांचा व परखा है, उतना पुरूष वर्ग नहीं, और यही कारण है कि आज जैन धर्म के उत्थान में, प्रचार-प्रसार में नारी की भूमिका अहम् है, प्रशंसनीय है, स्तुत्य है।
नारी ने धर्म ध्वजा को फहराया है। नारी ने ही नियम, संयम व यश कमाया है। अत: यह बात निर्विवाद है कि जैन धर्म में नारी का स्थान, नारी का योगदान आदिकाल से रहा हैं, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी बना रहेगा क्योंकि "वह धर्म की धुरी है।
विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साध मन-व्यवसाय बधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती है। और अनंतानं भव भ्रमण वाला भोमिया भी बनता है। मानव जब मनोजयी होता है तो तब वह स्वच्छ आत्मा-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि उपलब्ध करता
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महापुरुषों की प्रसादी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड़ जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है।
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