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________________ समान ग्यारह अलगअलग वृत्तोंका उपयोग किया है। बहुतांश रचना इन्द्रवजा और उपवजा इत्यादी उपजातीमे की मिलती है। नियमबाह्य पद्यरचना क्वचितही मिलती है। भारतीय विद्वानोंने इस काव्य का आलंकारिक मूल्य उच्च प्रतीका माना है। उसका शब्द सौष्ठव उल्लेखनीय है। आर्यधन और प्रभावी शैली के साथ साथ तालबद्धता और वृत्तरचनाकी विविधता यह उसका वैशिष्ट्य है। पाली गलीमे 'मिलिन्द पन्हा' का जो स्थान है वही पाली पद्यमे 'जिनालंकार'का है। इसवी सन पूर्व चवथे शतकका काल महिमा ही ऐसा था की इसकी शैली संस्कृत लेखकोंकी तरह कृत्रिम है। उसमे प्रसादसे ज्यादा पांडित्य है। उदाहरण के लियेदिस्वा निमिज्ञानि मदच्छिदानि श्रीनं बिरुरुपानि रताच्छदानि। पापानि कम्मानि सुखच्छिदानि। लच्छानि जाणामि भवाच्छदानि॥४९|| और 'नाना सनामि सयनानि निवेसनानि इत्यादी ८५वा श्लोक देखिये। इसमे अंतरत्रिक खास है। ९६ वे श्लोक मे 'तथा हिमारोपि तदाहसन्ति।' यह एकही चरण तीन बार इस्तमाल करके शब्द छलसे श्लोक साधा है। पंदित्त गेहा बिय करेवं वं वं समुदाय गतो महेसि। महेसि मोलो किय पुत्तमत्तनो तनोसि नो पेममहोद्यमत्तनो।। इस श्लोकमे प्रत्येक चरणका अन्तिम शब्द आगले चरणका पहला शब्द है। तो ९७ वे श्लोकमे 'सकामदाता विनयानमन्तगू' यही चरण चार बार अलग अलग अर्थमे आती है। १०५ से १०८ श्लोकों में न, स, र, द, व, इन वाँका इश्तेमाल करके विलक्षण अनुप्रास साध्य किया है। उनमेसे एकही देखें:नोनानिनो ननूनानि ननेनानि ननानिनो। नुन्नानेनानि नून न नाननं नाननेन नो॥ यह श्लोक पढकर कारवीके । न नोननन्नो नन्नोनो नानो इत्यादी श्लोक याद आता है। अपने श्लोकमे केवल नकार है। सौवे श्लोकमे राजराजयसोपेत विसेसं रचितं मया। यह पहला चरण उलटा पढा जाय तोयामतं चिरसंसेवित पेसो यजराजरा। यह चरण तयार होता है। इसी प्रकार नमो तस्स यतो महिमतो यस्स तमो न। यह पंक्ती उलटी या सुलटी पढी जाय तो वही अक्षरावली है। एक श्लोक मे सभीके सभी वर्ण कण्ठय उपयोजित है दिखे आकंखक्खाकं रवंग... इत्यादी एकसौ एकवा श्लोक। इस तरह संस्कृत जैसा कृत्रिमता का जंगल खडा करनेका सामर्थ्य प्राकृतमेही है इसका साक्षात्कार इधर होता है। अर्थात् यह भक्ती रसात्मक काव्य है। बुद्ध के जीवनका दर्शन करते करते कवीने अपनी भाषाप्रभुता दिखायी है। इसका नित्यपठन अवश्य होता होगा। और पठनसे मनुष्यके जिव्हाको व्यायाम और मोड मिलता होगा। निरोगी वाणीके लिये अवश्य है। फिर पढनेवाला कोई भी संप्रदायका क्यों न हो। किसी भी महापुरुषके चरित्र का पढना मनुष्य मात्रके लिये अच्छे असरदायी है। इधर तो 'जिन' महात्माका एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिये कवी के साथ प्रार्थना करे की'जिनो भविस्सामि अनागतेसु।' मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। ३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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