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________________ विषमताओं और असंगतियों से घिरे इस समाज का सारा वातावरण और परिवेश असंतुलित है। शक्तिस्त्रोतों में असंतुलन है, प्रकृतिजगत में असंतुलन है, मनुष्य के विचारो - भावों में असंतुलन है। मनुष्य का सकल जीवन विषमताग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषित है, हमारी जीवन-पद्धति प्रदूषित है। वायु, जल सभी में प्रदूषण है। भ्रष्टाचार, उत्कोच, लुट-मार, मिलावट, तस्करी, हिंसा भरे मानव समाज में अजीब तरह की अफरा-तफरी है। भौतिकता द्वंद्वमयी बन चुकी है। मनुष्य की जीवन - सरिता में जीवन मूल्यों के स्त्रोत सूख गये है। वह विदिशा में भ्रमित होकर भटक रहा है। नैतिकता स्खलित हो रही है। जो देश अहिंसा को परम धर्म समझता आ रहा है, उसी देश में महावीर, गौतम, नानक के देश में हिंसा पर हिंसा हो रही है। मनुष्य मनुष्य को जान से मार रहा है। लगता है हम गीता, कुरआन भूल गये, जिनवाणी, गुरुवाणी बिसार बैठे है। महावीर ने 'आचारांगसुत्र' में कहा है- "जब तुम किसी को मारने, सताने या अन्य प्रकार से कष्ट देना चाहते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो। यदि वही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाता तो कैसा लगता ? यदि मानते हो कि तुम्हें अप्रिय लगता है तो समझ लो दूसरे को भी अप्रिय लगेगा। यदि नहि चाहते कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करे तो तुम भी किसी के साथ वैसा व्यवहार मत करो।" उन्होने संदेश दिया था कि राग-द्वेष के तटों के बीच रहो; न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । किसी के प्रति न राग रखो, न द्वेष रखो, समभाव मे रहो। समता भाव के उपवन में ही अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य और जैनदर्शन में समतावादी समाज - रचना के प्रेरक तत्त्व डॉ. निजाम उद्दीन अर्थ है मन की स्थिरता, राग-द्वेष आत्मा का स्वरुप है। सभी प्राणियों साधु प्राणिमात्र के प्रति समता का अनेकान्त के सुगंधित गुलाब विकसित होते है। समता का का उपशमन, समभाब, सुख दुःख में अचल रहना। समता के प्रति आत्मतुल्य भाव रखना चाहिए "आयतुले पयासु' चिन्तन करते है। समता से श्रमण, ज्ञान से मुनि होता है । २ समता में ही धर्म है- "समया धम्ममुदाहरे गुणी" । ३ महावीर ने कहा है कि साधक को सदैव समता का आचरण करना चाहिए। उनके मांगलिक धर्मोपदेश का आधार समता है, अर्थात् पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, निर्जीव- सजीव, सकल मानवजगत् की रक्षा की जाये, सब पर दया दृष्टि रखी जाये, सब से प्रेम- मैत्री भरा व्यवहार किया जाये। सूक्ष्मातिसूक्ष्म, क्षुद्रातिक्षुद्र जीव की भी देखभाल और रक्षा की जाये, जल, वृक्ष, नदी तालाब, खेत वन, वायु, वन्यपशु, वनस्पति सभी को सुरक्षा प्रदान की जाये, सभी प्राणियों को अभयदान दिया जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर का जीवन-दर्शन सबका हित और कल्याण चाहना है, हित और कल्याण करना है, आचार-व्यवहार में भी मैत्री, अहिंसा, समता, भाव हो, केवल विचारों में, वाणी में, शब्दों में ही समताभाव न हो। कोरी सहानुभूति से या 'लिप्स सिम्पेथी से काम नहीं चलेगा, उसके अनुकूल आचरण भी करना जरुरी है। आचार्य जीतमल ने समता को आत्मधर्म मानते हुए कहा है। १. सूत्रकृतांग १/११/३, २. उत्तराध्ययन २५/३०, ३. सूक्षकृतांग, २/२/६ २०४ Jain Education International मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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