Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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की अपेक्षा दासियों का उल्लेख अपेक्षाकृत अधिक हआ है। विदेशी दासियों में चिलातिका (चिलात-किरात देशोत्पन्न), वर्वरी (वर्वरदेशोत्पन्न), वकुश देश की तथा योनक, पल्हविक, ईसनिक, लकुस, द्रविण, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कण, बहल, भुरुंड, शबर, पारस आदि का नामोल्लेख हुआ है।१३ ये दासियां अपने-अपने देश के वेश धारण करने वाली, इंगित, चिन्तित, प्रार्थित आदि में निपुण, कुशल एवं प्रशिक्षित होती थी। इन तरुण दासियों को वर्षधरों (नपुंसक), कंचुकियों एवं महत्तरकों (अन्त:पुर के कार्य की चिन्ता रखने वाले) के साथ राजपुत्रों के लालन-पालन हेतु नियुक्त किया जाता था।१४ विदेश से मँगवाई गयी दासियों५ का विवरण उस समय समाज में दासों के क्रय-विक्रय का संकेत प्रस्तुत करता है, जिसकी पुष्टि केश-वाणिज्य के अन्तर्गत दास-दासियों की खरीद-फरोख्त (पशुओं के समान) किये जाने से होती है। युद्धदास:- युद्ध में विजयी पक्ष, पराजित राज्य की विविध धन-सम्पदा के साथ साथ मनुष्यों एवं स्त्रियों को भी बन्दी बना लेता था। इनमें से कुछ अतिविशिष्ट स्त्रियों को तो धन-सम्पन्न व्यक्तिओं द्वारा पत्नी के रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। जबकि शेष पुरुषों एवं स्त्रियों को दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए संत्रस्त किया जाता था।१६ सम्भवत: अपने उपयोग से अधिक संख्या होने पर इन्हें उपहार या परिश्रमिक के रुप में भी दिया जाता था।१७ दुर्भिक्षदास एवं ऋणदास- दुर्भिक्ष के समय उदरपूर्ति एवं अन्य आवश्यकता हेतू लिये गये ऋणो को समय पर अदायगी न किये जाने से ऋणी को ऋणदाता को अल्पकालिक अथवा जीवनपर्यंत दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। उस समय वणिक अथवा गाथापति लोगों को आवश्यतानुरूप कर्ज वितरित करते थे। परिस्थितवश यदि निर्धारित अवधि में ऋण लेने वाला व्यक्ति उसका सम्यक् भुगतान करने में असमर्थ रहता था तो उससे कहा जाता था कि या तो तुम कर्ज चुकाओ, अन्यथा गुलामी करों । १९ धात्रियाँ-दास तथा दासियों के अतिरिक्त उस समय प्राय: सम्पन्न परिवारों में नवजात शिशुओं के पालन, संरक्षण, संवर्दन एवं विकास हेतु दाइयों की नियुक्ति की जाती थी। जैन सूत्रों में राजपरिवार में विविध देशों से लाइ गयी दासियाँ जिन्हें कार्यानुसार पांच कोटियों में विभक्त किया गया है। (१) क्षीरधात्री, (२) मंडनधात्री, (३) भज्जनधात्री, (४) अवधात्री एवं (५) क्रीडापनधात्री। ये दाइयाँ बच्चे को दूध पिलाने, वस्त्रालंकारों से सज्जित करने, स्नान कराने गोद में लेकर बचे को खिलाने तथा क्रीडा आदि कराने में संलग्न रहती थी।२० दाइयों की स्थिति दासियों की अपेक्षा श्रेष्ठ थी। इसका कारण यह था कि दाइयों का स्वामीपुत्रों अथवा पुत्रियों से न केवल तब तक सम्बन्ध रहता था, जब तक वे नादान रहते थे बल्कि वे उनका उचित मार्गदर्शन वयस्क हो जाने पर भी करती थी।१ राजपुत्रों के प्रवजित होते समय माता के साथ दाइयों के भी जाने का उल्लेख मिलता है। दाइ (अम्माधाई) राजपुत्र के वामपार्श्व में रथारुढ़ होती थी।-२२ दासों के कार्य- जैनागम ग्रन्थों में परिवार में रहते हुए घर के काम-काज में तत्पर दासों का विवरण मिलता है। घर के आन्तरिक कार्यों में इनसे अत्यधिक सहयोग प्राप्त किया जाता था। दास तथा दासियाँ परिवार में प्राय: राख तथा गोबर आदि फेंकने, सफाई करने, साफ किये गये स्थल पर पानी छिड़कने, पैर धुलाने, स्नान कराने, अनाज, कूटने, पीसने, झाडने
और दलने तथा भोजन बनाने में अपने स्वामी अथवा स्वामिनी का सहयोग करते थे।२३ जैसाकि पीछे कहा जा चुका है कि दास एवं दासियों के अतिरिक्त उनकी सन्तति पर भी दासपतियों का प्राय: आधिपत्य रहता था। दासचेट अपने मालिक के बच्चों का मनोरंजन तथा क्रीडादि कराते थे एवं स्वामी को भोजन आदि पँहुचाते थे।२५ दासचेटियाँ अपने स्वामिनी के साथ पूजा-सामग्री १३. अन्तकृतदशांगसूत्र ३/२, राजप्रश्नीयसूत्र २८१, १४. वही, वही, १५. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, २/८/५, उत्तराध्ययन, ८/१८, १६, अन्तकृतदशा, ३/३ १७. पिण्डनियुक्ति, ३१७-१९, व्यवहारभाष्य, ४/२, २०६-७, १८. देखिए, जे.सी. जैन, पृ. १५७-१५९, १९. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १/१/९६, अन्तकृतदशा, ३/२ २०. ज्ञाता धर्म कथासूत्र, १/१/९६, २१. वही, १/१/१४६, २२. वही, १/७/२०, २३. वही, १/२/२२, २४. वही, १/४८/४५
ममता यदि ज्ञान पूर्ण होतो वह सांसारिकों के लिए उत्तम हैं।
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