Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

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Page 253
________________ उद्भूत होगी। यह निश्चित है मनुष्य जब कोई कार्य करता है तो उसके आस-पास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों और उपस्थित कर्म शक्ति युक्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणु अर्थात कर्म आत्मा की और आकर्षित होते है इन परमाणुओं का आत्मा की और आकर्षित होना आष्व, आत्मा के साथ क्षेत्रावगाह (एक ही स्थान में रहने वाला) सम्बन्ध 'बन्ध' इन परमाणुओं को आत्मा की ओर आकृष्ट न होने देने की प्रक्रिया 'सवर' तथा इन परमाणुओं से छुटने का विधि-विधान 'निर्जरा' और आत्मा का समस्त कर्म परमाणुओं से मुक्त होना वस्तुत: 'मोक्ष' कहलाता है। वास्तव में जीव के शरीर की संरचना भी तभी तक रहती है जबतक आत्मा कर्मों से जकडी हुई है। कर्म-बद्ध आत्मा ही कर्म पुद्गल से सम्बन्ध स्थापित करती है और इस प्रकार ये कर्म पुद्गल अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, वर्तमान या पूर्वजन्म के हों, जीव के साथ सदा विद्यमान रहते है और परिपक्व होने पर उदित होते है। नि: सन्देह संसारी जीव के साथ रहने वाले ये कर्म उसके मन में उठने वाले विचारों भावों संकल्पो और प्रवृत्तियों को शुद्ध पवित्र रखने की प्रेरणा प्रदान करते है तथा जीव में हेय-उपादेय, हित अहित, सुख दु:ख, अर्थ अनर्थ आदि का भेद विज्ञान भी कराते है। लौकिक-अलौकिक कोई भी कार्य करते समय यदि जीव की भावना शुद्ध तथा राग-द्वेष अर्थात क्रोध, मान,माया लोभ, कषायों से निर्लिप्त, वीतरागी है तो उस समय शारीरिक कार्य करते हुए भी किसी भी प्रकार का कर्म वन्ध उस जीव में नही होता है। प्राय: यह देखा-सुना जाता है कि विभिन्न व्यक्तीयो द्वारा एक ही प्रकार के कार्य करने पर भी उनमे भिन्न भिन्न प्रकार का कर्म बन्ध होता है इसका मूल कारण है कि एक ही प्रकार के कार्य करते समय इन व्यक्तीयों के भाव सर्वथा भिन्न प्रकार के होते है। फलस्वरुप उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-बन्ध होता है । जैन दर्शन में तो कर्म की दस अवस्थाएँ निरुपित है यथा-वंध, उत्कर्ष, अपरर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, सक्रमण, उपराम, निष्पति और नि:काचना। कर्म की इन दस अवस्थाओं में प्रारम्भिक अवस्था 'बन्ध की मानी गई है, क्यों कि बीना उस अवस्था के अन्यशेष अवस्थाएँ नहीं हो सकती है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के आधार पर बंध को चार भागों में बाँटा जा सकता है। जो बन्ध कर्मों की प्रकृतिस्वभाव को स्थिर करता है प्रकृति बन्ध, जो कर्म फल की अवधि के निश्चित करे "स्थिति बन्ध" जो कर्म फल की तीव्र या मन्द शक्ति की निश्चितता करे "अनुभाग बन्ध" तथा जो कर्मों की संख्या शक्ति को प्रकट करे "प्रदेश बन्ध" कहलाता है। स्थिति और अनुभाग के बढने को उत्कर्षण, स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहा जाता है। कर्म के बंध होने पर और उनके फलोदय होने के बीच कर्म आत्म में विद्यमान रहते है जिसे "सत्ता" कहा जाता है तथा कर्म के फल देने को उदय तथा नियतकाल के पहले कर्म के फल देने को उदीरणा कहते है। यह उदय दो प्रकार का होता है - एक फलोदय और दूसरा प्रदेशोदय। जब कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाता है तो वह फलोदय तथा जब कर्म बिना फल दिऐ ही नष्ट हो जाता है तो ऊसे प्रदेशोदय कहा जाता है। एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्म में रुपान्तरित हो जाना संक्रमण तथा कर्म का उदय में आ सकने के अयोग्य हो जाना 'उपराम' अवस्था है। उपराम मोहनीय कर्म कि प्रकृतियों में ही होता है। कर्मों का संक्रमण और उदय न हो सकना निष्पति तथा उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण संक्रमण और उदीरणा ३०२ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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