Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

View full book text
Previous | Next

Page 269
________________ वैदिक एव श्रमण धर्म-परम्पराएं और उनका वैशिष्ठयः भारतीय धर्मों को मुख्य रुप से वैदिक और श्रमण इन दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। इस विभाजक का मूल आधार उनकी प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक जीवन दृष्टियां है, जो क्रमश: उनकी वासना और भावावेग जनित जैविक मूल्यों एवं विवेक जनित आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित है। सामान्यतया वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्म को निवृत्तिमूलक कहा जाता है। यद्यपि आज वैदिक धर्म और श्रमण धर्मो की विविध जीवित परम्पराओं के बीच प्रवृत्ति और निवृत्ति के इन आधारों पर कोई विभाजक रेखा खींच पाना कठिन है, क्योंकि आज किसी भी धर्म-परम्परा या धर्म सम्प्रदाय को पूर्ण रुप से प्रवृत्तिमूलक या निवृत्तिमूलक नहीं कहा जा सकता है। जहाँ एक और वैदिक धर्म में औपनिषदिक चिन्तन के काल से ही निवृत्तिमूलक तत्व प्रविष्ट होने लगे और वैदिक कर्म-काण्ड, इहलौकिकवाद एवं भोगवादी जीवन-दृष्टि समालोचना का विषय बनी, वहीं दूसरी ओर श्रमण परम्पराओं में भी धर्म-संघों की स्थापना के साथ ही संघ और समाज व्यवस्था के रुप में कुछ प्रवृत्तिमूलक अवधारणाओं को स्वीकार किया गया और इस प्रकार लोककल्याण के पावन उद्देश्य को लेकर दोनों परम्पराएँ एक-दूसरे के निकट आ गयीं। जैन-जीवन दृष्टि: जैन धर्म की आचार परम्परा यद्यपि निवृत्तिमूलक जीवन-दृष्टि प्रधान है, परन्तु उसमें सामाजिक और ऐहिक जीवन-मूल्यों की पूर्ण उपेक्षा की गई हो, यह नहीं कहा जा सकता। उसमें भी जैविक एवं सामाजिक जीवन-मूल्यों को समुचित स्थान मिला है। फिर भी इतना निश्चित है कि जैन धर्म में जो प्रवृत्तिमूलक तत्त्व प्रविष्ट हुए हैं, उनके पीछे भी मूल लक्ष्य तो निवृत्ति या संन्यास ही है। निवृत्तिमूलक धर्म से यहाँ हमारा तात्पर्य उस धर्म से है जो सांसारिक जीवन और ऐन्द्रिक विषय-भोगों को गर्हणीय मानता है और जीवन के चरम् लक्ष्य के रुप में संन्यास और निर्वाण को स्वीकृत करता है। आज भी ये श्रमण परम्पराएं निर्वाण को ही परम् साध्य स्वीकृत करती है। आज संन्यास और निर्वाण को जीवन का साध्य माननेवाले श्रमण धर्मो में मुख्य रुप से जैन और बौध्द धर्म ही जीवित है। यद्यपि आजीवक आदि कुछ अन्य श्रमण परम्परायें भी थीं, जो या तो काल के गर्भ में समाहित हो गयीं है या बृहद् हिन्दु धर्म का एक अंग बने गयीं है। अब उनका पृथक् अस्तित्व नहीं पाया जाता है। । जहां तक जैन धर्म का प्रश्न है, परम्परागत दृष्टि से यह इस कालचक्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित माना जाता है, ऋषभदेव प्रागऐतिहासिक काल के तीर्थंकर हैं। दुर्भाग्य से आज हमारे पास उनके सम्बन्ध में बहुत अधिक ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में उल्लिखित ऋषभ की कुछ स्तुतियों और वातरसना मुनियों के उल्लेख से हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वैदिक युग में कोई श्रमण या संन्यासमार्गी परम्परा प्रचलित थी जो सांसारिक विषय भोगों से निवृत्ति पर और तप तथा ध्यान साधना की पध्दति पर बल देती थी। इसी निवृत्तिमार्गी परम्परा का अग्रिम विकास एक और वैदिक धारा के साथ समन्वय एवं समायोजन करते हुए औपनिषदिक धारा के रुप में तथा दूसरी और स्वतंत्र रूप में यात्रा करते हुए जैन (निर्ग्रन्थ) बौध्द एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के रुप में हुआ। आज यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि कोई भी धर्म परम्परा पूर्ण रुप से निवृत्ति प्रधान या प्रवृत्ति प्रधान होकर जीवित रह सकती है। वस्तुत: निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में एकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा ३१८ महापुरुषो की प्रभावी रुप में मात्र उडती करण रज भी घर में पड़ जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320