Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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व्युत्सर्जन किसका? सभी संयोगज वस्तुओं का। क्योंकि बाह्य संयोग ही स्वानन्दानुभूति के प्रमुख बाधक तत्व हैं। जैसा कि कहा है संयोगतो दुःखमनेक भेदं, यतोश्नुते जन्मवने शरीरी। ततस्त्रिधासो परिवर्जनीयो, यियासना निवृत्तमात्मनीनाम्।
अत: शिथिलीकरण के साथ-साथ अध्यात्म साधक भावना भाता हैं
यह भवन, आसन, वस्त्र, शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुएँ संयोगज है, मेरी नहीं है। विषय-कषाय आदि की भावनाएँ भी परजन्य है, कर्मोदय से हो रही हैं। मैं तो एक मात्र शुद्ध, बुद्ध-चिद्रूप आत्मा हूँ, ज्ञान-दर्शन ही मेरा स्वभाव है इसी में रमण करना मेरा लक्ष्य/कर्तव्य है।
उसके अन्तर से भाव-प्रवाह बहता है शुद्धोडह, बुद्धोडह, सर्वचिद्ध पोडहं ध्वनियाँ
इस भावना-प्रवाह के साथ-साथ शुभ और शुद्ध आवेग में उसके मुख से ध्वनियाँ प्रस्फुटित होती
१. अर्हम् २. ॐ हीं अहं अहं अर्हम् ३. मनोविजेता जगतोविजेता ४. चिदानन्द रूपं नमो वीतरागं और फिर ५. अरिहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवजमि, साहू सरणं पवजामि ६. चार शरण दुःखहरण जगत में, औरा न शरण कोई होगा । जो भवि प्राणी करे आराधन, उसका अजर अमर पद होगा।
आप भी साधक हैं। स्वानन्दानुभूति ध्यान साधना में प्रवृत्त हुए हैं। मैंने आपको इस ध्यान साधना की पद्धति बताई। आप सभी ने हदयंगम की।
मेरा विश्वास है कि आप मेरे द्वारा बताई हई विधि से ध्यान साधना करेंगे और स्वानन्दानुभूति का अमृत रस पान करेंगे।
अन्त में, दो शब्द मैं स्वानन्दानुभूति के बारे में भी कह दूँ। यों तो स्वानन्दानुभूति का स्वरुप शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो गूंगे का गुड है, जो चाखे, वही जाने बता नहीं सकता। किन्तु फिर भी कुछ आभास तो आपको करा ही दू।
स्वानन्दानुभूति में तीन शब्द है -स्व, आनन्द और अनुभूति। स्व का अभिप्राय है आत्मा। कषाय आत्मा नहीं, शुद्ध आत्मा। आपकी, मेरी, सबकी, सभी भव्य प्राणियों की आत्मा आनन्दमय है। आनन्द आत्मा का स्वभाव है। अरिहंत भगवान के चार अनन्तचतुष्टयों में अनन्तमुख कहा गया है। वह सुख ही आत्मा का अनन्दमय स्वभाव है। इसीलिए आत्मा को सचिदानन्दघन
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देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं।
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