Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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जैनाचार्यों ने आगम साहित्य की विषय-वस्तु का जिन चार अनुयोगों में विभाजन किया है, उनमें चरणकरणानुयोग ही ऐसा है जिसका सीधा सम्बन्ध धर्म साधना से है धर्म मात्र ज्ञान नहीं अपितु जीवन शैली है। वह जानने की नहीं जीने की वस्तु है। धर्म वह है जो जिया जाता है। अतः धर्म सदाचरण या सम्यक् चरित्र का पालन है।
सामान्यतया जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चरित्र को रत्नत्रय के नाम से अभिहित किया गया है दिगम्बर परम्परा में आचार्य कार्तिकेय ने अपने ग्रन्थ 'बारसअणुवेक्खा' में रत्नत्रय की साधना को धर्म कहा है। वस्तुतः रत्नत्रय की साधना से मिन्न धर्म कुछ नहीं है मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे अस्तित्व का मूलकेन्द्र चेतना है और चेतना के तीन पक्ष हैं-ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प वस्तुतः रत्नत्रय की साधना अन्य कुछ नहीं, अपितु चेतना के इन तीनों पक्षों का परिशोधन है। क्योंकि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, और सम्यक - चरित्र क्रमश: वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध करा कर ज्ञेय के प्रति हमारी आसक्ति या राग भाव को जुडने नहीं देता है और हमें ज्ञांता द्वा भाव या समभाव में स्थित रखता है। इस प्रकार हमारी चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यक् ज्ञान भावात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यकू दर्शन और संकल्पात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय सम्यक चरित्र है। अतः रत्नत्रय की साधना अपने ही शुद्ध स्वरूप की साधना है, क्योंकि वह स्व स्वरूप में अवस्थिति के द्वारा समभाव और वीतरागता की उपलब्धि का कारण है।
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मानव के अंतर प्रदेश में वैराग्य का प्रकाश अनेक
बार सहसा चमकता है परन्तु यह प्रकाश यदि दुःख के प्रत्याघात के रुप में चमका हो तो दुःख का शमन होते ही वैराग्य भी शांत हो जाता है कारण दुःख के प्रत्याघात से उत्पन्न वैराग्य मन को प्रभु के रंग में रंग नही सकता। वह तो मात्र वृत्ति यानि उपरी रंग से रंजित होता हैं। इसमे भी यदि किसी आत्मा को इस प्रसंग में सम्यग्ज्ञान दर्शन का सहारा मिल जाता है तो क्षणिक प्रकाश स्थिर भी बन सकता
हैं ।
कसौटी पर कसे जाने का भाग्य कुंदन को ही मिलता है, कथिर को नहीं ।
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