Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

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Page 271
________________ प्राणी के रुप में उसका धर्म या स्वभाव चैतसिक समत्व की उपलब्धि है। यहां चैतसिक समत्व का तात्पर्य विभिन्न अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियों में चेतना के स्तर पर अविचलित रहना है। दूसरे शब्दों में समत्व का अर्थ ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित रहना है। वस्तुत: यह राग और द्वेष के तत्त्व हमारी चेतना के समत्व को विचलित करते हैं अत: राग-द्वेष जन्य विक्षोभों से रहित चेतना की समभाव में अवस्थिति ही उसका स्व-स्वभाव है और यही धर्म है। वैयक्तिक धर्म: समता: व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में आत्म स्वभाव की चर्चा करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है कि आत्मा क्या है और उसका साध्य या लक्ष्य क्या है? जैन आचार्यों ने इस सम्बन्ध में अपने उत्तर में कहा है कि आत्मा समत्व रुप है और उस समत्व को प्राप्त कर लेना यही उसका लक्ष्य है। आचारांग सूत्र में इसी दृष्टिकोण के आधार पर धर्म को समता के रुप में परिभाषित किया गया है। उसमें कहा गया है कि "आर्यजनों ने समभाव में धर्म कहा है," २ वस्तुत: समभाव के रुप में धर्म की यह परिभाषा धर्म की स्वभाव परक परिभाषा से भिन्न नहीं है। मानवीय एवं प्राणी प्रकृति यही है कि वह सदैव ही तनावों से रहित समत्व की स्थिति को पाना चाहता है। अत: यह कहा जा सकता है कि वे सभी तथ्य, जो चेतना के इस समत्व को भंग करते हैं, विकार, विभाव या अधर्म हैं, इसके विपरीत जीवन व्यवहार के वे सभी तथ्य जिनसे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समता की स्थापना होती है धर्म कहा जा सकते हैं। जब हम धर्म को वैयक्तिक दृष्टि से परिभाषित करना चाहते है। तो उसे निश्चय ही समभाव के रुप में परिभाषित करना होगा। संक्षेप में कहें तो समता धर्म है और ममता अधर्म या पाप है, क्योंकि समता के द्वारा आत्मा समाधि या शांति की स्थिति में होता है और यही उसकी अविकारी अवस्था या स्वभाव-दशा है। जबकि ममता के कारण वह तनाव एवं मानसिक असंतुलन से ग्रस्त होता है, अत: ममता विकारी अवस्था या विभाव-दशा है। सामाजिक धर्म: अहिंसा: वैयक्तिक ममता के ये तत्व, जब बाह्य रूप में अभिव्यक्त होकर हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करते है, तो वे हिंसा और संघर्ष को जन्म देते हैं। ममता के कारण अधिकांश आधिपत्य, संग्रह और शोषण की वृत्तियों का उदय होता है। व्यक्ति अपने और पराये की दीवारें खींचता है, जिसके परिणामत: समाज-जीवन में संघर्ष और हिंसा का जन्म होता है और इन्हीं संघर्षों और हिंसक व्यवहारों के कारण सामाजिक जीवन का समत्व या सामाजिक शांति भंग हो जाती है। आचारांग सूत्र में इसी सामाजिक जीवन-व्यवहार के दृष्टिकोण के आधार पर धर्म की एक दूसरी परिभाषा भी दी गई है, उसमें कहा गया है कि "भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमान में हैं अथवा भविष्य में होंगे वे सब यह प्रज्ञापित करते हैं अथवा व्याख्यायित करते हैं कि किसी प्राण, भूत जीव या सत्व को पीडा नहीं देना चाहिए, उनका घात नहीं करना चाहिए, उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। यही शाश्वत् शुद्ध एवं नित्य धर्म है।३ १) आया सामाइण, सानाइस्स अटे। व्यख्यापज्ञप्ति २) समयारा धम्मे आरिएहिं पवेइए। - आचारांग १/५/३/१५७ (च० पृ०३०) ३) से बेमि-जेय अतीता जे य पडप्पणा जे य आगमेस्मा अरहंता भगवंता सव्वे त एमवाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पणवेंति, एवं पति-सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ताण हंतव्वा ग अज्जावेयव्वा ण परिधेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उछेवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते, समेच लोग खेतन्नेहिं पवेविते। आचारांग १/४/१३१-१३२/(च०पृ०३३) सूत्रकृतांग२/१/६८० (च०पृ० २१६) ३२० किसी भी छोटे-बडे मंत्र की आराधना में सिद्धि तन, मन और प्राण की एकाग्रता के बिना होती ही नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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