Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

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Page 252
________________ जैन दर्शन में कर्म -मीमांसा उथल-प्रथल, ऊहापोह, आपाधापी, उठक-पठक लूट-पाट, मार-धाड अर्थात हिंसा के विविध आयामों में सम्यक्त वर्तमान जीवन आशा-निराशा, पल्पना - यथार्थता, स्थिरता चंचलता, धीरता - अधीरता, क्रुरता - करुणा, शोषणता - पोषणता, समता - विषमता, स्वाधीनता - पराधीनता, जडता - चिन्मयता, कुटीलता - सरलता आदि विभिन्न उलझनों से भुकत्यर्थ आत्मिक शान्ति आनन्द - विलास की खोज में सतत संघर्ष रत है, अस्तु त्रस्त्र संत्रस्त्र है। ऐसी दीन-हीन स्थिति में अर्थात मानसिक अशान्तिजन्य अवस्था में "कर्म - सिद्धान्त" जीवन के लक्ष्य को स्थिर आलोकित करने में अर्थात सत-चित-आनन्द स्वरुप को उदघाटित करने में निमित्त नैमितिक का कार्य करते है। देशी विदेशी दर्शनों वेदान्त, गीता, जैन, बौद्ध न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य पोग, अद्वेय विशिष्टा द्वेत, द्वेताद्वेत द्वेत, शुद्धाद्वैत, इस्लाम काइस्ट कन्फ्यूशस में कर्म विवेचना अपने अपने ढंग से निरुपित है वास्तव में ये कर्म सिद्धान्त लौकिक-अलौकिक जीवन में प्रवलशक्ति स्फुर्ति का संचार करते हैं। जीवन में इनकी उपयोगिता उपादेयता निश्चयही असन्दिग्ध है। - "क्रियते ततः कर्म दुकंञ- करणे" धातु से निष्पन्न " कर्म" शब्द कर्मकारक किया तथा जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुदगल स्कन्ध, आदि अनेक रूपों में प्रयुक्त है। इसका सामान्य अर्थ "काम" से लिया जाता है किन्तु व्याकरण के क्षेत्र में यह कर्मकारक के रूप में गृहीत है। दर्शनिक क्षेत्र में भारतीय जैनेतर दर्शन, मन, वचन, व कर्म से किए गये 'काम' को 'कर्म' की संज्ञा देते है। अर्थात क्रिया और तज्जन्य संस्कार कर्म कहलाते हैं किन्तु जैन दर्शन में कर्म अपने विशिष्ट अर्थ में प्रतिष्ठित है। यहाँ जीव के साथ जुडनेवाला पुद्गल स्कन्ध 'कर्म' कहलाता है अर्थात जीव से सम्बद्ध मूर्तिक द्रव्य और निमित्त से होने वाले राग द्वेष रुप भाव कर्म कहे जाते हैं। Jain Education International - राजीव प्रचंडिया एडवोकेट — भारतीय दर्शन में प्रतिष्ठित कर्म 'सिद्धान्त' जिसमें शरीर रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्त्व तक का तथा बन्धन से मुक्ति तक की महायात्रा का विशद चिन्तन-विश्लेषण अंकित है संसारी जीव को जो आत्मस्वरुप की दृष्टि से समान होते हुए भी विविध अवस्थाओं-स्थितियों, विभिन्न गतियों--योनियों में तथा जीव के पुनर्जन्न सम्बन्धी घटनाओं का अर्थात जीव को विभिन्न सांसारिक परिणतियों अवस्थाओं में होना मानता है। वास्तव में कर्मों से लिप्त यह जीव अनादिकालसे, अनेक भवो में तथा विभिन्न रूपों, कभी धनिक तो कभी निर्धन, कभी पंडित तो कभी ज्ञानवंत, कभी रुपवान तो कभी कुरुपी, कभी सबल तो कभी निर्बल, कभी रोगी तो कभी निरोगी, कभी भाग्यवान तो कभी दुर्भाग्यशाली, आदि में चारों गतियों, देव, मुनष्य, तिर्थञ्य, नरक तथा चौरासी लाख योनियों में सुख दुःख की अनुभूति करता हुआ जन्म-मरण के चक्र में फँसा हुआ है। इस प्रकार कर्म - श्रृंखला जन्म-जन्मान्तर से सम्बद्ध और अत्यन्त मजबूत मानी गई है जिसमें जीव अपने कृत कर्मों को भोगता हुआ नवीन कर्मो का उपार्जन करता है। मानवजीवन पर कर्मों का प्रभाव अत्यन्त व्यापक है। यदि किसी व्यक्ति को यह मालूम पडे कि मुझको जो कुछ भोगना पडता है वह मेरे पूर्व जन्म कृत कार्यों का ही फल है तो वह पुराने अथवा पूर्व भव में किए हुए कर्मों को सहज शान्त व समभावी / समदर्शी होकर क्षय करने का पुरुषार्थ करेगा जिससे नवीन कर्मो का आगमन रुकेगा और उसके अन्दर सहनशक्ति / सहिष्णुता की भावना मन की पंखुडियां जब एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। For Private Personal Use Only ३०१ www.jainelibrary.org

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