Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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का न होना नि:काचना कहलाता है। कर्म भी इन दस अवस्थाओं का सम्यक् ज्ञान कर लेने के उपरान्त यह सहज में कहा जा सकता है कि ये कर्म, जीव के भाग्य-विधाता है। वास्तव में कर्मबंध व उदय से मिलने वाला फल ही भाग्य कहलाता है। उदीरणा संक्रमण उत्कर्षण,
और अपकर्षण द्वारा किए हुए कर्म परिवर्तित तथा नष्ट किए जा सकते है। इस प्रकार इन कर्म सिद्धान्तों के द्वारा यह सत्य उद्घाटित होता है कि प्रत्येक जीव अपनी स्थिति का सृष्टी अपने भाग्य का विधाता स्वंय ही है। स्वय ही बन्धन एवं मोक्ष का कर्ता है। इससे जीव में पुरुषार्थ का सही-सही उपयोग करने की क्षमता प्रकट होती है सुप्तचेतना जागृत विकसित होती है।
कर्म संरचना के विज्ञान को समझने के लिए जैन दर्शन में कर्म को मूलत: दो भागों में विभाजित किया गया है। एक द्रव्य कर्म तथा दूसरा भावकर्म। कामणि जातिका पुदगल अर्थात जड तत्त्व विशेष जो कि आत्मा के साथ मिलकर कर्म के रुप में परिवर्तित होता है, द्रव्य कर्म कहलाता है जब कि राग द्वेषात्मक परिणाम को भाव कर्म कहते है। किन्तु घात-आघात के आधार पर कार्य दो भागों में विभक्त हैं। एक तो वे कर्म जो आत्मा के वास्तविक स्वरुप का घात करते है, घाति कर्म कहलाते है जिसके अन्तर्गत ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय कर्म आते है तथा दूसरे वे कर्म जिसके द्वारा आत्मा के वास्तकि स्वरुप के आधात की अपेक्षा जीव की विभिन्न योनियों अवस्थाएँ तथा परिस्थितियाँ निर्धारित हुआ करती है अघाति कर्म कहलाते है इनमे नाम, गोत्र आयु और वेदनीप कर्म समाविष्ट है। ज्ञानावरणीय कर्म
कामणि वर्गणा कर्म परमाणुओं का वह समूह जिससे आत्मा का ज्ञानगुण प्रछन्न रहता है, ज्ञानावरणीय कर्म कहलता है। इस कर्म के प्रभाव में आत्मा के अन्दर व्याप्त ज्ञान राशि क्षीर्ण होती जाती है। फलस्वरुप जीव रुढि क्रिया काण्डों में ही अथवा सम्पूर्ण जीवन नष्ट करता है। इस कर्म के क्षप के लिए सतत स्वध्याय करना जैनागम में निर्दिष्ट है। दर्शनावरणीय कर्म
कर्म शक्ति पुक्त परमाणुओं का वह समूह जिसके द्वारा आत्मा का अनन्त दर्शन स्वरुप अप्रकट रहता है, दर्शनावरवीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के द्वारा आत्मा अपने सचे स्वरुप को पहिचानने में सर्वथा असमर्थ रहता है। फलस्वरुप वह मिथ्यात्व का आश्रय लेता है। मोहनीय कर्म
इस कर्म के अन्तर्गत वे कामणिवर्गणाएँ आती हैं जिसके द्वारा जीव मे मोह उत्पन्न होता है। पद कर्म आत्मा के शान्ति सुख आनन्द स्वभाव को विकृत करता है। मोह के वशीभूत जीव स्व-पर का भेद विज्ञान भूल जाता है समाज में व्याप्त संघर्ष इसी के कारण है। अन्तराय कर्म!
आत्मा के व्याप्त ज्ञान-दर्शन-आनन्द स्वरुप के अतिरिक्त अन्य सामर्थ्य-शक्ति को प्रकट करने में जो कर्म-परमाणु बाधा उत्पन्न करते है वे सभी अन्तराय कर्म के अन्तर्गत आते है। इस कर्म के कारण ही आत्मा में व्याप्त अनन्त शक्ति का -हास होने लगता है। आत्म-विश्वास की भावना संकल्प शक्ति तथा साहस-वीरता आदि मानवीय गुण प्राय प्रच्छन्न रहते है। नामकर्म __इस कर्म के द्वारा जीव एक भव से दूसरे भव में जन्म लेता है तथा उसके शरीरादि
विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार-मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है।
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