Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
View full book text
________________
एक तुलनात्मक अध्ययन "भारतीय दर्शन एवं जैन दर्शन"
लेखक :- वैद्य मुरलीधर श्रीमाली "साधक" मत मतान्तरों का यह जनक संसार सभ्यता की स्पर्धा में धावक की भांति गतिमान होता दिखलाई दे रहा है। इसका निर्णायक चिन्ह या बिन्दु अथवा स्थान कहां है? कोई नहीं जानता। फिर भी सर्वोपरि या शक्ति के प्रदर्शन के विवाद में उलझने के लिये स्वयं को तनाव अशान्ति, आशंका, भय, क्लेश, के बन्धन में ही एक क्षणिक सुख की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है। बढ़ती हुई अनाधिकार चेष्टाएँ व भौतिक धुन्ध में आध्यात्मिक प्रज्ञा का ग्रास होता जा रहा है। इसी कारण आध्यात्मिक मार्ग दर्शन का महत्त्व घटता जा रहा है। धर्म और कर्तव्य लगातार
और अधिकांश दूर होता दिखाई दे रहा है या फिर पाखण्डियों के चंगुल में जा रहा है। इस संभावित दुर्दशामें दर्शन कहीं उपहास बन कर न रह जाय? इसके मर्म को समझने के लिये अधिकांश लोगों के पास समय ही नहीं है। हिंसक प्रवृत्तियां दूषित राजनिति का यह बढ़ता हुआ ताण्डव कब तक चलेगा? कहना कठिन है। यह निश्चित है कि विनाश के कगार से पुन: लौटने के लिये प्रयास आज भी हमारा दर्शन कर रहा है, प्रेरणा दे रहा है। ऋषि-मुनियों के द्वारा प्रशस्त सुखद मार्ग के लिये आज भी पश्चिमी जगत आशा लगाये हुआ है। अपने अन्तर्मन को शान्ति एवं सन्तोष का प्रश्न देने के लिये इस और देख रहे है। परन्तु झुठे स्वाभिमान की चट्टान बाधा बनी हुई है। आज वे ही दुर्गुण पूर्वो जगत में संक्रमण होते जा रहे है। विडम्बना की मृग मरीचिका के भ्रम में भटकता हुआ मानव सन्तोष या आनन्द के छोर से अनभिज्ञ होकर मरुभूमि के शुष्क वातावरण में दूर दूर तक आशा की दृष्टि लगाये बैठा है। राग द्वेष लोभ मोह के कुहरा में विवेक रुपी नाव भटकने लगी है। इस अन्धकार में दर्शन रुपी दिपक को जो ओझल सा हो गया है, पुन: प्रकाशमान होने की क्षमता पैदा करनी होगी। भ्रमित को सही दिशा देने की क्षमता मात्र हिन्दु (भारतीय) दर्शन में ही है। चौंकिये मत, हिन्दु दर्शन किसी जाति या धर्म विशेष का नहीं है। वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करने वाला, जिसका मूल मंत्र है - सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु, निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दु:खभाग् भवेत्।। सुभाषित। ऐसा महान आदर्श रखनेवाला हिन्दु समाज संकीर्णता से ऊपर उठकर जन जन के कल्याण की भावना संजोये रखता है। अपनी इस सुसंस्कृती के कारण ही अपने देश भारत को जगद-गुरु के पद पर पहुंचाने में सक्षम रहा है।
परन्तु आज इसका गुरुत्व सोया हुआ कैसे? पूर्व की संचित शक्ति आज भी विद्यमान है। इसकी अनेकों ही किरणे (वेदवेदान्तसांख्य,न्याय जैन, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शन) चारों ही दिशाओं को देदीप्यमान करने की क्षमता रखती है। आज आवश्यकता है इस बढ़ते हुओ भौतिक अन्धकार को चीरने की। हमें इस बात का गर्व है कि वर्तमान में हमारे सन्त, महात्मा, मुनितपोनिष्ट धर्माचार्य इस प्रकाश का लाभ सतत व सर्वत्र पहूंचाने का प्रयास कर रहे है। काल की कराल गति समझें कि राग द्वेष के वशीभूत होकर हमारे मूलभूत दर्शन को अलग अलग द्रष्टि से देखे
२९४
अतंरतमम् यदि साधु न बना तो वेश बदलने से क्या लाभ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org