Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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जाने लगा। एक ही वृक्ष की शाखाओं पर फलोंको खट्टे मीठे तथा विष-अमृत का भ्रम उत्पन्न कर दिया। जो आज के समय में विपरीत ही नहीं बल्कि विनाशकारी सिद्ध हो सकते है। आज आवश्यकता है कि हम अपने कुछ निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वस्थ मार्ग को प्रशस्त करें। इसी संदर्भ मे मैंने पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजय जी के अभिनन्दन ग्रन्थ में एक श्रद्धा सुमन के रुप में इस उपरोक्त विषय को अर्पित करने का लघुप्रयास किया है।
भारतीय दर्शन इतना व्यापक है कि इसमें नास्तिक-अस्तिक के साथ ही अनेकों ही वाद को स्थान मिल सकता है। सामान्यत: कहीं कहीं विरोधाभास अवश्य द्रष्टि गोचर होगा। जिसे हम एक प्रबुद्ध विचारक या चिन्तक का स्वभाविक गुण समझ सकते है। लेकिन प्राय: मूलत: सिद्धान्तों में किसी न किसी रूप में एक्य भाव देख सकते है। चार्वाक दर्शन सम्मान का स्थान न पाने के कारण ही सुशिक्षित चार्वाक के रुप में उभर कर सामने आना हुआ। यहां शेष सिद्धान्त के साथ जैन दर्शन को लेकर एक तुलनात्मक अध्ययन पर ही प्रकाश डालेगें।
अपने विषय के प्रारम्भ से पूर्व मुनि सुशीलकुमार के विचारों पर प्रकाश डालना प्रासंगिक समझता हूं। इन्होंने अपनी जैन हिन्दू-एक सामाजिक दृष्टिकोण "पुस्तक में जिज्ञासा" उल्लेख किया है, साथ ही भारतीय संस्कृति और अपने आपको हिन्दू होने का जो प्रमाण प्रस्तुत किया है, युक्ति संगत है। उसमें भारतीय दर्शन और जैन दर्शन का समन्वय रुप उभर कर आता है, वे कुछ बिन्दु इस प्रकार से है। देवमूर्ति का सम्मान करता हूं, पूर्वजन्म को स्वीकार करता हूं, उससे मुक्त होने के प्रति सचेष्ट हूं, सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को ग्रहण करता हूं, अहिंसा को धर्मभूत में मानता हूं, तथा गो सेवा में निष्ठा रखता है, इत्यादि। स्वामी कर पात्रीजी ने लिखा है गोपु भक्ति में वे थस्य, प्रणवे च द्रढ़ा मतिः । पुनर्जन्मानि विश्वास: सर्वे हिन्दू रितिस्मृतः ।। गोमाता एवं ओंकार में जिसकी भक्ति होत तथा पूर्वजन्म में विश्वास हो वह हिन्दू है।
पुस्तक अष्टाचार्य गौरव गंगा, लेखक मुनिज्ञान, के पृष्ठ ८६-८७, सन्त श्री लालजी अपने प्रभाव से मुसलमानों द्वारा रेवाड़ी में गायें कटवानी बन्द करवा दी तथा गुड़ गांव में तीनहजार गायें कटवाने से बचाली। इस प्रकार जैन दर्शन की पृष्ठ भूमी में विविध भारतीय प्राचीन दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। जैन मंदिरों में ब्राह्मण का पुजारी होना, पूजाकी विधि वैष्णव पद्धति के अनुसार, गणेशपूजा, शुभकार्य में स्वस्तिक, ओंकार का महत्त्व, जैनाचार्य महासेना सूरिका "सिया चरित्र' ग्रन्थ व आचार्य श्रीतुलसी के खण्ड काव्य की निम्न पंक्तियांओं जय सितामाता, तेरे बिन न कोई जरादाबे त्राता। ओं जय सितामाता। जै. हिन्दू। कविवार श्रीमान् सूर्य मुनिजी महाराज द्वारा रचित जैन रामायण में श्री हनुमामनजी का यशोगान उल्लेखनीय है। जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरी जो एक ब्राह्मण परिवार से थे। भीनमाल में कई विदेशियों को जैन अथवा हिन्दू समाज में दीक्षित करने का प्रशंसनीय कार्य का उल्लेख मिलता है। राज इति. प्र.भा. द्वि.सं.ले.डा. गोपीनाथशर्मा पृ.२६।। इसके मूलमें जो कि भारतीय या हिन्दू दर्शन है, इसे भिन्न मानना संकीर्णता ही नहीं बल्कि हमारी नैतिक व ऐतिहासिक भूल होगी। क्योंकि हमारे चौबीस तीर्थंकर का अवतरण
जिसके पास सत्य, अहिंसा, मैत्री, सहिष्णुता आदि अमोष अस्त्र-शस्त्र है, वह ही त्रिलोकजयी हो सकता हैं।
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