Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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पर और बाहर समाज में अहिंसा के उपकरण उससे छए नहीं जा रहे हैं। इसलिए हम अपनी-अपनी अहिंसा लेकर, रसोईघर में चले गये हैं या मन्दिर में जा बैठे हैं और उधर जीवन को खुले हाट-बाजार में होड़, स्पर्धा, स्वार्थ, अहंकार, शोषण, आपाधापी, भय, अन्याय और क्रूरता के हवाले कर दिया है। ये सब हिंसा के ब्रीडिंग ग्राउण्ड-उपज स्थान है। बात यह है कि जिन बातों को समाज में हमने प्रतिष्ठित किया है, उनसे हिंसा उपज रही है। हमारे सामाजिक प्रतिष्ठा-प्रतिमान अहिंसा से मेल नहीं खाते। वस्तुओं के कारण, सत्ता के कारण, धन के कारण जो शरीर-सुख, सन्तुष्टि और सम्मान हमें समाज में प्राप्त होता है वही हमारा सिरमौर बन गया है। दोनों हाथ लड्डू-आरामदेह जिन्दगी भी और यश भी। लेकिन इसी आरामदेह प्रतिष्ठित जिन्दगी के लिए जिन उपकरणों का सहारा हम ले रहे हैं वे हिंसा की एक अटूट श्रृंखला अपने साथ ले आये हैं और मनुष्य खुद ही आगे बढ़कर हिंसा के विषम-चक्र में फँस गया है। __ इस अर्थ में जितनी अहिंसा मनुष्य के हाथ लगी वह बहुत छोटी साबित हो रही है। हमारी रसोई घर की अहिंसा सफल होकर इतना ही तो कर पायगी कि मनुष्य की पूरी की पूरी जमात शाकाहारी बन जाय और जीव-दया पालने लगे। दूसरी और, सम्पूर्ण क्रूरताओं, अन्यायों, अत्याचारों के वैसा ही चलने देकर हम एक ऐसा मानव समाज रच लेंगे जो अपने-आप में शाकाहारी हिंसक समाज कहलायेगा।
इस तरह अहिंसा नही उगेगी। अहिंसा की दृष्टि से आज का युग बहुत नाजुक और चुनौती भरा है। अनजाने ही हम हिंसा के एक बड़े आरबिट-घेरे में दुलक गये हैं, तथा रोज गहरे धैंसते जा रहे हैं। प्रश्न यह पैदा हुआ है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सम्बन्ध अहिंसा आधारित कैसे हों? बहुत अजीब प्रश्न है-मनुष्य को सर्वप्रथम आपस में ही अहिंसा जीनी है और अहिंसा सिद्ध करनी है। सृष्टि का सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी अपने आपसी सम्बन्धों में एक प्रश्न चिन्ह बन गया है। समाजबोध __ अब हमें समाजबोध की जरुरत है। आत्मबोध अकेला काम नहीं देगा। मनुष्य ने अच्छी तरह समझा है कि यदि वह हारता है तो अपनी ही तृष्णा से हारता है, उसका वैर ही उसको पछाड़ता है। मेरा पशुबल आपके आत्मबल के आगे हिम्मत हार जायगा। भारत ने यह करिश्मा करके दिखलाया है-नंगी खुली छातियों पर अंग्रेजी हुकूमत की गोलियाँ बेमाने हो गयी थीं। यह जो दिलेरी से कष्ट सह जाने की और वीरता के साथ अन्याय के मुकाबले डटकर खड़ा हो जाने की भीतरी ताकत है उसके आगे बन्दूक की कोई हस्ती ही नहीं। मनुष्य के पास प्रेम की, करुणा की, संवेदना की, क्षमा की, त्याग की और कष्ट-सहन की जो ताकत है वह अनन्त गुनी है और उसके सामने शरीर का पशुबल कोई अर्थ नहीं रखता।
इतो अनत्तगुनी शक्ति का मालिक मनुष्य समाज-जीवन में बहुत पंगु बन गया है। वह अपना आत्मबल आजमा ही नहीं पाया। अहिंसा जीनी है तो अब समाज के रोजमर्रा के प्रतिपल-प्रतिक्षण के जीवन में जीनी होगी। देवालयों में तो हमने बहुत अहिंसा साधली और रसोईघर की अहिंसा के लिए भी हम बहुत सजाग हैं, पर समाज जीवन में हमने धन की सत्ता स्वीकार ली है, व्यापार-व्यवसाय के शोषण-अन्याय-अत्याचार के साथ समझौता कर लिया है, हुकूमत की मनमानी के आगे घुटने टेक दिए हैं-इस कारण मनुष्य की दिशा ही बदल गई है। उसका सामाजिक जीवन हिंसा आधारित हो गया है।
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उस भूमि को नमन करो जिस स्थान पर गर्व का खंडन हुआ हो, ज्ञान की ज्योति प्रगटी हो, वह स्थल ही तो सचा तीर्थ है।
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