Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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त्वचादिके माध्यम से भी आहार ग्रहण करने लगती है। यही कारण है कि गर्भ में पल रहा शिशु शीतलता आदि संवेदनाओं को ग्रहण करता है और उसीके अनुरुप अपने मनोभावों को भी व्यक्त करता है। अर्थात अगर यह शीतलता उसके अनुरुप है तो वह प्रसन्न होता है और विपरीत होने पर अप्रसन्न होता है। अर्थात् वह लोमाहार क्रिया द्वारा आहार ग्रहण करता है। लेकिन हम यह भी जानते है कि यही विकसित शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो अपना आहार कवलाहार के रुप में भी लेता है। अर्थात गर्भस्थ शिशु जब अपर्याप्त अवस्था में रहता है तो ओजाहारी होता है विकास की अवस्था में आ जाने के बाद ओजाहारी और लोमाहारी दोनों प्रक्रियाओं से आहार लेता है। जब वह गर्भ से बाहर निकल आता है उस समय वह लोमाहारी एवं कवलाहारी दोनों ही विधि से आहार लेता है। तात्पर्य यह है कि पशु या मानव तीनों ही विधियों से आहार लेते है।
वनस्पति ओजाहार एवं लोमाहार के रुप में जीवन पर्यंत आहार लेते है । क्योंकि वनस्पति जड से जलीय घोल को सोखते है तथा पत्तियों, तनाओं आदि के द्वारा गैसो का शोषण करते है ये क्रमश: लोमाहार एवं ओजाहार विधि द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार होता है । अत: यह स्पष्ट हो गया कि अपर्याप्त जीव ओजाहारी है । विकसीत जीव ओजाहारी, लोमाहारी तथा लोमाहारी कवलाहारी है। वनस्पति लोमाहारी एवं ओजाहारी है ।
जैन दर्शन में प्रतिपादित नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चतुर्गतियों का निर्धारण किया गया है । इनमें से देवता और नारकी कवलाहारी नहीं है तथा तिर्यंच और मनुष्य कवलाहारी हैं बिना कवलाहार लिए इनका शरीर नहीं टिक सकता है क्योंकि ये औदारिक शरीरी है और औदारिक शरीर को टिकाए रखने के लिए कवलाहार आवश्यक है । पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी कवलाहारी नहीं हो सकते क्योंकि इन्हें मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श की होती है और यह स्पर्श त्वचा के द्वारा ही होता है । त्वचा के द्वारा लोमाहार ही संभव है । अत: ये या तो ओजाहारी हो सकते है या लोमाहारी या दोनों। वनस्पति के बारे में तो यह पूर्व में ही बता दिया गया है कि ये ओजाहारी एवं लोमाहारी साथ साथ है । जैसा कि विज्ञान का मत है कि जीव जो भी आहार लेता है उसका पाचन होता है और इस क्रिया के फलस्वरुप जो पाचन रस बनते है उन सबका शोषण त्वचा द्वारा ही होता है । अत: इस रुप में तो प्रत्येक जीव लोमाहारी ही है । प्रत्येक जीव के लिए श्वसन क्रिया एक आवश्यक प्रक्रिया है और यह निरंतर चलता रहता है तथा यह वायु के रुप में हमारे चारों तरफ है उपस्थित है । इस वायु का ग्रहण त्वचा के तथा नासिका द्वारा होता है । त्वचा के द्वारा होने पर यह लोमाहार है । लेकिन जीव की उत्पति-स्थान के चारों तरफ जो वायु फैली है वह 'ओज' हुई और जीव निरंतर इस ओज का उपयोग करता है । अत: वह ओजाहारी भी हुआ । कहने का अर्थ यह हुआ कि सामान्य रुप से सभी जीव ओजाहारी एवं लोमाहारी है । कुछ भिन्नता है तो वह कवलाहार को लेकर लेकिन इसे भी स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि औदारिक शरीर धारी जीव अपना आहार कवलाहार के रुप में लेते है और इस कोटिमें तिथंच और मनुष्य आ जाते है।
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वेदना या दु:ख का पान करने वाले अन्य को वेदना या दुःख दे ही नहीं सकते।
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