Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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भाग स्टार्च, कुछ कार्बोहाइड्रेट, कुछ प्रोटीन आदि में बदल जाता है।
मेंढक, छिपकली आदि कुछ ऐसे जन्तु है जो अपने शरीर का तापक्रम बाह्य तापक्रम के घट-बढ़ के अनुसार बदल नहीं पाते हैं। विशेषकर मेंढक तो ताप के मामले में अत्यंत संवेदनशील प्राणी है। जीव-वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके शरीर का तापक्रम बाह्य तापक्रम के समान हो जाता है अर्थात् अगर वातावरण का तापक्रम 00 हो जाए तो इसके शरीर का तापक्रम भी 0°c हो जाएगा तात्पर्य यह है कि इसका शरीर बर्फ का गोला बन सकता है बर्फ 0.c सेंटीग्रेड पर बनता है) और ऐसी स्थिति में उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसी प्रकार जब बाह्य वातावरण का तापक्रम अधिक होता है तब उसके शरीर का भी तापक्रम अधिक हो जाता है और ऐसी स्थिति में भी उसकी मृत्यु हो जाएगी। क्योंकि अधिक तापक्रम हो जाने पर उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग जल सकते हैं। अत: इन दोनों ही स्थिति से बचने के लिए मेंढक शीत और ग्रीष्म निष्क्रियता (Cold and Summer Hibernation) की स्थिति में आ जाता है। निष्क्रियता की इन दोनों ही स्थिति में मेंढक अपने शरीर को जमीन के नीचे छिपा लेता है और शांत होकर पड़ा रहता है। इस स्थिति में वह बाह्य वातावरण से भोजन नहीं ले पाता है। लेकिन जीवन रक्षण के लिए उसे आहार की आवश्यकता होती अवश्य है, इसकी पूर्ति यकृत में संग्रहीत वसा तत्त्व करता है। यह वसा तत्व धीरे-धीरे धुलता जाता है और मेंढक के शरीर रक्षण हेतु आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता रहता है। अत: यह प्रक्रिया भी ओजाहार ग्रहण करने का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है।
२. रोमाहार - जो आहार त्वचा या रोमकूप द्वारा ग्रहण किया जाता है उसे रोमाहार कहा जाता है। इसे लोमाहार भी कहा जाता है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में कहा गया है कि शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद जो प्राणी बाहर की त्वचा या रोम छिद्रों द्वारा आहार ग्रहण करते हैं, उनका वह आहार लोमाहार है। त्वचा द्वारा जब भी आहार किया जाएगा तो आहार का स्पर्श अवश्य होगा क्योंकि त्वचा स्पर्शेन्द्रिय है और स्पर्श की अनुभूति (यथा चिकना, रुक्षादि) करना इसका स्वभाव है। अत: रोमाहार के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि त्वचा या रोमों द्वारा स्पर्शपूर्वक लिया जानेवाला आहार रोमाहार है।
जीव वैज्ञानिकों की यह धारणा है कि बहुत से छोटे - बड़े जीव रोमाहार प्रक्रिया द्वारा ही आहार लेते हैं। मनुष्य, पशु श्वास-प्रश्वास के रूप में गैसों का जो आदान प्रदान करते हैं वह वस्तुत: रोमाहार का ही एक रूप है। छोटे-छोटे जीव जो त्वचा की सहायता से ही अपने आहार को सोख कर ग्रहण करते हैं वे भी रोमाहारी ही हैं। श्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त भी मनुष्य, पशु निरंतर वायुमंडल से वायु का शोषण करते रहते हैं और उसकी इस प्रक्रिया में उसके असंख्य रोम कूप सहायक होते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि मनुष्य अपनी त्वचा को जल तथा अन्य कई विधियों से स्वच्छ रखने का प्रयास करता है। इन सबका मुख्य प्रयोजन बन्द रोमकूपों का खोलना है। पशु भी नदी आदि मे तैरकर स्वयं अपने शरीर को साफ रखते है तथा उन्हें पालने वाले व्यक्ति भी उनकी सफाई का ध्यान रखते हैं। इन्हें साफ रखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इन्हीं छिद्रो द्वारा शरीर के अंदर की गर्मी तथा अन्य
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अनशन महान तप हैं। यह तप केवल अन्न जल के त्याग में ही समाप्त नहीं होता।
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